भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान आंतरिक शासन | Internal Governance during British Rule in India.

लार्ड कर्जन द्वारा हुए बंग-भंग के बाद जो राजनीतिक आंदोलन चला, उसने धीरे-धीरे क्रांतिकारी रूप धारण किया । कांग्रेस में एक पूर्णसुधारवादी दल की वृद्धि हुई । बँटवारे के विरुद्ध प्रतिवाद के रूप में विदेशी माल का बहिष्कार होने लगा । यही नहीं, बल्कि भारत के विविध भागों में गुप्त समितियाँ बढ़ चलीं ।

इनका स्पष्ट उद्देश्य था अस्त्र-शस्त्र जमा करना और बम बनाना, जिससे ये विशेष प्रकार के अफसरों का काम तमाम कर दें, तथा, यदि संभव हो तो, सशस्त्र क्रांति का संगठन करें । न केवल बंगाल में, बल्कि पंजाब एवं मद्रास-जैसे दूरवर्ती प्रांतों तक में “गहरी अशांति की आम हालत” थी ।

सरकार ने मजबूत कारवाइयाँ अपनायीं । वैसे कानून पास किये गये, जिन्होंने जन-आंदोलनों एवं प्रेस (समाचार-पत्र) और सार्वजनिक सभाओं पर भारी रोक लगा दी । प्रमुख व्यक्तियों को बिना जाँच के निर्वासित कर डाला गया । कुछ दूसरों को फाँसी पर लटका दिया गया अथवा जीवन भर के लिए कालापानी भेज दिया गया ।

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काफी लोगों को, जिनमें तिलक-जैसे उल्लेखनीय नेता भी थे, जेल की विविध सजाएँ मिलीं । लेकिन ये कठिन कारवाइयाँ भी हत्याओं और घोर अपराधों को नहीं रोक सकीं । अंत में सरकार ने लार्ड कर्जन के काम को रूपभेदित करने का निर्णय किया ।

इस विषय पर २५ अगस्त, १९११ ई॰ का भारत सरकार का जो सरकारी पत्र था, उसने बँटवारे द्वारा उत्पन्न कठोर भावना का प्रमाण दिया । इसने बंगालियों की “वास्तविक शिकायत” को भी साफ-साफ स्वीकार किया, “जिन्होंने बंगाल और पूर्वी बंगाल दोनों प्रांतों के विधानमंडलों में अपने को संख्या में कम पाया” ।

साथ ही, “मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच बढ़ते हुए तनाव” को भी कबूल किया, “जिसने देश के बहुत-से भागों में अत्यंत विकट रूप धारण कर लिया था” । सम्राट पंचम जार्ज के राज्यारोहण के बाद दिसम्बर, १९११ ई॰ में दिल्ली में एक दरबार हुआ । इसमें सम्राट और सम्राज्ञी सन्देह उपस्थित हुए ।

ब्रिटिश सम्राट् ने दरबार में दो प्रसिद्ध घोषणाएँ कीं । एक घोषणा थी गवर्नर के अधीन बंगाल प्रेसिडेंसी का निर्माण । बिहार, उड़ीसा और छोटा नागपुर इससे अलग कर दिये जाकर लेफ्टिनेंट-गवर्नर के अधीन एक प्रांत बना दिये गये आसाम पुन चीफ कमिश्नर का प्रांत बन गया ।

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दूसरी घोषणा थी भारत की राजधानी का कलकत्ते से दिल्ली को परिवर्तन । इन कारवाइयों की सिफारिश करने के लिए वाइसराय लार्ड हार्डिज की कड़ी आलोचना हुई ।

किन्तु समय ने उसकी नीति को अधिक सीमा तक न्यायोचित प्रमाणित कर दिया । यद्यपि आतंकवादी घोर अपराध पूर्णतया नष्ट नहीं हुए, तथापि सामान्य परिस्थिति में काफी उन्नति हुई तथा ब्रिटिश-विरोधी भावनाएँ बहुत कम कड़ी हो चलीं । यह बात तीन वर्षों से भी कम ही समय में अच्छी तरह सिद्ध हो गयी ।

१९१४ ई॰ में विश्व-युद्ध छिड़ गया । भारत की स्वामिभक्ति कठोर परीक्षा पर चढ़ गयी । उसने इस रूप में अपना काम किया, जिससे उसे ब्रिटिश की कृतज्ञता और संसार की प्रशंसा प्राप्त हो गयी । उसके लोगों और राजाओं ने खुशी से अपने साधन सरकार के हवाले कर दिये ।

भारतीय सिपाही वीरतापूर्वक लड़े । उन्होंने यूरोप, अफ्रीका एवं पश्चिमी एशिया के विविध युद्ध-क्षेत्रों में प्रतिष्ठा प्राप्त की । युद्ध के प्रारभिक कुछ महीनों में भी विविध मोर्चों पर लड़ने के लिए करीब तीन लाख समुद्र पार भेजे गये तथा भारत ने इंगलैंड को सात करोड़ छोटे अस्त्र-शस्त्र आदि लड़ाई के सामान्, साठ हजार बिलकुल हाल की बनी पेंचदार नलियों से युक्त बंदूकें और साढ़े पाँच सौ से अधिक तोपें दीं ।

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लड़ाई के दौरान में आठ लाख से अधिक लड़ाके और चार लाख से अधिक गैर-लड़ाके स्वेच्छापूर्वक भर्ती किये गये । सामान में भी भारत की देन करीब-करीब उसी प्रकार महत्वपूर्ण रही । युद्ध की सामग्री अस्त्रादि के अतिरिक्त उसकी कपास, पाट (जूट) लोहे, इस्पात, उल्फाम (धातु-विशेष) मैगानीज (लौह-सदृश धातु-विशेष) अबरक, शोरे, रबड़, चमड़ों, मिट्टी के तेल (पेट्रोलियम) चाय और गेहूँ से मित्र राष्ट्रों को बड़ी सहायता पहुँची ।

