भारत सरकार अधिनियम, 1935 | Government of India Act of 1935 in Hindi

1935 का अधिनियम, ”कागजी संघ” और रजवाड़े | Read this article in Hindi to learn about the government of India Act (1935) which was implemented during the British rule.

1919 के कानून ने न तो भारतीय जनमत के किसी भाग को प्रभावित किया था, न लंदन में बैठे रूढ़िवादियों को । राजनीतिक आंदोलनों ने यह बात स्पष्ट कर दी कि केंद्र सरकार पर अंग्रेजों के नियंत्रण को खतरे में डाले बिना कांग्रेस को सत्ता में कुछ भागीदारी देनी ही होगी ।

इसलिए 1920 के दशक के अंत में सुधारों की नए सिरे से बहस शुरू हुई और लॉर्ड साइमन की अध्यक्षता में 1927 में एक संसदीय दल गठित किया गया । लेकिन साइमन आयोग जब भारत आया तो सभी राजनीतिक दलों ने उसका बहिष्कार किया क्योंकि वह पूरी तरह यूरोपीय था और उसमें कोई भारतीय सदस्य नहीं था ।

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अक्तूबर 1929 में लॉर्ड इर्विन ने यह घोषणा करके एक और रियायत दी कि पूर्ण ‘डोमीनियन स्टेटस’ भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक लक्ष्य होगा लेकिन इंग्लैंड में रूढ़िवादी मत वालों की नजर में इसका कुछ भी अर्थ नहीं था ।

साइमन आयोग की रिपोर्ट जून 1930 में जारी की गई और उसने प्रांतों में द्वैधशासन (dyarchy) की जगह पूरी तरह जिम्मेदार सरकारों के गठन का सुझाव दिया पर गवर्नरों के हाथों में कुछ आपातकालीन शक्तियाँ भी रहें पर केंद्र सरकार की संरचना में किसी परिवर्तन का सुझाव नहीं दिया गया था ।

केंद्र पर सरकारी नियंत्रण बनाए रखने के इच्छुक इस प्रस्ताव ने भारत के किसी भी राजनीतिक समूह को संतुष्ट नहीं किया और इसे सविनय अवज्ञा आंदोलन के आरंभ हो जाने के कारण लागू भी नहीं किया जा सका । एक और रियायत के रूप में इर्विन ने भावी शासन प्रणाली पर बहस के लिए एक गोलमेज सम्मेलन का प्रस्ताव रखा ।

लेकिन लंदन में नवंबर 1930  और जनवरी 1931 के बीच आयोजित उसके पहले सत्र का कांग्रेस ने बहिष्कार किया । वहाँ ब्रिटिश भारत और रजवाड़ों के प्रतिनिधियों ने भारत के लिए ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त एक संघीय सरकार की आवश्यकता पर बहस की ।

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लेकिन सम्मेलन की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही, क्योंकि लंदन में कंजर्वेटिव राष्ट्रीय सरकार संघ के विचार को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं थी । फिर गांधी को सितंबर-दिसंबर 1931 के बीच दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए तीन अस्पष्ट सिद्धांतों के आधार पर सहमत किया गया-संघ उत्तरदायी शासन और आरक्षण व सुरक्षा उपायों के आधार पर ।

लेकिन गांधी की भागीदारी व्यर्थ रही क्योंकि वार्ता अल्पसंख्यक समिति में अलग निर्वाचकमंडल के सवाल पर भंग हो गई यह माँग अब मुसलमान ही नहीं बल्कि दलित (अछूत), एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई और यूरोपीय भी उठा रहे थे । सितंबर 1931 में ब्रिटिश राज में एक टोरी मंत्रिमंडल के गठन के बाद ब्रिटिश अधिकारियों का रुख और भी कड़ा हो गया ।

भारत के संवैधानिक इतिहास में एक और नाटकीय मोड़ तब आया जब प्रधानमंत्री रैफ्ज़े मैकडोनल्ड ने अगस्त 1932 में अपने कम्यूनल (सांप्रदायिक) अवॉर्ड की घोषणा की । उसने समुदायों के बीच प्रतिनिधित्व का वितरण किया और अलग निर्वाचनमंडल के प्रावधान को दलितों पर भी लागू किया ।

