नागरिक नौकरियों का प्रशिक्षण: भूमिका, उद्देश्य और तकनीकें | Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोकसेवकों का प्रशिक्षण का  अर्थ (Training of Civil Servants: Meaning) 2. लोकसेवकों का प्रशिक्षण का भूमिका और उद्देश्य (Training of Civil Servants: Role and Objectives) 3. प्रकार (Types) 4. तकनीकें (Techniques).

लोकसेवकों का प्रशिक्षण का  अर्थ (Training of Civil Servants: Meaning):

एस.एल. गोयल कहते हैं- ”प्रशिक्षण- (ए) एक कार्य प्रक्रिया है, (बी) जिसके द्वारा कार्मिक की क्षमताओं को बढ़ाया जा सकता है, (सी) जिससे कि अपने सांगठनिक कार्यों का निष्पादन करने के लिए अपेक्षित ज्ञान, कुशलताओं तथा रुझानों के अर्थों में सांगठनिक आवश्यकताओं । को पूरा किया जा सके, (डी) अपेक्षाकृत थोड़े समय में ही ।”

विलियम जी. टोर्पे की परिभाषा के अनुसार- ”प्रशिक्षण, कर्मचारियों के मौजूदा सरकारी पदों के लिए और भविष्य के सरकारी पदों के लिए उनको तैयार करने के उनकी कुशलताओं, आदतों, ज्ञान प्रवृत्तियों का विकास करने की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य उनकी प्रभावशीलता में वृद्धि करना है ।”

अवस्थी और माहेश्वरी कहते हैं कि- “प्रशिक्षण लोकसेवकों की कार्यक्षमता बढ़ाने के एक सुस्पष्ट प्रयास है और यह व्यावसायिक ज्ञान, व्यापक दृष्टि तथा व्यवहार के सही ढंग को प्रदान करके किया जाता है । यह लगातार महसूस की जाने वाली आवश्यकता के सम्मुख एक सतत या वांछित प्रयास है ।”

लोकसेवकों का प्रशिक्षण का भूमिका और उद्देश्य (Training of Civil Servants: Role and Objectives):

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लोकसेवकों के लिए प्रशिक्षण की भूमिका का विश्लेषण सर्वप्रथम ब्रिटेन में एशीटन कमेटी रिपोर्ट, 1944 में किया गया था । प्रशिक्षण के उद्देश्यों के बारे में इसने कहा था कि बड़े स्तर के किसी भी संगठन में कुशलता दो तत्वों पर निर्भर है ।

उसको सौंपे गए कार्य विशेष को करने के लिए व्यक्ति की तकनीकी कुशलता और एक संगठित संस्था के तौर पर संगठन की कम सुनिश्चित कुशलता, जो संस्था को संघटित करने वाले व्यक्तियों की सामूहिक भावना और उनके दृष्टिकोण से पैदा होती है । प्रशिक्षण को इन दोनों का ध्यान रखना चाहिए ।

रिपोर्ट के अनुसार प्रशिक्षण के प्रमुख उद्देश्य हैं:

1. ऐसे लोकसेवक पैदा करना जो अपने काम को नियम और स्पष्टता से कर सकें ।

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2. लोकसेवक को उन कार्यों के अनुकूल बनाना जो उसे एक परिवर्तनशील जगत में करने को दिए गए हैं । ”लोकसेवक को नए समय की नई आवश्यकताओं के प्रति अपने दृष्टिकोण और तरीकों को लगातार और निडरता से समायोजन करना चाहिए ।”

3. लोकसेवकों को समाज के प्रति जागरूक बनाना । तंत्र द्वारा लोकसेवकों के यांत्रिक बनने के खतरे के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित करने की जरूरत है । जहाँ हमारा लक्ष्य कुशलता के उच्चतम स्तर को प्राप्त करना होना चाहिए, वहीं हमारा उद्देश्य रोबोट जैसी यांत्रिक लोकसेवा नहीं है ।

4. लोकसेवकों में उच्चतर कार्य की ओर अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण क्षमता पैदा करना ।

5. लोकसेवकों का मनोबल बढ़ाना ।

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6. लोकसेवा में नए सदस्यों की कमियाँ दूर करना ।

7. लोकसेवकों की दृष्टि ओर दृष्टिकोण को व्यापक बनाना ।

8. लोकसेवकों में ईमानदारी को बढ़ावा देना ।

9. कर्मचारियों में समूह की भावना प्रोत्साहित करना ।

10. इस मनोवृत्ति का पोषण करना कि लोकसेवक मालिक नहीं, बल्कि जनसेवक हैं ।

लोकसेवकों का प्रशिक्षण  के  प्रकार (Training of Civil Servants: Types):