भारत ने अपनी अधिक-से-अधिक योग्यता तक वित्तीय सहायता भी दी । यद्यपि उसके सिपाही उसकी सीमाओं के बाहर काम में लाये गये, तथापि उसने उनके निर्वाह के लिए नियमित (साधारण) व्यय अदा किया । यह रकम प्रति वर्ष दो और तीन करोड़ पौंड स्टर्लिंग के बीच होती थी ।

उसने तीन लाख आदमियों की अतिरिक्त सेना का खर्च भी अदा किया । उसने ब्रिटिश सरकार को दस करोड़ पौंड स्टर्लिंग दान में दे दिया । इन गहरी अदायगियों के कारण भारत बहुत वर्षों तक करेंसी (मुद्रा)-सम्बन्धी गंभीर कठिनाइयों में फँसा रहा ।

इंगलैंड ने भारत की उदार सेवाओं को अच्छी तरह स्वीकार किया । १९१९ ई॰ के संविधानिक परिवर्तनों के अतिरिक्त, जिनका वर्णन ऊपर हो चुका है, भारतीय युद्ध-मंत्रिमंडल एवं साम्राज्यीय सम्मेलन (इंपीरियल कांफ्रेंस) में प्रविष्ट किये गये ।

श्री सत्येन्द्र प्रसन्न सिंह (मिस्टर एस॰ पी॰ सिंह) पियर (लार्ड) बना दिये गये तथा भारत के लिए अवर राज्य-सचिव नियुक्त हुए । भारतीयों को सेना में किग्स कमीशन मिला । एक क्षेत्रीय सेना और एक विश्वविद्यालयीय प्रशिक्षण सैनिक दल का संगठन किया गया । जब राष्ट्र-संघ (लीग ऑफ नेशंस) स्थापित हुआ, तब भारत इसका एक संस्थापक-सदस्य बन गया ।

स्थानीय स्वायत्त शासन (Local Autonomous Government):

लार्ड रिपन के जो भी अभिप्राय रहे हो, मगर स्थानीय स्वायत्त शासन के क्षेत्र में उसके जो सुधार हुए उन्होंने इसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त नहीं बनाया । किसी ऐसी प्रणाली के उद्‌घाटन का वास्तविक प्रयत्न नहीं किया गया, जो स्थानीय निवासियों की इच्छा के अनुरूप होती” ।

इन त्रुटियों को मांटेगू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने स्पष्टतया स्वीकार किया । लार्ड चेम्स फोर्ड की सरकार ने १६ मई, १९१८ ई॰ को एकप्रस्ताव निकाला, जिसमें उसने “अनावश्यक सरकारी नियंत्रण के धीरे-धीरे हटाने और सरकार एवं स्थानीय संस्थाओं के लिए उपयुक्त कार्यक्षेत्र पृथक्-पृथक् कर देने की नीति” की घोषणा की ।

इसमें प्रस्तावित किया गया कि इन संस्थाओं को जहाँ तक संभव हो प्रतिनिधि स्वरूप बनाया जाए कर निर्धारण, बजट एवं निर्माणकार्यों की स्वीकृति के संबंध में अनावश्यक प्रतिबंधों को हटा दिया जाए, मताधिकार को यथाशक्ति नीचे ले आया जाए तथा मनोनीत चेयरमैनों के बदले निर्वाचित गैर-सरकारी व्यक्तियों को रखा जाए ।

इस प्रस्ताव ने गाँव के सामुदायिक जीवन को विकसित करने के महत्त्व पर भी जोर डाला । १९२१ ई॰ में स्थानीय स्वायत्त शासन हस्तांतरित विषय बन गया तथा मंत्रियों के जिम्मे आ पड़ा । नगरपालिकाओं और स्थानीय बोर्डों को अधिक अधिकार एवं कृत्य दिये गये । उन्हें सरकारी नियंत्रण से अपेक्षाकृत मुक्त कर दिया गया ।

वे एक बड़े हुए निर्वाचक-दल के प्रति जबाबदेह बने । उनके निर्वाचित अध्यक्ष (चेयरमैन) होने लगे यह नियम उन्हीं असाधारण परिस्थितियों में नहीं बरता जाता था, जब कि विशेषज्ञ का मार्ग-प्रदर्शन आवश्यक हो जाता था । प्रांतीय सरकारें स्थानीय संस्थाओं की प्रगति के लिए बहुत जोश और दिलचस्पी दिखलाने लगीं ।

उन्होंने बहुत-से ऐसे कानून पास किये, जिनसे नगरों एवं गाँवों में उनकी प्रकृति रूपभेदित हो जाए और वे आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल पड़े । यह सच है कि स्थानीय संस्थाओं ने सब जगहों पर संतोषजनक ढंग से काम नहीं किया है ।

मगर यह इसलिए नहीं है कि लोग स्वायत्त शासन के लिए अयोग्य हैं, बल्कि यह, जैसा कि केंद्रीय समिति ने ठीक ही बतलाया, “उस आकस्मिकता का अवश्यंभावी परिणाम है, जिसके साथ सरकारी संरक्षता से पूर्ण स्वतंत्रता की ओर संक्रांति हुई” ।

आधुनिक काल में स्थानीय स्वायत्त शासन की एक उल्लेखनीय विशेषता है बम्बई कलकत्ता, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर और रंगून-जैसे महत्वपूर्ण नगरों में इंप्रूवमेंट ट्रस्टों का संस्थापित होना । इन्होंने स्थानीय स्वास्थ्य को उन्नत करने के लिए अपने ऊपर महत्वपूर्ण काम लिये है ।

