दूध की संरचना: 3 कारक | Read this article in Hindi to learn about the animal, milker and environmental factors affecting the composition of milk.

दूध के विभिन्न नमूनों का संगठन सर्वदा समान नहीं पाया जाता है । भले ही वे नमूने एक ही पशु के दूध के क्यों न हों । दूध के अवयवों में सबसे अधिक भिन्नता दर्शाने वाला संघटक वसा है । शेष संघटकों में क्रमानुसार भिन्नता प्रोटीन, लैक्टोज तथा खनिज पदार्थ दर्शाते हैं ।

इन संघटकों को मात्रात्मक या गुणात्मक रूप से प्रभावित करने वाले कारकों को तीन वर्गों में बांट सकते हैं:

1. पशु से सम्बन्धित कारक (Animal Factor)

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2. दोहक से सम्बन्धित कारक (Milker Factor)

3. वातावरणीय कारक (Environmental Factor)

1. पशु से सम्बन्धित कारक (Factors Related to Animals):

i. पशु की जाति (Species of Animal):

सभी स्तनधारियों के दूध के संगठन में भिन्नता पायी जाती है । डेरी पशुओं (गाय, भैस, भेड़ तथा बकरी) के दूध में मुख्य भिन्नता वसा संघटक में पायी जाती है । भैस व भेंड के दूध में वसा की मात्रा गाय व बकरी के दूध से अधिक होती है ।

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ii. पशु की नस्ल (Breed of Animal):

गाय, भैंस तथा बकरी की विभिन्न नस्लों के दूध में विभिन्न ठोस अव्यवों की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है जैसे भदावरी भैंस के दूध में वसा मुर्रा भैंस के दूध में वसा की अपेक्षा अधिक पायी जाती है । दूध की वसा की मात्रा पशु का दुग्ध उत्पादन बढ़ने पर घटती है । अतः जिन नस्लों की उत्पादकता अधिक होती है उनके दूध में वसा प्रतिशत व कुल ठोस अपेक्षाकृत कम पाये जाते है ।

iii. पशु का स्वभाव (Animal Behaviour):

एक ही पशु के दूध में भी, विभिन्न नमूनों में संघटकों की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है । यह भिन्नता व्यक्तिगत पशु के स्वभाव तथा उसके भौतिक व दैहिक वातावरण से प्रभावित होती है । कुछ पशुओं में उनके स्थान परिवर्तन से उनका दुग्ध उत्पादन तथा दूध का संगठन भी प्रभावित हो जाता है ।

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iv. पशु की उम्र (Age of Animal):

पशु में प्रौढ़ अवस्था प्राप्त होने की आयु 3-6 वर्ष होती है । इस अवस्था में दूध की मात्रा एवं दूध में ठोस तत्त्वों की मात्रा दोनों में ही वृद्धि होती है । पशु की आयु 6 से 10 वर्ष होने तक स्थिरता बनी रहती है जबकि 10 वर्ष की आयु उपरान्त वसा प्रतिशत दूध में कम होने लगती है ।

v. पशु का रंग (Colour of Animal):

गहरे रंग की गायों तथा भैंस के दूध में विटामिन-डी अधिक मात्रा में पाया जाता है । गहरे रंग की त्वचा सूर्य की धूप से अल्ट्रावायलेट किरणों का अवशोषण अधिक करती है जो कोलेस्ट्रोल को Vit. D में बदलता है ।

vi. पशु का व्यायाम (Exercise of Animal):

वर्तमान पशु पालन पद्धति में पशुओं के एक ही स्थान पर बंधे रहने के कारण उचित व्यायाम नहीं हो पाता है फलस्वरूप उनका उत्पादन व दूध में ठोस तत्व अपेक्षाकृत कम पाये जाते हैं । पशु को हल्का व्यायाम देने पर उसकी पाचकता व दूध उत्पादकता दोनों में वृद्धि होती है । अधिक व्यायाम कराने से पाचकता व उत्पादकता दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

vii. पशु का आहार (Feed of Animal):

सन्तुलित आहार उत्पादकता में वृद्धि करता है । उघहार के अव्यवों में परिवर्तन से दूध में मात्रात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन होते है आहार में हरा चार, तथा काबोंहाईड्रेट की मात्रा में वृद्धि होने पर उत्पादन तथा दूध में कैरोटीन व राइबोफ्लेविन की मात्रा बढती है ।

