दूध बाजार चैनल संरचना | Milk Market Channel Structure in Hindi.

दूध में लगभग 300 लाख उत्पादक ग्रामीण क्षेत्रों में तथा लगभग 5 लाख उत्पादक में दूध का उत्पादन अधिकतर अपने उपभोग के लिए किया जाता था । परन्तु वर्तमान में दुग्ध उत्पादन को भारतीय जनता ने एक व्यापारिक व्यवसाय के रूप में अपनाना शुरू किया है ।

उत्पादक ही नहीं, अन्य बहुत से परिवार किसी न किसी रूप में दुग्ध उद्योग साथ जुडे हुए हैं । ये अभिकृता या कार्यकर्ता (Agents) दूध के एकत्रीकरण, परिवहन, प्रसंस्करण एवं वितरण आदि कार्यों में लगे हुए हैं ।

इस प्रकार से दुग्ध व्यवसाय में नियोजित विभिन्न अभिकृता निम्नलिखित प्रकार से हैं:

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1. दुग्ध उत्पादक (Milk Producers)

2. अन्य अभिकृता (Agents other Than Milk Producers)

(i) दूधिया (Milk Vendors)

(ii) हलवाई (Sweet Maker)

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(iii) सहकारी प्रणाली (Cooperative System)

(iv) वैयक्तिक उद्योगपति (Private Industrialist)

1. दुग्ध उत्पादक (Milk Producers):

दुग्ध उत्पादक 3 प्रकार के होते है:

i. ग्रामीण दुग्धोत्पादक (Village Milk Producers):

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ये गाँवों में अपनी खेती बाडी के साथ-साथ एक-दो पशु रख कर मिश्रित फार्मिग सिद्धान्त के अर्न्तगत दुग्ध उत्पादन का भा करते हैं । इन कृपको में अधिकतर केवल दुग्ध उत्पादन का कार्य ही सम्पन्न करते व कुछ वितरण कार्य में भी संलग्न पाये जाते है ।

ये लोग विपणित दुग्ध व्यवसाय में निम्नलिखित प्रकार से अभियोजित रहते हैं तथा अपने उत्पाद को उपभाक्ताओं में विपरित करते हैं:

a. शहर के नजदीक वाले गांवों के उत्पादक दूध का उत्पादन कर स्वयं ही शहर जाकर गृह आपूर्ति (Home Supply) द्वारा दूध का वितरण उपभोक्ताओं में करते है । ये अपने दूध को दूधिया की अपेक्षा कुछ अधिक कीमत पर बेचते है ।

b. गाँव के कुछ उत्पादक अपना दूध शहर में ले जाकर घर-घर वितरित न करके एक साथ सारा दूध किसी हलवाई या डेरी को बेचते है । इनको प्रथम श्रेणी के उत्पादकों की तुलना में कुछ कम कीमत प्राप्त होती हैं ।

c. जो गाँव शहर के अधिक पास होते है उनके उत्पादक शहरी उपभोक्ताओं को अपना ग्राहक बना लेते हैं । तथा शहरी उपभोक्ता समय पर गाव में जा कर अपने सामने पशु का दूध निकलवा कर लाता है । इस वर्ग के उत्पाद की को दूध का मूल्य काफी अच्छा मिल जाता है ।

तथा साथ ही उपभोक्ताओं को शुद्ध दूध प्राप्त हो जाता है । जबकि हलवाई, दुधिया या किसी निजी डेरी से दूध खरीदने पर उपभोक्ताओं को मिलावट (Adulteration) की सम्भावना रहती है ।

d. दुग्ध उत्पादक अपने घर के उपभोग से बचा फालतू दूध गाव में ही दुधियों को बेच देते है । दूधिया इस दूध की शहर ले जाकर अपने ग्राहकों को वितरित करते हैं । इसमें उत्पादकों को दूध का मूल्य कम मिलता है तथा दूधिया दूध में मिलावट भी कर देते हैं ।

e. आजकल दूध के संग्रहण तथा वितरण कार्य में कुछ वैयक्तिक, सहकारी व सरकारी तन्त्र संलग्न है । सहकारी तन्त्र, गांव में उत्पादकों की समिति बनाकर दूध एकत्रीकरण का कार्य कराते हैं । संघ उस एकत्रित दूघ को संसाधित करके वितरण करते हैं ।

