भारत में ब्रिटिश प्रांतीय सरकार | Provincial Governance of British in India.

बंगाल में  ब्रिटिश का प्रांतीय शासन (Provincial Governance of British in Bengal):

बंगाल : पहली अवस्था (१७६५-१७९३ ई॰):

यद्यपि कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी १७६५ ई॰ में ही मिल गयी थी, तथापि १७७२ ई॰ तक राजस्व की असली वसूली दो नायब-दीवानों-बंगाल में मुहम्मद रजा खाँ और बिहार में शिताब राय-के हाथों में ही रही ।

जो राजस्व वसूल होता था, उसमें से कम्पनी छब्बीस लाख बादशाह को इलाहाबाद की संधि के अनुसार देती थी, बत्तीस लाख (शुरू में तिरपन लाख) बंगाल के नवाब को शासन-खर्च के लिए देती थी, तथा बची हुई रकम अपने खास उपयोग के लिए रख लेती थी । यही द्वैध शासन की प्रसिद्ध प्रणाली है, जो क्लाइव के नाम से संबद्ध है ।

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इस प्रणाली का परिणाम कम्पनी और बंगाल की जनता दोनों के लिए अनर्थकारी हुआ, जब कि कम्पनी के नौकरों एवं नायब-दीवानों ने बहुत दौलत जमा कर ली । स्वदेश में कम्पनी के अधिकारी इस प्रणाली की बुराइयों के प्रति पूर्णतया सचेत थे । १७७२ ई॰ में उन्होंने वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया तथा उसे शासन-सुधार की पूरी शक्ति दे दी ।

वारेन हेस्टिंग्स ने द्वैध शासन उठा दिया । उसने कम्पनी की “दीवान के रूप में खड़े होने” की घोषित नीति को कार्यान्त्रित किया । लेकिन वास्तव में उसने सिर्फ दीवान का काम करने अर्थात् अपने ही एजेटों द्वारा राजस्व वसूलने की अपेक्षा अधिक काम किया । उसने कम्पनी को करीब-करीब प्रांत के संपूर्ण असैनिक शासन के लिए उत्तरदायी बना दिया ।

उसने नायब-दीवानों के पद उठा दिये तथा खजाना हटाकर कलकत्ते ले आया । नवाब की नाबालिगी ने संक्रांति को आसान बना दिया । उसने नवाब की अभिभाविका के रूप में मुन्नी बेगम को बहाल कर दिया । यह प्रारंभ में नर्तकी थी । इस पर वह (वारेन हेस्टिंग्स) पूर्ण विश्वास रख सकता था । साथ-ही-साथ नवाब का सालाना भत्ता घटाकर सोलह लाख कर दिया गया ।

इनसे और इसी प्रकार के दूसरे कामों से शासन का वास्तविक शक्ति और अधिकार नवाब के हाथों से कम्पनी के हाथों में चला आया तथा अब से मुर्शिदाबाद के बदले कलकत्ता ही सरकार का वास्तविक स्थान बन गया । इस प्रकार सरकार की शक्तियां धारण करने के बाद वारेन हेस्टिंग्स एक शासन-प्रशाली का विकास करने में पिल पड़ा ।

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किन्तु यह काम अत्यंत भयानक सिद्ध हुआ । हाल तक कम्पनी का प्रशासनिक कल- पुर्जा केवल व्यापारिक उद्देश्यों के लिए अभिप्रेत था । अब इसे बिलकुल भिन्न उद्देश्य के लिए माफिक बनाना था । नवाब की सरकार की बेकार इमारत नये भवन की ठोस नीव के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकती थी ।

यही नहीं, कम्पनी के भारतीय नौकरों का नैतिक स्तर बहुत नीचा था तथा वहाँ सार्वजनिक सेवा की परंपरा कायम होना अभी बाकी था । जनता की भाषा तथा उसके कानूनों एवं रस्म-रिवाजों से अनभिज्ञता ने काम की कठिनाई बढ़ा दी । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि बंगाल में ब्रिटिश अधिकारियों को अपने सामने पड़नेवाली विशाल समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए लंबी और श्रातिकारक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा तथा क्लांतिजनक एवं कड़वे प्रयोगों में लगना पड़ा ।

वारेन हेस्टिग्स और कार्नवालिस के शासन के बीस वर्षों (१७७२-१७९३ ई॰) को बंगाल के भारतीय-ब्रिटिश शासन के इतिहास में प्रथम घटनापूर्ण अध्याय माना जा सकता है । अनेक प्रयोगों के बाद, इस युग के अंत में कुछ निश्चित सिद्धांत निकाले गये तथा यही ब्रिटिश-भारतीय शासन की मजबूत इमारत की नींव बने जिन्हें हम आज चारों ओर देखते हैं । अतएव यह सुविधाजनक होगा कि इसी युग से प्रारंभ करके उक्त प्रशासनिक प्रणाली के क्रमिक विकास का अध्ययन किया जाए ।

यह अध्ययन मुख्यतया दो शीर्षकों के अंतर्गत हो सकता है:

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(1) राजस्व का शासन तथा

(2) न्याय का शासन ।

(1) राजस्व का शासन:

इस युग में राजस्व के प्रधान स्रोत तीन थे- पहला, भूमि-राजस्व; दूसरा, नमक और अफीम व्यापार का एकाधिकार; तथा तीसरा, आयातकर, महसूल, आबकारी चुंगी वगैरह, जिसे ‘सैर’ कहते थे । इनमें पहला निस्संदेह सबसे महत्वपूर्ण था, जिस पर हम मुख्य तौर से ध्यान देंगे ।

जैसा पहले लिखा जा चुका है, भूमि-राजस्व १७७२ ई॰ तक दो नायब-दीवानों द्वारा वसूल होता था । यह प्रारंभ में करीब-करीब अवश्यंभावी था, क्योंकि अंग्रेजों को राजस्व-संबंधी बातों का बिलकुल ज्ञान न था । इस कमी को दूर करने के लिए “सुपर्य- वेक्षक” (“सुपरवाइजर”) नियुक्त किये गये ।

इनका काम था राजस्व की वसूली के तरीके का अध्ययन करना तथा इस दृष्टि से स्थानीय रस्म-रिवाजों और व्यवहारों का ज्ञान प्राप्त करना । किन्तु आवश्यक ज्ञान जमीदारों और कानूनगोओ तक सीमित था । जमीदार रैयतों से राजस्व वसूलते थे तथा कानूनगो रेकर्डों के प्रभारी अफसर थे । इनमें से कोई भी ब्रिटिश अफसरों तक सूचना पहुंचाने को इच्छुक न था ।

इसलिए सुपर्यवेक्षकों की नियुक्ति का कोई फल न निकला । १७७२ ई॰ में नायब-दीवानों के पद उठा दिये गये तथा राजस्व-शासन गवर्नर और कौंसिल के सीधे नियंत्रण में रख दिया गया । इस प्रकार गवर्नर और कौंसिल द्वारा बोर्ड ऑफ रेवेन्यू का निर्माण हुआ ।

