भारत में प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण | Parliamentary Control Over Administration in India | Public Administration.

भारत की संसदीय प्रणाली की सरकार सामूहिक दायित्व के सिद्धांत पर आधारित है । इसका अर्थ है कि मंत्री अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं; अत: प्रशासन पर विधायी नियंत्रण केवल अप्रत्यक्ष अर्थात मंत्रियों के माध्यम से है ।

अधिकारियों (प्रशासकों) को सीधे संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है । वे मंत्रियों के उत्तरदायित्व के सिद्धांत का आश्रय लेते हैं और अनाम रहते हैं । दूसरे शब्दों में, अपने मंत्रालय या विभाग के अधीन कार्यरत प्रशासकों के कार्यों का उत्तरदायित्व मंत्री का होता है ।

प्रशासन पर संसद अपना नियंत्रण कार्यपालिका के द्वारा निम्न उपायों से लागू करती है:

ADVERTISEMENTS:

(i) प्रश्नों, बहसों, प्रतिवेदनों और प्रस्तावों के द्वारा सरकार की नीतियों और कार्यों पर सामान्य नियंत्रण ।

(ii) बजट और लेखा परीक्षा द्वारा वित्तीय नियंत्रण ।

(iii) समितियों के माध्यम से वित्तीय, प्रशासनिक एवं विधायी मामलों पर विस्तृत नियंत्रण ।

संसदीय नियंत्रण के विभिन्न उपकरण, तकनीकें तथा पद्धतियां निम्न हैं:

ADVERTISEMENTS:

i. विधि निर्माण:

यह संसद का प्रमुख कार्य है । कानून बनाने (अधिनियम) या परिवर्तित करने (संशोधन) या निरस्त करने की प्रक्रिया के द्वारा संसद सरकार की नीतियों का निर्धारण करती है । प्रशासन के संगठन, संरचना, अधिकारों, कार्यों तथा कार्यविधियों का निर्धारण और अनुकूलन संसदीय कानून करते हैं ।

परंतु, संसद विधि-निर्माण प्रक्रिया के द्वारा जो नियंत्रण लागू करती है, वे व्यापक और आम होते हैं । संसद कानूनों के ढांचे का निर्माण करती है और मूल ढाँचे के अंतर्गत विस्तृत नियमों तथा विनियमों को तैयार करने का अधिकार कार्यपालिका को सौंप देती है । इसको प्रदत्त विधि निर्माण या कार्यकारी विधि निर्माण या अधीनस्थ विधिनिर्माण कहा जाता है । ऐसे नियमों और विनियमों को परीक्षण के लिए संसद के सामने रखा जाता है ।

ii. प्रश्न काल (संसदीय प्रश्न):

ADVERTISEMENTS:

संसद की बैठक का पहला घंटा प्रश्नकाल के लिए रखा जाता है । इस समयावधि में सांसद प्रश्न पूछते हैं और आमतौर पर मंत्रीगण उत्तर देते हैं । प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं- तारांकित, अतारांकित और अल्प सूचना नोटिस ।

तारांकित प्रश्न वह होता है जिस पर तारक बना होता है । यह प्रश्न मौखिक उत्तर की माँग करता है, अत: इसके बाद पूरक प्रश्न पूछे जाते हैं । अतारांकित प्रश्न पर तारक नहीं बना होता । चूकि यह लिखित उत्तर की माँग करता है अत: इसके बाद पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं ।

अल्प सूचना नोटिस के प्रश्न वे होते हैं जो दस दिन या उससे कम समय का नोटिस देकर पूछे जाते हैं । इनका उत्तर मौखिक रूप से दिया जाता है । प्रश्न, प्रशासन पर विधायी नियंत्रण के प्रभावशाली उपकरण हैं और वे सरकारी कर्मचारियों को चौकन्ना और गतिशील रखते हैं ।

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री अर्ल एटली ने कहा था- ”मैं हमेशा यह मानता हूँ कि सदन का प्रश्नकाल वास्तविक जनतंत्र का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । मंत्री से पूछे गए और उससे भी अधिक सार्वजनिक तौर पर सदन में पूछे गए प्रश्नों का काम लोकसेवकों को सावधान रखना है ।”

इसी प्रकार हग गेट्स्केल का मत है- जिस किसी ने लोकसेवा विभागों में काम किया है, वह मुझसे सहमत होगा कि संसद में पूछे जाने वाले प्रश्नों का डर ही वह प्रमुख चीज है जो अभिलेखों को रखने के मामले में (जिसे लोकसेवा से बाहर अनावश्यक समझा जाता है) लोकसेवकों को अत्यधिक सतर्क, दब्बू और सावधान बनाता है ।

iii. शून्यकाल:

प्रश्नकाल के विपरीत शून्य काल का कोई उल्लेख कार्यविधि के नियमों में नहीं मिलता । अत: यह सांसदों को उपलब्ध एक औपचारिक युक्ति जिससे वे मामलों को बिना किसी पूर्वसूचना के उठा सकते हैं ।  शून्यकाल प्रश्नकाल के तत्काल बाद शुरू हो जाता है और दिन की कार्यसूची के शुरू होने तक चलता है । दूसरे शब्दों में प्रश्नकाल और कार्यसूची के बीच के काल को शून्यकाल कहते हैं । संसदीय कार्यविधि में यह भारतीय नवप्रवर्तन है जो 1962 से चला आ रहा है ।

iv. आधे घंटे की बहस:

यह पर्याप्त सार्वजनिक महत्व के उस मामले पर बहस शुरू करने के लिए है जिस पर पहले ही काफी बहस हो चुकी है और जिसके उत्तर को तथ्यों के आधार पर स्पष्टीकरण की जरूरत है । इस तरह की बहसों के लिए अध्यक्ष सप्ताह में तीन दिन दे सकता है । सदन के समक्ष कोई विधिवत प्रस्ताव नहीं लाया जाता या मतदान नहीं होता है ।

v. अल्पकालिक बहस:

इसको दो घंटे की बहस भी कहा जाता है क्योंकि इस प्रकार की बहस के लिए दो घंटे से अधिक का समय नहीं दिया जाना चाहिए । इस बहस को सांसद तत्काल सार्वजनिक महत्व के किसी मामले को उठाने के लिए उठा सकते हैं ।

इस तरह की बहसों के लिए अध्यक्ष सप्ताह में दो दिन का समय आबंटित कर सकता है । इस मामले में संसद में न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव लाया जाता है और न ही मतदान होता है । यह युक्ति 1953 से चली आ रही है ।

vi. अन्य बहसें:

ऊपर उल्लेखित बहसों के साथ-साथ सांसदों को अनेक अन्य अवसर भी मिलते हैं जिनमें वे प्रशासन की चूकों और विफलताओं पर बयान लेने और आलोचना करने के लिए बहसें कर सकते हैं ।

ये अवसर निम्न हैं:

(a) राष्ट्रपति का उद्घाटन भाषण,

(b) कानून बनाने के लिए अनेक विधेयकों को प्रस्तुत करते समय (अर्थात विधान पर बहस),

(c) सामान्य सार्वजनिक हित के मामलों पर प्रस्ताव प्रस्तुत एवं पारित करते समय ।

vii. ध्यानाकर्षण:

अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के किसी मामले पर मंत्री का ध्यान खींचने के लिए यह नोटिस संसद में सांसद द्वारा प्रस्तुत किया जाता है । इसका प्रयोजन उस मामले पर मंत्री से अधिकारिक वक्तव्य लेना भी होता है । शून्यकाल की तरह संसदीय कार्यविधि में यह भी भारत की देन है जो 1954 से अस्तित्व में है । परंतु शून्यकाल के विपरीत इसका उल्लेख कार्यविधि के नियमों में है ।

viii. स्थगन प्रस्ताव:

संसद में सार्वजनिक हित के अत्यावश्यक मामले पर सदन का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसको प्रस्तुत किया जाता है । इसको स्वीकार किए जाने के लिए 50 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होती है ।

चूँकि यह सदन के सामान्य काम में बाधा डालता है अत: इसको असाधारण उपाय कहा जाता है । इसमें सरकार की निंदा का तत्त्व होता है अत: इस युक्ति का प्रयोग करने की अनुमति राज्यसभा को नहीं है ।

ix. अविश्वास प्रस्ताव:

संविधान के अनुच्छेद 75 में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होगी । इसका अर्थ है कि मंत्रिमंडल पद पर तब तक बना रहता है जब तक इससे लोकसभा के सदस्यों का बहुमत प्राप्त होता है । दूसरे शब्दों में, अविश्वास प्रस्ताव पारित करके लोकसभा मंत्रिमंडल को सत्ता से हटा सकती है ।

x. निंदा प्रस्ताव:

निंदा प्रस्ताव निम्नलिखित अर्थों में अविश्वास प्रस्ताव से भिन्न है ।

निंदा प्रस्ताव बनाम अविश्वास प्रस्ताव:

निंदा प्रस्ताव:

1. इसमें लोक सभा में अंगीकृत किए जाने के कारणों का उल्लेख होना चाहिए ।

2. यह किसी एक मंत्री या मंत्रियों के समूह या पूरी मंत्रिपरिषद की निंदा करने के लिए रखा जा सकता है ।