वित्तीय शासन (Financial Governance):

भारत में वित्तीय विकेंद्रीकरण की ओर प्रथम महत्वपूर्ण कदम उठाने का श्रेय लार्ड मेयो (१८६९-१८७२ ई॰) की सरकार को है (१८७१ ई॰) । उसने पुलिस, जेल, शिक्षा और मेडिकल सर्विसेज-जैसे कतिपय निश्चित सर्विसों के चलाने के लिए प्रत्येक प्रांतीय सरकार को एक निश्चित अनुदान दे दिया ।

साथ ही, उसने कतिपय वित्तीय नियमों के अंतर्गत यह अधिकार भी दे दिया कि वही उन राजस्वों को, जो उसे दिये गये हैं, अपने विवेकानुसार बाँटे तथा मितव्यय करके या आवश्यकतानुसार स्थानीय कर लगाकर अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था करें ।

इस दिशा में अगला महत्वपूर्ण कदम लार्ड लिटन की वाइसरायगिरी (१८७६-१८८० ई॰) में १८७७ ई॰ में उठाया गया । उस समय, जैसा कि हम पहले ही लिख चुके हैं, राजस्व के कुछ महत्वपूर्ण मदों का प्रांतीयीकरण कर दिया गया साथ ही व्यय के सम्बन्ध में प्रांतों का उत्तरदायित्व भूमिराजस्व, सामान्य शासन और कानून एवं न्याय तक बढ़ा दिया गया ।

इन्हीं ढंगों पर १८८२ ई॰ और १८९७ ई॰ में बंदोवस्त हए, मगर किसी भी हालत में सिद्धांत में कोई परिवर्तन न आया । जब १९०४ ई॰ में “प्राय: स्थायी बंदोबस्तों की प्रणाली” चलायी गयी, तब एक परिवर्तन आ गया ।

इसके अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को दिये गये राजस्व ठीक तौर से निश्चित कर दिये गये उन्हें केंद्रीय सरकार भी असाधारण परिस्तिथियों को छोड़ और समय में नहीं बदल सकती थी । प्रांतों को कुछ समय बाद और भी प्राप्ति हुई, जब अकाल बीमा योजना चलायी गयी ।

इसके अनुसार एक निश्चित रकम भारत सरकार द्वारा प्रत्येक प्रांतीय सरकार के जमा-खाते में डाल दी गयी, जिसका प्रांतीय सरकार अकाल में बिना अपने सामान्य साधनों पर आँच लगाये, उपयोग कर सकती थी । १९१७ ई॰ में अकाल-सहायता-व्यय एक विभक्त मद बना दिया गया तथा केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें तीन और एक के अनुपात में खर्च उठाने लगीं ।

१९०८ ई॰ में भारत में विकेंद्रीकरण पर राजकीय आयोग (रायल कमीशन) नियुक्त हुआ था । इसने केंद्र एवं प्रांतों के बीच वित्तीय सम्बन्धों में कोई मौलिक परिवर्तन प्रस्तावित नहीं किया । लेकिन १९१२ ई॰ में लार्ड हार्डिंज की सरकार ने वित्तीय बंदोबस्तों को स्थायी बना दिया, निश्चित प्रांतीय हस्तांतरों (प्रांतों को र्दो गया निश्चित रकमों) को घटा दिया, तथा बढ़ते हुए राजस्वों में प्रांतों के भाग को बढ़ा दिया ।

अभी भी प्रांतीय सरकारों के वित्तीय अधिकारों पर बहुत सख्त प्रतिबन्ध थे । मांटेगू-चेम्स-फोर्ड रिपोर्ट ने बतलाया कि किस प्रकार वर्तमान वित्तीय प्रबन्ध “प्रांतीय मताधिकार दान मुक्तिदान के लिए एक रुकावट” का काम कर रहे थे । उसने सुझाव दिया कि अधिक हद तक वित्तीय हस्तांतर (भारार्पण) होना चाहिए ।

तदनुसार एक समिति नियुक्त हुई । इसे वित्तीय सम्बन्ध समिति कहते थे । लार्ड मेस्टन, जो युक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट-गवर्नर और गवर्नर-जनरल की एक्जिक्यूटिव कौंसिल के वित्त-सदस्य रह चुके थे, इसके अध्यक्ष हुए । इस समिति ने सिफारिशें कीं । पार्लियामेंट की संयुक्त प्रवर समिति ने इनमें बहुत-कम परिवर्तन किये ।

फलस्वरूप जो योजना बनी, वह मेस्टन एवार्ड (मेस्टन साहब का फैसला) कहलायी । इसने यथा संभव राजस्व के विभक्त मदों का त्याग किया । केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच वित्तीय सम्बन्धों को स्पष्ट एवं निश्चित बनाने के लिए आय के कुछ स्रोत-जैसे भूमि-राजस्व, आबकारी, सिंचाई, बन, न्यायालय-सम्बन्धी स्टांप एवं रजिस्टेरशन फीस और खनिज पदार्थ-प्रांतीय बना दिये गये तथा चुंगी कर, आयकर, रेलवे राजस्व, डाक और तार, नमक और अफीम-जैसे स्रोत केंद्रीय सरकार के लिए रख लिये गये ।

विभक्त मदों का पूरा उठा दिया जाना संभव नहीं था, तथा यह नियम रखा गया कि आयकर से जो राजस्व की वृद्धि होगी, उसमें प्रांतों को कुछ हिस्सा मिलना चाहिए । केंद्र में हिसाब में धन की घटती होने पर उसे पूरा करने के लिए प्रांतीय सरकारों को जो चंदे देने पड़ते थे उनकी रकमें भी निश्चित कर दी गयीं ।