जमीन सार्वजनिक नीलाम द्वारा ठीके पर दे दी गयी तथा पाँच वर्षों के लिए कर निर्धारण हुआ । प्रत्येक जिले में राजस्व-शासन के सुपर्यवेक्षण के लिए एक कलक्टर और एक भारतीय दीवान की नियुक्ति हुई । इस प्रणाली का परिणाम प्रत्येक दृष्टि से अनर्थकारी निकला । सिद्धांतहीन सट्टेबाज उताव-लापन में आकर नीलाम की बोलियाँ बोलते थे अधिकतर अवसरों पर जमींदारों को हटाने में सफल हो जाते थे ।

किंतु शीघ्र ही वे तय किया हुआ राजस्व वसूलने में अपने को असमर्थ पाने लगे । चूंकि जमीन में उनकी कोई स्थायी दिलचस्पी न थी, इसलिए वे रैयतों पर अत्याचार करने लगे जिससे वे अपने ठीके की अवधि में जहाँ तक हो अधिक-से-अधिक रकम ऐंठ सकें ।

इसके बावजूद, उनके यहाँ बहुत बकाया पड़ जाता था तथा निश्चित रकम न दे सकने के कारण वे कलक्टरों द्वारा कैद कर लिये जाते थे । इस प्रकार जमींदार, ठीकेदार और रैयत, सभी कष्ट में थे तथा कम्पनी को भी भारी घाटा होता था ।

१७७३ ई॰ में एक नया प्रयोग किया गया । कलकत्ते में एक राजस्व-समिति (कमिटी ऑफ रेवेन्यू) की स्थापना हुई । बोर्ड के दो सदस्य और कम्पनी के तीन सीनियर नौकर इसके सदस्य हुए । यूरोपियन कलक्टर का पद उठा दिया गया । प्रत्येक जिले का राजस्व शासन एक भारतीय दीवान के अधीन कर दिया गया । छ: प्रांतीय कौंसिलें स्थापित हुईं । विशेष कमिश्नरों द्वारा समय-समय पर निरीक्षण की व्यवस्था हुई ।

इस परिवर्तन से कोई खास तरक्की नहीं हुई । अतएव पाँच सालों का बंदोबस्त समाप्त होने पर कम्पनी ने सार्वजनिक नीलाम द्वारा वार्षिक कर-निर्धारण का तरीका अपनाया । हां, प्रांतीय कौंसिलों के पास विशेष आदेश भेज दिये गये जिसमें वे भूमि-राजस्व के सालाना बंदोबस्त करते समय जमींदारों को तरजीह दें ।

१७८१ ई॰ में राजस्व शासन के लिए एक नयी योजना अपनायी गयी । इस नवीन योजना का सार था राजस्व-संग्रह के सारे काम को कलकत्ते में केंद्रित कर देना । एक नवीन राजस्व-समिति का निर्माण हुआ । इसके चार सदस्य हुए । दीवान उनकी मदद करता था ।

प्रांतीय कौसिलें उठा दी गयी । प्रत्येक जिले में यूरोपियन कलक्टर पुनर्नियुक्त हुए किन्तु उनके हाथों में वास्तविक सत्ता न थी, वे नाममात्र के थे । इस योजना में वे सभी हानियाँ और बुराइयाँ थी, जो अत्यधिक केंद्रीकरण में होती है । फलत: यह तुरंत टूट गयी ।

१७८६ ई० में एक युक्तिसंगत योजना अपनायी गयी । जिले अब राज्यकर-विषयक नियमित इकाइयों के रूप में संगठित हुए तथा प्रत्येक जिले में कलक्टर को राजस्व का बंदोबस्त करने और इसके वसूलने के लिए उत्तरदायी बना दिया गया । प्रारम्भ में समूचा प्रांत पैतीस जिलों में बाँटा गया, किन्तु १७८७ ई॰ में यह संस्था घटाकर तेईस कर दी गयी । राजस्व-समिति अब बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के रूप में पुनर्निर्मित हुई ।

कौंसिल का एक सदस्य इसका प्रेसिडेंट हुआ । बोर्ड के कर्त्तव्य स्पष्ट रूप में निर्धारित कर दिये गये । मुख्यतया ये कर्त्तव्य थे “कलक्टरों पर नियंत्रण रखना, उन्हें सलाह देना तथा उनके बंदोबस्त को स्वीकृत करना” ।

भूमि पर अधिकार एवं भूमि-राजस्व के विस्तृत रेकर्डो को संभालने के लिए चीफ शेरिस्तादार नामक एक नया अफसर बहाल हुआ । यह इसलिए किया गया जिसमें आवश्यक ज्ञान सरकार को प्राप्त हो और वह काननगोओं का गुप्त एकाधिकार न बना रहे ।

सालाना बंदोबस्त की प्रणाली सन् १७९० ई॰ के प्रारंभ तक चलती रही । स्पष्ट ही यह एक अस्थायी उपाय था तथा ऐसा ही माना जाता था । किन्तु इसे चलना ही था, क्योंकि अधिक स्थायी तौर की प्रणाली चालू करने के पहले आवश्यक बातों का संग्रह किया जाना था ।

यह समस्या भूमि के स्वामित्व के सम्बन्ध में प्रचलित विभिन्न सिद्धांतों से और भी जटिल बन गयी । “सर्वदा के लिए कर निर्धारण की नीति” बंगाल में १७९३ ई॰ में लागू किये गये स्थायी बन्दोबस्त का केन्द्र-बिन्दु थी ।

इसे १७६५ और १७९३ ई॰ के बीच कम्पनी के कुछ नये (Junior) अफसरों ने, जैसे अलेकजेन्डर डाउ ने १७७० ई॰ में, हेनरी पेटुलो ने दो वर्ष बाद अर्थात् १७७२ ई॰ में और फिलिप फांसिस ने १७७६ ई॰ में, अस्पष्ट रूप से पहले ही सोच रखा (Anticipated) था । १७८४ ई॰ के पिट के इंडिया ऐक्ट में यह धारणा वर्त्तमान थी ।

दशाब्द के अन्त में टोमस लॉ ने इसे बिहार में मुकर्ररी बन्दोबस्त के लिए स्वीकृति दी थी । १७८९-१७९० ई॰ में दस वर्षीय बन्दोबस्त के लिए निर्मित कार्नवालिस के नियमों में इसे कानूनी स्वीकृति मिली । इस विषय पर जो विभिन्न विचार थे उन्होंने ग्रांट और शोर के विरोधी सिद्धांतों के रूप में नियत आकार धारण किया ।

ग्रांट और शोर कम्पनी के दो पुराने नौकर थे । ये भूमि-राजस्व के कँटीले प्रश्न पर विशेष रूप से लग पड़े थे । शोर का विचार था कि जमींदार जमीन के मालिक थे तथा उन्हें सरकार को केवल मामूली राजस्व देना भर था । इसके विपरीत ग्रांट की राय थी कि भूमि का स्वामित्व-संबंधी अधिकार सरकार में निहित था तथा बंदोबस्त करने के संबंध में उसके असीमित अधिकार थे-वह (सरकार) अपने इच्छानुसार किन्हीं भी शर्तों पर जमींदार या ठीकेदार किसी के साथ भूमि का बंदोबस्त कर सकती थी ।