तब यरवदा जेल में बंद गांधी ने इसे हिंदू समाज को बाँटने का एक आपराधिक षड्यंत्र समझा, क्योंकि वे समझते थे कि दलित हिंदू समाज के अभिन्न अंग हैं । उनका तर्क था कि अलग निर्वाचक-मंडल का प्रावधान उनको राजनीतिक स्तर पर अलग कर देगा और हिंदू समाज में उनके एकीकरण का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर देगा ।

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इसलिए इस व्यवस्था को बदलने के लिए उन्होंने आमरण अनशन का निर्णय किया । पूरा देश बौखला उठा । हालांकि दलित वर्गो के एम. सी. राजा जैसे कुछ नेता संयुक्त निर्वाचनमंडल के पक्ष में थे पर उनमें सबसे प्रभावशाली डॉ बी. आर. अंबेडकर ने अलग निर्वाचकमंडल के प्रावधान को दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाने की एकमात्र आशा समझा ।

लेकिन गांधी हालांकि अलग प्रतिनिधिमंडल के विरोधी थे पर आरक्षित सीटों के विचार के विरुद्ध नहीं थे और अंतत: अंबेडकर ने भी उसे स्वीकार कर लिया, क्योंकि दलित वर्गो के लिए आरक्षित सीटों की प्रस्तावित संख्या बढ़ा दी गई और ऐसे वर्गो के लिए समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए चुनाव की एक द्विस्तरीय व्यवस्था की सिफारिश की गई ।

यही सितंबर 1932 के पूना समझौते (पूना पैक्ट) का आधार बना, जिसे बाद में सरकार ने भी स्वीकार कर लिया । नवंबर-दिसंबर 1932 का तीसरा गोलमेज सम्मेलन काफ़ी हद तक औपचारिक और महत्त्वहीन ही रहा, क्योंकि 112 प्रतिनिधियों में केवल 46 ने उसमें भाग लिया ।

मार्च 1933 में एक श्वेतपत्र ने भारतीय जनमत से केवल सलाह-मशवरे का प्रावधान करके एक संसदीय संयुक्त प्रवर समिति का गठन किया । इसलिए भारत सरकार अधिनियम जिसने अंतत 1935 में मूख्य रूप लिया किसी को भी संतुष्ट न कर सका । कांग्रेस ने भी उसकी आलोचना की और मुस्लिम लीग ने भी ।

प्रांतों में 1935 के कानून ने द्वैधशासन की जगह सभी विभागों में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की । लेकिन विधायिकाओं के सत्र बुलाने विधेयकों पर सहमति देने और आदिवासी क्षेत्रों का प्रशासन चलाने के विषय में गवर्नरों को व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ देकर उसे संतुलित कर दिया गया ।

गवर्नरों को अल्पसंख्यकों के अधिकारों, सिविल कर्मचारियों के विशेषाधिकारों और अंग्रेजों के व्यापारिक हितों की सुरक्षा के लिए भी विशेष शक्तियाँ दी गई थीं । अंतिम बात यह कि एक विशेष प्रावधान के तहत वे अनिश्चितकाल के लिए किसी प्रति का प्रशासन अपने हाथ में ले सकते थे ।

केंद्र में इस कानून ने एक संघीय ढाँचे की व्यवस्था की लेकिन वह तभी लागू होती जबकि 50 प्रतिशत से अधिक रजवाड़े एक ऐसे विलयपत्र पर हस्ताक्षर करके औपचारिक रूप से उसे स्वीकार कर लेते जो ब्रिटिश सम्राट के साथ उनकी पहले की सभी साधेयों को रह कर देता ।