ये परिमाण में अलग-अलग थीं । इनका कुल जोड़ दस करोड़ रुपयों से थोड़ा कम था । बिहार और उड़ीसा प्रांत को कोई चंदा देने की बिलकुल जरूरत न थी । प्रांतों ने इन चंदों के विरुद्ध प्रतिवाद किया । फलस्वरूप ये परिमाण में क्रमिक अवस्थाओं में घटा दिये गये । अंत में १९२८-१९२९ ई॰ के बजट से ये लुप्त हो गये ।

जब प्रस्तावित संघीय संविधान के लागू करने के प्रयत्न शुरू होने लगे, तब केंद्रीय सरकार और प्रांतीय सरकारों के बीच राजस्वों के विभाजन का महत्वपूर्ण प्रश्न तीन संस्थाओं द्वारा विचारित हुआ-इंडिया स्टैटयूटरी कमीशन (लेटन रिपोर्ट) द्वारा; लार्ड पील की अध्यक्षता में संघीय बनावट समिति की एक उपसमिति द्वारा तथा लार्ड यूसटेस पर्सी की अध्यक्षता में एक संघीय वित्त समिति द्वारा ।

ऊपर उल्लिखित संस्थाओं की खोजों के आधार पर १९३५ ई॰ के भारत-शासन कानून ने एक मिले-जुले वित्तीय प्रबंध कीं व्यवस्था की । राजस्व के स्रोतों का अलग सूचियों में संघीय और प्रांतीय के रूप में वर्गीकरण किया गया ।

निम्नलिखित कर संघीय सरकार द्वारा लगाये और वसूले जानेवाले थे:

(क) कृषि-संबंधी भूमि को छोड़ और जायदाद पर उत्तराधिकार के बारे में कर,

(ख) विनिमय-बिलों, चेकों, प्रौमिसरी नोटों, पोत-भार (खेप) के बिलों, जमाखात (क्रेडिट) के पत्रों, बीमा की पौलीसियों, प्रतिनिधि-पत्रों और प्राप्त धन के बारे में स्टांप कर

(ग) रेलवे एवं वायुयान द्वारा ढोये गये सामानों या मुसाफिरों पर अंत में लिये जानेवाले कर,

(घ) रेलवे भाड़ों और माल ढोने के महसूलों पर कर,

(ङ) कौरपोरेशन करों को छोड़ आमदनी पर कर (अर्थात् कम्पनियों के लाभों पर एक कर)

(च) नमक पर आबकारी चुंगी और निर्यात कर ।

इन चुंगियों और करों-जैसे आयकर, जूट निर्यात पर चुंगियाँ, आदि-में कुछ का वास्तविक प्राप्त धन, कतिपय अवस्थाओं के अंतर्गत, जमा करनेवाले प्रांतों एवं संघीय रियासतों में बाँट दिया जाना था । मगर संघीय-मंडल को अधिकार था कि यह इन चुंगियों एवं करों पर कोई अतिरिक्त कर लगा दे तथा इससे प्राप्त धन को संघीय उद्देश्यो में खर्च करने के लिए रख दे ।

केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच वित्तीय बंदोबस्त की शर्तों का निश्चय करने के लिए राज्य-सचिव ने सर ओटो नीमेयर नामक एक वित्तीय विशेषज्ञ को नियुक्त किया । उनकी रिपोर्ट अप्रैल, १९३६ ई॰ में निकली और स्वीकार कर ली गयी ।

इसकी मुख्य सिफारिशें ये थीं:

(१) १ अप्रैल, १९३७ ई॰ को नवीन संविधान के उद्‌घाटन के समय सभी प्रांतों को पर्याप्त वित्तीय साधन रखने में समर्थ बनाने के लिए कतिपय प्रांतों को नकद सरकारी इमदाद मिले,

(२) कुछ प्रांतों को, उनके १ अप्रैल, १९३६ ई॰ के पहले के कर्जों को काटकर, इस तरह सहायता दी जाए,

(३) जूट-कर का साढ़े बारह प्रतिशत जूट उपजानेवाले प्रांतों में बाँट दिया जाए, तथा

(४) कतिपय शर्तों के अंतर्गत, प्रांतीय स्वराज्य के उद्‌घाटन के पाँच वर्षों के बाद से प्रांतों को आयकर का आधा दे दिया जाए ।

इस योजना ने प्रांतों को उनकी सहायता या शक्ति वृद्धि के लिए पर्याप्त धन दिया । किन्तु ऐसा करके यह भारतीय वित्त की आधारभूत समस्या संतोषजनक रूप में न सुलझा पायी । वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने के लिए १९२४ ई॰ में रिजर्व बैंक कानून पास किया गया तथा १९३५ ई॰ में बैक ने काम शुरू किया ।

भू-राजस्व प्रान्तों की आय का प्रधान मोत हुए । यह अंशत: मालगुजारी के रूप मैं है और अंशत कर के । हाल में इसे विधान-मण्डलों के कारगर नियंत्रण में लाने की चेष्टाएं की गयी हैं और प्रान्तीय स्वाधीनता के उद्‌धाटन के साथ प्रान्तों में नये पिधान-मण्डलों ने भू-राजस्व प्रशासन को सुधारने की ओर काफी ध्यान दिया । समाजवादियों ने जमीदारी प्रथा को उठा देने की माँग की और प्रान्तों में कुछ नयी सरकारें इसे लागू करने की इच्छा रखने लगी ।

 

परिवहन तथा सार्वजनिक निर्माण (Transportation and Public Works):

 