इंगलैंड में अधिकारियों ने शोर के विचार पसंद किये । तदनुसार उन्होंने कार्यवालिस को आदेश दिया कि वह यथाशक्य जमींदारों के साथ ही बंदोबस्त करें । प्रारम्भ में यह बंदोबस्त केवल दस वर्षों के लिए होनेवाला था, किंतु उसे अंत में स्थायी बना देने का निश्चित विचार था ।

इन आदेशों का अनुसरण करते हुए कार्नवालिस ने शोर को राजस्व-बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया तथा दीर्घकालीन बंदोबस्त के लिए कुछ कार्रवाइयाँ की गयीं । आवश्यक प्रारंभिक क्रियाएँ १७९० ई॰ के पहले समाप्त नहीं हुईं । किन्तु इस बीच के समय में कार्नवालिस के विचारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गया ।

पहले उसका विचार था कि दस वर्षों के लिए अल्पकालिक बंदोबस्त किया जाय और उसे अंत में स्थायी बना दिया जाए । इसके बदले में उसने निर्णय किया कि तुरंत ही स्थायी बंदोबस्त की योजना चला दी जाए । उसके विचार उसके अधिकांश सलाहकारों- जिनमें शोर और ग्रांट भी थे-के विचारों के विरुद्ध थे ।

ग्रांट स्वभावत: चाहता था कि इस तरह की अखंडनीय कार्रवाई स्थगित कर दी जाए तथा भूमि के स्वामित्व-संबन्धी अधिकार के प्रश्न का निर्णय करने के पूर्व कागजात (रेकर्डों) का और भी एवं पूरा अध्ययन कर लिया जाए ।

शोर की इच्छा थी कि इसे अभी स्थगित रखा जाए और उचित सर्वेक्षण हो, जिससे सरकार ठोस एवं न्यायसंगत आधार पर कर-निर्धारण कर सके । इसके विपरीत कार्नवालिस का कहना था कि सरकार के कब्जे में पहले से ही काफी सामग्री है, जिससे वह इस विचार्य विषय के संबंध में-इस प्रश्न के सैद्धांतिक पहलू तथा अधिक व्यावहारिक पहलू यानी जमींदारों से लिये जानेवाले राजस्व की पूरी रकम निश्चित करने के बारे में-निर्णय कर सकती है ।

उसका यह विचार भी था कि इस समय राजस्व-सम्बन्धी बातें सरकार का इतना समय और शक्ति ले रही हैं कि इस तरह की किसी स्थायी कार्रवाई के द्वारा ही वह प्रशासन एवं न्याय-जैसे सरकार के अधिक महत्वपूर्ण कर्तव्यों के प्रति उचित ध्यान दे सकेगी । कार्नवालिस के मतानुसार जमीन के स्थायी बंदोबस्त के बहुत-से लाभ थे ।

इनमें से एक पर उसने खास तौर से जोर डाला । उसका कहना था कि इससे जमींदारों को न केवल अपनी भूमि के विकास में बल्कि बंजर भूमि के जोतने में भी प्रोत्साहन मिलेगा । उस समय समस्त प्रांत के एक बड़े भाग में बंजर भूमि फैली हुई थी ।

१० फरवरी, १७९० ई॰ को कार्नवालिस ने घोषणा की कि भूमि-राजस्व का बंदोबस्त दस वर्षों के लिए किया जा रहा है और यदि कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने स्वीकार कर लिया तो यह स्थायी बना दिया जायगा । डाइरेक्टरों की स्वीकृति कार्नवालिस के पास १७९३ ई॰ में पहुँची । उसी साल २२ मार्च को दससाला बंदोबस्त स्थायी बना दिया गया ।

इसके फलस्वरूप जमींदार केवल इस शर्त पर भूमि के स्थायी स्वामी बना दिये गये कि उन्हें एक निश्चित वार्षिक मालगुजारी सरकार को देनी पड़ेगी । इस प्रकार एक कँटीली समस्या पचीस वर्षों से भी अधिक समय तक विविध प्रयोगों के बाद सुलझ पायी ।

जहाँ तक इस हल की न्यायनिष्ठा एवं न्यायपरता तथा देश पर इसके अंतिम परिणाम का संबंध है, मतभेद बराबर बना रहा है और आज भी है । इसमें संदेह नहीं कि यद्यपि अनेक वर्षों तक कष्ट रहा, तथापि अंत में इसने स्वामिभक्त जमींदारों का एक वर्ग पैदा कर दिया, जो राज्य का एक स्थिर तत्व बने रहे साथ ही इसने निश्चित मालगुजारी के रूप में एक बंधी हुई आमदनी भी दे दी ।

लेकिन इसने सरकार को जमीन से क्रमश: बढ़ती हुई आमदनी के लाभ से वंचित कर दिया । और भी, इसने जमींदारों के दावों को पूरे तौर से मान लिया, किंतु खेतिहरों के दावों की पूरी उपेक्षा की, जो बिलकुल जमींदारों की कोमल मर्जी पर छोड़ दिये गये । यह ठीक है कि कार्नवालिस ने अपने असामियों (रैयतों) पर जमींदार के अधिकार को सीमित और नियंत्रण करने के लिए नियम निकाले, पर इनका कोई फल न निकला तथा दवामी बंदोबस्त की इस गहरी त्रुटि का उपचार करने के लिए आगे चलकर कानून बनाना आवश्यक हो गया ।

ऊपर लिखित राजस्व के अन्य स्रोतों के संबंध में कुछ शब्द कहे जा सकते हैं । प्रारम्भ में, भूमि-राजस्व के समान, नमक और अफीम के राजस्व का प्रबंध भी नीलाम के द्वारा होता था तथा सबसे बड़ी बोली बोलनेवाले के साथ बंदोबस्त किया जाता था । १७८० ई॰ में नमक बनाने का काम सरकार ने स्वयं ले लिया तथा सुप्रीम कौंसिल के नियंत्रण में इसका प्रबंध करने के लिए एक छोटा कार्यालय स्थापित किया गया । “सैर” राजस्व का प्रबंध भी उसी दफ्तर से होता था जिससे भूमि-राजस्व का ।

(2) न्याय का शासन:  

भारत में असैनिक न्याय का शासन घनिष्ठ रूप में राजस्व के प्रबंध से संबद्ध था । १७६५ ई॰ में जो दीवानी अधिकार मिला, उसमें ये दोनों कृत्य निहित थे । राजस्व के ही समान, बहुत-से प्रयोग किये गये और तब अंत में न्याय-शासन की एक निश्चित प्रणाली का विकास हुआ ।