इस कानून ने केंद्र में द्वैधशासन की व्यवस्था की पर कुछ सुरक्षा उपायों के साथ और विदेशी मामले प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा जैसे विभाग पूरी तरह वायसरॉय के नियंत्रण में होते । भारत सरकार की वित्तीय स्वतंत्रता की पुरानी माँग के जवाब में वित्तीय नियंत्रण का लंदन से नई दिल्ली को हस्तांतरण इस कानून की एक और विशेषता था । निर्वाचकमंडल को बढ़ाकर 3 करोड़ कर दिया गया लेंकिन सपत्ति संबंधी भारी अर्हताओं ने भारतीय जनता के 10 प्रतिशत भाग को मताधिकार से वंचित कर दिया ।

ग्रामीण भारत में इसने धनी और मझोले किसानों को मताधिकार दिया जिनको कांग्रेस की राजनीति का प्रमुख आधार माना जाता था । इसलिए डी. ए. लो. की शंका यह है कि यह कानून कांग्रेस के समर्थन में सेंध लगाने और इन महत्त्वपूर्ण वर्गों को अंग्रेजी राज से बाँधने का एक माध्यम था ।

वे लिखते हैं कि ”प्रभुत्वशाली किसान समुदायों की वफ़ादारी पाने की प्रतियोगिता” इस चरण में कांग्रेस और राज के बीच टकराव का केंद्र थी । इसके अलावा दो सदनों वाली केंद्रीय विधायिकाओं में 30 से 40 प्रतिशत सीटों पर रजवाड़ों द्वारा मनोनीत सदस्य बैठे होते और इस तरह कांग्रेस की बहुमत पाने की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाती ।

प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकों में मुसलमानों को अलग निर्वाचकमंडल दिया गया और अनुसूचित जातियों (यह ‘दलित वर्गों’ या अछूतों के लिए एक नया शब्द था) के लिए सीटें आरक्षित की गई । इसलिए लंदन में विपक्षी लेबर पार्टी ने यह कोई गलत तर्क नहीं दिया कि इस कानून का उद्देश्य वफ़ादार तत्त्वों को सत्ता में भागीदार बनाकर भारत में ब्रिटिश हितों की रक्षा करना था ।

1935 के कानून ने ‘डोमीनियन स्टेटस’ देने की कोई बात नहीं की जिसका वादा सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान किया गया था । विंस्टन चर्चिल जैसे कट्टर रूढ़िवादी चाहे जितना भी सोचते रहे हों कि यह कानून ब्रिटिश राज द्वारा साम्राज्य का त्याग था पर उसके सहयोगियों ने सचेत ढंग से संघीय ढाँचे का चुनाव किया क्योंकि जैसा कि कार्ल ब्रिज ने तर्क दिया है वह ”मुख्यत: महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में नियंत्रण सौंपने की बजाय ब्रिटिश राज के हितों की सुरक्षा करता ।”

उसका कुल प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस का ध्यान प्रांतों की ओर मुड् गया जबकि केंद्र पर जबरदस्त साम्राज्यिक नियंत्रण बना रहा । यदि कोई परिवर्तन हुआ तो यह हुआ जैसा कि बी. आर. टॉमलिसन ने दिखाया है कि ”साम्राज्यिक नियंत्रण की व्यवस्था का शीर्षस्थान लदन से हटकर दिल्ली में आ गया” अब वायसरॉय को ऐसी अनेक शक्तियों मिलने जा रही थीं जो पहले भारत सचिव को मिली हुई थीं और इस तरह इससे भारत व ब्रिटिश राज के आपसी संबंधों को ऐसी नई प्रवृत्ति मिली कि बुनियादी साम्राज्यिक हित सुरक्षित रह सकें ।

1935 के भारत सरकार अधिनियम का महत्त्व सबसे अच्छी तरह स्वयं तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो के शब्दों में ही व्यक्त किया जा सकता है: ”हमने यद्यपि 1935 का संविधान इसीलिए बनाया कि हम उसे साम्राज्य से भारत को बाँधे रखने का … सबसे अच्छा उपाय मानते थे ।

