भारत में लोक प्रशासन का विकास | Development of Public Administration in India in Hindi.

लोक प्रशासन- विकास के चरण (1887 से अब तक):

1. प्रथम चरण (1887-1926)- राजनीति प्रशासन द्विभाजकता का युग:

लोक प्रशासन विषय के रूप में आधुनिक युग की घटना है । इसका विकास विभिन्न विद्वानों और विचारों के योगदान का वह घटना क्रम है जो इसके सैद्धांतिक से लेकर व्यवहारिक विश्लेषित करते रहे । इस दौरान वैचारिक द्वन्द्व भी उभरा और द्वन्द्व-प्रतिद्वन्द्व मध्य सशक्त संवाद के रूप में लोक प्रशासन का स्वायत्त स्वरूप भी । वाल्डों ने लोक प्रशासन का जन्म 1887 में लिखे गये वुडरो विल्सन के लेख “द स्टडी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन” से माना है ।

वाल्डो ने ही लोक प्रशासन के विकास को दो भागों में रखा:

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1. 1940 के पहले का लोक प्रशासन जिसने परंपरावाद का बोलबाला था और,

2. 1940 के बाद का लोक प्रशासन जिसमें पहले व्यवहारवाद का और फिर उत्तर व्यवहारवाद का प्रभाव आया ।

आधुनिक विद्वानों ने लोक प्रशासन के विकास को विभिन्न चरणों में रखा है:

(a) प्रथम चरण (1887-1926):

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इस चरण में लोक प्रशासन का जन्म हुआ और उसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि तैयार की गयी । वस्तुत: किसी भी विषय के विकास के लिये उसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि अनिवार्य होती है जो उस विषय के लिये ‘वाद’ का काम करती है । यह ‘वाद’ निम्न प्रश्नों के साथ शुरू हुआ था । राजनीति और लोक प्रशासन में क्या अंतर है ? कितना अंतर है ? और क्या यह अंतर दोनों के पृथक्करण के लिये पर्याप्त है ?

बुडरो विल्सन:

वुडरो विल्सन ने ही अंतर की शुरूवात उक्त लेख से की जो ”पालिटिकल साइंस त्रेमासिक पत्रिका” में छपा था ।

विल्सन के अनुसार:

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1. प्रशासन का क्षेत्र एक व्यवसाय (पेशे) का क्षेत्र है जो राजनीति की हडबडी और अन्य समस्याओं के अध्ययन से पृथक है ।

2. राजनीति का संबंध नीति निर्माण से जबकि प्रशासन का संबंध नीति क्रियान्वयन से है ।

3. प्रशासन एक विज्ञान है जो उस राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन का नवीनतम फल है जो स्वयं बाइस सौ वर्ष पहले शुरू हुआ ।

4. प्रशासन का विज्ञान इसलिये भी जरूरी है क्योंकि संविधान बनाने (राजनीतिक कार्य) से ज्यादा मुश्किल काम संविधान को चलाना (प्रशासनिक कार्य) है ।

5. अत: एक प्रशासनिक विज्ञान का उद्देश्य होगा-

(a) सरकार के रास्तों को आसान बनाना (पेशेवर परामर्श) ।

(b) अपने कार्य को अधिक व्यवसायिक या पेशेवर ढंग से संपन्न करना ।

(c) संगाठनिक प्रभाव में वृद्धि करना ।

(d) कार्य कुशलता में वृद्धि ।

फ्रेंक जे. गुडनाऊ:

गुडनाऊ ने विल्सन के इस विचार को कि ”राजनीति-प्रशासन पृथक है” और ”प्रशासन का जन्म हमारे देश अमेरिका में ही हुआ है” को पूर्णत: प्रदान की ।

गुडनाउ ने अपनी पुस्तक ”राजनीति और प्रशासन (1900)” में लिखा कि:

1. राजनीति राज्य की इच्छा का प्रतीक है जबकि प्रशासन उस इच्छा के क्रियान्वयन का प्रतीक है ।

2. अत: दोनों के कार्य करने के अलग ढंग और प्रक्रियाएं होती है ।

3. अत: दोनों का अध्ययन पृथक-पृथक होना चाहिए ।

एल.डी. व्हाइट:

उनकी पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही लोक प्रशासन को एक ”स्वायत्त अकादमिक स्तर” प्राप्त हुआ और अमेरिकी वि.वि. में वह विधिवत पढ़ाया जाने लगा । वुडरो विल्सन ने इसकी शुरूवात की ।

इस चरण में मुख्य रूप से दो बातें हुई:

(क) लोक प्रशासन का जन्म और,

(ख) राजनीति-प्रशासन का विभाजन ।

लोक प्रशासन का जन्म (1887):

प्रिस्टन यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वुडरो विल्सन ने ”पॉलिटिकल साइन्स क्वार्टली” नाम की पत्रिका में लेख प्रकाशित करवाया, जिसका शीर्षक “द स्टडी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन” था ।

इसमें दो मुख्य बातें कही गई:

(a) संविधान बनाना आसान है, चलाना कठिन है ।

(b) राजनीति और प्रशासन के काम अलग-अलग है ।

विल्सन को लोक प्रशासन शास्त्र का जनक कहा जाता है । गुडनाऊ को अमेरिकी लोक प्रशासन का पितामह कहा जाता है । वुडरो विल्सन- ”राजनीति को प्रशासन में तथा प्रशासन को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । प्रशासन राजनीति की जल्दबाजी से दूर है । राजनीति और प्रशासन के काम अलग-अलग है ।”  विल्सन- ”प्रशासन उसी प्रकार राजनीतिक जीवन का भाग है, जिस प्रकार घरों की गिनती की पद्धति सामाजिक जीवन का और मशीनें उत्पादित वस्तुओं का भाग है ।”

गुडनाऊ- ”राजनीति राज्य की इच्छा का प्रतीक है और प्रशासन उस इच्छा के क्रियान्वयन से संबंधित है ।” राजनीति और प्रशासन (1900) नामक पुस्तक में इन्होंने राजनीति और प्रशासन के प्रकरण की जोरदार वकालत की ।

एल.डी. व्हाइट- इन्होंने ने भी राजनीति-प्रशासन पृथकरण पर जोर दिया । इनकी पुस्तक “लोक प्रशासन का अध्ययन-एक परिचय” (इन्ट्रोराडक्शन टू दी स्टडी ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन,(1926) को लोक प्रशासन विषय की प्रथम पाठ्य पुस्तक माना जाता है ।

प्रथम चरण में प्रमुख रूप से बल तीन बातों पर आया:

(a) राजनीति-प्रशासन द्विभाजन ।

(b) लोक प्रशासन का मूल्य मुक्त विज्ञान प्राप्ति योग्य है और

(c) कार्यकुशलता और मितव्ययिता लोक प्रशासन के केन्द्र बिन्दू (Watch Words) हैं ।

2. द्वितीय चरण (1927-1937) सिद्धांतों का स्वर्ण युग:

(i) इस युग को सिद्धांतों का स्वर्ण युग माना जाता है क्योंकि इस समय सिद्धांतों पर विशेष बल दिया गया ।

(ii) इस समय के विद्वानों ने कार्यकुशलता, दक्षता और मितव्ययिता को ही संगठन का पर्याय मान लिया । वस्तुत: व्हाइट इसके पूर्व ही कह चुके थे कि लोक प्रशासन का ध्येय कार्यकुशलता तथा मितव्ययियता है ।

(iii) प्रशासन एवं प्रबंधन के वैज्ञानिकीकरण का प्रयास हुआ, सार्वभौमिक सिद्धांतों का दावा किया गया । परिणामस्वरुप औपचारिक तत्व एवं भौतिक कारक हावी हो गये ।

(iv) विलोबी की पुस्तक ‘प्रिंसीपल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’ (1927) में प्रशासन के सिद्धांतों पर जोर दिया गया ।

(v) हेनरी फेयोल (जनरल एण्ड इंडिस्ट्रियल मैनेजमेंट) ने 14 सिद्धांत दिए ।

(vi) इसके बाद गुलिक, उर्विक ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया । 1937 में उन्होंने पेपर ऑन दी साइंस ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन नामक लेख लिखा। इसमें सिद्धांतों का वर्णन किया गया ।