ये प्रयोग भूमि-राजस्व के सम्बन्ध में किये गये प्रयोगों से घनिष्ठ रूप में सम्बद्ध थे तथा उनके करीब-करीब एक आवश्यक अंग माने जा सकते हैं । जो भी हो, दोनों विकास की उसी प्रक्रिया से गुजरे तथा इस प्रयोगवादी युग में न्याय-प्रणाली की हर अवस्था राजस्व-शासन की प्रणाली को ध्यान में रखकर ही समझी जा सकती है ।

इस प्रश्न में सर्वप्रथम १७७२ ई॰ में निश्चित रूप से हाथ लगाया गया । दुर जिले में दो अदालतें कायम की गयीं-दीवानी मुकद्दमों के लिए दीवानी अदालत, और फौजदारी मुकद्दमों के लिए फौजदारी अदालत । इनके अतिरिक्त कलकत्ते में दो उच्चतर अदालतें कायम की गयीं-दीवानी मुकद्दमों में अपील के लिए सदर दीवानी अदालत, और दंडों के पुन: संशोधन एवं पुष्टिकरण के लिए सदर निजामत अदालत ।

प्रत्येक जिले में स्थित दीवानी अदालत कलक्टर के अधीन रही । सदर दीवानी अदालत की अध्यक्षता कौंसिल के प्रेसिडेंट और सदस्य करते थे । पुराने रस्म-रिवाजों और मिसालों के मुताबिक फौजदारी अदालतें भारतीय जजों के अधीन रहीं । किन्तु कलक्टर और कौंसिल द्वारा क्रमश: जिला अदालतों एवं सदर निजामत अदालत पर कुछ नियंत्रण रखा जाता था ।

राजस्व-शासन की प्रणाली में १७७३ ई॰ १७८१ ई॰ और १७८६ ई॰ में जो परिवर्तन हुए, उनके अनुरूप न्याय के शासन में भी परिवर्तन हुए । १७७४ ई॰ में जिला अदालतें आमिल नामक भारतीय अफसरों के अधीन कर दी गयीं ।

उनके फैसले के विरुद्ध प्रांतीय कौंसिलों में अपील की जा सकती थी तथा महत्वपूर्ण मुकद्दमों में वहाँ से सदर दीवानी अदालत में अपील हो सकती थी । १७७५ ई॰ में सदर निजामत अदालत मुर्शिदाबाद बदल दी गयी तथा नायब-नाजिम के अधीन रख दी गयी ।

अपराधी व्यक्तियों को न्याय के पास लाने के लिए प्रत्येक जिले में एक फौजदार बहाल किया गया । १७८० ई॰ में छ: प्रांतीय कौंसिलों के न्याय-संबंधी अधिकार दीवानी अदालत की छ कचहरियों को दे दिये गये । प्रत्येक कचहरी का अध्यक्ष कंपनी का एक अहदनामे से बँधा हुआ नौकर होता था ।

१७८१ ई॰ में इन कचहरियों की संख्या बढ़ाकर अठारह कर दी गयी तथा सभी दीवानी मुकद्दमे उन्हीं के द्वारा देखे जाने लगे । दूसरे शब्दों में, यूरोपीय सुपर्यवेक्षण में पुरानी जिला कचहरियाँ पुनर्जीवित कर दी गयीं । किन्तु चार जिलों को छोड्‌कर जहाँ कलक्टर ही इन कचहरियों की अध्यक्षता करता था, वे अलग जजों के अधीन रख दी गयीं । एक हजार रुपये तक उनका निर्णय अंतिम होता था ।

लेकिन जहाँ झगड़े की रकम इसनर अधिक होती थी, वहाँ सदर दीवानी अदालत में अपील की जा सकती थी । साथ ही, १७७५ ई॰ की फौजदारी प्रथा उठा दी गयी तथा फौजदारों की शक्तियाँ और कर्तव्य जिला अदालतों के जजों को मिल गये । मगर मुजरिमों की जाँच भारतीय जजों के अधीन फौजदारी अदालतों में ही होती रही, जिन पर मुर्शिदावाद के नायब-नाजिम का अन्तिम नियंत्रण था ।

इस बीच रेगुलेटिंग ऐक्ट के कारण १७७४ ई॰ में कलकत्ते में सर्वोच्व न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की स्थापना हो जाने से एक नवीन तत्व का आगमन हुआ । इस न्याया-लय की स्थापना क्राउन (ब्रिटिश सम्राट्) द्वारा हुई थी । इसमें एक प्रधान न्यायाधीश और तीन छोटे दर्जे के जज थे । इसका कार्यक्षेत्र केवल ब्रिटिश प्रजाजनों तक ही था ।

किन्तु व्यवहार में इसके कारण अत्यधिक कठिनाइयाँ उठ खड़ी हुई । इस न्यायालय का दावा था कि इसका कार्यक्षेत्र सभी व्यक्तियों पर है । इसने वास्तव में सभी व्यक्तियों पर अपने कार्यक्षेत्र का प्रयोग की किया । इसने न केवल कम्पनी की कचहरियों के अधिकार की उपेक्षा की, वरन् इन कचहरियों के जजों और अफसरों के विरुद्ध उनके पदाधिकारी रूप में किये गये कामों के लिए मुकद्दमों को स्वीकार किया ।

जिन कानूनी सिद्धांतों और कार्य-प्रणाली को उन्होंने (उपर्युक्त न्यायालयवालों ने) अनुसरण किया, वे भारत के लिए विदेशी तथा अत्यंत क्लेशप्रद थीं । प्रवर समिति (सेलेक्ट कमिटी) ने बहुत ठीक कहा कि वह “न्यायालय देश वासियों के लिए साधारणत: भयानक रहा है तथा कम्पनी की सरकार को विभ्रांत किया है” ।

सर्वोच्च न्यायालय के दावे प्रसिद्ध कोसिजुरा केस में अपनी चरम सीमा को पहुँच गये । इस मुकद्दमे ने संकटपूर्ण परिस्थिति उत्पन्न कर दी । सर्वोच्च न्यायालय के एक जज ने एक जमींदार कोसिजुरा के राजा के विरुद्ध लिखित आज्ञापत्र निकाला ।

किन्तु सुप्रीम कौंसिल ने सुप्रीम कोर्ट के इस अधिकार को स्वीकार नहीं किया कि उसका कार्यक्षेत्र एक जमींदार पर था, क्योंकि वह (जमींदार) न तो ब्रिटिश प्रजाजन था और न किसी ब्रिटिश प्रजाजन का नौकर ही था ।

तदनुसार जब सुप्रीम कोर्ट के अफसर उस जमींदार को गिरफ्तार करने चले, तब कौंसिल ने उन्हें गिरफ्तार करने को सिपाही भेजे । इस प्रकार बंगाल के सर्वोच्च कार्यपालक और न्यायपालक अधिकारियों के बीच करीब-करीब खुलमखुल्ला लड़ाई छिड़ गयी ।

किन्तु वारेन हेस्टिंग्स के एक चतुरतापूर्ण उपाय के कारण अंतिम विपत्ति टल गयी । उसने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश इंपे को ऊँचा दरमाहा देकर सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और तनाव तुरत कम हो गया ।