सरकारी तंत्र शहरी दुग्ध आपूर्ति योजना (City Milk Supply Scheme) के अन्तर्गत कार्य कर रहे है । गाँवों में संग्रह केन्द्र तथा प्रशीतन केन्द्र बनाकर एकत्रित दूध को शहर में ला कर प्रसंस्करित करके वितरित करते हैं । वैयक्तिक उद्योगपति भी दूध का कार्य सरकारी तम की भांति योजनाबद्ध विधि से करते हैं ।

ii. डेरी फार्म उत्पादक (Dairy Farm Producers):

देश के सरकारी व गैर-सरकारी दुग्ध उत्पादक फार्म पर दुग्ध उत्पादन कर डेरी उद्योग को सहयोग दे रहे हैं । ये आमतौर पर हस्पतालों, सेना या होटलों आदि को अपना दूध सप्लाई करते हैं । ये अपने दुग्ध वितरण केन्द्रों (Milk Depots) द्वारा दूध की खुदरा (Retail) बिक्री भी करते है । सैनिक दुग्ध फार्म (Military Dairy Farm) केवल सेना की दुग्ध आपूर्ति के लिए स्थापित किये गये है ।

2. दुग्ध उत्पादक के अन्य अभिकृता (Agents other than Milk Producers):

इस वर्ग में दुग्ध उद्योग के वे सब अभियोजित अभिकृता (Engaged Agencies) आते हैं, जो उत्पादन तो नहीं करते परन्तु किसी न किसी रूप में दुग्ध उद्योग में लगे हुए हैं ।

ये कार्यकर्ता निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं:

I. दुधिया (Milk Vendors):

ये छोटे पैमाने पर दूध का कार्य करके अपना जीवन यापन करते हैं । ये गाँव से कम कीमत पर दूध खरीद कर, शहर में लाकर कुछ अधिक कीमत पर बेच देते है । इनका उद्देश्य केवल लाभ कमाना होता है । अतः कभी-कभी ये दूध का आयतन बढाने के लिए कुछ सस्ते पदार्थों की मिलावट भी करते हैं या दूध में से बहुमूल्य पदार्थ (वसा) क्रीम पृथक्कीकरण द्वारा निकाल लेते हैं ।

ये ग्रामीण उत्पादकों को पशु खरीद में या अन्य आवश्यकता पूरी करने के लिए कुछ अग्रिम धन या ऋण भी देते रहते हैं ताकि उत्पादक अपने पशु से उत्पादित दूध केवल उसी को तथा कुछ कम दाम पर देता रहे । दूधिया, दूध का परिवहन सामान्यतया साइकिलों द्वारा करते हैं । ये प्राप्त दूध में से क्रीम निकाल कर घी व सप्रेटा दूध से मना या खोआ बना कर भी लाभ कमाते हैं ।

II. हलवाई (Sweet Maker):

ये गांव में दूध खरीदने नहीं जाते है । इनकी दूध की आपूर्ति उत्पादक स्वयं या दूधिया द्वारा की जाती है । ये खरीदे गए दूध को मुख्य रूप से मिठाइयाँ बनाने करते तथा फालतू दूध से कुछ क्रीम निकाल कर गर्म या ठण्डा ऊँची कीमत स्थानीय उपभोक्ताओं को वितरित करते हैं । क्रीम का प्रयोग घी बनाने में किया जाता है ।

III. सहकारी तन्त्र (Cooperative System):

सहकारी तन्त्र का अर्थ उस संगठन से है जो किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए उसी व्यवसाय से सम्बन्धित बनाया जाता है । ये अपने उत्पाद का संसाधन व वितरण स्वयं करते हैं । देश में दुग्ध उत्पादन के बड़े-बड़े फार्म कम हैं तथा दूध का उत्पादन गाँवों में सामान्य रूप से एक या दो पशु रखकर छोटे किसानों द्वारा किया जाता है ।

इस उत्पादित दूध को संग्रह करने तथा उचित समय पर उपभोक्ता तक पहुँचाने के साधन भी व्यक्तिगत तौर पर किसानों के पास उपलब्ध नहीं होते । दूध उद्योग में लगे मध्यस्थ अभिकर्ता किसानों की इस मजबूरी का लाभ उठाकर उनका मेहनत से उत्पन्न किया गया उत्पाद कम कीमत पर खरीदते हैं ।

अतः दुग्ध उत्पादन का पर्याप्त लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि प्रसंस्करण व वितरण के साधन भी विकसित किये जाये अब चूँकि व्यक्तिगत उत्पादक के लिए यह सम्भव नहीं है अतः बहुत से उत्पादक मिलकर एक संगठन बना लेते हैं और सामूहिक रूप से संग्रहण, प्रसंस्करण व वितरण के साधन सहकारिता के आधार पर विकसित कर सकते हैं ।