पशु को बिनौले या नारियल की खल खिलाने पर दुग्ध वसा में सन्तृप्त वसीय अम्ल बढ़ने से वसा कणों का आकार बढता है । पशु को अल्सी की खली खिलाने से असन्तुप्त वसीय अम्लों की मात्रा वसा में बढती है । अतः घी, तेलीय बनता है । हरे चारे की मात्रा बढाने पर दूध में कैल्शियम तथा फास्फोरस की मात्रा में वृद्धि होती है ।

viii. पशु का स्वास्थ (Health of Animal):

सामान्यतया बीमारी की अवस्था में उत्पादन घटता है । थनैला बीमारी में दूध का उत्पादन तथा संगठन दोनों प्रभावित होते है । इसमें वसा, प्रोटीन तथा लैक्टोज कम होते है जबकि क्लोराईड की मात्रा बढ़ जाती है । कुछ दवाओं के उपयोग से पाचकता प्रभावित होने के कारण उत्पादन घट जाता है ।

ix. पशु के ब्यान्त की अवस्था (Stage of Lactation):

ब्यान्त की प्रारम्भिक अवस्था में लगभग प्रथम 2 माह तक दुग्ध उत्पादन बढता है एवं वसा प्रतिशत घटता है जबकि ब्यान्त की अन्तिम अवस्था में उत्पादन कम होता है तथा वसा प्रतिशत बढता है ।

x. पशु में अयन भिन्नता (Under Quarter Variation):

भैंस के अयन के अगले एवं पिछले भाग के उत्पादन में 40:60 का अनुपात होता है । जबकि गाय में इसका विपरीत पाया जाता है ।

xi. पशु में उत्तेजना (Effect of Excitement):

पशु में किसी भी कारण से उत्तेजना होने से उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । उत्तेजना के कारणों में पशु का स्वभाव एवं मदकाल प्रमुख है । दोहन के समय पूर्ण शान्ति होनी चाहिए ।

xii. पशु का आकार (Size of Animal):

सामान्य अवस्थाओं में बड़े आकार के पशु का उत्पादन छोटे आकार के पशु के उत्पादन से अधिक होता है ।

xiii. पशु द्वारा जल ग्रहण (Water Intake by Animal):

शुष्क काल में एक भाग शुष्क पदार्थ पर 36 भाग जल तथा दुग्ध काल में शुष्क पदार्थ का 5.3 गुणा जल पशु को पीना चाहिए । पशु द्वारा पी जाने वाली जल की मात्रा घटने पर उसका दुग्ध उत्पादन भी घट जाता है । प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ है कि यदि जल ग्रहण 20% बढ़ा दिया जाये तो उत्पादन 3.5% तथा उनमें वसा प्रतिशत 10.7% तक बढ़ जाती है ।

xiv. दोहन में विलम्ब का प्रभाव (Effect of Delayed Milking):

पशु मेलों में व्यापारी पशु को विक्रय हेतु लाने से पूर्व उसका दूध निकालना बन्द करके उसके अयन के बढे आकार को दर्शा कर क्रेता की धोखा देते है । अयन में दूध रुक ने पर उसमें तीव्र संगठनात्मक परिवर्तन होते हैं । अधिक विलम्ब होने पर अयन में दूध का संगठन रक्त के समान हो जाता है । इस दूध में लैक्टोज, केसीन तथा वसा की मात्रा धट जाती है जबकि क्लोराईडस व ग्लोब्यूलिन की मात्रा बढ जाती है ।

xv. मदकाल का प्रभाव (Effects of Heat):

पशु के मदकाल में होने पर उसमें उत्तेजना बढ जाने से उत्पादन में कमी तथा वसा प्रतिशत में वृद्धि दृष्टिगोचर होती है । गाय दूध को रोक (Hold-Up) भी सकती है या कम देती है ।

xvi. गर्भकाल का प्रभाव (Effect of Gestation):

पशु में गर्भकाल उसके उत्पादन को प्रभावित करता है । गर्भकाल की अन्तिम अवस्था में दूध के संगठन में तीव्र परिवर्तन होते है । गर्भ के 4 माह की अवस्था से दूध में ठोस तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है । जो क्रमशः बढती रहती है ।

xvii. हार्मोन का प्रभाव (Effect of Hormone):