यह कार्य-प्रणाली साधारणत: इंपे को दी गयी घूस मानी जाती है । इसमें गंभीर आपत्तियाँ थीं । सुप्रीम कोर्ट कायम करने के घोषित उद्देश्यों में एक था कम्पनी के नौकरों के विरुद्ध आयी हुई शिकायतों का फैसला किसी स्वतंत्र न्यायालय से कराना ।

स्पष्ट ही यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता था जब तक सुप्रीम कोर्ट का प्रधान, गवर्नर-जनरल और कौंसिल की प्रसन्नता पर निर्भर रह कर, उच्च वेतन के साथ अपने पद पर स्थित रहे । इस प्रकार चित्र काला था । इसकी एकमात्र अच्छी बात यह थी कि उसने संकट का अंत करने के अतिरिक्त प्रांत की सबसे ऊँची अपील सुननेवाली कचहरी सदर दीवानी अदालत को कहीं अधिक योग्य संस्था बना दिया ।

यों वह गवर्नर-जनरल की अध्यक्षता में इतनी अधिक योग्य संस्था न बन सकती थी; क्योंकि उसके (गवर्नर-जनरल के) पास समय न था और शायद कानून का ज्ञान उससे भी कम था, जिससे वह संतोषजनक रूप में ऐ से उच्च पद के कर्त्तव्यों का पालन करने में समर्थ होता ।

किन्तु इस प्रबंध को स्वदेश के अधिकारियों ने उलट दिया । इंपे को वेतन लौटाना पड़ा तथा उस पर अभियोग लाया गया । १७८१ ई॰ में एक नया कानून (स्टैटयूट) पास हुआ । इसने सुप्रीम कोर्ट के कार्यक्षेत्र का अधिक स्पष्ट रूप से निर्धारण कर दिया । गवर्नर-जनरल और कौंसिल के सरकारी काम, जमींदार या किसान, तथा राजस्व-संग्रह- सम्बन्धी सारी बातें इसके कार्यक्षेत्र के बाहर कर दी गयीं ।

कार्नवालिस के शासन-काल में न्याय-प्रणाली सहित शासन की सभी शाखाओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये । १७९७ ई॰ में ढाका, पटना और मुर्शिदाबाद को छोड़ सभी जिला अदालतें फिर कलक्टरों के अधीन कर दी गयीं । कलक्टरों को मैजिस्ट्रेट की शक्तियाँ दी गयीं ।

ये कुछ सीमाओं के अंतर्गत फौजदारी मुकद्दमे देख सकते थे । अधिक महत्वपूर्ण फौजदारी मुकद्दमे पूर्ववत् जिला फौजदारी अदालतों और सदर निजामत अदालत में देखे जाते रहे । कलक्टर राजस्व-सम्बन्धी काम नहीं देख सकते थे । ये काम बोर्ड ऑफ खैन्यू को दे दिये गये ।

१७९० ई॰ में और परिवर्तन हुए । बोर्ड ऑफ रेवेन्यू को राजस्व-संबंधी कामों के लिए उत्तरदायी बनाने का प्रयोग असफल सिद्ध हुआ । तब इन मुकद्दमों के जाँचने के लिए प्रत्येक जिले में कलक्टर के अधीन नयी स्थानीय कचहरियाँ स्थापित हुई । फौजदारी न्याय के शासन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए ।

सदर निजामत अदालत फिर मुर्शिदाबाद से हटायी जाकर कलकत्ते लायी गयी (ऐसा एक बार पहले वारेन हेस्टिग्स द्वारा किया गया था ।) एक मुसलमान जज के बदले इसकी अध्यक्षता गवर्नर-जनरल और कौंसिल द्वारा होने लगी । भारतीय कानूनों के विशेषज्ञ उनकी सहायता करने लगे । जिला फौजदारी अदालतें उठा दी गयीं ।

उनकी जगह चार परिक्रमा कचहरियों (सर्किट कोर्टुस) ने ले ली, जो कलकत्ते मुर्शिदाबाद, पटने और ढाका में स्थापित की गयीं । इन कचहरियों की अध्यक्षता कम्पनी के दो नौकर करते थे भारतीय विशेषज्ञ उनकी सहायता करते थे । उन्हें साल में दो बार अपनी कार्य-भूमि का दौरा करना पड़ता था ।

मैजिस्टेरटों के रूप में कलक्टरों की शक्तियाँ और भी बढ़ा दी गयीं । उन्हें कैदियों की हिफाजत और उनपर चारों प्रांतीय फौजदारी अदालतों द्वारा किये गये फैसलों के कार्यान्वित करने के लिए उत्तरदायी बना दिया गया ।

मई, १७९३ ई॰ के प्रसिद्ध कार्नवालिस कोड ने अंशत: पहले के किये गये परिवर्तनों का ठीक-ठीक अर्थ निर्धारित किया तथा अंशत: नये परिवर्तन किये । इस प्रकार इस कोड ने वह प्रणाली जारी की, जो ब्रिटिश-भारतीय शासन का फौलादी ढाँचा बनी । ये परिवर्तन दो सिद्धांतों पर चले ।

पहला था कलक्टर के अनेक प्रकार के कर्त्तव्यों के कम करने की आवश्यकता, जिन्होंने उसे करीब-करीब असीमित अधिकार दे रखा था तथा उसे जिलेमें ब्रिटिश सत्ता का एकमात्र प्रतिनिधि बना दिया था । तदनुसार कलक्टर से सारी न्याय-सम्बन्धी और मैजिस्टेरट-सम्बन्धी शक्तियाँ हटा ली गयीं, जो जज नामक एक नये अफसर-वर्ग पर आ पड़ी । प्रत्येक जिले के लिए अलग दीवानी कचहरियाँ तथा बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की न्याय-सम्बन्धी शक्तियाँ उठा दी गयीं । जज सभी दीवानी मुकद्दमों को देखने लगा ।

तेईस जिला अदालतों ओर पटने, ढाका एवं मुर्शिदाबाद में तान शहरी अदालतों के अतिरिक्त काम का सामना करने के लिए छोटे दर्जे की बहुत कचहरियाँ भी खोली गयीं ।

सबसे निचली कचहरी मुंसिफों की थी, जो पचास रुपये तक के मुकद्दमे को देख सकती थीं । इसके ऊपर रजिस्ट्रारों की कचहरी थी । रजिस्ट्रार जिला अदालतों से सम्बद्ध एक अधिकारी-वर्ग थे । ये दो सौ रुपयों तक के मुकद्दमे देख सकते थे । इन सब कचहरियों के फैसलों के विरुद्ध जिला अदालत में अपील की जा सकती थी ।

१७९० ई॰ में जो चार प्रांतीय परिक्रमा-कचहरियाँ स्थापित की गयी थीं, उनका पुनस्संगठन हुआ । प्रत्येक में दो के बदले तीन अंग्रेज जज दिये गये । वह न केवल पूर्ववत् फौजदारी परिक्रमा-कचहरी का काम करती थी, वरन् जिला जजों के फैसलों के विरुद्ध अपीलें भी सुनती थी । अधिक महत्वपूर्ण मुकद्दमों में यहाँ से अपील कलकत्ते की सदर दीवानी अदालत में होती थी ।