3. यह मंत्रिपरिषद की विशेष नीतियों और कार्यों की निंदा करने के लिए रखा जाता है ।

4. लोक सभा में इसके पारित होने की स्थिति में मंत्रिपरिषद को पद से त्यागपत्र देने की आवश्यकता नहीं होती ।

अविश्वास प्रस्ताव:

1. इसको लोकसभा में अंगीकृत किए जाने के लिए कारण बताने की जरूरत नहीं होती ।

2. यह केवल पूरी मंत्रिपरिषद के विरुद्ध ही रखा जा सकता है ।

3. यह मंत्रिपरिषद पर लोकसभा के विश्वास का पता लगाने के लिए रखा जाता है ।

4. यदि यह लोकसभा में पारित हो जाता है तो मंत्रिपरिषद को पद से त्यागपत्र देना आवश्यक है ।

xi. बजट प्रणाली:

प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण रखने के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण तरीका है । बजट अधिनियम के द्वारा संसद सरकार के राजस्व और खर्चो पर नियंत्रण रखती है । यह सरकारी कोष एकत्र करने तथा खर्च करने के लिए स्वीकृति प्रदान करने की सर्वोच्च प्राधिकारी है ।

बजट पारित करने की प्रक्रिया के दौरान यह सरकारी नीतियों और कार्यों की आलोचना कर सकती है और प्रशासन की कमियों तथा विफलताओं को इंगित कर सकती है । विनियोग और वित्त विधेयकों के पारित होने तक कार्यपालिका न तो खर्चे कर सकती है और ही करों की वसूली (विवरण के लिए देखिए अध्याय ”वित्तीय प्रशासन”) ।

xii. लेखा परीक्षण पद्धति:

यह प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है । संसद की ओर से सरकारी हिसाब-किताब की लेखा परीक्षा भारत का लेखानियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) करता है और वह सरकार के वित्तीय लेन-देन के संबंध में वार्षिक ‘लेखा-परीक्षा रिपोर्ट’ प्रस्तुत करता है ।

सीएजी की रिपोर्ट सरकार के अनुचित, गैर-कानूनी, गैर-बुद्धिमता पूर्ण, अलाभकर और अनियमित खर्चों को सामने लाती है । सीएजी संसद का प्रतिनिधि है और केवल इसी के प्रति उत्तरदायी है । इस प्रकार संसद के प्रति सरकार की वित्तीय जवाबदेही को सीएजी की लेखा-परीक्षा के द्वारा सुनिश्चित किया जाता है ।

xiii. सार्वजनिक लेखा-समिति:

भारत में इस समिति की स्थापना सर्वप्रथम 1921 में 1919 के भारत सरकार अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत हुई थी और तब से ही अस्तित्व में है । वर्तमान में इसके 22 सदस्य हैं (15 लोकसभा तथा 7 राज्यसभा से) ।

प्रत्येक वर्ष इनका चुनाव एकल हस्तांतरणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अनुसार सांसदों में से किया जाता है । सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष होता है । इस समिति का सदस्य कोई मंत्री नहीं हो सकता ।

समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा इसके सदस्यों के बीच से की जाती है । 1966-67 तक समिति का अध्यक्ष शासक दल का होता था परंतु 1967 से एक परिपाटी का विकास हुआ है, जिसके द्वारा समिति के अध्यक्ष का चयन अनिवार्यत विरोधी दल से होता है । समिति का काम सीएजी की वार्षिक लेखा परीक्षा की जाँच करना है जिसको संसद में राष्ट्रपति द्वारा रखा जाता है । इस कार्य में समिति की सहायता सीएजी करता है ।

सार्वजनिक लेखा समिति के कार्यों का विस्तृत विवरण लोकसभा में कार्यविधि तथा कार्य संचालन आदि नियमों के नियम 308 में इस प्रकार बताया गया है:

1. भारत सरकार के खर्चों के लिए सदन द्वारा स्वीकृत धनराशियों के उपयोग को प्रदर्शित करने वाले लेखा, भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा तथा ऐसे अन्य लेखाओं की जाँच जिनको समिति सदन के समक्ष प्रस्तुत करना उचित समझती है ।

2. भारत सरकार के विनियोग लेखा, लेखा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की संवीक्षा में समिति का दायित्व है, कि वह अपने आपको निम्न मामलों में संतुष्ट करें:

(क) कि लेखा में जिन धनराशियों को खर्च हुआ दिखाया गया है, वे उन सेवाओं या कार्यों पर खर्च करने या खर्चो में लिखने के लिए कानूनी रूप से उपलब्ध थीं और उन पर लागू होती थीं ।