पशु में दुग्ध काल (Lactation), पशु की पिट्‌यूटरी ग्रन्थि से स्रावित Prolactin हार्मोन से नियन्त्रित रहता है । यदि पशु को यह हार्मोन दिया जाये तो उसका दूध उत्पादन तथा दूध में वसा प्रतिशत बढ़ते है । थायराईड ग्रन्थि से स्रावित Thyroxin हार्मोन शरीर में उपापचय दर बढाता है जिससे दूध में वसा प्रतिशत बढती है ।

हार्मोन का अधिक बाह्य उपयोग उत्पादन को घटाता है । अण्डाशय से स्रावित Estrogen हार्मोन दूध में कुल ठोस बढाता है परन्तु उत्पादन कम करता है । इससे दूध में कुल प्रोटीन की मात्रा में वृद्धि होती है परन्तु केसीन की मात्रा स्थिर रहती है ।

2. दोहक से सम्बन्धित कारक (Factors Relating to Milker):

i. दोहक की आदतें (Habits of Milker):

दूध की उत्पादन मात्रा एवं उसका संगठन ग्वाले की आदतों से भी प्रभावित होता है । ग्वाले द्वारा अपूर्ण दोहन से दूध में गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तन होता है । यदि अंतिम दूध छोड़ दिया जाये तो उत्पादित दूध में औसत वसा प्रतिशत में कमी आती है । ग्वाले के बार-बार बदलने से दूध की उपज घटती है ।

ii. दोहन विधि एवं कुशलता (Milking Method and Efficiency):

दूध दोहन की पूर्ण हस्त विधि (First Method) पशु के लिए आरामदायक है अतः उत्पादन में वृद्धि होती है । दोहन में नियमितता रखने से भी उत्पादन बढ़ता है । अतः प्रतिदिन निश्चित समय पर ही दूध निकले । दूध 5 से 7 मिनट में निकाल ले अन्यथा Oxytoxin का प्रभाव कम होकर उत्पादन कम करेगा ।

दोहन में पूर्णता एवं नियमितता होनी चाहिए । दोहन समान गति से किया जाये तथा थनों को गीला नहीं करना चाहिए । इन बातों का ध्यान रखने से उत्पादन में वृद्धि होती है ।

iii. दोहन की बारम्बारता एवं अन्तराल (Interval & Frequency of Milking):

दोहन की बारम्बारता बढाने तथा अन्तराल घटाने पर कुल उत्पादन तथा उसमें वसा प्रतिशत बढ़ता है । पशु को प्रतिदिन दो बार की अपेक्षा तीन बार दोहन करने से इनमें 10% तक की वृद्धि आंकी गयी है ।

 

iv. पशु के साथ व्यवहार (Behaviour with Animal):

पशु के साथ प्यारपूर्ण व्यवहार करके अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है । दोहन के समय पशु के डरने से उसकी एड्रीनिल ग्रन्थि से एड्रीनेलीन हार्मोन स्रावित होकर आक्सीटोसिन हार्मोंन के प्रभाव को रोकता है अतः दूध में गुणात्मक तथा मात्रात्मक कमी आती है ।

v. दूध का आग (Portion of Milk):

दुहान के प्रथम भाग में वसा न्यूनतम मध्य भाग में औसत तथा अन्तिम भाग में अधिकतम पायी जाती है । अतः दोहक को दूध का पूर्ण रूप से दोहन करना चाहिए अन्यथा दूध में औसत वसा प्रतिशत घट जायेगी ।

3. वातावरणीय कारक (Environmental Factors):

i. मौसम (Season):

गर्मी तथा सूखे मौसम में दूध का उत्पादन तथा उसमें पाये जाने वाले वसा विहीन तत्त्व घट जाते हैं जबकि वसा प्रतिशत अप्रभावित रहता है । पशुओं में दूध का उत्पादन धूप, दिन की लम्बाई, वर्षा, सूखा तथा बादलों की गड़गड़ाहट प्रभावित करती है । दूध में वसा की अधिकतम मात्रा मई में तथा न्यूनतम मात्रा नवम्बर में रहती है ।