कलक्टरों के अधिकार को और भी कम करने तथा उनके अत्याचार से भारतीयों को बचाने के उद्देश्य से कलक्टर एवं सरकार के सभी अफसर “अपने सरकारी कामों के लिए अदालतों के प्रति जिम्मेवार बना दिये गये”; यहाँ तक कि यदि सरकार को भी जायदाद को लेकर अपने प्रजाजनों से झगड़ा होता था, तो उसे “अपने हकों को इन अदालतों के सामने रखना पड़ता था तथा ये अदालतें मौजूदा कानूनों एवं नियमों के अनुसार जाँच करती थीं” ।

दूसरा सिद्धांत, जिस पर कार्नवालिस चला, यह था कि शासन की बातों में भारतीयों से वास्तविक सत्ता या उत्तरदायित्व हटा लिया जाय । फौजदारी न्याय के शासन में जिस पर पहले उनका सर्वोच्च एवं करीब-करीब पूर्ण नियंत्रण था, उसने उन्हें पहले ही वास्तविक शक्ति से विरहित कर डाला था ।

अब उसने जमींदारों को उनके अपने कार्यक्षेत्र में शांतिरक्षा की शक्ति और उत्तरदायित्व से वंचित कर दिया । वे अपने आरक्षी सैनिकों को तितर-बितर करने को लाचार कर दिये गये । उनके कर्त्तव्य हर जिले में कुछ दारोगों पर सौपें गये । प्रत्येक दारोगा मैजिस्टेरट के प्रत्यक्ष सुपर्यवेक्षण में एक निर्धारित क्षेत्र में काम करता था ।

कार्नवालिस द्वारा लाये गये परिवर्तनों का वास्तविक परिणाम यह हुआ कि जिले का संपूर्ण प्रशासनिक कार्य दो यूरोपियन अफसरों में बँट गया-एक राजस्व का कलक्टर (संग्रहकर्ता) रहा और दूसरा जज एवं मैजिस्टेट रहा । भारतीय जानबूझकर विश्वास एवं उत्तरदायित्व के पदों से हटाकर रखे गये ।

बंगाल: दूसरी अवस्था (१७९३-१८२९ ई॰):

पैंतीस वर्षों तक कार्नवालिस की प्रणाली मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अपना ली गयी तथा धीरे-धीरे जो त्रुटियाँ बरबस सरकार के ध्यान में आयी, उन्हीं के उपचार-मात्र में वह लगी रही ।

स्थायी बंदोबस्त के संबंध में मुख्य कठिनाइयाँ निश्चित रकमों के नियमित संग्रह के बारे में थी । ये बहुत बाकी पड़ गयीं । फलस्वरूप जमीन बहुधा बेच दी जाती थी । स्थिर राजस्व और जमींदारों के एक स्वामिभक्त एवं संतुष्ट वर्ग के विचार काफी हद तक प्रतिफलित नहीं हुए ।

उस कानून की एक दूसरी त्रुटि यह थी कि इसने असामियों (रैयतों) को जमीदारों के अत्याचार के विरुद्ध अपर्याप्त संरक्षण दिया । यह आशा की जाती थी कि कानून-सम्बन्धी अदालतों की स्थापना से असामियों को वह आराम मिलेगा जिसकी जरूरत थी । किन्तु व्यवहार में यह निष्फल सिद्ध हुई ।

जमीन का कोई नियमित सर्वेक्षण नहीं हुआ था और न जमीन पर अधिकार के सम्बन्ध में कोई निश्चित कागज रेकर्ड ही था । अत: कानूनी अदालतें आराम नहीं दे सकी । किन्तु अदालतों का संरक्षण तक शीघ्र भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हुआ । क्योंकि कानूनी मुकद्दमे इतनी तेजी से बड़े की अदालतें उनका सामना करने में असमर्थ हो गयी ।

लोकप्रसिद्ध कानून का विलंब इस बारे में इतना गंभीर सिद्ध हुआ कि न्याय व्यवहारत अलभ्य हो गया, कयोंकि साधारणतया मनुष्य के जीवन-काल में किसी मुकद्दमें का फैसला होने की आशा नहीं की जाती थी । अंतत अपराध बहुत बढ़ गये तथा जीवन और संपत्ति की कोई सुरक्षा न रह गयी ।

इन गंभीर बुराइयों का सामना करने के लिए क्रमागत गवर्नर-जनरलों ने जो विविध उपाय किये उनका विस्तारपूर्वक वर्णन करना अनावश्यक है । उनके द्वारा बरती गयी नीति की मुख्य बातें बतला देना ही काफी होगा ।

जहाँ तक स्थायी बंदोबस्त का सम्बन्ध है, जायदाद पर अधिकार के कागज जमा करने के प्रयत्न किये गये तथा १८१९ ई॰ के सप्तम नियम ने विविध श्रेणियों के असामियों के अधिकार स्पष्टतया निर्धारित कर दिये । अपने असामियों से मालगुजारी वसूल करने के लिए जमींदार को अधिक शक्ति दी गयी तथा वार्षिक मालगुजारी न देने पर वह गिरफ्तार हो सकता था ।

कानूनी मुकद्दमों में हुई अत्यधिक वृद्धि का सामना करने के लिए जिला जजों की संख्या बढ़ा दी गयी, निचली कचहरियों की संख्या एवं शक्तियों में वृद्धि कर दी गयी तथा एक निश्चित सीमा के भीतर दीवानी मुकद्दमे देखने के लिए भारतीय मुसिफों और सदर अमीनों के रूप में नियुक्त हुए ।

मुसिफों को १७९३ ई॰ की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ दी गयीं । जहाँ तक फौजदारी मुकद्दमों का सम्बन्ध है, मैजिस्ट्रेट की उन्हें जाँचने की शक्ति बढ़ा दी गयी तथा उसे अधिकार दे दिया गया कि वह अपनी शक्ति अपने सहायकों को सौंप सकता है ।

कलक्टरों को खास तौर के राजस्व-संबंधी मुकद्दमे जाँचने की ताकत पुन: दे दी गयी तथा उनमें से कुछ चुने हुए व्यक्तियों को मजिस्ट्रेटों की शक्तियाँ प्रदान कर दी गयीं । प्रांतीय अपीलवाली कचहरियों की कार्यवाही में उपयुक्त परिवर्तन कर दिये गये, जिससे अपीलवाले मुकद्दमे जजों के दौरे पर रहने पर भी जाँचे जा सकें ।

इन अदालतों में जजों की संख्या तीन से बढ़ाकर चार का दी गयी । सदर दीवानी अदालत पूर्णतया पुनर्निर्मित हुई । गवर्नर-जनरल और कौंसिन केबदले में तीन जज इसके लिए रखे गये तथा उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ाकर पाँच कर दी गयी ।