1935 के कानून का प्रांतीय पक्ष 1937 के चुनावों के साथ लागू हुआ, लेकिन केंद्र में जैसी कि टोरियों को सभवत: आशा रही होगी, एक गतिरोध बना रहा क्योंकि कानून का संघीय पक्ष चला ही नहीं और न उसमें सचमुच किसी की रुचि थी । पहली बात यह कि मुसलमान नेता हिंदू वर्चस्व को लेकर डरे हुए थे और महसूस करते थे कि प्रस्तावित संघीय ढाँचा अभी भी बहुत कुछ एकात्मक था ।

केंद्रीय विधायिका में ब्रिटिश भारत के सारे प्रतिनिधि प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित होते और यह बात मुसलमानों के विरुद्ध जाती क्योंकि वे चार को छोड़ सभी प्रांतों में अल्पमत में थे । इसलिए हालांकि उन्होंने संघ का सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं किया पर वे निश्चित ही एक कमजोर केंद्र सरकार के साथ विकेंद्रीकरण के पक्ष में थे जिससे मुस्लिम-बहुल प्रांतों में प्रांतीय सरकारों को अधिक स्वतंत्रता मिलती ।

कांग्रेस ने भी संघ के प्रस्तावित ढाँचे को पसंद नहीं किया क्योंकि संघीय विधायिका की एक-तिहाई सीटें रजवाड़ों द्वारा भरी जातीं और इस तरह लोकतांत्रिक भारत का भाग्य निरंकुश पुश्तैनी शासकों की इच्छा से बँधकर रह जाता ।

लेकिन संघ की योजना अंतत इसलिए असफल रही कि राजे-महाराजे भी उसमें शामिल होने से हिचक रहे थे । उनकी मुख्य आपत्ति यह थी कि इस कानून ने सर्वोच्चता के मुद्दे को हल नहीं किया था । सर्वोच्च सत्ता के रूप में भारत सरकार को अभी भी उनके रजवाड़ों में हस्तक्षेप करने का और आवश्यक हुआ तो उन्हें सत्ता से हटाने तक का अधिकार मिला हुआ था ।

उनका दूसरा भय एक ऐसी लोकतांत्रिक संघवादी केंद्रीय सरकार में शामिल होने को लेकर था जिसमें ब्रिटिश भारत के निर्वाचित राजनीतिक नेताओं को उनके निरंकुश शासन से शायद ही कोई सहानुभूति होती और वे उनके इलाकों में लोकतांत्रिक आंदोलनों को प्रोत्साहन देते ।

इसके अलावा बड़े रजवाड़े अपनी वित्तीय स्वतंत्रता छोड़ना नहीं चाहते थे जबकि छोटे रजवाड़े विधायिका में अपने अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की शिकायतें कर रहे थे । लेकिन राजाओं महाराजाओं की इन चिंताओं को उनके सही ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर देखें तो वे अधिक अर्थपूर्ण दिखाई देंगी । इसलिए यहाँ विषय से थोडा-सा हटकर पहले विश्वयुद्ध के आरंभ के बाद भारतीय रजवाड़ों की कहानी को सामने रखना उपयुक्त ही होगा ।

यदि बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में कर्जन की हस्तक्षेपवादी संरक्षक वृत्ति की नीति ने राजाओं और अंग्रेजी राज के संबंधों में तनाव पैदा किया तो मिंटो की अहस्तक्षेप की नीति ने दोनों के बीच फिर से मेलजोल पैदा किया ।

इस दूसरी नीति का उद्देश्य ब्रिटिश भारत को अपने फैलाव में समेट रहे राजनीतिक परिवर्तनों से रजवाड़ों को अप्रभावित रखना और उनकी जनता को राष्ट्रवाद की उभरती भावनाओं से दूर करना था । पहले विश्वयुद्ध के बाद यही अलगाव और राजनीतिक बाड़ा (political quarantine) धीरे-धीरे टूटने लगे ।

इस युद्ध ने एक बार फिर साम्राज्य के लिए राजाओं महाराजाओं की उपयोगिता साबित की क्योंकि उन्होंने युद्ध कोष में खुलकर दान दिए मूल्यवान सैनिक सेवाएँ प्रदान कीं और अपने रजवाड़ों में सैनिकों की भरती को प्रोत्साहित किया ।