(vii) टेलर ने वैज्ञानिक प्रबंधवाद के माध्यम से सिद्धांतों की खोज की ।

(viii) मुने एण्ड रैले ने चार सिद्धांत दिये; समन्वय, लाइन एण्ड स्टाफ, श्रम विभाजन तथा पद सोपान ।

(ix) उर्विक ने 8 और गुलिक ने 10 सिद्धांत बताये । बाद में उर्विक ने 29 सिद्धांतों का वर्णन किया ।

(x) मेरी पाकर फॉलेट (क्रियेटिव एक्सपिरिययेंस) भी सिद्धांतों के स्वर्ण युग की भागीदार बनी ।

इस चरण की प्रमुख पुस्तकें है:

1. हेनरी फेयॉल की इंडस्ट्रियल एंड जनरल मैनेजमेंट (1916)

2. एम.पी. फॉलेट की क्रियेटिव एक्सपीरियंस (1924)

3. मूनी और रेइली की ऑनवर्ड इंडस्ट्री (1931)

4. गुलिक और अरविक की पेपर्स ऑन दि साइंस ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (1937)

5. मूनी और रेइली की प्रिंसिपल्स ऑफ ऑर्गनाइजेशन (1939)

चरण के प्रमुख बल:

(i) प्रशासन मूल्य मुक्त एक यांत्रिक संरचना है, जिसके निश्चित सिंद्धात हैं और जिनका स्वरूप सार्वभौमिक है ।

(ii) प्रशासन के कतिपय सिद्धांतों की खोज के द्वारा उसे विज्ञान बनाना ।

(iii) संगठन के औपचारिक ढॉचें पर जोर दिया । अत: शास्त्रीय या परंपरावादी विचारधारा पुष्ट हुई ।

(iv) समागत स्वरूपों (ढांचो) या औपचारिक संगठन को मुख्य आधार बनाया ।

(v) व्यक्ति एवं संगठन में संगठन को निर्णायक माना गया ।

3. तृतीय चरण (1938-1947): ”सिद्धांतों की प्रतिक्रिया का युग”:

(a) हाथार्न प्रयोगों ने संगाठानिक ढांची में औपचारिकतावाद को ठेस पहुंचायी तथा मनुष्यों के अनौपचारिक संबंधों पर बल दिया । इससे सिद्धांतों की खोज के पुराने रास्तों को बदलना पड़ा । इस चरण को सिद्धांतों का विध्वंसकारी युग कहा गया ।

(b) चेस्टर बर्नाड ने अपनी पुस्तक ”फंक्शन ऑफ दी एक्जीकिटिव्ह (1937)” में एक भी सिद्धांत का वर्णन नहीं किया ।

(c) साइमन इस दिशा में सर्वाधिक आगे बढ़ा जब उसने अपने लेख ‘प्रशासन की कहावतें’ (1946) में तथाकथित सिद्धांतों की हंसी उड़ायी । अपनी पुस्तक ‘प्रशासनिक व्यवहार’ (1947) में कहा कि तथाकथित सिद्धांत मात्र भ्रम हैं, क्योंकि वे वास्तविकताओं पर आधारित नहीं हैं । उन्होंने मूल्य-तथ्य के एकीकरण द्वारा राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता को खारिज किया ।

(d) साइमन ने कहा कि प्रत्येक सिद्धांत के ठीक विपरीत, उतना ही मान्य, दूसरा सिद्धांत दिया जा सकता है ।

(e) प्रतिवाद के रूप में व्यवहारिक दृष्टिकोण का विकास हुआ जिससे प्रशासन एवं प्रबंधन के तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का खण्डन हुआ । इसके विपरीत इस काल में प्रशासन एवं प्रबंधन का मानवीकरण एवं व्यैक्तिकरण हुआ ।

चरण के प्रमुख बल:

(i) सिद्धांतों की खोज मात्र औपचारिक ढांचों के आधार पर करना यर्थाथ को झूठलाना है ।

(ii) वास्तविक सिद्धांतों की खोज तब होगी जब मानवीय व्यवहार का अनुभुवमूलक (यर्थाथ) अध्ययन किया जाएगा ।