१७९७ ई॰ में, वैसे मामलों में जिनमें झगड़े की रकम पाँच हजार पौंड से अधिव थी, इस संस्था के निर्णय के विरुद्ध किंग-इन-कौंसिल में अपील करने की आज्ञा दी गयी कानून और व्यवस्था की रक्षा करने के लिए बड़े नगरों तथा प्रत्येक जिले के सदन मुकाम, दोनों तरह की जगहों में योग्य पुलिस प्रणाली संगठित की गयी । वह पुलिन कलकत्ते, ढाका, पटने एवं मुर्शिदाबाद में स्थित चार पुलिस सुपरिटेंडेंटों के सुपर्यवेक्षर में काम करती थी ।

बंगाल : तीसरी अवस्था (१८२९-१८५८ ई॰):

कार्नवालिस की प्रणाली में पहला मौलिक परिवर्तन लार्ड विलियम बेंटिंक द्वारा १८२९ ई॰ में किया गया । शासन की यह नवीन योजना कमिश्नर नामक एक अफसर-वर्ग में केंद्रित हुई । प्रत्येक कमिश्नर पर एक-एक ‘डिवीजन’ का भार दिया गया । एक डिवीजन में कई जिले होते थे ।

अपील की प्रांतीय अदालतें और पुलिस सुपरिटेंडेंटों के पद उठा दिये गये तथा उनके कर्त्तव्य बदलकर कमिश्नर को मिल गये । इनके अतिरिक्त, उसे अपने अधीन कलक्टरों, मैजिस्ट्रेटों और जजों के काम पर भी निगरानी रखनी पड़ती थी । किन्तु अनुभव ने शीघ्र ही सिद्ध कर दिया कि इतने काम एक व्यक्ति-मात्र के लिए बहुत ज्यादा थे ।

१८३१ ई॰ और १८३७ ई॰ में काफी परिवर्तन किये गये । इनके फलस्वरूप सेशंस जज के कर्त्तव्य बदलकर जिला जज को दे दिये गये तथा नये उपयुक्त पदों का निर्माण करके जिला जज को उसके मैजिस्ट्रेट-सम्बन्धी कृत्यों से छुट्टी दे दी गयी ।

इस प्रकार जिले का शासन जज, कलक्टर और मैजिस्ट्रेट के द्वारा होने लगा उनके साथ इकरारनामे-बंधी सिविल सर्विस के किरानी होते थे तथा डिवीजन (कमिश्नरी) के कमिश्नर की निगरानी रहती थी ।

परिवर्तन की एक दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि भारतीयों पर शासन-सबंधी काम का अधिक भाग सौंपा जाने लगा । इसके लिए उनमें से डिप्टी-मैजिस्ट्रेटों और डिप्टी-कलक्टर बहाल किये जाने लगे दीवानी मुकद्दमे सुनने के लिए प्रिंसिपल सदर अमीन का नया पद बनाया गया । कुछ मुकद्दमों में प्रिंसिपल सदर अमीन के फैसलों के विरुद्ध अपील सीधे कलकत्ते की सदर दीवानी अदालत में हो सकती थी । पहले इस तरह की अपील जिला जज के यहाँ होती थी ।

लार्ड विलियम बेंटिंक ने ज्वाइंट मैजिस्ट्रेटों के पद भी बनाये तथा उनपर सबडि-वीजनों का भार सौंपा । धीरे-धीरे डिप्टी-मैजिस्ट्रेट भी सबडिवीजन अफसरों के रूप में बहाल होने लगे ।

बंगाल के शासन में सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन १८५४ में हुआ । उस साल तक गवर्नर-जनरल और कौंसिल भी बंगाल के शासन के लिए उत्तरदायी थे । स्वभावत: उस संस्था के सामने करीब-करीब बराबर साम्राज्य संबंधी प्रश्न आते रहते थे जो अधिक महत्वपूर्ण होते थे और इस कारण बंगाल की स्थानीय आवश्यकताएँ पीछे पड़ जाती थीं ।

१८५३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट (सनद-कानून) के द्वारा बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आसाम एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन रख दिये गये तथा मिस्टर एफ. जे. हैलिडे २८ अप्रैल, १८५४ ई॰ को इस पद पर नियुक्त हुआ ।

मद्रास में  ब्रिटिश का प्रांतीय शासन (Provincial Governance of British in Madras):

बंगाल के समान मद्रास में भी शासन-सम्बन्धी मुख्य समस्या भूमि-राजस्व की वसूली थी, जो राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत था । समूचे बंगाल पर अंग्रेजों का अधिकार ही वार हो गया था । किन्तु मद्रास के साथ वैसी बात नहीं हुई थी ।

मद्रास के ब्रिटिश इलाके विभिन्न समयों पर विभिन्न शक्तियों से प्राप्त किये गये थे तथा वहाँ विभिन्न कानून और रस्म-रिवाज थे । इसलिए भूमि-राजस्व के शासन को विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित होना था, जिससे स्थानीय आवश्यकताओं के लिए सुविधाजनक हो ।

साधारणत: दो विभिन्न प्रणालियाँ अख्तियार की गयीं । जागीर के इलाकों और उत्तरी सरकार में हर गाँव के मालिक कुछ मिरासदार होते थे, जिनका उत्तराधिकार-योग्य हिस्सों पर अधिकार रहता था । इनमें से प्रमुख व्यक्ति बहुत समय से गाँव के प्रतिनिधि होते आये थे । अतएव समूचे गाँव का बंदोबस्त प्रमुख मिरासदारों की एक समिति के साथ कर दिया गया और बदले में एक लम्बी रकम निश्चित हुई ।

बारामहल में, जिसे टीपू से १७९२ ई॰ में जीता गया था, एक बिलकुल दूसरी प्रणाली प्रचलित थी । वहाँ गाँव का मुखिया प्रत्येक किसान से रुपये वसूलता था तथा राज्य को दे देता था । अलेक्वेडर रीड ओर टामस मुनरो ने इस प्रणाली का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया तथा धीरे-धीरे उस प्रणाली का विकास किया, जिसे रैयतवारी बंदोबस्त कहते हैं । १८५५ ई॰ तक जाकर इसका पूर्ण विकास हुआ ।

इस प्रणाली का सार यह है कि बंदोवस्त छोटे किसानों के साथ होता है, जो जमीन पर पूरे अधिकार रखते है; सिर्फ उन्हें एक निश्च्चित मालगुजारी देनी पड़ती है, जिसे राज्य सीधे नौकरों द्वारा इकट्‌ठा कर लेता है । बंदोबस्त निश्चित अवधियों के लिए किया जाता और पुनर्नवीकृत होता है । साधारणत: यह अवधि तीस वर्ष होती है ।

इस बीच रैयत को जमीन से नहीं निकाला जा सकता और न उसे कोई अतिरिक्त रकम ही देनी पड़ती हे । फसल होने पर सब खर्चो के बाद बचे हुए भाग का आधा इस बंदोबस्त में सरकारी हिस्सा होता है ।