इसलिए युद्ध के अंत के बाद वे अपनी सेवाओं की मान्यता के रूप में राजनीतिक विभाग की दबाव डालने की प्रवृत्तियों पर अधिक संवैधानिक प्रतिबंध ब्रिटिश भारत में उठती राजनीतिक लहरों से सुरक्षा की अधिक गारंटी और साम्राज्य की सलाह-मश्विरा की प्रक्रिया में अधिक भागीदारी चाहते थे ।

इसलिए युद्धोपरांत संवैधानिक सुधारों के विषय में मांटेग्यू और चेम्सफोर्ड ने अपनी जाँच-पड़ताल शुरू की तो राजाओं ने दूसरे प्रश्नों के साथ एक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज, एक सलाहकार समिति और भारत सरकार तक सीधी पहुँच के अधिकार की माँग भी उठाई ।

1919 के अधिनियम में रजवाड़ों से संबंधित सभी विषयों पर तथा सर्वोच्च सत्ता के साथ उनके संबंधों पर अंग्रेजी राज को परामर्श देने के लिए एक 120 सदस्यों वाले चैंबर ऑफ्र प्रिंसेज की व्यवस्था थी । लेकिन उसकी सदस्यता की संरचना विवाद का एक प्रमुख मुद्दा बनी रही और अंतत: यह तय पाया गया कि 11 तोपों या उससे अधिक की सलामी पाने वाले सभी राजाओं का सीधा प्रतिनिधित्व होगा जबकि छोटे राजा अपने बीच में से 12 प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे ।

इस चैंबर का उद्‌घाटन लाल किले में फरवरी 1921 में हुआ और वह आपसी जलन और झगड़ों के कारण शुरू से ही विभाजित रहा । फिर भी उसने राजाऔ के भौतिक और राजनीतिक दोनों तरह के अलगाव को तोड़ा ।

लोकप्रचलित विश्वास के विपरीत रजवाड़े ब्रिटिश भारत से कभी पूरी तरह कटे हुए नहीं रहे, न ही उनकी सीमाएं कभी अलंध्य रहीं क्योंकि उनमें पास के प्रानौ मे राष्ट्रवादी राजनीति और सांप्रदायिक तनाव दोनों का लगातार प्रवेश होता रहा ।

जब रजवाड़ों में किसान और आदिवासी आंदोलन फूटे, जैसे 1921-22 के दौरान जागीरदारों के दमन और भूमि करों के प्रतिरोध में मेवाड़ का विजौनिया आंदोलन या मोतीलाल के नेतृत्व में सिरोही में भीलों का आंदोलन तो उन्होंने गांधी से प्रेरणा प्राप्त की और राष्ट्रवादी आंदोलन से संपर्क स्थापित किए ।

मोतीलाल को तो बल्कि स्थानीय गांधी भी कहा जाने लगा जबकि स्वयं गांधी ने इस आंदोलन से अपना संबंध तोड़ लिया था । ब्रिटिश भारत की राजनीति में कभी-कभी राजाओं ने भी सक्रिय रुचि ली । अलवर और भरतपुर के शासक बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचंड समर्थक थे और उन्होंने सचेत ढंग से अपने रजवाड़ों का हिंदूकरण किया ।

उन्होंने आर्यसमाज की गतिविधियों को संरक्षण दिया उर्दू की जगह हिंदी को बढ़ावा दिया गोरक्षा और शुद्धि आंदोलन का समर्थन किया और इस प्रक्रिया में शहरी मुसलमानों को विमुख कर दिया । अलवर का राजा जयसिंह जो अपनी प्रजा से एक भारी देशभक्त का सम्मान पाता था, अपने सचेत राष्ट्रवादी प्रदर्शन के कारण उपनिवेशवादी राक्षस-गाथा (demonology) में प्रमुख स्थान पाता रहा जैसे वह यूरोप वालों से दस्ताने पहने बिना हाथ नहीं मिलाता था ।