(क) रेलवे  (Railway):

सम्बद्ध कम्पनियों के साथ हुए समझौते की विविध अवधियों की समाप्ति पर राज्य ने नयी जमानत व्यवस्था (१८७९-१९०० ई॰) के अन्तर्गत अधिकाँश रेलों कों ले लिया या खरीद लिया । किन्तु रेलों का प्रबन्ध कम्पनियों के जिम्मे ही छोड़ दिया गया । हाँ, उनपर सरकारी नियंत्रण अवश्य था जो १९०५ ई॰ में निर्मित रेलवे बोर्ड द्वारा प्रयुक्त होता था ।

प्रथम विश्व-युद्ध के पहले के चौदह वर्षों में रेलवे का द्रुत विस्तार हुआ तथा इससे मुनाफा होना शुरू हुआ । लेकिन १९१४-१९२१ ई॰ में बाधा आ गयी-अंशत: रेलवे पर युद्धकालीन दबाव के कारण और अंशत: भारी खर्च वे वार्षिक कार्यक्रम की कमी के कारण ।

१९१९ ई॰ के सुधारों के लागू होने के बाद स्वर्गीय सर विलियम ऐक्‌वर्थ की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त हुई, जिसका काम था रेलवे की कार्यवाही की जाँच करना तथा उसके और अधिक विकास के लिए एक उपयुक्त नीति की सिफारिश करना ।

समिति ने सिफारिश की कि रेलवे की उन्नति के लिए प्रत्येक पाँच वर्षों में डेढ़ सौ करोड़ रुपयों का खर्च किया जाए इसकी बहुमतीय रिपोर्ट ने निश्चित रूप से रेलवे के सरकारी प्रबंध और सरकारी एजेंसी द्वारा नयी लाइनों के निर्माण का पक्ष लिया ।

समिति ने यह भी सिफारिश की कि परिवहनों का एक नया विभाग खोला जाए, रेलवे बोर्डों का पुनस्संगठन किया जाए, एक रेलवेकर-विचारालय की स्थापना की जाए तथा रेलवे बजट को सामान्य बजट से अलग कर लिया जाए । स्मरण रहे कि भारतीय लोकमत रेलवे के कमा नियों द्वारा प्रबंध का सदैव विरोधी रहा है-केवल इसलिए नहीं कि इस प्रकार उसका मुनाफा भारत के बाहर चला जाता था, बल्कि इसलिए भी कि कम्पनियाँ भारतीय राष्ट्रीय हितों के प्रति सहानुभूतिहीन समझी जाती थीं ।

यद्यपि भारत सरकार ने कम्पनी-प्रबंध के समाप्त करने के सम्बन्ध में बहुमतीय रिपोर्ट की सिफारिश को निश्चित तौर पर स्वीकार नहीं किया, तथापि भारतीय मत के दबाव में पड़कर इसने अंत में ईस्ट इंडियन रेलवे (१ जनवरी, १९२५ ई॰) ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे (३० जून, १९२५ ई॰) बर्मा रेलवेज (१ जनवरी, १९२९ ई॰) और सदर्न पंजाब रेलवे (१ जनवरी, १९३० ई॰) को अपने सीधे प्रबंध में ले लिया ।

सरकार समस्त नवीन रेलवे-निर्माण अपने ऊपर लेने लगी । रेलवे बोर्ड भी पुनस्संगठित हुआ । १९३६ ई॰ में इसका जैसा निर्माण हुआ था, उस रूप में चीफ कमिश्नर इसका अध्यक्ष था तथा इसमें वित्तीय कमिश्नर और तीन अन्य सदस्य भी थे । १९२६ ई॰ में कर-सलाहकारी समिति कायम हुई ।

रेलवे बोर्ड का केंद्रीय प्रचार ब्यूरो १ अप्रैल, १९२७ ई॰ को आरम्भ किया गया । ऐक्‌वर्थ समिति की सिफारिश के अनुसार १९२५ ई॰ से रेलवे वित्त सामान्य बजट से अलग कर लिया गया ।

(ख) सड़कें (Roads):

बढ़ते हुए विकेंद्रीकरण तथा स्थानीय स्वायत्त शासन की अभिवृद्धि ने सड़क-विकास को काफी उत्तेजना दी है । रेल और सड़क द्वारा आवागमन के समपदस्थीकरण की आवश्यकता पर भी अधिक ध्यान दिया गया । १९३३ ई॰ में शिमला में एक रोड-रेल सम्मेलन खास तौर से बुलाया गया, जहाँ इस प्रश्न पर विचार हुआ ।

एक विशेष सड़क-विकास-समिति १९२७ ई॰ में नियुक्त हुई थी । इसका काम था भारत की सड़क-समस्याओं पर विचार करना । इसकी सिफारिशों के अनुसार मार्च, १९२९ ई॰ में मोटर स्पिरिट पर आयात और आबकारी चुंगियाँ चार आने प्रति गैलन से बढ़ा कर छ: आने कर दी गयीं; अतिरिक्त चुंगी को सड़क-विकास पर खर्च करने के लिए रख छोड़ा गया । अप्रैल, १९२९ ई ॰ में ‘सड़कों पर भारतीय विधानमंडल की स्थायी समिति’ कायम हुई । समय-समय पर अखिल भारतीय सड़क-सम्मेलन भी होने लगे ।

(ग) जल-मार्ग  (Water Way):

रेलवे के निर्माण के कारण आधुनिक समय में जल-मार्ग का महत्त्व घट गया है ।

भारत का जल-मार्ग दो विभागों में विभक्त है:

(१) देश के भीतर जल द्वारा आवागमन, इसमें उत्तरी भारत की नदी-प्रणालियों द्वारा सुविधा हो जाती है; तथा