इस विचार के साथ ही सहकारिता का प्रादुर्भाव हुआ है । सहकारिता का लाभ उत्पादक व उपभोक्ता दोनों को पहुँचता है । इससे उपभोक्ता को उचित दाम पर अच्छी गुणवत्ता वाला शुद्ध दूध उपलब्ध हो जाता है साथ-साथ उत्पादक को अपने उत्पाद का उचित मूल्य भी मिल जाता है क्योंकि इस प्रणाली में बाजार के मध्यस्थों के द्वारा दूध का विपणन नहीं होता है तथा मध्यजनों की संख्या नरम होने से दूध के ऊपर होने वाला परिव्यय तथा मध्यजनों का मुनाफा कम हो जाता है ।

सन् 1940 के मध्य तक दूग्ध उत्पादकों की कोई सहकारिता नहीं थी । बम्बई में एक अंग्रेज व्यापारी पालसन द्वारा चलाई जा रही ‘पालसन डेरी’ काम कर रही थी । पालसन गुजरात के कैरा (Kaira) जिले से दूध एकत्र करके बम्बई में बेचता था तथा दुग्ध पदार्थों का उत्पादन करता था इस प्रकार उस समय दुग्ध बाजार पर उसका वहीं पर एकाधिकार बना रहा ।

सन् 1940 के शुरू में कैरा जिले में सुखा पड़ा । पशुओं के लिए चारा, दाना तथा यहाँ तक कि पानी की भी कमी होकर दुग्ध उत्पादन कम हो गया तथा दुग्ध उत्पादन परिव्यय बढ गया । पालसन डेरी ने किसानों के लिए उनके दूध की क्रय दर को नहीं बढाया तथा उपभोक्ताओं के लिए भाव बढा कर अपना मुनाफा बड़ा लिया ।

किसानों की आमदनी घट गई । वे परेशानी में पड गये कि दूध का बिना बेचे काम नहीं चलेगा क्योंकि दुग्ध उत्पादन उनका आय का मुख्य साधन था । दुग्ध उत्पादन में उनका लगातार घाटा बढता चला गया । सभी उत्पादक एकत्र होकर स्व. सरदार बल्लभ भाई पटेल से मिले जिन्होंने उन्हें सर्वप्रथम सहकारिता का विचार दिया तथा सहकारी समितिया बनाने के लिए उमेरित किया ।

प्रारम्भ में कैरा जिले के पाँच गाँवों में यह योजना चली तथा उन्होंने अपना दूध स्वयं एकत्र कर शहरी क्षेत्रों में भेजना प्रारम्भ कर दिया । इनके दूध की गुणवत्ता पालसन डेरी के दूध की गुणवत्ता से अच्छी थी तथा कीमत लगभग समान थी । अतः बाजार में सहकारी समिति के दूध की मांग बढ़ी ।

किसानों को सहकारिता बनाने से लाभ मिला तथा अपना दूध पास के शहरी क्षेत्र बेचने के साथ बम्बई भेजना भी प्रारम्भ कर दिया । लाभ में उतरोत्तर वृद्धि देख कर सहकारी संगठन में सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ने लगी । कुछ समय बाद ही सहकारी समितियों के कारण पालसन को अपनी डेरी बन्द करनी पड़ी क्योंकि उसके दूध की मांग लगभग बन्द हो गई थी ।

वर्तमान संगठन (Present Set Up):

सहकारिता, व्यवसाय विशेष के विभिन्न कार्यों को आपसी सहयोग के साथ करने के लिए बनाया गया एक उद्देश्य पूर्ण संगठन है । इसका लाभ सभी सदस्यों को समान रूप से होता है भारत सरकार द्वारा सहकारी समिति अधिनियम 1912 (Co-Operative Society Act 1912) के स्थापित होने के बाद दुग्ध सहकारी समितियों की स्थापना विभिन्न राज्यों में की गयी ।

उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम 1913 में इलाहाबाद में ‘सहकारी डेरी लिमिटिड कटरा’ स्थापित की गयी । लखनऊ में 1931 में ‘सहकारी दुग्ध संघ’ की स्थापना हुई इसके बाद इलाहाबाद शहर के लिए दुग्ध संघ (Allahabad Milk Union) की स्थापना की गयी ।