(iii) लोक प्रशासन विज्ञान नहीं है पर विज्ञान बनने की क्षमता रखता है ।

(iv) राजनीति-प्रशासन की द्विभाजकता यथार्थ पर आधारित नहीं है ।

(v) अनौपचारिक कारकों को प्राथमिकता दी गई ।

(vi) संगठनात्मक तत्वों की कठोरता का विरोध किया गया ।

इस चरण की प्रमुख पुस्तकें हैं:

(1) सीआई. बर्नार्ड: दि फंक्शन ऑफ दि एक्जिक्यूटिव (1938)

(2) एफ. मॉर्सटीन मार्क्स (सं.): एलिमेंट्‌स ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (1946)

(3) हरबर्ट ए. साइमन: दि प्रोवर्बूस ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (1946)

(4) हरबर्ट ए. साइमन: एडमिनिस्ट्रेटिव बिहेवियर (1947)

(5) रॉबर्ट डाल: दि साईस ऑफ पब्लिक एडमिनिचेशन: थ्री प्रॉबलंबस (1947)

(6) ड्वाइट वाल्डो: दि एडमिनिस्ट्रेटिव स्टेट (1948)

4. चतुर्थ चरण (1948-1970): ‘स्वरूप की संकटावस्था का युग’:

इसे उथल-पुथल का काल भी कहा जाता है क्योंकि:

(i) लोक प्रशासन अपना पृथक अस्तित्व लगभग खो दिया था और वह राजनीति रूपी विशाल क्षेत्र में समाहित हो चला था, अत: इसे विषय के स्वरूप की संकटावस्था का काल कहा जाता है ।

(ii) यह समय वह था, जब वियतनाम युद्ध में अमेरिका असफल हो गया था । अमेरिका में प्रशासनिक अव्यवस्था और आर्थिक मंदी का वातावरण था । प्रशासन पर असफल होने के आरोप लग रहे थे ।

(iii) लोक प्रशासन विषय कै बिकास संबंधी दूसरे और तीसरे चरण के द्वन्द ने इसकी अब तक की उपलब्धियों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था ।

(iv) परिणाम यह हुआ कि प्रशासन के अनेक विद्वान राजनीति शास्त्र की तरफ लौट आए ।

(v) लेकिन कुछ ‘प्रशासनिक विज्ञान’ के साथ जुड़े और एक त्रैमासिक पत्रिका “प्रशासनिक विज्ञान जर्नल” 1956-57 में प्रकाशित की ।

(vi) लोक प्रशासन में नवीन सिद्धांतों का उदय हुआ । जैसे, विकास प्रशासन, तुलनात्मक लोक प्रशासन । साथ ही राजनीति शास्त्र के साथ प्रशासन का पुन: जुड़ाव हुआ ।

(vii) 1952 में एक पत्रिका राजनीति शास्त्र की संस्था ने ”प्रशासन और राजनीति” पर प्रकाशित की । अब यह बताया गया कि प्रशासन राजनीति की द्विभाजकता गलत है । वस्तुतः प्रशासन को राजनीतिक निर्देशन में कार्य करना होता है।

(viii) बाद एवं प्रतिवाद के पश्चात् संवाद होता है और संवाद के रूप में साइमन का महत्वपूर्ण योगदान है जिन्होंने तार्किक एवं गैरतार्किक, तथ्य एवं मूल्य, नियोजन एवं गैर नियोजन को स्वीकार किया। इस तुलनात्मकता के द्वारा उन्होंने लोक प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन की शुरूवात की ।

(ix) विडनर, पाई आदि विकास प्रशासन को लेकर आए ।

(x) प्रमुख विद्वान-साइमन, वाल्डो फ्रेडरिग्स राबर्ट |

चरण के प्रमुख बल:

(a) राजनीति-प्रशासन की द्विभाजकता अस्वीकार ।

(b) प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन पर बल ।

(c) अतः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण की शुरुवात ।

5. पंचम चरण (1971 से अब तक): “अंत: अनुशासनात्मक अध्ययन का युग” (लोक अभिरूचि अभिगम युग):

(i) इस समय जहां लोक प्रशासन ने पुरानी व्यवस्थाओं के प्रति समालोचना की दृष्टि अपनायी, वही कुछ नवीन प्रवृत्तियों को भी समाहित किया । इस समय उसका मुख्य केन्द्र ‘लोक नीति विश्लेषण’ हो गया ।