भरतपुर में वित्तीय अनियमितताओं के कथित आरोपों के कारण राजा को हटा दिया गया था आर्यसमाज, कांग्रेस और जाट महासभा के गठजोड़ ने इस क्षेत्र को पूरे राजस्थान में राष्ट्रवाद का एक प्रमुख केंद्र बना दिया था ।

लेकिन दूसरी ओर अनेक दूसरे राजा भी थे जो अंग्रेजी राज के वफादार बने रहे और जब राष्ट्रवाद की चुनौती तीखी होने लगी तो उसके सबसे विश्वसनीय सहयोगी सिद्ध हुए । बीसवीं सदी के पहले दशक में जब गरमपंथ और हिंसा का प्रभाव बढ़ा और फिर आगे चलकर जब असहयोग आंदोलन ने इस उपमहाद्वीप को झकझोर तो राजाओं ने अपने क्षेत्रों में इस लहर को रोकने के लिए मूल्यवान सेवा प्रदान की ।

प्रिंस ऑफ्र वेल्स के दौरे का अगर कांग्रेस ने बहिष्कार किया तो राजाओं के जोश और शानदार स्वागत के कारण ही वह दौरा थोड़ा-बहुत सम्मानित बना । लेकिन 1920 के दशक के दौरान इन सभी रजवाड़ों में प्रजामंडलों के रूप में जन-आंदोलन उभरने लगे ।

ये मंडल अंतत: ऑल इंडिया स्टेट्‌स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस नाम के एक राष्ट्रीय संगठन से संबद्ध हो गए, जिसकी स्थापना 1927 में हुई और जिसका मुख्यालय बंबई में था । उसने लोकतांत्रिक अधिकारों और संवैधानिक परिवर्तनों की नरम माँगे ही उठाई जिनका उत्तर अनेक राजाओं ने तीखी प्रतिशोध भावना और भारी दमन से दिया ।

लेकिन अगर उनमें से अधिकांश रजवाड़े अपनी स्वतंत्रता और प्रभुसत्ता की रक्षा के प्रति संवेदनशील थे तो कुछ अपवाद भी थे जैसे बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर और कोचीन जिन्होंने, सीमित दायरों में ही सही, कुछ संवैधानिक परिवर्तन करने शुरू कर दिए थे ।

कुछ रजवाड़े ऐसे भी थे जैसे मैसूर या त्रावणकोर जहाँ कांग्रेस की राजनीति काफी पैठ बना चुकी थी । लेकिन इस पूरे काल में कांग्रेस दिखावे के रूप में राजाओं के प्रभुसत्ता संबंधी परंपरागत अधिकारों का सम्मान करते हुए चतुराई के साथ रजवाड़ों के मामलों में अहस्तक्षेप की एक आधिकारिक नीति अपनाती रही ।

इसका एकमात्र अपवाद 1928 में किया गया जब कांग्रेस के एक प्रस्ताव ने राजाओं से ”प्रातिनिधिक संस्थाओं पर आधारित उत्तरदायी शासन लागू करने का” आग्रह किया तथा ”पूर्ण उत्तरदायी शासन” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत भारतीय रजवाड़ों की जनता के ”वैध और शांतिपूर्ण संघर्ष” के प्रति ”सहानुभूति” और ”समर्थन” व्यक्त किया ।

लेकिन ऐसी मौखिक सहानुभूति का रजवाड़ों की जनता के आंदोलनों और कांग्रेस की गुप्त शाखाओं के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं था जिनके साथ अधिकांश राजे-महाराजे कठोर प्रतिरोध करते रहे । इसलिए जब सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरंभ हुआ, तो भावनगर, जूनागढ़ या काठियावाड़ जैसे थोड़े-से अपवादों को छोड्‌कर अंग्रेजी राज के समर्थक रजवाड़े अपने-अपने इलाकों में कांग्रेसी गतिविधियों के दमन के लिए पहले जितने ही भरोसेमंद साबित हुए ।

इसलिए इन सभी वर्षो के दौरान अंग्रेजी राज ने अपने उन अधीनस्थ सहयोगियों का उपयोग जो प्राचीन और अंग्रेजों की समझ में प्रामाणिक भारत का प्रतिनिधित्व करते थे प्रांतों में राष्ट्रवाद की नई शक्तियों के विरुद्ध प्रभावी हथियारों के रूप में किया ।

