ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का संविधान | Constitution of India during British Rule.

ब्रिटिश पार्लियामेंट का भारत सरकार पर राज्य-सचिव द्वारा कार्यान्वित होनेवाला जो नियंत्रण था, वह मजबूती के साथ कायम रखा जाता था । यहाँ तक कि लार्ड कर्जन-जैसे दबंग व्यक्तित्व की बात भी गृह सरकार रह कर चुकी थी । लार्ड मार्च ने भारत के राज्य-सचिव की हैसियत से अधीक्षण एवं निर्देशन की शक्ति दृढ़तापूर्वक इस्तेमाल की ।

उसने भारतीय शासन में अपने पूर्वाधिकारियों की अपेक्षा ज्यादा और अधिक प्रत्यक्ष भाग का दावा किया । मिस्टर लोवट फ्रेजर ने जनवरी, १९१६ के ‘एडिनबरा रिव्य’ में लिखा- “लार्ड मार्च चाहे उसके जो भी गुण रहे हों, निश्चय ही ह्वाइटहॉल का सबसे अधिक स्वेच्छाचारी एवं सबसे कम संविधानिक राज्य-सचिव था ।” किन्तु गवर्नर-जनरल जगह पर का आदमी था । इसलिए उसकी “पुरानी कार्यस्वातंत्र्यात्मक शक्ति” पूर्णतया लुप्त नहीं हुई ।

वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में कुछ भारतीय राजनीतिज्ञों ने, जिनमें स्वर्गीय भी गोखले भी थे गृह सरकार में कुछ परिवर्तनों-खासकर इंडिया कौंसिल के उठाये जाने-की माँग की थी । १९०७ ई॰ में दो भारतीय महानुभाव लार्ड मार्च की कौंसिल के सदस्य नियुक्त हुए । १९१९ ई॰ में एक समिति नियुक्त हुई । भारत का एक भूतपूर्व राज्य-सचिव लार्ड क्रू उसका अध्यक्ष हुआ ।

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उसके सदस्यों में प्रोफेसर एस. बी. कीथ और श्री बी. एन. बसु भी थे । उसका उद्देश्य था गृह सरकार की कार्यवाही की परीक्षा कर उसपर रिपोर्ट देना । उस समिति ने इंडिया कौंसिल के बिलकुल उठा दिये जाने की सिफारिश की । किन्तु इस सिफारिश को पार्लियामेंट की संयुक्त समिति ने नहीं माना ।

समिति ने ब्योरों में कुछ परिवर्तनों की वकालत की । ये परिवर्तन १९१९ ई॰ के कानूनर द्वारा कार्यान्वित हुए । कौंसिल के रिक्त स्थान पूर्ववत् राज्य-सचिव द्वारा भरे जानेवाले थे । मगर अब से इसके आठ से कम और बारह से अधिक सदस्य नहीं हो सकते थे ।

इनमें से आधे सदस्यों पर यह कैद रही कि उन्हें कम-से-कम दस वर्षों तक भारत में रहा हुआ होना पड़ेगा या उन्होंने भारत में इस अवधि तक नौकरी की होगी; साथ ही, उन्होंने बिलकुल हाल में भारत छोड़ा होगा । उनका कार्यकाल सात से घटाकर पाँच वर्ष कर दिया गया ।

कौंसिल के बहुमत की स्वीकृति की आवश्यकता केवल इन बातों में होती थी:

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(१) भारत के राजस्व के किसी भाग की स्वीकृति या उसे किसी काम के लिए रखना,

(२) इकरारनामे करना, तथा

(३) सिविल सर्विस-सम्बन्धी बातों को नियमित करने के लिए नियमावली बनाना ।

कौंसिल स्पष्टत: राज्य-सचिव के अधीन रह गयी । न केवल इसके सम्बन्ध में, बल्कि भारत सरकार के सम्बन्ध में भी-विशेषकर साम्राज्यीय या सैनिक मामलों, वैदेशिक सम्बन्धों, यूरोपीय ब्रिटिश प्रजाजनों के अधिकारों, बिदेशी को नागरिकता के अधिकार देने के कानून, सार्वजनिक ऋण, चुंगी, मुद्रा और जहाजरानी के लिए-राज्य-सचिव की कार्य स्वातंम्यात्मक शक्तियाँ कायम रह गयीं ।

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केबल “हस्तांतरित” विषयों पर उसका नियंत्रण सीमित हो गया । १९१९ ई॰ के पहले राज्य-सचिव का वेतन और उसके विभाग का व्यय भारतीय राजस्व से अदा किये जाते थे । फलत: पार्लियामेंट उसी रूप में भारतीय बजट की आलोचना नहीं कर सकती थी, जिस रूप में बिटिश अर्थ-सचिव (चासलर ऑफ दि एक्सचेकर) द्वारा पेश किये गये बजट की कर सकती थी ।