दूध में वसा रहित ठोस अधिकतम अक्सर तथा न्यूनतम जुलाई में पाये जाते हैं । मौसम का ताप बढने से दूध में वसा प्रतिशत घटता है जबकि पशु को धूप अधिक मिलने से दूध में कैरोटीन बढता है । पशु को हरा चारा बढाने से दूध में कैरोटीन तथा राइबोफ्लेविन की मात्रा बढ जाती है ।

 

ii. ऋतु (Weather):

गर्मी के महीनों में दूध का उत्पादन तथा उस में वसा विहीन तत्व घटते हैं जबकि वसा प्रतिशत बढता है । वर्षा ऋतु में वसा एवं वसा विहीन तत्व दोनों घटते हैं । यदि तापमान 24C से कम रखा जाये तो नमी युक्त मौसम का उत्पादन पर कम प्रभाव पड़ना है ।

iii. तापमान का प्रभाव (Effect of Temperature):

वातावरणीय ताप में अधिक उतार-चढाव, उत्पादन व संगठन दोनों को प्रभावित करते हैं । वातावरण में 35C से अधिक तथा 10C से कम ताप होने पर उत्पादन घटता है । अधिकतम दुग्ध उत्पादन के लिए 15-25C ताप सर्पोपयुक्त है ।

iv. दोहन का समय (Time of Milking):

शाम के (Evening Milk) में सुबह के दूध (Morning Milk) की अपेक्षा अधिक वसा प्रतिशत मिलता है तथा यह दूध अधिक पौष्टिक होता ।

दुग्ध अव्यवों में अन्तर-सम्बन्ध (Interrelationship between the Milk Constitutes):

शरीर क्रियात्मक रूप से दूध एवं रक्त में Isotonic साम्यता स्थापित करता है अतः दूध के अव्यव जो Osmetic Pressure में योगदान करते हैं जैसे लैक्टोज, क्लोराईड तथा सोडियम आदि में एक दूसरे के साथ मात्रात्मक सम्बन्ध होते हैं वसा पूर्णतया स्वतन्त्र अव्यव है यह अन्य ठोस के साथ मात्रात्मक सम्बन्ध नहीं रखता है ।

दूध के विभिन्न ठोस अव्यवों में तीन तरह से संबधता देख सकते हैं:

1. वसा एवं वसा रहित ठोस चित्र (Fat and Solids Not Fat):

प्रोटीन तथा वसा की मात्रा में धनात्मक सम्बन्ध मिलता है जबकि लैक्टोज स्थिर रहता है । फलस्वरूप दूध में वसा प्रतिशत बढने पर SNF (Solids Policy of Milk) भी बढते है । वसा तथा प्रोटीन का यह सम्बन्ध दूध क्रय हेतु कीमत निर्धारण (Pricing Policy of Milk) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । यह सम्बन्ध दूध में पानी की मिलावट निर्धारण में सूचक का कार्य भी करता है ।

2. वीथ अनुपात (Vieths Ratio):

दूध में लैक्टोज : प्रोटीन : खनिज में एक निश्चित अनुपात होता है । यह अनुपात भारतीय गाय के दूध में तथा भारतीय भैंस के दूध में 12.4:9.7:2 पाया जाता है । दूध में पानी मिलाने पर यह अनुपात प्रभावित नहीं होता परन्तु थनैला दूध में यह अनुपात स्थिर नहीं रहता । दूध में पानी के अपमिश्रण से उसका हिमांक परिवर्तित हो जाता है ।

3. लैक्टोज-क्लोराईड संख्या (Lactose-Chloride Number):

दूध को Osmotic दाब को स्थिर रखने में लैक्टोज तथा क्लोराईड का महत्वपूर्ण योगदान है । अतः इनमें भिन्नता समान अनुपात में आती है । थनैला पीड़ित गाय के दूध में लैक्टोज घटता है तो उसी अनुपात में क्लोराईड बढ जाता है । इस सम्बन्ध को Chloride-Lactose Number or Koestler Number कहते है ।

Koestler Number = 100 × (Percent Chloride)/(Lactose Percent)

यह मान दूध के लिए 1.5 से 3.0 तक पाया जाता है । यह दूध का रक्त के साथ Isotonic Equilibrium स्थापित करने के लिए आवश्यक है ।

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