भारत सरकार के व्यय की लेखा परीक्षा: अर्थ, भूमिका और संवैधानिक प्रावधान | Read this article in Hindi to learn about:- 1. लेखापरीक्षा का  अर्थ (Meaning of Audit) 2. लेखापरीक्षा की भूमिका (Role of Audit) 3. भारत में लेखापरीक्षा (Audit in India).

लेखापरीक्षा का अर्थ (Meaning of Audit):

वित्तीय प्रशासन पर विधायी नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण साधन है- लेखापरीक्षा । यह विधायिका के प्रति प्रशासन की जवाबदेही का लागू करने का एक उपकरण है । यह प्रशासन पर बाहरी नियंत्रण का अंग है । लेखापरीक्षा लेखा की छानबीन है जिसका उद्देश्य यह पता लगाना और विधायिका को रिपोर्ट करना है कि प्रशासन की ओर से कौन-कौन से अनाधिकृत, अवैधानिक या अनियमित खर्चे किए गए हैं और उसके कौन-से वित्तीय कार्य उचित नहीं हैं ।

इसका उद्देश्य यह देखना है कि खर्चे सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृतियों से और उन्हीं कार्यों के लिए किए गए हैं जिनके लिए विधायिका ने स्वीकृत किया था । जेम्स सी.चार्ल्सवर्थ के शब्दों में- लेखापरीक्षा यह सुनिश्चित करने की प्रक्रिया है कि प्रशासन ने अपनी धनराशियों का प्रयोग उस विधायी प्रपत्र की उस शर्तों के अनुसार किया है अथवा कर रहा है जिसने धन का विनियोग किया है । लेखापरीक्षा या तो उत्तर लेखापरीक्षा हो सकती है अथवा पूर्व लेखापरीक्षा । अगर लेखापरीक्षा धन व्यय होने के बाद होती है तो इसे उत्तर लेखापरीक्षा कहते हैं और यदि धन खर्च होने से पहले होती है तो पूर्व लेखापरीक्षा कहलाती है । दूसरी ओर यदि लेखापरीक्षा खर्च की प्रक्रिया के दौरान होती है तो इसे समवर्ती लेखापरीक्षा कहा जाता है ।

लेखापरीक्षा की भूमिका (Role of Audit):

आधुनिक राज्य में लेखापरीक्षा की भूमिका को निम्नलिखित बिंदु स्पष्ट करते हैं:

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i. नियामक (Regulatory) लेखापरीक्षा:

इसका सरोकार प्रशासन द्वारा किए गए खर्चों के वैधानिक एवं तकनीकी पक्षों से है । यह सुनिश्चित करती है कि खर्च कानून, नियमों और विनियमों के अनुसार किए गए हैं और यह देखती है, इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त वाउचर हैं या नहीं । अत: इसको विधिक लेखापरीक्षा भी कहते हैं ।

ii. औचित्य (Propriety) लेखापरीक्षा:

इसका संबंध खर्चा करने की बुद्धिमानी, निष्ठा और मितव्ययता से है । यह अपव्यय और बर्बादी के मामलों की उस स्थिति में भी खोज करती है, जब खर्चे कानून, नियम और विनियम के अनुसार किए गए हों ।

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iii. निष्पादन (Performance) लेखापरीक्षा:

इसका संबंध उपलब्धियों के मूल्यांकन से है । यह खर्चों के बदले में प्रशासन के कार्यों का मापन करता है । अत: इसको कुशलतापरक लेखापरीक्षा भी कहते हैं ।

iv. निवारक लेखापरीक्षा:

इसके द्वारा वित्तीय कार्यचालनों के लेन-देन में प्रक्रियात्मक और पद्धति मूलक त्रुटियां खोजी जाती हैं और इनकी पुनरावृत्ति रोक जाता है ।

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v. उपचारात्मक लेखापरीक्षा:

इसके माध्यम से दुर्वियोजन और गणना के मामलों की जांच की जाती है । इसके द्वारा दोषी अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त होता है ।

vi. सवंर्द्धक लेखापरीक्षा:

यह पुरानी प्रक्रियाओं और व्यवहारों के अध्ययन के उपरान्त नई प्रक्रियाओं और कार्य व्यवहारों का प्रतिपादन करती है जिसके फलस्वरूप प्रशासनिक सुधारों की गति प्राप्त होती है । इस प्रकार आधुनिक राज्य के प्रशासन में लेखापरीक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । अशोक चंदा ने कहा है- “तमाम मान्यता प्राप्त जनतंत्रों में लेखापरीक्षा को एक आवश्यक बुराई के रूप में ही सहन नहीं किया जाता है । अपितु एक ऐसी मूल्यवान मित्र के रूप में भी देखा जाता है जो व्यक्तियों की कार्यप्रणाली संबंधी और तकनीकी अनियमितताओं को सामने लाता है, चाहे वे निर्णय लापरवाही के कारण हों अथवा बेईमानी के कारण हों या उसके इरादे से किए गए हों ।”

भारत में लेखापरीक्षा (Audit in India):

संविधान की धारा 148 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के स्वंतत्र पद का प्रावधान है । वह भारतीय लेखापरीक्षा एवं लेखा विभाग का प्रमुख है । वह सार्वजनिक निधि का संरक्षक है और केंद्र तथा राज्य दोनों के स्तर पर देश की समूची वित्त प्रणाली को नियंत्रित करता है; अत: इस पद की प्रकृति अखिल भारतीय है ।

संविधान की धारा 149 में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह केंद्र और राज्यों और किसी भी अन्य प्राधिकरण अथवा निकाय के लेखा के संबंध में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कार्यभार एवं उसकी शक्तियों का निर्धारण करें । 1976 में इस अधिनियम में संशोधन कर केंद्र के मामले में लेखा को लेखापरीक्षा से पृथक कर दिया गया था ।

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) को- ”यह सुनिश्चित करना है कि जो धन लेखा में खर्च हुआ दिखाया गया है क्या वह वैधानिक रूप से उस सेवा अथवा उद्देश्य के लिए उपलब्ध या लागू होता है जिसके लिए उसे प्रयुक्त अथवा खर्च किया गया है और कि क्या उसको नियंत्रित करने वाले प्राधिकरण को अनुमति प्राप्त है ।”

इस वैधानिक और नियामक लेखापरीक्षा के अतिरिक्त सीएजी औचित्य लेखापरीक्षा भी कर सकता है अर्थात वह सरकारी खर्चों की ”बुद्धिमता, निष्ठा और मितव्ययता” को भी देख सकता है और ऐसे खर्च की बर्बादी और अपव्यय पर भी टीका टिप्पणी कर सकता है; परंतु वैधानिक एवं नियामक लेखापरीक्षा जो सीएजी के लिए अनिवार्य है जबकि औचित्य लेखा परीक्षा उसके विवेकाधीन है ।

सीएजी की भूमिका वित्तीय प्रशासन में भारत के संविधान और संसदीय कानूनों की मर्यादा को बनाए रखती है । वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में संसद के प्रति कार्यपालिका अर्थात मंत्रिमंडल की जवाबदेही सीएजी की लेखापरीक्षा रिपोर्टों में सुरक्षित रहती है ।

सीएजी संसद का एजेंट है और यह लेखापरीक्षा कार्य संसद की ओर से करता है । अत: यह संसद के प्रति उत्तरदायी है । भारत के संविधान की दृष्टि में सीएजी, नियंत्रक और महालेखापरीक्षक दोनों है । परंतु व्यवहार में सीएजी केवल महालेखा परीक्षक की ही भूमिका निभाता है, नियंत्रक की नहीं ।

जैसा कि डी. डी. बसु का कहना है- ”संचित निधि से जारी होने वाले धन पर सीएजी का कोई नियंत्रण नहीं और अनेक विभागों को सीएजी से विशेष प्राधिकार प्राप्त किए बिना चेक जारी करके धन निकालने का अधिकार है । सीएजी की भूमिका केवल लेखापरीक्षा के समय प्रकट होती है जब खर्च हो चुका होता है ।”

इस मामले में भारत का सीएजी ब्रिटेन के सीएजी से पूरी तरह भिन्न है जिसको नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक, दोनों, शक्तियाँ प्राप्त हैं । दूसरे शब्दों में, ब्रिटेन में कार्यपालिका राजकोष से धन की निकासी केवल सीएजी की स्वीकृति से ही कर सकती है ।