(ख) कि खर्चे उनको नियंत्रित करने वाले अधिकारी से मेल खाते हैं ।

(ग) कि प्रत्येक पुनर्विनियोग उन प्रावधानों के अनुसार किया गया है जो सक्षम अधिकारी द्वारा नियमों के अनुसार बनाए गए हैं ।

3. समिति का यह दायित्व भी है:

(क) कि वो उन लेखा विवरणों की भी जाँच करें जिनमें राज्य निगमों, व्यापार तथा विनिर्माण योजनाओं, प्रतिष्ठानों और परियोजनाओं की आय-व्यय हो । इसके साथ उनके पक्के-चिट्ठे और लाभ-हानि लेखा के विवरण की जाँच भी होनी चाहिए ।

राष्ट्रपति ने जिनको तैयार करने की माँग की हो, या जिनको किसी विशेष निगम, व्यापारिक या विनिर्माण योजना या प्रतिष्ठान या परियोजना के वित्तपोषण को नियंत्रित करने वाले वैधानिक नियमों के प्रावधानों के अधीन तैयार किया जाता है । इनके साथ ही साथ समिति का दायित्व इन सब पर सीएजी की रिपोर्ट की भी जाँच करना है ।

(ख) समिति का दायित्व स्वायत्त और अर्ध स्वायत्त निकायों की आय तथा व्यय के विवरणों के लेखा और उस लेखा-परीक्षा की जाँच करना भी है जिसे राष्ट्रपति के निर्देशों या संसद के किसी कानून के अधीन भारत के लेखा नियंता एवं महालेखा परीक्षक के द्वारा किया गया हो ।

(ग) इसका काम उन मामलों में भी भारत के लेखा नियंता एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट पर ध्यान देना है जिनमें राष्ट्रपति ने उससे किन्हीं रसीदों की लेखा परीक्षा या भंडार तथा माल-सामान की जाँच करने की माँग की हो ।

4. एक वित्त वर्ष में किसी सेवा पर खर्च की गई धनराशि अगर सदन द्वारा उस उद्देश्य के लिए स्वीकृत धनराशि से अधिक है तो समिति तथ्यों के संदर्भ में प्रत्येक मामले की उन परिस्थितियों में जाँच करेगी जिनमें ये खर्चे अधिक हुए हैं; ऐसी सिफारिशें करेगी जिनको वह उचित समझती है ।

लेकिन समिति अपना काम उन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के संबंध में नहीं करेगी जो इन नियमों के अंतर्गत या अध्यक्ष द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों की समिति को आबंटित किए गए हैं । अशोक चंदा के अनुसार- ”अनेक वर्षों के दौरान समिति ने पूर्ण रूप से उन प्रत्याशाओं को पूरा किया है कि सार्वजनिक खर्चों पर नियंत्रण के मामले में इसे प्रभावशाली शक्ति के रूप में विकसित होना चाहिए । यह दावा किया जा सकता है कि सार्वजनिक लेखा समिति द्वारा स्थापित परंपराएँ और विकसित परिपाटियाँ संसदीय जनतंत्र की सर्वोच्च परंपराओं से मेल खाती हैं ।”

xiv. आंकलन समिति:

इस समिति की उत्पत्ति को 1921 में गठित स्थायी वित्त समिति (Standing Financial Committee) में खोजा जा सकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पहली आकलन समिति का गठन तत्कालीन वित्त मंत्री जॉन मथाई की सिफारिश के आधार पर 1950 में हुआ था ।

प्रारंभ में इसमें 25 सदस्य थे परंतु 1956 में इनकी संख्या बढ़ाकर 30 कर दी गई । इन सदस्यों का निर्वाचन प्रत्येक वर्ष लोकसभा द्वारा एकल हस्तांतरणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर इसके सदस्यों के बीच से किया जाता है ।

अत: इसमें सभी दलों का यथोचित प्रतिनिधित्व होता है । सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है । मंत्री इसका सदस्य नहीं हो सकता । समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा इसके सदस्यों में से की जाती है, यह निरपवाद रूप से शासक दल का होता है ।

इसमें राज्यसभा का प्रतिनिधित्व नहीं होता । समिति का काम बजट में सम्मिलित अनुमानों की जाँच करना और सार्वजनिक खर्चों में ‘मितव्ययता’ के उपाय सुझाना है । इसीलिए इसको ‘सतत मितव्ययता समिति’ कहा जाता है ।

लोकसभा की कार्यविधि एवं संचालन नियमों की नियम संख्या 310 और 312 में निर्धारित कार्यों के अनुसार आकलन समिति के कार्यों का विवरण इस प्रकार है:

(क) यह बताना कि ऐसी किन मितव्ययताओं, सांगठनिक सुधारों, कार्यकुशलताओं एवं प्रशासनिक सुधारों को लागू किया जा सकता है जो अनुमानों के नीतिगत आधारों के अनुरूप हैं ।

(ख) प्रशासन में कार्यकुशलता और मितव्ययता लाने के लिए वैकल्पिक नीतियों को सुझाना ।

(ग) गहराई से यह देखना कि क्या अनुमानों में अंतनिर्हित नीतियों की सीमाओं के भीतर धन को भली-भांति निर्धारित किया गया है ।

(घ) उन रूपों के सुझाव देना जिनमें अनुमानों को संसद में प्रस्तुत किया जाना है । लेकिन समिति वे कार्य नहीं करेगी जिनका संबंध ऐसे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों से है जिनको इन नियमों या लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों की समिति को सौंपा गया है ।

समय-समय पर इन अनुमानों की जाँच करने और संसद को जाँच के परिणामों की रिपोर्ट देने का काम समिति पूरे वित्त वर्ष के दौरान करती रह सकती है । समिति के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह एक वर्ष के सभी अनुमानों की जाँच करें । अनुदानों की मांग को कमेटी की रिपोर्ट न आने की दशा में भी पारित किया जा सकता है ।

xv. सार्वजनिक उपक्रम समिति:

इस समिति का गठन कृष्ण मेनन समिति की सिफारिश पर 1964 में किया गया था । मूलतया इसमें 15 सदस्य थे (10 लोकसभा तथा 5 राज्य सभा से), परंतु 1974 में यह संख्या बढ़ाकर 22 कर दी गई (15 लोकसभा से और 7 राज्यसभा से) ।

इनका निर्वाचन प्रत्येक वर्ष एक वर्ष के कार्यकाल के लिए एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा और समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अनुसार संसद द्वारा किया जाता है । अत: सभी दलों को यथोचित प्रतिनिधित्व मिलता है ।

मंत्री को समिति का सदस्य नहीं चुना जा सकता है । समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति, इसके लोकसभा द्वारा चुने गए सदस्यों के बीच से, स्पीकर द्वारा की जाती है । राज्यसभा से निर्वाचित सदस्य को अध्यक्ष नियुक्त नहीं किया जा सकता है ।

सार्वजनिक उपक्रम समिति के कार्यों का निर्धारण लोकसभा के कार्यविधि एवं कार्यसंचालन नियमों के नियम 312ए में किया गया है, और ये हैं:

(क) सार्वजनिक उपक्रमों की रिपोर्टों और उनके लेखों की जाँच करना ।

(ख) सार्वजनिक उपक्रमों पर लेखानियंता एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्टों (अगर कोई है) की जाँच करना ।

(ग) सार्वजनिक उपक्रमों की स्वायत्तता और कार्यकुशलता के संदर्भ में यह जाँच करना कि क्या सार्वजनिक उपक्रमों को व्यापार के विवेकपूर्ण सिद्धांतों और बुद्धिमता पूर्ण वाणिज्यिक आचरणों के अनुसार चलाया जा सकता है ।

(घ) सार्वजनिक उपक्रमों के संबंध में सार्वजनिक लेखा समिति तथा आकलन समिति में निहित उन कार्यों को करना जो समय-समय पर लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समिति को सौंपे जा सकते हैं परंतु समिति निम्न में से किसी की भी जाँच या छानबीन नहीं करेगी ।

(i) सरकार की मुख्य नीति विषयक मामले, जो सार्वजनिक के व्यावसायिक अथवा वाणिज्यिक कामों से अलग हैं ।

(ii) दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक मामले ।

(iii) वे मामले जिन पर विचार के लिए विशेष कानून के द्वारा किसी संगठन का गठन किया गया है, जिसके अधीन किसी विशेष सार्वजनिक उपक्रम की स्थापना हुई है ।

xvi. अधीनस्थ विधायन समिति:

1953 में गठित इस समिति में लोकसभा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत अध्यक्ष सहित 15 सदस्य होते हैं । सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है । किसी मंत्री को इसका सदस्य नहीं चुना जा सकता है । समिति का अध्यक्ष विरोधी दल से बनाया जाता है ।

समिति का काम जाँच करना और लोकसभा को यह रिपोर्ट करना है कि नियम, उपनियम, विनियम तथा परिनियम इत्यादि बनाने के जो अधिकार कार्यपालिका को संविधान द्वारा दिए गए अथवा संसद द्वारा सौंपें गए हैं, उनका प्रयोग इसके (कार्यपालिका) द्वारा उचित ढंग से किया जा रहा है अथवा नहीं । प्रत्येक विनियम, नियम और उपनियम इत्यादि को आदेश कहा जाता है ।