(२) सामुद्रिक आवागमन, यह भारत के विस्तृत समुद्रतट के किनारे-किनारे चलता है ।

१९१८ ई॰ में औद्योगिक कमीशन ने रेलवे और जलमार्ग के शासनों के समपदस्थी- करण की जरूरत पर जोर डाला, जिससे रेलवे की भीड़भाड़ को कम किया जाए तथा छोटे पैमाने पर चलते हुए आवागमन की आवश्यकताओं की पूर्ती की जाए । अनेक कारणों से भारत के जहाजरानी एवं जहाज-निर्माण-उद्योगों की स्थिति असंतोषजनक हो चली थी ।

एक भारतीय व्यापारिक नाविक-बल के विकसित करने की आवश्यकता तीव्रता से महसूस की जा रही थी । मेरीन मर्केंटाइल कमिटि (१९२३ ई॰) की सिफारिश पर सरकार ने भारतीय युद्ध-विद्यार्थियों (कैडेटों) के लिए आई. एम. एम. टी. एस. डफरिन नामक एक प्रशिक्षण-जहाज की व्यवस्था की ।

(घ) सिंचाई  (Irrigation):

भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में सिंचाई के साधनों का विशेष महत्व हैं, क्योंकि यहाँ मौसम भर में वर्षा बराबर नहीं होती है और कभी-कभी वह या तो एकदम ही नहीं होती या उसमें भारी कमी हो जाती है । १८९६ और १९०१ ई॰ में पड़नेवाले अकालों ने यह स्पष्ट कर दिया कि रक्षक सिंचाई कार्यों का यहाँ कितना महत्व और कितनी जरूरत है ।

१९०१ ई॰ में लॉर्ड कर्जन ने सिंचाई के लिए एक आयोग नियुक्त किया जिसने १९०३ ई॰ में अपना प्रतिवेदन दिया । इस आयोग की सिफारिशों के साथ सरकार की सिंचाई नीति में एक नया अध्याय जुड़ गया । अन्य चीजों के अलावा इसने बम्बई के दक्कन जिले, मद्रास, मध्य प्रदेश और बुन्देलखण्ड के लिए उत्पादनशील, विशेष कर रक्षात्मक सिंचाई के कार्यों के विस्तार के लिए खास सिफारिश की ।

अगले बीस वर्षों के सिंचाई कार्य के लिए एक काम चलाऊ कार्यक्रम का खाका प्रस्तुत किया जिसके अनुसार ३० करोड़ पौंड की अनुमानित लागत से सिंचित क्षेत्रफल में ६५ लाख एकड़ और जोर्ड जानेवाली थी ।

भारत में सिंचाई की तीन श्रेणियाँ हैं:

(१) कुएँ,

(२) तालाब, और

(३) नहरें ।

नहरें तीन तरह की हैं:

(क) स्थायी (बारहमासी) नहरें,

(ख) जलप्लावनात्मक नहरें, और

(ग) संचयकरण-कारखाने ।

१९२१ ई॰ से सिंचाई के कामों को दो मुख्य मदों में वर्गीकृत कर दिया गया है:

(१) उत्पादनशील, और

(२) अनुत्पादनशील;

एक तीसरा वर्ग भी है, जिसमें गैर-पूंजी कामों से सींचे गये क्षेत्र शामिल हैं । १९१९ ई॰ के सुधारों के बाद सिंचाई प्रांतीय विषय बन गयी । प्रांतीय सरकारों ने सिंचाई के कामों में बहुत क्रियाशीलता दिखलायी है ।

इस दिशा में जो महत्वपूर्ण काम हाथों में लिये गये हैं, वे ये हैं:

(१) बम्बई में लायड डाक, जो १९२६ ई॰ में पूरा हुआ (यह संसार में इमारती काम के सब से बड़े ढेरों में है)

(२) सिंध में सक्कर बैरेज, जो १९३२ ई॰ में पूरा हुआ;

(३) पंजाब में सतलज घाटी परियोजना, जो १९३३ ई॰ में पूरी हुई;

(४) कावेरी का जलभांडार और मेट्‌टूर परियोजना, जो १९३४ ई॰ में पूरी हुई;

(५) निजामसागर परियोजना, जो १९३४ ई॰ में पूरी हुई; तथा

(६) युक्त प्रांत में शारदा-अवध नहरें ।

कृषि, देहाती कर्जखोरी और ग्राम्य पुनर्निर्माण तथा सहयोग आंदोलन (Agriculture, Rural Lending and Rural Reconstruction and Cooperation Movement):

(क) कृषि  (Agriculture): 

१८८० ई॰ के दुर्भिक्ष-आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप विभिन्न प्रांतों में कृषि- विभाग परिचालित किये गये । १९०१ ई॰ में साम्राज्यीय और प्रांतीय सरकारों को परामर्श देने के लिए एक इंस्पेक्टर-जनरल ऑफ ऐग्रिकल्चर (कृषि-महानिरीक्षक) नियुक्त हुआ ।

१९१२ ई॰ में कृषि-महानिरीक्षक का पद उठा दिया गया तथा इसके काम बदल कर पूसा के कृषि अनुसंधान इंस्टिटयूट के डाइरेक्टर को दे दिये गये । १९२१ ई॰ तक उक्त डाइरेक्टर भारत सरकार का कृषि-सम्बन्धी परामर्शदाता भी रहा । कृषि के वर्तमान विभागों को अस्तित्व में लाने का श्रेय लार्ड कर्जन (१८९९-१९०५ ई॰) को है ।

