नागरिक समाज: घटक और भूमिका | Read this article in Hindi to learn about:- 1. नागरिक समाज  की परिभाषा (Definition of Civil Society) 2. नागरिक समाज  के लक्षण (Features of Civil Society) 3. संघटक (Components) 4. भूमिका (Role).

नागरिक समाज  की परिभाषा (Definition of Civil Society):

हाल के वर्षों में ‘नागरिक समाज’ शब्द राजनीतिक, प्रशासनिक और बौद्धिक क्षेत्रों में काफी प्रचलित हो गया है परंतु इसका इतिहास बहुत पुराना है । परंपरागत रूप से ‘राज्य’ और ‘नागरिक समाज’ दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे के लिए किया जाता और उनको समानार्थी माना जाता था ।

नागरिक समाज को राज्य से अलग और भिन्न मानने का काम सर्वप्रथम राजनीतिक दार्शनिक जी. डब्लू. एफ. हीग ने किया था । उन्नीसवीं सदी में इस काम को कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंजेल्स ने आगे बढ़ाया था । बीसवीं सदी में नागरिक समाज की अवधारणा का विश्लेषण एंतोनियो ग्रम्शी द्वारा किया गया ।

जेफ्री अलेक्ज़ेंडर- ”नागरिक समाज एक समावेशी छाते जैसी अवधारणा है जो राज्य के बाहर की अनगिनत संस्थाओं के संबंध में उद्धरित की जाती है ।” नीरजा गोपाल जायाल- ”नागरिक समाज तमाम ऐसे स्वैच्छिक संगठनों और सामाजिक अंतरक्रियाओं को समावेशित करता है जिन पर राज्य का नियंत्रण नहीं होता ।”

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एस. के. दास- ”नागरिक समाज वो संगठित समाज है जिस पर राज्य शासन करता है ।” जॉर्ज हजिंस- ”नागरिक समाज एक सामाजिक स्थान है जो राज्य और व्यापारिक क्षेत्रों से अलग होता है किंतु साथ-साथ काम करते हुए राज्य के साथ, कभी-कभी तनावपूर्ण सह-संबंध रखता है ।”

सूसैन हेबर रुडोल्फ- ”भिन्न-भिन्न सिद्धांतकारों ने नागरिक समाज की परिभाषा विभिन्न प्रकार से की है, परंतु एक न्यूनतम परिभाषा अ-राज्यीय स्वायत्त क्षेत्र के विचार को सम्मिलित करेगी जिसके अंतर्गत आता है- नागरिकों का सशक्तिकरण, परस्पर विश्वास निर्माण और संघ जीवन राज्य की अधीनता के बजाए इसके साथ परस्पर क्रिया ।” लैरी डायमंड- ”नागरिक समाज एक संगठित सामाजिक जीवन को दर्शाता है जोकि स्वैच्छिक, स्वजनित, स्व-समर्थित होती है और एक वैधानिक व्यवस्था या सहभागिता मूल्यों के समुच्चय द्वारा घिरा होता है ।”

नागरिक समाज  के लक्षण (Features of Civil Society):

नागरिक समाज के लक्षण निम्नलिखित हैं:

1. यह राज्येतर संस्थाओं को इंगित करता है ।

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2. इसमें समाज का विशाल क्षेत्र आता है ।

3. यह संगठित समाज को इंगित करता है ।

4. इसके अंतर्गत वे समूह आते हैं जो राज्य (राजनीतिक समाज) और परिवार (प्राकृतिक समाज) के बीच होते हैं ।

5. यह संगठन की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता और अन्य नागरिक एवं आर्थिक अधिकारों के अस्तित्व को सूचित करता है ।

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6. इसका लक्ष्य समान सार्वजनिक भलाई है ।

7. यह सत्तावाद और निरंकुशतावाद का विरोध करता है ।

8. व्यक्ति को शिक्षित करके यह नागरिकता को बढ़ावा देता है ।

9. यह राजनीतिक-प्रशासनिक मामलों में नागरिकों की भागीदारी का रास्ता खोलता है ।

10. यह जनमत का निर्माण करता है और सामान्य प्रकृति की माँगें तय करता है ।

11. यह उत्पीड़न नहीं बल्कि स्वैच्छिकतावाद का महत्वपूर्ण प्रतीक है ।

12. राज्य के आधिपत्य को कम करने के लिए यह बहुलतावाद की वकालत करता है ।

13. सामुदायिक मूल्य प्रणाली में यह नैतिक संदर्भ के रूप में कार्य करता है ।

14. यह स्वायत्त होते हुए भी राज्य की सत्ता के अधीन है ।

नागरिक समाज के बारे में प्रचलित सकारात्मक विचारों का सारांश प्रस्तुत करते हुए ब्रिटेन के सिद्धांतकार जॉन कीन कहते हैं- ”इस बात पर पैदा हो रही यह आम सहमति कि नागरिक समाज स्वतंत्रता का क्षेत्र है, सही रूप में जनतंत्र की शर्त के रूप में इसके आधारभूत मूल्य पर बल देता है; जहाँ नागरिक समाज नहीं है वहाँ एक राजनीतिक-वैधानिक ढाँचे के भीतर नागरिक अपनी पहचान, अपने अधिकारों और कर्तव्यों को चुनने की क्षमता नहीं रख सकते हैं ।”