राज्य-सचिव को पार्लियामेंट द्वारा अधिक प्रभावकारी आलोचना के अंतर्गत लाने के ख्याल से १९१९ ई॰ के कानून ने व्यवस्था की कि “राज्य-सचिव का वेतन पार्लियामेंट द्वारा दी गयी रकम से मिलेगा तथा उसके अवर-सचिवों का वेतन था उसके विभाग का कोई अन्य व्यय पार्लियामेंट द्वारा दी गयी रकम से अदा हो सकता है” ।

पार्लियामेंट के दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति-नियुक्त हुई । इसका काम था सदनों के समक्ष पेश हुए भारतीय प्रश्नों, नियमों और कानूनों पर विचार करना । इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप में ब्रिटिश भारत पर पार्लियामेंट का नियंत्रण अधिक मजबूत हो चला ।

१९३५ ई॰ के भारत-शासन कानून ने राज्य-सचिव के कानूनी स्थान को बदल दिया । इसके अनुसार “भारत-भूमि में अथवा भारत-भूमि के सम्बन्ध में सभी अधिकार, शक्तियां या कार्यक्षेत्र” ब्रिटिश क्राउन में स्थित हो गये । गवर्नर-जनरल या प्रांतीय गवर्नर को, जो ब्रिटिश सम्राट् (हिज मैजेस्टी) की ओर से कार्यपालिका शक्ति का व्यय- हार कर रहा था, अपने विवेक से काम करते समय राज्य-सचिव के सामान्य नियंत्रण में होना था, जो (राज्य-सचिव) ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य था तथा भारत-सम्बन्धी सभी मामलों में पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी था ।

सार रूप में राज्य-सचिव का अधिकार करीब-करीब अपरिवर्तित रह गया जो थोड़ी-सी शिथिलता आयी, वह कुछ प्रांतों में स्वराज्य के आगमन से तथा संघ होने पर केंद्र में आशिक उत्तरदायित्व के कारण । वह “भारतीय शासन के शिखर पर इसके अभिभावक के रूप में खड़ा” रह गया ।

१९३५ ई॰ के कानून की व्यवस्था के अनुसार इंडिया कौंसिल एक अप्रैल, १९३७ ई॰ से उठा दी गयी । इसके बदले में राज्य-सचिव को परामर्शदाताओं की एक समिति मिली, जिनकी संख्या तीन से कम या छ: से अधिक नहीं हो सकती थी ।

इनमें से कम-से-कम आधे सदस्यों को भारत में क्राउन के अधीन दस वर्षों तक काम कर चुका होना चाहिए था तथा भारत में काम करना समाप्त करने के दो वर्षों के भीतर नियुक्त होना चाहिए था ।

अपने परामर्शदाताओं से संयुक्त रूप में या व्यक्तिगत रूप में राय लेने में अथवा उनकी उपेक्षा करने में जो राज्य-सचिव को विचारशीलता मिली थी, उसमें वह पूर्णतया स्वतंत्र था । यह उनकी राय के मुताबिक काम कर सकता था अथवा काम करना अस्वीकार कर सकता था ।

हां, कतिपय निर्दिष्ट दृष्टांतों में उसे वह स्वतंत्रता नहीं थी । उदाहरण के लिए, क्राउन के अधीन नौकरियों के सम्बन्ध में उसे जो शक्तियाँ दी गयी थीं, उनके प्रयोग में वह स्वतन्त्र नहीं था एतदर्थ उस बैठक में उपस्थित कम-से-कम आधे सदस्यों की स्वीकृति आवश्यक थी ।

राज्य-सचिव को भारत की केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के लिए एजेंसी का काम करना पड़ता था । इससे उसे मुक्ति देने के लिए १९१९ ई॰ के कानून ने हाई कमिश्नर के पद की व्यवस्था की । यह पद १३ अगस्त, १९२० ई॰ के आर्डर-इन-कौंसिल (यानी कौंसिलीय आदेश) द्वारा स्थापित हुआ ।

उसे भारत सरकार के द्वारा नियुक्त होना था, जिसके प्रति वह मुख्यतया उत्तरदायी रहता । उसके वेतन को भारतीय राजस्व से मिलना था । उसके कर्तव्य थे-भारतीय सरकारों के लिए भोजनादि की संचित वस्तुएँ प्राप्त करना, व्यापार-सम्बन्धी सूचना देना, भारतीय वाणिज्य के हितों को प्रोन्नत करना, इंगलैंड में भारतीय विद्यार्थियों की शिक्षा की देखभाल करना, तथा दरियाफ्त करनेवालों को भारत पर सूचना देना ।

वह अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में एक सदस्य (डेलीगेट) की हैसियत से भारत का प्रतिनिधित्व भी करता था । १९३५ ई॰ के कानून के अनुसार हाई कमिश्नर को गवर्नर-जनरल द्वारा उसके “व्यक्तिगत निर्णय” में नियंत्रित होना था तथा वह, गवर्नर-जनरल से शक्तिप्रदत्त होने पर, किसी प्रांत या संघ में सम्मिलित रियासत या बर्मा के लिये काम कर सकता था ।