दुग्ध व्यवसाय में तीन तरह की सहकारिताएं हैं:

i. दुग्ध उत्पादक सहकारिता (Milk Producer’s Cooperatives)

ii. दुग्ध विक्रय सहकारिता (Milk Distributor’s Cooperatives)

iii. दुग्ध उपभोक्ता सहकारिता (Milk Consumer’s Cooperatives)

दुग्ध उत्पादक सहकारी संघों का विकास गुजरात के जिला आनन्द में सर्वाधिक हुआ ।

वहाँ पर सहकारिता को 3 स्तरों पर संगठित किया गया:

1. गाँव के स्तर पर सहकारी समितियाँ ।

2. जिला स्तर पर दुग्ध संघ/तथा

3. राज्य स्तर पर दुग्ध फैडरेशन्स ।

अब देश के अनेक राज्यों में आनन्द पद्धति समितियाँ (Anand Pattern Societies) विकसित हो चुकी हैं । उत्तर प्रदेश में भी सहकारिता बहुत अच्छा कार्य कर रही है ।

ये तीनों स्तरों के संगठन निम्नलिखित प्रकार से बनाये जाते है:

1. दुग्ध उत्पादकों की सहकारी समितियाँ (Milk Producers Cooperative Societies):

गांव के दुग्ध उत्पादक आपस में मिलकर एक सहकारी समिति का निर्माण करते है । प्रबन्ध समिति में 9 सदस्य होते हैं जिनमें अध्यक्ष एक वर्ष के लिए निर्वाचित होता है । प्रबन्ध समिति द्वारा एक सचिव का निर्वाचन या नियुक्ति की जाती है जिसका कार्य समिति स्तर के सभी रिकार्ड रखना, दूध की गुणवत्ता का परीक्षण करना, उत्पाद की को दूध के मूल्य का भुगतान करना, संघ (Milk Union) द्वारा दी जा रही सही तकनीकी सहायता उत्पादकों तक सही समय पर पहुँचाना तथा समिति के प्रतिदिन के कार्यों का निरिक्षण करना होता है ।

समिति का सचिव पूर्णकालिक तथा वेतनभोगी होता है तथा उसे यदि अपने कार्य में अतिरिक्त व्यक्ति की आवश्यकता होती है तो उसकी नियुक्ति भी की जाती है ।

2. दुग्ध संघ (Milk Union):

स्तर पर, गांव स्तर की समितियाँ मिलकर दुग्ध संघ का निर्माण करती है । प्रत्येक समिति संघ में एक हिस्सा (Share) खरीदती है । संघ के संचालन के लिए 9 सदस्यों का निर्वाचित बोर्ड होता है जो बाद में अपना एक अध्यक्ष (Chairman) चुनते हैं । सामान्यतया दुग्ध संघ के पास एक दुग्ध प्रसंस्करण संयंत्र (Milk Processing Plant) तथा एक पशु खाद्य उत्पादन प्लांट होना है ।

ये दुग्ध उत्पाद की को कुछ तकनीकी सहायता (Technical Input) भी प्रदान करते हैं । जैसे कृत्रिम गर्भाधान (Artificial Insemination), पशु स्वास्थ रक्षा (Animal Health Care) आदि । जिला स्तर पर दुग्ध संघ, समिति के दुग्ध संकलन केन्द्र से दुग्ध प्रसंस्करण/अवशीतलन संयन्त्र तक दूध के परिवहन का प्रबन्ध करता है । यह शहरी क्षेत्रों में तरल दुग्ध विपणन का Fluid Milk Marketing का कार्य भी सम्पन्न करता है ।

3. दुग्घ फैडरेशन (Milk Federation):

यह राज्य स्तर पर विभिन्न संधों में से द्वारा बने निर्देशक परिषद (Board of Directors) का एक शीर्ष संघ (Apex Body) होता है । निर्वाचित अध्यक्ष बोर्ड की अध्यक्षता करता है । इस स्तर पर नीतिगत निर्णय (Policy Decision) लिये जाते हैं ।

फैडरेशन, संघ के कार्यों में सहयोग देता है वे संघ पास दुग्ध प्रसस्करण के लिए संयंत्र नहीं होते है फैडरेशन उनके उस दूध को राज्य के अन्दर SMG (State Milk Grid) योजना के अन्तर्गत दूसरे संघों के पास प्रसंस्करण के लिए भेजने का निर्णय लेकर दोनों संघों को निर्देशित करती है ।