नागरिक समाज  के संघटक (Components of Civil Society):

नागरिक समाज की छत्र अवधारणा में निम्नलिखित संगठन और समूह आते हैं:

1. गैर-सरकारी संगठन,

2. समुदाय आधारित संगठन,

3. स्वदेशी लोगों के संगठन,

4. मजदूर संगठन,

5. किसान संगठन,

6. सहकारी संस्थाएँ,

7. धार्मिक संगठन,

8. युवा दल,

9. महिला दल और

10. इसी तरह के अन्य संगठित समूह ।

नागरिक समाज संयुक्त राज्य अमरिका में अत्यंत विकसित है जबकि भारत में यह बीसवीं सदी के सातवें दशक से तेजी से विकास कर रहा है । नीरजा गोपाल जायाल के शब्दों में- ”भारत के संबंध में यह कहा गया है कि नागरिक समाज राज्य के विरोध के अर्थ में विकसित है, संगठित समूहों के अर्थ में नहीं ।”

नीरा चंधोक का विचार है- ”अधिकांश सिद्धांतकारों की दृष्टि में भारत के नागरिक समाज सामाजिक समूहों के अस्थिर संगठन हैं, जो जाति तथा भाईचारे के संबंधों या धार्मिक लामबंदी पर उतने ही आधारित हैं जितने कि स्वैच्छिक सामाजिक संगठन ।”

भारत में नागरिक समाज संगठनों का वर्गीकरण राजेश टंडन ने पाँच प्रवर्गों में किया है:

1. जाति, कुल या नृजाति पर आधारित परंपरागत संगठन ।

2. रामकृष्ण मिशन, इस्लामिक संस्थाओं, जैसे धार्मिक संगठन ।

3. अनेक प्रकार के सामाजिक आंदोलन उदाहरण के लिए:

(क) महिलाओं या जनजातियों जैसे विशेष समूहों की आवश्यकताओं पर केंद्रित सुधार आंदोलन ।

(ख) दहेज या शराबखोरी जैसी सामाजिक बुराइयों के सुधार आंदोलन ।

(ग) विकास के चलते विस्थापन के विरुद्ध विरोध आंदोलन और

(घ) नागरिक स्वतंत्रता या भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों जैसे आंदोलन, जिनका संबंध शासन व्यवस्था से है ।

4. विभिन्न प्रकार के सदस्यता संगठन, उदाहरण के लिए:

(क) मजदूर संगठनों (ट्रेड यूनियनों) किसान संगठनों इत्यादि जैसे प्रतिनिधिक

(ख) वकीलों, डॉक्टरों इत्यादि के संगठनों जैसे पेशेवर ।

(ग) खेल, कूद क्लबों, मनोरंजन क्लबों जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक क्लब ।

(घ) शहरों में मोहल्ला समितियाँ अथवा गांवों में समुदाय आधारित संगठनों जैसे स्वयं-सहायता ।

5. विभिन्न प्रकार के मध्यवर्ती संगठन, उदाहरण के लिए:

(क) स्कूलों, बेसहाराओं के गृहों जैसे सेवा संगठन ।

(ख) लामबंद करने वाले जो समाज के बेहद गरीब हिस्सों को उनके अधिकारों की मांग उठाने के लिए संगठित करने में सहायता करते हैं ।

(ग) समर्थक, जो समुदाय आधारित अन्य संगठनों का समर्थन करते हैं ।

(घ) बाल मुक्ति और आप (CRY), राजीव गांधी फाउंडेशन जैसे लोकहितैषी ।

(ङ) किसी विशेष उद्देश्य की वकालत करने वाले ।

(च) ग्रामीण विकास में स्वयं-सेवी एजेंसियों के संघ (AVARD) जैसे तंत्र जो सामूहिक स्वर एवं शक्ति को विस्तारित करते हैं ।

नागरिक समाज  की भूमिका (Role of Civil Society):

नागरिक समाज संगठन (स्वयंसेवी या गैर-सरकार संगठन) कल्याण एवं विकास प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं ।

इनकी भूमिका के विभिन्न आयाम निम्न हैं:

1. वे गरीबों को सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए संगठित और गतिशील करते हैं ।

2. वे सूचना का प्रसार करते हैं और लोगों को उनकी बेहतरी के लिए सरकार द्वारा शुरू की गईं विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के बारे में जानकारी देते हैं ।

3. वे प्रशासनिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी का रास्ता खोलते हैं ।

4. वे प्रशासन तंत्र को लोगों की आवश्यकताओं-आकांक्षाओं के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाते हैं ।

5. निचले स्तरों पर वे प्रशासनतंत्र कार्यप्रणाली पर सामुदायिक प्रणाली की जवाबदेही लागू करते हैं ।

6. वे लक्ष्य समूहों की पहचान करने में प्रशासनतंत्र की सहायता करते हैं ।

7. स्थानीय विकास के लिए वे स्थानीय संसाधनों के उपयोग का रास्ता साफ करते हैं और इस प्रकार समुदायों को आत्मनिर्भर बनाते हैं ।

8. विभिन्न राजनीतिक विषयों पर चर्चाएँ चलाकर वे लोगों में राजनीतिक चेतना पैदा करते हैं ।

9. वे सार्वजनिक हित के पहरेदार का काम करते हैं ।

10. वे स्वयंसेवा के सिद्धांत को सुदृढ़ बनाते हैं ।

परंतु, यहाँ यह बताया जाना चाहिए कि स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका सरकारी प्रयासों को बढ़ाने में निहित है न कि उनके साथ प्रतिस्पर्धा करने में । मिल्टन एस्मेन ने विकास की चार एजेंसियों को पहचाना है- राजनीतिक प्रणाली, प्रशासनिक प्रणाली, जनसंचार माध्यम और स्वयंसेवी संगठन ।

उन्होंने महसूस किया था कि विकास प्रक्रियाओं में स्वयं सेवी संगठनों की भागीदारी के तीन लाभ होते हैं- एकजुटता की भावना, निर्णय-निर्माण में भागीदारी और सरकार सहित विकास की अन्य एजेंसियों के साथ परस्पर क्रिया का अवसर ।

विख्यात अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व सदस्य राजकृष्ण के अनुसार सरकारी एजेंसियों की तुलना में स्वयंसेवी एजेसियाँ तीन अर्थों में बेहतर हैं:

(क) गरीबों के दुख-दर्दों को कम करने के कार्य में सरकारी कर्मचारियों की तुलना में उनके कार्यकर्ता अधिक ईमानदारी से समर्पित होते हैं ।

(ख) ये सरकारी कर्मचारियों की अपेक्षा गाँव के गरीबों से बेहतर संपर्क बना सकते हैं ।

(ग) चूकि ये नौकरशाही के सरल नियमों और कार्यप्रणाली से बँधे नहीं होते, अत: ये अधिक लचीलेपन से काम कर सकते हैं ।

सीमाएँ:

स्वैच्छिक संगठनों की कई सीमाएँ भी होती हैं जो निम्नलिखित हैं:

1. पर्याप्त वित्तीय संसाधनों का अभाव ।

2. प्रशिक्षित और पेशेवर कर्मियों का अभाव ।

3. नौकरशाही का असहयोग और कभी-कभी प्रतिरोध ।

4. अपर्याप्त सूचना आधार ।

5. सीमित कार्यात्मक परिप्रेक्ष्य (न कि समग्रतावादी उपागम) ।

6. राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रभाव ।

7. स्थानीय भू-स्वामियों, साहूकारों इत्यादि का प्रतिरोध ।

8. जातिवाद, साम्प्रदायिकता, गरीबी जैसे विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पर्यावरण ।

स्वैच्छिक क्षेत्र के गुणों और अवगुणों का निर्धारण करते हुए 1997 की विश्व विकास रिपोर्ट में प्रेक्षित किया गया कि ”स्वैच्छिक क्षेत्र न केवल अपनी मजबूतियों को पटल तक लाता है बल्कि अपनी कमजोरियों को भी सामने रखता है । यह जन जागरूकता बढ़ाने, नागरिकों की समस्याओं को आवाज प्रदान करने और सेवाएँ उपलब्ध कराने जैसे कई अच्छे कार्य करता है । कभी-कभी स्थानीय स्वसहायता संगठन स्थानीय उत्पादों एवं सेवाओं की उपलब्धि को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि स्थानीय समस्याओं के प्रति उनकी चिन्ता अधिक होती है किन्तु उनकी यह चिन्ता प्राय: कुछ सुनिश्चित धार्मिक एवं नस्लीय समूहों के लिए होती है न कि सम्पूर्ण समाज के लिए । उनकी जवाबदेही भी सीमित होती और उनके संसाधन भी पर्याप्त नहीं होते हैं ।”