उसके १९०३ ई॰ के प्रसिद्ध सरकारी पत्र से एक पुन:संगठन का प्रारंभ हुआ, जो १९०५ ई॰ में संपन्न हुआ । पूसा इंस्टिटयूट १९०३ ई॰ में शुरू हुआ । इसके साथ एक कालेज भी था, जिसका काम था उच्चतर कृषि-प्रशिक्षण देना । १९०५ ई॰ में एक अखिल भारतीय कृषि बोर्ड स्थापित हुआ ।

इसका उद्देश्य था प्रांतीय सरकारों को पारस्परिक संपर्क में अधिक लाना तथा भारत सरकार से उपयुक्त सिफारिशें करना । १९०६ ई॰ में भारतीय कृषि सर्विस का निर्माण हुआ । १९०८ ई॰ में पूना में एक कृषि कालेज कायम किया गया । बाद के वर्षों में इसी प्रकार के कालेज कानपुर, नागपुर, लायलपुर, कोयंबटोर और मांडले में खोले गये ।

१९१९ ई॰ के सुधारों के लागू होने पर कृषि एक मंत्री के अघीन हस्तांतरित षिषय बन गयी । फिर भी भारत सरकार ने केंद्रीय, अनुसंधान संस्थानों और पौधों एवं जानवरों की बीमारियों एवं अनिष्टकर वस्तुओं के सम्बन्ध में कतिपय मामलों के लिए स्वयं जवाब देही रखी ।

कृषि पर राजकीय आयोग (लिन्‌लिथ गो कमीशन) ने भारत में कृषि की स्थिति पर अधिकृत रूप में परिदर्शन किया तथा १९२८ ई॰ में रिपोर्ट पेश की । कृषि-विभागों द्वारा किये गये काम को उचित तौर से स्वीकार करते हुए आयोग ने भविष्य के कार्य के लिए विशाल संभावनाओं पर जोर दिया तथा कृपि की विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में विस्तृत सिफारिशें कीं ।

इसकी सिफारिश पर जुलाई, १९२९ ई॰ में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया, जब कि इंपीरियल कौसिल ऑफ ऐग्रिकल्चरल रिसर्च (कृषि-अनुसंधान की साम्राज्यीय परिषद्) की स्थापना हुई । इसका मुख्य काम था भारत में कृषि एवं पशुचिकित्सा-सम्बन्धी अनुसंधान को प्रोन्नत करना, उसका मार्गप्रदर्शन करना एवं उसे समपदस्थ करना तथा इन बातों में प्रांतीय कृषि-विभागों की सहायता करना ।

केंद्रीय बैंकिग जाँच समिति (१९३१ ई॰) ने सिफारिश की कि हर प्रांत में एक प्रांतीय आर्थिक जाँच बोर्ड स्थापित होना चाहिए इस बोर्ड का काम सरकार को वैसी खबर देना हो, जिसकी उसे एक रचनात्मक कृषि-नीति का अनुसरण करने में समर्थ होने के लिए जरूरत पड़ती है ।

आगे चलकर सर जौन रसेल और आर॰ राइट ने भारत में कृषि-सम्बन्धी अनुसंधान-कार्य की प्रगति का सिंहावलोकन र्कया । उन्होंने अपनी रिपोर्ट में महत्वपूर्ण सिफारिशे कीं, जिससे अनुसंधान-कार्यकर्ता और खेतिहर के बीच की खाई पाट दी जाए । इंपीरियल कौंसिल ऑफ ऐग्रिकल्चरल रिसर्च की एक विशेष उपसमिति ने इनकी जाँच की ।

उधार और कृषि-सम्बन्धी पैदावार के विक्रयार्थ बाजार भेजने के लिए बेहतर सुविधाओं के प्रदान द्वारा भारत सरकार ने कृषकों को और भी अधिक सहायता देने की अपनी इच्छा घोषित की । इंपीरियल कौंसिल ऑफ ऐग्रिकल्चरल रिसर्च के अंतर्गत एक केंद्रीय मार्केटिंग विभाग शुरू किया गया । यह विभिन्न प्रांतों के मार्केटिंग स्टाफ से सहयोग पूर्वक काम करता था ।

(ख) देहाती कर्जखोरी और ग्राम्य पुनर्निर्माण (Pastoral Debt and Rural Rebuilding):

आधुनिक भारत में कृषि से घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाली है घोर देहाती कर्जखोरी की गंभीर समस्या । जैसा कि केंद्रीय बैकिंग जाँच समिति ने १९३१ ई॰ में अपनी रिपोर्ट में कहा, ब्रिटिश भारत के प्रांतों की कुल कृषि-सम्बन्धी कर्जखोरी करीब ९०० करोड़ रुपयों की थी ।

देहाती कर्ज का अधिकांश, जो भारी सूद की दरों पर लिया गया है, अनुत्पादक है । इस समस्या से पेश आने के लिए सरकार ने समय समय पर कई उपाय अपनाये । अत्यधिक-व्याज पर-कर्ज कानून (यूसूरियस लोन्स ऐक्ट) १९१८ ई॰ में दृढ़ीकृत एवं संशोधित हुआ । इसने पुन: प्राप्त होने योग्य कानूनी अधिक-से-अधिक सूद की रकम का निर्णय करने की चेष्टा की ।

कृषि पर नियुक्त राजकीय आयोग ने महाजनी (सूद पर रुपये देने) के नियमन की सिफारिश की । कुछ प्रांतीय बैंकिंग जाँच समितियों ने महाजनों के लाइसेंस लेने की सिफारिश की । भूमि की बदली पर प्रतिबंध डालने के ख्याल से भूमि अधिकार त्याग कानून पास किये गये । उदाहरणार्थ, पंजाब भूमि अधिकार-त्याग कानून (१९०० ई॰) ने गैर-खेतिहर वर्गों को कृषकों से भूमि खरीदने या बीस वर्षों से अधिक के लिए रेहन पर भूमि लेने को मना कर दिया ।