लोकसभा के सम्मुख प्रस्तुत किए जाने से पहले समिति इस पर विचार करती (लोकसभा नियम सं. 320) कि:

(i) क्या यह संविधान के सामान्य उद्देश्यों के अनुसार है या जिस अधिनियम के लिए बनाया गया है, उसको आगे बढ़ाता है ।

(ii) क्या इसमें ऐसी सामग्री है, जिस पर समिति की राय में संसद के अधिनियम के अंतर्गत अधिक समुचित ढंग से विचार करना चाहिए था ।

(iii) क्या इसमें कोई कर लगाना शामिल है ।

(iv) क्या अप्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यह न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाता है ।

(v) क्या यह उस किसी प्रावधान को पूर्वप्रभावी बनाता है, जिसके लिए संविधान या अधिनियम स्पष्ट तौर पर इस प्रकार का कोई अधिकार नहीं देता ।

(vi) क्या इससे भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) या सार्वजनिक आय से कोई व्यय होता है ।

(vii) क्या यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का असामान्य अथवा अप्रत्याशित प्रयोग करता है या उसके अनुसार काम करता प्रतीत होता है जिसके लिए बनाया गया है ।

(viii) क्या ऐसा प्रतीत होता है कि इसके अपने प्रकाशन में अथवा संसद के सामने प्रस्तुत करने में अनुचित विलंब हुआ है ।

(ix) क्या किसी भी कारण से इसके रूप या अभिप्राय को स्पष्टीकरण की आवश्यकता है ।

xvii. आश्वासन समिति:

अध्यक्ष सहित 15 सदस्यों की इस समिति का गठन 1953 में हुआ था । एक वर्ष के कार्यकाल के लिए इसके सदस्यों की नियुक्ति स्पीकर द्वारा की जाती है । इस समिति का सदस्य कोई मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता है ।

समिति का कार्य लोकसभा के पटल से मंत्रियों द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले आश्वासनों, वचनों और प्रतिज्ञाओं इत्यादि की जाँच और रिपोर्ट करना (लोकसभा नियम सं. 323) है कि:

(क) इस तरह के आश्वासनों, वचनों और प्रतिज्ञाओं को किस हद तक पूरा किया गया है ।

(ख) क्या इनको उस न्यूनतम समय के भीतर पूरा किया गया है जो इसके लिए निर्धारित था ।

xviii. विभागीय स्थायी समिति:

1993 में 17 विभागों से संबंधित स्थायी समितियों का निर्माण, संसद में कार्यकारी मंत्रालयों पर नियंत्रण, विशेषतया वित्तीय नियंत्रण, बनाने के उद्देश्य से किया गया था । इन समितियों के अधिकार के अंतर्गत केंद्र सरकार के सभी मंत्रालय/विभाग आते हैं ।

प्रत्येक समिति में लोकसभा के 30 और राज्य सभा से 15 सदस्य होते हैं जिन्हें लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा दोनों सदनों के सदस्यों में से एक वर्ष के लिए मनोनीत किया जाता है । मंत्री को समिति का सदस्य नियुक्त नहीं किया जा सकना है । 11 समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष तथा शेष 6 के अध्यक्षों का नियुक्ति राज्यसभा का सभापति समिति के सदस्यों के बीच से करता है । इनमें प्रत्येक दल का समानुपातिक प्रतिनिधित्व होता है ।

समितियों में से प्रत्येक के कार्यों का निर्धारण लोकसभा के नियम सं. 331ई में किया गया है:

(क) संबद्ध मंत्रालय/विभाग की अनुदान की माँगों पर विचार और उस पर सदनों में रिपोर्ट प्रस्तुत करना । रिपोर्ट में किसी भी कटौती प्रस्ताव का सुझाव नहीं होगा ।

(ख) संबद्ध मंत्रालयों-विभागों से संबंधित ऐसे विधेयकों की जाँच करना जिनको राज्यसभा के सभापति या लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समिति को सौंपा गया हो और उस पर रिपोर्ट तैयार करना ।

(ग) मंत्रालयों/विभागों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना और उन पर रिपोर्ट तैयार करना ।

(घ) राज्यसभा सभापति या लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सौंपे जाने की स्थिति में राष्ट्रीय दीर्घकालीन मूल प्रलेखों पर विचार करना तथा उन पर रिपोर्ट तैयार करना ।

इन समितियों के कार्यों पर निम्नलिखित सीमाएँ लगाई गई हैं:

(i) इन समितियों को संबंद्ध मंत्रालयों/विभागों की दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए ।

(ii) आमतौर पर इनको उन मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए जिन पर अन्य संसदीय समितियों द्वारा विचार किया जा रहा हो ।

यह नोट किया जाना चाहिए कि इन समितियों की सिफारिशों की प्रकृति परामर्शी है; अत: ये संसद के लिए बाध्यकारी नहीं हैं ।

अनुदानों की माँगों पर विचार करते समय प्रत्येक समिति निम्नलिखित कार्यविधि अपनाएगी और उन पर सदनों के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी (नियम 331 जी):

(क) सदनों में बजट पर सामान्य चर्चा की समाप्ति के बाद दोनों सदन एक निश्चित काल के लिए स्थगित कर दिए जाएँगे ।

(ख) संबद्ध मंत्रालय की अनुदान की माँगों पर समितियों द्वारा विचार उपरोक्त काल के दौरान ही किया जाएगा ।

(ग) समितियाँ अपनी रिपोर्ट अवधि के भीतर ही तैयार करेंगी और अधिक समय की माँग नहीं करेंगी ।

(घ) सदन में अनुदान की माँगों पर विचार समितियों की रिपोर्टों के प्रकाश में किया जाएगा ।

(ङ) प्रत्येक मंत्रालय की अनुदान माँगों पर अलग से रिपोर्ट होगी ।

विधेयकों की जाँच करने और उस पर रिपोर्ट तैयार करने के दौरान प्रत्येक समिति निम्नलिखित कार्यविधि का पालन करेगी (नियम 332 एच):

(क) समिति उसको सौंपे गए विधेयकों के सामान्य सिद्धांतों तथा उसकी धाराओं पर विचार करेगी ।

(ख) समिति केवल उन विधेयकों पर विचार करेगी जो या तो संसद के किसी सदन में प्रस्तुत किए गए हैं अथवा राज्यसभा सभापति या लोकसभा अध्यक्ष द्वारा उसे सौंपे गए हैं ।

(ग) विधेयक पर समिति अपनी रिपोर्ट निर्धारित समय पर तैयार करेगी ।

संसद की स्थायी समिति प्रणाली की अच्छाइयाँ निम्नलिखित हैं:

(i) उनकी कार्यवाहियाँ दलगत पक्षपात से रहित हैं ।

(ii) उनके द्वारा अपनाई गई क्रियाविधि लोकसभा की तुलना में अधिक लचीली है ।

(iii) यह प्रणाली कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण को अधिक विस्तृत, नजदीकी, सतत, गहरा और व्यापक बनाती है ।

(iv) अपनी माँगों को सूत्रबद्ध करने में मंत्रालय या विभाग चूकि अब अधिक सावधान रहते हैं अत: यह प्रणाली सार्वजनिक व्यय में मितव्ययता और कुशलता सुनिश्चित करती है ।

(v) संसद के सभी सदस्यों को ये समितियाँ सरकारी कार्य संचालन में भाग लेने तथा उसे समझने और योगदान करने के अवसर प्रदान करती हैं ।

(vi) अपनी रिपोर्टें तैयार करने के लिए ये विशेषज्ञों और जनता की राय ले सकती हैं । अपने सामने गवाही देने के लिए वे विशेषज्ञों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को बुलाने तथा अपनी रिपोर्टों में उनकी राय को शामिल करने का अधिकार रखती हैं ।

(vii) कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण लागू करने में विरोधी दल और राज्यसभा अब अधिक भूमिका अदा कर सकते हैं ।

सीमाएँ और अप्रभावित (Limitations and Ineffectiveness):

भारत जैसे संसदीय प्रणाली के देशों में प्रशासन के ऊपर विधायी नियंत्रण व्यावहारिक से अधिक सैद्धांतिक है । वास्तव में नियंत्रण इतना कारगर नहीं जितना इसे होना चाहिए ।

भारत में संसदीय नियंत्रण के प्रभावशाली न होने के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेदार हैं:

(i) प्रशासन के आकार तथा जटिलता में बढ़ोतरी हुई है किंतु इसके ऊपर नियंत्रण करने के लिए संसद के पास न तो समय है और न ही विशेषज्ञता ।

(ii) संसद के वित्तीय नियंत्रण में अनुदान की माँगों को तकनीकी प्रकृति बाधक बनती है । सांसद चूँकि विशेषज्ञ नहीं होते, वे इसे समुचित और पूरे तौर पर समझ नहीं पाते ।

(iii) विधायी नेतृत्व कार्यपालिका के पास होता है और नीतियों के निर्माण में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है ।