मूलतया प्रशिक्षण दो प्रकार के होते हैं- अनौपचारिक और औपचारिक । अनौपचारिक प्रशिक्षण का अर्थ है- वरिष्ठ अधिकारियों के मार्गदर्शन के अधीन वास्तविक काम करते हुए काम सीखना ।

अत: यह प्रशिक्षण अनुभव से या परीक्षण और चूक पद्धति (Trial & Error Method) द्वारा होता है । प्रशिक्षु को प्रशासनिक कुशलता की प्राप्ति वास्तविक काम करते हुए अर्थात व्यवहार के दौरान होती है । इसको ‘काम पर प्रशिक्षण’ कहते हैं ।

लोक प्रशासन में यह प्रशिक्षण की परंपरागत पद्धति है । ए.डी. गोरवाला के शब्दों में- ”एक अच्छे कलेक्टर (जिलाधीश) का घर नए सहायक कलेक्टर के लिए अक्सर ही उसका दूसरा घर होता है ।” दूसरी ओर, औपचारिक प्रशिक्षण विशेषज्ञ मार्गदर्शन तथा निरीक्षण के अंतर्गत व्यवस्थित ढंग से पूर्व नियोजित और सुस्पष्ट पाठ्यक्रमों के द्वारा दिया जाता है ।

यह निम्न प्रकार का होता है:

i. प्रवेश पूर्व प्रशिक्षण:

यह प्रशिक्षण उन प्रत्याशियों को दिया जाता है जो सार्वजनिक सेवा में निकट भविष्य में प्रवेश करना चाहते हैं । दूसरे शब्दों में, यह विभिन्न संस्थानों और कॉलेजों में दिए जाना वाला व्यावसायिक शिक्षण है । यह शिक्षण एप्रेंटिसशिप और इंटर्नशिप के रूप में संयुक्त राज्य अमरीका में बेहद लोकप्रिय है ।

भारत में यह केवल राजस्थान में 1960 से प्रचलित है । इस राज्य में सचिवालय और व्यापार प्रशिक्षण में जूनियर डिप्लोमा कोर्स करने वाले को सीधे-सीधे प्रवर श्रेणी लिपिक (अपर डिवीजन क्लर्क) के तौर पर भर्ती कर लिया जाता है ।

ii. अभिमुखन प्रशिक्षण:

इसमें नए सदस्य को संगठन से परिचित कराया जाता है । इससे उसे संगठन में अपना स्थान बनाने, नए काम के वातावरण का आदी बनने और अपने काम की मूल अवधारणाओं को जानने में मदद मिलती है । भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान, (हैदराबाद) ग्रामीण विकास प्रशासन के क्षेत्र में कार्यरत लोकसेवकों के लिए अभिमुख प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाता है ।

iii. आगमन प्रशिक्षण:

अभिमुख प्रशिक्षण की तरह यह भी एक प्रकार का प्रवेश प्रशिक्षण है । लेकिन अभिमुख प्रशिक्षण के विपरीत आगमन प्रशिक्षण विशेष कार्य पर केंद्रित होता है और इसमें काम की आधारभूत बातों, इसकी विषयवस्तु, लेखन, कार्यविधियों, नियमों और विनियमों आदि को सीखने की प्रक्रिया को तेज करने के लिए औपचारिक शिक्षा दी जाती है । अत: यह अभिमुख प्रशिक्षण से आगे जाता है जो रोजगार के सामान्य परिचय प्रकार का होता है ।

iv. सेवा कालीन प्रशिक्षण:

प्रवेश पूर्व प्रशिक्षण के विपरीत, सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रत्याशियों को सेवा में प्रवेश के बाद दिया जाता है । यह उनको अपने सवोत्तम प्रयास करने और अपने कार्य निष्पादन को सुधारने के लिए प्रोत्साहित करता है ।

इस प्रशिक्षण में निम्न कार्यक्रम होते हैं:

(i) प्रकोष्ठ प्रशिक्षण:

इसमें प्रारंभिक भाषणों को एक श्रृंखला होती है और तत्पश्चात विभागों और क्षेत्रीय केंद्रों के निरीक्षण भ्रमण होते हैं । इनसे कर्मचारियों को सीधी-सीधी जानकारी होती है । इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों का मेल होता है । भारत में इस प्रकार का प्रशिक्षण वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को दिया जाता है ।

(ii) चक्रीय प्रशिक्षण:

इसके अंतर्गत संगठन के विभिन्न विभागों में बार-बार काम करना शामिल है । इस पद्धति का प्रयोग भारत में प्रांतीय लोकसेवकों के प्रशिक्षण के लिए किया जाता है । नए प्रवेशक को सबसे पहले जिला अधिकारी के साथ बैठकर कार्यवाहियों को देखना होता है ।

इस प्रकार वह एक-एक करके जिले के सभी विभागों से जुड़ जाता है । इसके बाद उसे सरल-सा कार्यभार सौंपा जाता है । जैसे-जैसे वह अनुभव हासिल करता है, वैसे-वैसे उसको अधिक पेचीदा काम सौंपे जाते हैं ।

(iii) पुनर्चर्चा प्रशिक्षण (रिफ्रेशर ट्रेनिंग):

इसका लक्ष्य कर्मचारियों को उनके ज्ञान तथा तकनीकी कौशलों को ताजा तथा आधुनिक बनाना है । समय-समय पर आयोजित किए जाने वाले पुनर्चर्चा पाठ्यक्रमों के द्वारा कर्मचारियों को उनके कार्यक्षेत्र संबंधी नई घटनाओं तथा नवीनतम तकनीकों की जानकारी दी जाती है ।

1985 से सभी स्तरों के आई.ए.एस. अफसरों के लिए एक सप्ताह के पुनर्चर्चा प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेना अनिवार्य कर दिया गया है । इसका संचालन एल.बी.एस. राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी करती है ।

(iv) पुन:प्रशिक्षण:

इसके अंतर्गत विशेषज्ञता के नए क्षेत्र में मार्ग निर्देशन या विशेषज्ञता के पुराने क्षेत्र में सघन प्रशिक्षण देना शामिल है । इसका लक्ष्य कर्मचारियों की सामान्य क्षमता को व्यापक बनाना है । यह आमतौर पर किसी कर्मचारी को नए कार्यभार सौंपे जाने या उसके कार्यभार को अत्यंत बढ़ाए जाने की स्थिति में दिया जाता है ।

v. प्रवेश पश्चात प्रशिक्षण:

सेवा दौरान प्रशिक्षण के विपरीत इसका सीधा संबंध कार्य से नहीं है । इसका लक्ष्य कर्मचारी की सामान्य क्षमता का विस्तार करना है । 1961 से भारत सरकार विशेष पाठ्यक्रमों के लिए कर्मचारियों को अध्ययनार्थ अवकाश देती रही है जो उनकी सोच का विस्तार करते हैं और उनकी क्षमताओं को बढ़ाते हैं ।

vi. अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रशिक्षण:

अवधि के अनुसार प्रशिक्षण को अल्पकालिक और दीर्घकालिक वर्गों में रखा जाता है । प्रशिक्षण पाठ्यक्रम यदि कुछ सप्ताहों या एक-दो माह का होता है तो उसे अल्पकालिक प्रशिक्षण कहते हैं और यदि यह छह महीने से एक या दो-तीन वर्ष का होता है तो उसे दीर्घकालिक प्रशिक्षण कहा जाता है । भारत में दीर्घकालिक प्रशिक्षण का उदाहरण भारतीय विदेश सेवा का प्रशिक्षण है जिसकी अवधि तीन वर्ष होती है ।

vii. विभागीय और केंद्रीय प्रशिक्षण:

प्रशिक्षण जब विभाग द्वारा (विभाग के अंदर) आयोजित किया जाता है तो उसे विभागीय प्रशिक्षण कहते हैं । यह विभाग के वरिष्ठ एवं अनुभवी सदस्य देते हैं । इस प्रकार के प्रशिक्षण का उदाहरण एस. बी. पी. राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद द्वारा दिया जाने वाला प्रशिक्षण है ।

दूसरी ओर विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण का आयोजन जब केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थान द्वारा होता है तो उसे केंद्रीय या केंद्रीयकृत प्रशिक्षण कहते हैं । इस प्रकार के प्रशिक्षण का उदाहरण एल.बी.एस. राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी द्वारा दिया जाने वाला प्रशिक्षण है ।

viii. कौशल और पृष्ठभूमि प्रशिक्षण:

जब प्रशिक्षण का उद्देश्य कर्मचारियों को विशेष तकनीक, कार्यविधि, नियम, विनियम, पद्धति इत्यादि की जानकारी देना होता है तो इसे कौशल प्रशिक्षण कहते हैं । जैसे कि- भारतीय लेखा परीक्षण एवं लेखा सेवा के अधिकारियों को लेखा परीक्षण, नियमों और कार्यविधि संबंधी प्रशिक्षण ।