रजवाड़ों में लोकतांत्रिक संवैधानिक परिवर्तन लाने के लिए शायद ही कुछ किया गया हो ताकि वे ब्रिटिश भारत के राजनीतिक विकासक्रमों के बराबर आ सकें । इसके कारण भविष्य का सामना करने के लिए तैयारी से रहित राजे-महाराजे अपनी शासन संबंधी अतिरिक स्वतंत्रता को राष्ट्रवादी नेताओं से मिलनेवाली चुनौती के कारण अधिकाधिक बौखलाहट के शिकार होने लगे ।

इसका अर्थ यह नहीं था कि अंग्रेजी राज रजवाड़ों के मामलों में हस्तक्षेप से बचता था । वास्तव में राजनीतिक विभाग में ऐसे अनेक अधिकारी थे जो लगातार सर्वोच्चता की शक्ति सीमाओं को फैलाते रहते थे और राजाओं को अपनी संवैधानिक स्थिति के बारे में एक निष्पक्ष जाँच का शोर मचाने पर विवश करते रहते थे ।

लेकिन इंडियन स्टेट्‌स कमिटी ने, जिसका गठन 1928 मे सर हारकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में किया गया था, अपनी रिपोर्ट ( 1929) में घेरे में बंद राजाओं को शायद ही कोई राहत पहुँचाई होगी । उसने उनको इस वादे के रूप में एक रियायत दी कि उनकी सहमति के बिना ब्रिटिश भारत में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित किसी सरकार को सर्वोच्चता का हस्तांतरण नहीं किया जाएगा ।

मगर साथ ही साथ उसने असीमित शक्तियो वाली सर्वोच्च सत्ता की सर्वोच्चता पर फिर से बल दिया किसी विशेष रजवाडे में सुधारों की व्यापक माँग उठ रही हो तो वहाँ किसी संवैधानिक परिवर्तन का सुझाव देने के बारे में भी ।

जैसा कि राजनीतिक विभाग के एक अधिकारी ने स्वीकार किया उसने सर्वोच्चता के सिद्धांत को ”अभी तक स्वीकृत किसी भी सीमा से आगे” तक फैला दिया । इस तरह दीवार से पीठ लग जाने और दो पाटों के बीच में दब जाने के बाद अब राजाओं ने राजनीति में रुचि लेनी शुरू कर दी और कुछ नरमपंथी राजनीतिज्ञों से मेलजोल बढ़ाने लगे ।

संघ के विचार में जिसका सुझाव सबसे पहले 1928 में मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट ने दिया था उनको अपनी मौजूदा स्थिति से बाहर निकलने का एक आदर्श रास्ता नजर आया । एक स्वतंत्र अखिल भारतीय संघ में शामिल होकर वे ”सर्वोच्चता की जकड़” से निकल सकते और साथ ही अपनी आंतिरिक स्वतंत्रता को सुरक्षित रख सकते थे ।

पर इस विषय में सभी राजा निश्चित भी नहीं थे और महाराजा पटियाला इस गुट के नेता थे । अंतत: 11 मार्च को एक आपसी समझौता किया गया जिसे ”दिल्ली समझौता” के नाम से जाना जाता है और 1 अप्रैल, 1932 को चैंबर ऑफ प्रिंसेज ने इसका अनुमोदन किया ।

इस तरह संघ की माँग को भारतीय राजाओं की एक संवैधानिक माँग के रूप में पेश किया गया । लेकिन जैसा कि इयान काँपलैंड ने दिखाया है इस माँग के साथ कुछ ऐसे सुरक्षा उपाय भी जुड़े हुए थे जिन्हें निश्चित था कि अंग्रेज और राष्ट्रवादी दोनों अस्वीकार कर देंगे ।