(iv) संसद का आकार बहुत बड़ा और प्रबंधनीय है । अत: यह प्रभावशाली नहीं हो पाती है ।

(v) संसद में कार्यपालिका को बहुमत का समर्थन प्राप्त होने से कारगर आलोचना की संभावना कम हो जाती है ।

(vi) सार्वजनिक व्यय की जाँच सार्वजनिक लेखा समिति जैसी वित्तीय समितियाँ तब करती हैं जब कार्यपालिका इसे व्यय कर चुकी होती है । अत: ये समितियाँ शव-परीक्षा करती ।

(vii) ‘गिलोटिन के बढ़ते प्रयोग’ से वित्तीय नियंत्रण का क्षेत्र घट गया है ।

(viii) ‘प्रदत्त विधायन’ में बढ़ोत्तरी होने से विस्तृत कानून बनाने के मामले में संसद की भूमिका कम हो गई और नौकरशाही की शक्तियाँ बढ़ गई हैं ।

(ix) राष्ट्रपति द्वारा अक्सर ही ‘अध्यादेश’ जारी करने से संसद की विधान निर्माण की शक्ति कम हो गई है ।

(x) संसद का नियंत्रण छुट-पुट, आम और अधिकतर राजनीतिक प्रकृति का है ।

(xi) संसद में प्रबल और स्थिर विरोध पक्ष के अभाव तथा संसदीय आचरण तथा नैतिकता में गिरावट आने के कारण भारत में प्रशासन के ऊपर विधायी नियंत्रण की प्रभावहीनता बड़ी है । पाल एच. एपलबी भारत में प्रशासन के ऊपर संसदीय नियंत्रण की भारी आलोचना करते हैं ।

उनकी आलोचनाओं की सूची निम्न है:

(i) संसद सदस्य लेखा नियंता और महालेखा परीक्षक के कार्यों के महत्व को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और उसकी रिपोर्टों पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं । ऐसा करके संसद हर स्तर पर लोक सेवकों के दब्बूपन को बढ़ा देती है और उनको निर्णय लेने का उत्तरदायित्व लेने के प्रति अनिच्छुक बना देती है ।

यह उनको बाध्य करती है कि वे निर्णय धीमी गति से तथा संदर्भ और सम्मेलन की बोझिल प्रक्रिया द्वारा लें जिसमें अंतत: प्रत्येक निर्णय लेने में हर किसी की भागीदारी धुँधली हो जाती है और पर्याप्त नहीं हो पाती तथा जो होती है, वह भी बहुत धीमे होती है ।

(ii) संसद सदस्यों के बीच इसको लेकर बहुत सामान्य और अस्पष्ट भय समाया है कि इसके उत्तदायित्वों को सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है । इस तरह के भय का समर्थन संसदीय उत्तरदायित्व के उच्च स्तर से वास्तव में संबंधित विषयों के विधेयक द्वारा नहीं किया जा सकता है । यहाँ संसद में सरकारी प्रस्तावों को ग्रेट ब्रिटेन की अपेक्षा कहीं अधिक बार संशोधित किया जाता है और प्रस्तावों को मूलतया संसद के बहुत छोटे हिस्से की भावनाओं का अत्यधिक ध्यान रखकर बनाया जाता है ।

(iii) संसद अक्सर ही पूर्वाग्रह प्रदर्शित करती है । अपवादस्वरूप 1956 में व्यापारियों के निर्णय पर भरोसा दर्शाया गया ।

(iv) यहाँ संसद आश्चर्यजनक रूप से छोटे किंतु प्रभावशाली व्यावसायिक हितों की कुछ निहित स्वार्थी माँगों पर तत्काल रियायत देने के लिए बहुत अधिक प्रवृत्त लगती है ।

(v) लोकसेवा आयोग की छोटी और संकीर्ण समझ को संसद ने इस गलतफहमी में समर्थन दिया था कि यह योग्यता प्रणाली को सुदृढ़ करेगी, लेकिन दरअसल इससे मंत्रियों की संसद के प्रति उत्तरदायित्व की भावना कमजोर होती है ।

(vi) अधिकारों को सौंपने का सबसे अधिक विरोध संसद में होता है जो भारतीय प्रशासन की सबसे बड़ी कमजोरी है । संसदीय शक्तियों को महत्त्वपूर्ण और सकारात्मक बनाने के लिए यह जरूरी है कि संसद अपनी शक्तियों को दूसरों के हवाले करें; परंतु संसद ऐसा करने में आनाकानी करती है जिससे मंत्रिगण, सचिव और प्रबंध निदेशक अपने-अपने अधिकारों को सौंपने से बचने हैं ।