दूसरी ओर पृष्ठभूमि प्रशिक्षण का उद्देश्य कर्मचारी के कार्य के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक पक्षों को समझने में उसकी मदद करके उसकी सोच को व्यापक बनाना है । उदाहरण के लिए इस प्रकार का संस्थानात्मक प्रशिक्षण आई.ए.एस. के परिवीक्षाधीन अधिकारियों को एल.बी.एस. राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में दिया जाता है ।

लोकसेवकों का प्रशिक्षण  के तकनीकें या पद्धति (Training of Civil Servants: Techniques):

1. व्याख्यान पद्धति:

प्रशिक्षण का यह सबसे पुराना तरीका है । इसमें वरिष्ठ विद्वानों तथा अनुभवी अधिकारियों द्वारा व्याख्यान दिए जाते हैं । इनसे प्रशिक्षुओं को उनके काम के विभिन्न पक्षों पर नई-नई जानकारियाँ मिलती है ।

2. अभिषद (सिंडीकेट) पद्धति:

प्रशिक्षण की इस पद्धति का जन्म इंग्लैंड में एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज (हेनले- ओन-थेम्स) में हुआ था । इस पद्धति में तीन या चार प्रशिक्षुओं के छोटे से दल को अध्ययन परियोजना का काम दिया जाता है ।

सामान्य सदस्यों के मार्गदर्शन में प्रशिक्षु से उस विषय का गहन अध्ययन कराया जाता है । अत: यह प्रशिक्षण की भागीदारी पद्धति है । अभिषद दो प्रकार के होते हैं- जानकारी संग्रह और समस्या समाधान ।

3. विषय अध्ययन पद्धति:

इसमें विषय विशेष का सघन और गहरा अध्ययन किया जाता है । इसके लिए वास्तविक मामलों का वर्णन उन लोगों द्वारा किया जाता है जिनको अध्ययनाधीन मामले का निजी अनुभव होता है । इसके बाद सामान्य सदस्य के निर्देशन और देखरेख में सामूहिक परिचर्चा की जाती है । इस तरीके से लोकसेवकों की समझ और कार्यक्षमता विकसित होती है ।

4. विस्तार (इंसीडेंस) पद्धति:

इस पद्धति के अंतर्गत प्रशिक्षुओं को सबसे पहले प्रशासनिक समस्याओं से संबंधित तथ्य उपलब्ध कराए जाते हैं और फिर उनसे इनका हल खोजने को कहा जाता है । उनके निर्णयों अर्थात हलों को विचार-विमर्श के लिए रखा जाता है और प्रशिक्षुओं से अपने निर्णयों को सही ठहराने को कहा जाता है । अत: इसमें समस्या समाधान के उपाय का प्रयोग किया जाता है और इसका प्रयोग प्रशिक्षुओं में निर्णय लेने के कौशल को विकसित करने के लिए होता है ।

5. भूमिका अभिनय:

इसमें वास्तविक परिस्थिति को पैदा किया जाता है जिसमें प्रशिक्षु अपने काम से संबंधित अपनी भूमिका अदा करते हैं । यह प्रशिक्षण प्रदर्शन के द्वारा दिया जाता है । इसके बाद भाग लेने वालों के व्यवहार पर परिचर्चा की जाती है ।

6. प्रबंधन खेल:

इससे प्रशिक्षुओं की निर्णय निर्माण शैली (और इसमें सम्मिलित व्यवहार) की जाँच करने और परिचर्चाओं तथा निरीक्षण के माध्यम से उनकी कमियाँ समाप्त करने में मदद मिलती है ।

7. संवेदनशीलता प्रशिक्षण:

यह सबसे जटिल और नवीनतम पद्धति है । प्रशासनिक सिद्धांत के साहित्य में कर्मचारियों की व्यक्तिगत प्रभावशीलता में सुधार करने के लिए इस पद्धति का सुझाव क्रिस आर्गिरिस ने दिया था । इसको टी-ग्रुप ट्रेनिंग भी कहते हैं । इसका लक्ष्य है- व्यवहार के अपेक्षित ढंगों के प्रति प्रशिक्षुओं की मनोवृत्तियों का अनुकूलन ।

ए.आर. त्यागी के शब्दों में- ”टी-युप में प्रशिक्षु अपनी स्वभावगत विलक्षणताओं को अपने साथी प्रशिक्षुओं के सामने लाते हैं जो आपसी व्यवहार के द्वारा उनको रगड़कर साफ कर देते हैं । ये प्रशिक्षु अपने पुराने व्यवहार के प्रति सचेत हो जाते हैं जिसका पता उनको अन्यथा कभी नहीं चल पाता और इस प्रकार यह पद्धति उन्हें आत्मविश्लेषण तथा आत्मविकास का अवसर प्रदान करती है ।”