(ii) लोक प्रशासन पिछले युग की राजनीति शास्त्र की निकटता से आगे बढ़ कर अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, समाज शास्त्र जैसे अनेक विषयों के साथ संबंधित होने लगा । लोक प्रशासन समाजिक विज्ञानों में सर्वाधिक अंतर्विषय हो गया ।

(iii) अब नीतिविज्ञान, राजनीतिक मितव्ययिता, नीति-निर्माण, नीति विश्लेषण में विद्वान अत्याधिक रूचि ले रहे है ।

(iv) हनी प्रतिवेदन और फिलाडेल्फिया सम्मेलन ने मिन्नीब्रुक सम्मेलन की नींव रखी, जिससे युग के प्रारंभ में नव लोक प्रशासन का जन्म हुआ ।

(v) 1970 के पश्चात् फेडरिग्स ने लोक प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन को ‘पारिस्थितिकीय मॉडल’ के अतर्गत नया स्वरूप दिया और इस प्रकार लोक प्रशासन में एकांगी विचारधाराओं का अंत हो गया ।

तुलनात्मक अध्ययन शैली को आगे बढ़ाते हुए अंत: विषय दृष्टिकोण का पूर्ण विकास हुआ जिसके प्रणेता द्रोर हैं । इस दृष्टिकोण ने लोक प्रशासन को नीति विज्ञान का रूप दे दिया ।

चरण के प्रमुख बल:

(a) अंत: अनुशासनात्मक दृष्टिकोण का पर्याप्त विकास ।

(b) प्रशासन-पर्यावरण अन्त:संबंधों को पर्याप्त महत्व ।

(c) लोक प्रशासन द्वारा नीति विज्ञान का रूप लेना ।

6. छटा चरण (1990 से):

(i) मिन्नो ब्रुक द्वितीय सम्मेलन (1988) तथा उरूग्वे चक्र ने 1980 के बाद के दशक में उन प्रवृक्तिायों को रेखांकित किया जो विश्व को एक ग्लोबल विलेज के रूप में रूपांतरित कर रही थी । अब महसूस होने लगा कि इस नये परिदृश्य में वही लाभ उठा पायेगा जो अपने यहां प्रशासनिक सुधारों को आर्थिक सुधारों के अनुरूप दिशा देगा ।

(ii) इन प्रवृक्तिायों ने लोक रूचि के अनुरूप जिस नये लोक प्रशासन की नींव रखी उसे नव लोक प्रबंधवाद का नाम दिया गया ।

चरण के प्रमुख बल:

(a) लोक प्रशासन में प्रबंधकीय प्रवृत्तियों का विकास ।

(b) सुशासन की प्राप्ति हेतु सार्वजनिक भूमिका को सीमित लेकिन सक्षम बनाना ।

(c) प्रशासन में लाकोन्मुखी प्रणालियों का विकास ।

(d) लोक प्रशासन को प्रतिस्पर्धी बनाना ।

(I) विकास प्रशासन के प्रति दृष्टिकोण:

पूर्व चरण में इसके समर्थक ही इसके प्रति इस युग में आलोचक हो गये । साइमन, पाइपानिन्दीकर आदि विद्वानों ने विकसित देशों को, विकासशील देशों में अवांछित घुसपैठ के लिये दोषी ठहराया । मोहित भट्‌टाचार्य ने इसे ‘उग्र समालोचना’ की संज्ञा दी । विकासशील देशों की नौकरशाही को ‘विकास प्रशासन’ के अनुरूप नहीं पाया गया ।

(ii) नव लोक प्रशासन के प्रति दृष्टिकोण:

इसको विकसीत देशों से निकालकर विकासशील देशों तक लाया गया । जहां इसके सिद्धांतो (मूल्य, सामाजिक, परिवर्तन, प्रासंगिकता, समानता) की अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है ।

(iii) मानववाद:

अब लोक प्रशासन को अधिकाधिक मानवीय बनाने पर जोर दिया गया । इसके ऊपर मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं का नियंत्रण लाया गया । स्वयंसेवी संस्थाओं को बढ़ावा इसी दिशा में बढे कदम हैं ।