उपर्युक्त दोनों प्रणालियाँ ही साधारणत: अपनायी गयीं तथा समय-समय पर जो भी इलाके विजय या समर्पण द्वारा जोड़े गये वहाँ चाल की गयीं । किंतु रैयतवारी प्रणाली अधिक प्रिय हुई, खासकर इसलिए कि मिरासदारी में प्रमुख लोगों के लिए बाकी गाँववालों पर अत्याचार करने की गुंजाइश रहती थी ।

बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लागू करने के बाद यह प्रणाली मद्रास में भी लागू की । मद्रास के पोलिगार बंगाल के जमींदारों के समान थे । वे ज्यादातर सामंत सरदारों के जैसे थे । उनके सैनिक सेवक होते थे । वे अपने कार्यक्षेत्र के भीतर विस्तृत न्यायपालक एवं कार्यपालक अधिकारियों का उपयोग करते थे ।

जिस तरह बंगाल में किया गया था, उसी तरह उनके साथ भी सदा के लिए बंदोबस्त कर दिया गया तथा वे अपनी सैनिक और न्याय-संबंधी शक्तियों से वंचित कर दिये गये । यहाँ तक यह प्रयोग सब मिलाजुलाकर सफल रहा । किन्तु मद्रास में ऐसे बहुत-से हिस्से थे जहाँ पोलिगार न थे ।

यहाँ सरकार ने जमींदारों का एक नया वर्ग पैदा कर यह कठिनाई टूर करने की कोशिश की । कुछ गाँवों का समूह बनाकर उन्हें एक काफी बड़ी जमींदारी का रूप दे दिया गया और तब इसे नीलाम द्वारा सबसे बड़ी बोली बोलनेवाले के हाथ बेच दिया गया । परिणाम बहुत असंतोषजनक हुआ । अत: यह प्रणाली धीरे-धीरे छोड़ दी गयी । पहले मिरासदारी को अपनाया गया और अंत में रैयतवारी प्रणाली आयी ।

रैयतवारी प्रणाली शीघ्र बंदोबस्त की स्वीकृत प्रणाली हो गयी । किन्तु जमींदारी प्रथा प्रांत के करीब एक चौथाई भाग में प्रचलित रही तथा मिरासदारी सरकारी तौर से छोड़ दिये जाने पर भी कुछ छिटपुट इलाकों में बनी रही ।

स्थायी बंदोबस्त के साथ ही कार्नवालिस का न्याय-प्रबंध भी मद्रास में लागू किया गया । यहाँ भी शासन-यंत्र का करीब-करीब वैसे ही विकास हुआ वैसे बंगाल में हुआ था । प्रांत कुछ जिलों में बाँट दिया गया तथा प्रत्येक जिला तालुकों में बाँट दिया गया ।

पहले जिला जज को भी मैजिस्ट्रेट-सम्बन्धी एवं पुलिस-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे । किन्तु ये कृत्य शीघ्र बदलकर कलक्टर को दे दिये गये । धीरे-धीरे कलक्टर का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया तथा बंगाल के कलक्टर के कर्त्तव्यों के अतिरिक्त उसे भूमि-राजस्व के निर्धारण एवं संग्रह के संबंध में भी महत्वपूर्ण कृत्य मिले ।

ब्रिटिश भारत के अन्य भाग (Other Parts of British India):

बंगाल में जो शासन-प्रणाली विकसित हुई वह उसी प्रकार ब्रिटिश भारत के अन्य भागों में भी लागू कर दी गयी । यहाँ उसके विस्तारपूर्वक वर्णन की जरूरत नहीं । जहाँ तक भूमि के बंदोबस्त का सम्बन्ध है, रैयतवारी प्रणाली बम्बई में अपनायी गयी तथा ऊपरी प्रांतों (मोटे तौर पर आधुनिक उत्तर प्रदेश) में बंदोबस्त गाँव की जनता से किया गया और मद्रास की मिरासदारी प्रथा के समरूप हुआ ।

यह कोई जरूरी नहीं कि ‘गाँव की जनता’ से सभी ग्रामवासियों के समिलित स्वामित्व का अर्थ लिया जाए साधारणतया इसका अर्थ है ऐसे व्यक्तियों का समूह, जो कम या बेशी घनिष्ठ रूप में संबद्ध थे तथा तीस वर्षों के लिए निश्चित राजस्व की अदायगी के लिए मिलकर एवं अलग-अलग दोनों रूपों में उत्तरदायी थे ।

बम्बई और यू॰पी॰ में इस प्रणाली के विकास के लिए माउंटस्टुअर्ट एल्फिंस्टन और जेम्स टामसन के नाम संबद्ध है । यू॰ पी॰ की प्रणाली कुछ संशोधनों के साथ पंजाब में अपनायी गयी । इन दोनों प्रांतों में उन खेतिहरों के हितों की रक्षा के उपाय किये गये जो गाँव की जनता के सदस्य न थे ।

व्यवहार में, जो खेतिहर किसी जमीन (जोत, पट्टी) को लगातार बारह वर्षों तक अपने अख्तियार में रखता था, वह उस पर स्थायी और उत्तराधिकार योग्य अधिकार रखता हुआ समझा जाता था, बशर्ते वह न्याय-विभाग द्वारा निश्चित मालगुजारी देता रहे ।

इस अधिकार को कानूनी तौर पर १८६८ ई॰ के पंजाब काश्तकारी कानून ने स्वीकार किया । उसी साल अवध काश्तकारी कानन भी पास हुआ । मगर यह उतनी दूर नहीं गया । इसने खेतिहरों के करीब पाँचवें भाग को अख्तियार का अधिकार दिया तथा सुधारों के हर्जाने एवं मालगुजारियों की वृद्धियों के सम्बन्ध में अधिक न्यायपूर्ण सिद्धांत लागू किये ।

बंगाल की न्याय-प्रणाली १७९५ ई॰ १८०३ ई॰ ओर १८०४ ई॰ में क्रमश: बनारस, अवध एवं दोआब में लागू कर दी गयी । कलकत्ते से अत्यधिक दूरी के कारण सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत की अलग कचहरियाँ इलाहाबाद में १८३१ ई॰ में खोली गयीं ।

जहां तक बम्बई का संबंध है, १७९९ ई॰ के नियमों ने बंगाल के न्याय-शासन के समान न्याय-शासन की एक पद्धति निकाली किन्तु १८२७ ई॰ में माउंटस्टुअर्ट एल-फिंस्टन के अधीन यह संशोधित हो गयी । नवीन योजना ने जिला कचहरियाँ खड़ी कीं, जिनकी अध्यक्षता एक जज करता था ।

इसके निर्णय के विरुद्ध सदर दीवानी अदालत में अपील हो सकती थी । अधिक छोटे मुकद्दमे निम्नतर कचहरियों द्वारा जाँचे जाते थे, जो भारतीयों के अधीन होती थीं । इस प्रकार एल्फिस्टन ने कुछ हद तक बेटिंग के सुधारों को पहले ही सोच लिया था, जो सामान्यतया बंगाल के ढंग पर समस्त ब्रिटिश शासन में लागू किये गये ।