उदाहरण के लिए, वे संघीय विधायिका के ऊपरी सदन में चैंबर ऑफ प्रिंसेज के सभी सदस्यों के लिए अपनी-अपनी सीटें संधियों से प्राप्त अधिकारों की रक्षा चाहते थे वे चाहते थे कि संघ सरकार के अधीन रखे जानेवाले विषय सदस्य रजवाड़ों की आपसी सहमति से तय हों और सबसे बढ्‌कर यह कि उनको अलग होने का अधिकार हो ।

अंग्रेजों को संघ का विचार पसंद था क्योंकि उस दशा में ये राजे प्रांतों के राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञों की काट कर सकते थे, पर उनका संघ का विचार राजाओं के विचार से भिन्न था । अगर पहले गोलमेज सम्मेलन में भारतीय रजवाड़ों के प्रतिनिधियों ने संघ के विचार पर उत्साह के साथ बहस की थी तो उसके दूसरे सत्र तक उनमें से बहुत से लोगों का जोश ठंडा पड़ चुका था ।

जनवरी 1935 के अंतिम दिनों में अपने बंबई सत्र में चैंबर ने एक प्रस्ताव पारित किया, जो संघ के प्रस्ताव की उस समय तक विकसित रूपरेखा की कठोर आलोचना से भरा हुआ था । अंतत. भारत सरकार अधिनियम को जब 2 अगस्त 1935 को शाही स्वीकृति मिली तब उसमें शामिल सघ की योजना राजाओं के बहुमत को शायद ही संतुष्ट कर सकती थी ।

इयान कॉपलैंड (1999) का तर्क है कि इस चरण में भी राजे-महाराजे संघ को पूरी तरह अस्वीकार नहीं कर रहे थे, बल्कि एक बेहतर पेशकश का मोल-भाव कर रहे थे । वे चाहते थे कि विलयपत्र में उनकी दो प्रमुख चिंताओं पर समुचित ध्यान दिया जाए, अर्थात् संधियों के द्वारा उनको प्राप्त अधिकारों की मान्यता और उनकी  अतिरिक्त स्वतंत्रता की सुरक्षा पर ।

हालांकि नए वायसरॉय लिनलिथगो ने ऐसे कुछ परिवर्तनों की सिफारिश की पर नौकरशाहों की मोल-भाव की इस प्रक्रिया ने कई वर्षो की देरी लगा दी । इस बीच 1937 के प्रांतीय चुनावों के बाद कांग्रेस के नाटकीय राजनीतिक उत्थान से राजा-महाराजा बौखला उठे ।

1938 में कांग्रेस के हरिपुरा सत्र ने रजवाड़ों के मामलों में अहस्तक्षेप की परंपरागत कांग्रेसी नीति को पलीता लगा दिया और अगले कुछ महीनों में कांग्रेस के सक्रिय संरक्षण के साथ ऑल इंडिया स्टेट्‌स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व में प्रचंडतम जन-आंदोलन ने भारतीय रजवाड़ों को हिलाकर रख दिया ।

छोटे और मझोले आकार के रजवाड़े जनता के इस तरह के उभार के लिए शायद ही तैयार थे और उन्होंने झुककर कांग्रेस के प्रति एक अधिक समझौतावादी रुख अपना लिया । लेकिन बडे रजवाड़ों ने भयानक हठ के साथ जवाबी कार्रवाई की और उनकी सहायता ब्रिटिश सेना ने की ।

इस तरह 1939 में अधिकांश राजाओं के मतानुसार कांग्रेस अपना असली रंग दिखा चुकी थी और इसलिए उस पर फिर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता था । जनवरी 1939 में लिनलिथगो ने जब अंतत: एक संशोधित प्रस्ताव सामने रखा, जिसमें कुछ छोटी-मोटी रियायतें दी गई थीं तो उनमें से अधिकांश के लिए संघ तब तक एक ऐसी शुद्ध बुराई बन चुका था जिसे एक सिरे से अस्वीकार कर दिया जाए । जून में चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज़ की बंबई सभा ने ऐसा ही किया और फिर जब अगस्त में यूरोप में युद्ध भड़क उठा, तो भारत सचिव जेटलैंड ने संघ के प्रस्ताव को तुरंत ”ठंडे बस्ते” में डाल दिया ।

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