राज्य फैडरेशन यह भी ज़िम्मेदारी लेती है कि प्रदेश का फालतू दूध (Surplus Milk) N.M.G. (National Milk Grid) योजना के अन्तर्गत NCDFI (National Cooperative Dairy Federation of India) की सहायता से दूसरे राज्यों, जहाँ पर दूध की कमी होती है, भेजने का कार्य सम्पन्न किया जाए ।

राज्य में श्वेत क्रान्ति (Operation Flood) जैसे अन्य डेरी विकास के कार्यक्रमों को लागू करना भी राज्य फैड़रेशन का ही कार्य है । दुग्ध संघों को आर्थिक सहायता देना दूध तथा दुग्ध पदार्थों का प्रदेश में तथा प्रदेश से बाहर विपणन, तथा तकनीकी कार्यों (Technical Inputs) जैसे वीर्य बैंक (Semen Bank), Bull Mother Farm तथा तरल नाइट्रोजन संयंत्र आदि का प्रबन्ध करना भी फैडरेशन के क्षेत्र में ही आता है ।

सहकारिता के विकास में बाधाएं:

वर्तमान समय में देश में सहकारिता के विकास में कुछ बाधाएं आ रही हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:

(i) दूध का मुख्य उत्पादन गांव में छोटे किसानों द्वारा कम मात्रा में होता है ।

(ii) आज उपभोक्ता सस्ता पदार्थ चाहता है तथा पदार्थ की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान नहीं देता । वह गरीब होने के कारण दूध में मिलावट करके सस्ते दामों पर बेचने वाले दूधियों, हलवाइयों तथा छोटे व्यापारियों से कम कीमत पर दूध खरीदने को वरीयता प्रदान करता है ।

इसका एक कारण गरीबी के साथ-साथ उपभोक्ता को दूध के गुणों के सम्बन्ध में प्रयाप्त ज्ञान की कमी भी है । संघों को मिलावट करने वाले फुटकर विक्रेता से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है तथा अन्तिम रूप में संघ को आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है ।

(iii) दूधिया दूध में मिलावट करके अनैतिक तथा अवैधानिक रूप से अधिक लाभ कमाते है तथा किसानों को तुच्छ लालच देकर संघ की तुलना में उनके द्वारा उत्पादित दूध की अधिक मात्रा खरीद लेते हैं । अधिकतर किसान अभी भी अनपढ या कम पड़े लिखे है । उसे दुग्ध रथों से होने वाले पूरे लाभों की या तो जानकारी नहीं है या उसके ज्ञान से बाहर है ।

अतः वह दूधिया द्वारा दिखावटी रूप में दिये गये प्रलोभनों द्वारा भ्रम में आकर अपने दारा उत्पादित दूध को उसे बेच देता है जबकि अन्तिम रूप में उसे हानि उठानी पडती है । अतः किसानों को सहकारिता के विषय में अधिकतम जानकारी देने की आवश्यकता है ।

(iv) दुग्ध उत्पाद प्रक्षेत्र (गांवों) से संघ के संयन्त्र तक दूध के परिवहन तथा उसके प्रसंस्करण से उसके मूल्य में वृद्धि हो जाती है । अतः उपभोक्ता संघ के अधिक मूल्य वाले प्रसंस्करित तथा सुरक्षित दूध के स्थान पर दूधिया से सस्ता कच्चा दूध खरीदने को वरीयता प्रदान करता है । क्योंकि दूध के उपयोग पूर्व उपभोक्ता द्वारा दूध को उबालने की परम्परा है चाहे वह किसी भी स्रोत से प्राप्त किया गया हो ।

4. वैयक्तिक उद्योगपति (Private Industrialist):

बहुत से उद्योगपति भी दुग्ध उद्योग में संलग्न हैं । ये गाँवों से दूध एकत्र करा कर या दूधियों से खरीद कर, उसका प्रसंस्करण करके या दुग्ध पदार्थों में परिवर्तित करके उपभोक्ताओं में वितरित करते हैं । इस प्रकार के संयंत्र बड़े-बड़े शहरों में काफी बड़ी संख्या में देखने को मिलते है ।

ग्रामीण क्षेत्रों के कस्बों में इनके अवशीतन केन्द्र (Chilling Centre) है जहाँ पर गाँव का दूध एकत्र करके ठण्डा कर लिया जाता ताकि खराब न हो तथा दूध को ठीक अवस्था में टैंकर्स द्वारा संयंत्र तक भेजा जाता है । इन उद्योगपतियों का उद्देश्य लाभ कमाना होता है जबकि सहकारी क्षेत्र में उद्योगों का उद्देश्य बिना लाभ-हानि के जनता की सेवा करना प्रमुख है ।

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