हाल में ग्राम्य पुनर्निर्माण की ओर सरकार और कांग्रेस दोनों का ध्यान बढ़ता ही गया । मिस्टर एफ॰ एल॰ ब्रेन, आई॰ सी॰ एस॰ ने ग्राम्य पुनर्निर्माण कमिश्नर की हैसियत से पंजाब के गुरगाँव जिले में ग्रामोत्थान में एक महत्वपूर्ण प्रयोग किया । इसी प्रकार की नियुक्ति बंगाल में हुई । मध्य प्रदेश और बरार में स्थानीय सरकार नवम्बर, १९२९ ई॰ से इसी तरह का काम करने लगी ।

१९३३ ई॰ के उत्तरार्ध में बम्बई के तत्कालीन गवर्नर लि एक्सेलेंसी सर फ्रेडरिक साइक्स ने ग्राम्य पुनर्निर्माण की एक विस्तृत योजना प्रारंभ की । इसका काम जिला कलक्टरों की देखरेख में जिला समितियाँ करने लगीं ।

भारत सरकार ने भी ग्राम्य पूनर्निर्माण के काम में दिलचल्पी ली तथा १९३५-१९३६ ई॰ में इस उद्देश्य के लिए दो करोड़ से भी अधिक रुपयों का अनुदान किया । भारतीय सहयोग आदोलन का लक्ष्य भी देहाती कर्जखोरी की समस्या को सुलझाना है ।

(ग) सहयोग आंदोलन  (Cooperation Movement):

फ्रेडरिक निकोल्‌सन मद्रास का एक सिविलियन था । उसीने पहले-पहल मद्रास सरकार को दी गयी अपनी रिपोर्ट ( १०९२ ई॰) में भारत में सहयोग क्रेडिट समितिर्यां चलाने का सुझाव दिया था । १९०१ ई॰ में भारत सरकार ने एक समिति नियुक्त की, जिसका काम था भारत में कृषि बैकों की स्थापना के प्रश्न पर विचार करना ।

समिति के अपनी रिपोर्ट पेश करने के बाद १९०४ ई॰ में सहयोग क्रेडिट समितियाँ कानून (को-औपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज ऐक्ट) साम्राज्यीय लेजिस्लेटिव कौंसिल द्वारा पास हुआ । इसने ग्रामीण और नागरिक क्रेडिट समितियाँ शुरू करने की व्यवस्था की । इस प्रकार २४ मार्च, १९०४ ई॰ को भारत में सहयोग आंदोलन उद्‌घाटित हुआ ।

इस आंदोलन ने कुछ ही वर्षों के भीतर प्रत्येक प्रांत में आश्चर्यजनक प्रगति दिखलायी । १९१२ ई॰ के संशोधक कानून से इसे नवीन प्रेरणा मिली । इस कानून ने सैर-क्रेडिट समितियों, केंद्रीय वित्तदात्री समितियों और यूनियनों को मान्यता प्रदान की ।

मैक्-लागन समिति (१९१४-१९१५ ई॰) ने सहयोगिक वित्त के संगठन के लिए कुछ बहु- मूल्य सिफारिशें कीं । १९१९ ई॰ के सुधारों के बाद सहयोग प्रांतीय विषय बन गया तथा स्थानीय सरकारों को अपनी जरूरतों के मुताबिक १९१२ ई० का कानून अनुकूल करने को स्वतंत्र छोड़ दिया गया ।

सहयोग आंदोलन की वित्तीय बनावट में तीन भाग हैं:

(१) कृषि-सम्बन्धी क्रेडिट समिति,

(२) केंद्रीय वित्तदात्री एजेंसियाँ, और

(३) प्रांतीय को-औपरेटिव बैंक ।

अधिक, समय तक क्रेडिट दे कर कृषकों के पुराने कर्जों से मुक्ति दिलाने का प्रश्न उठा, जिसके फलस्वरूप कई प्रांतों में लैड मौर्गिज बैक (भूमि रेहन बैंक) के नाम से प्रसिद्ध एक विशेष किस्म के बैंक की स्थापना हुई ।

किन्तु हाल के वर्षों में सहयोग आंदोलन बहुत संकटकालीन स्थिति से हो कर गुजरा । अंशत: यह कृषि-सम्बन्धी मूल्यों के पतन एवं सामान्य आर्थिक हास के कारण हुआ और अंशत: इसकी कार्यवाही में कुछ त्रुटियों के कारण । जो कुछ भी किया गया है उसके बावजूद, भारतीय जनता की गरीबी और कर्जखोरी अभी भी भारतीय आर्थिक जीवन में भीषण समस्याएँ हैं ।

इसी तरह की समस्या मध्यम वर्गों के बीच फैली हुई बेकारी की है, जो इस समय बंगाल, मद्रास, बम्बई, पंजाब, युक्त प्रांत और बिहार-जैसे प्रांतों तथा कुछ भारतीय रियासतों में पायी जाती है ।

मध्यमवर्गीय बेकारी की जांच विशेष रूप से नियुक्त समितियों द्वारा करायी गयी थी । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण सप्रू समिति थी, जिसने अपनी रिपोर्ट १९३५ ई॰ में दी । यद्यपि काम विशाल और उलझनकारी है, तथापि इन समस्याओं का हल अत्यंत आवश्यक है ।

अकाल में सहायता:

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, १८८० ई॰ में सर रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में नियुक्त दुर्भिक्ष आयोग ने भारत में अकाल-सहायता के सिद्धान्तों के बारे में महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की थीं । बाद में १८९६-९७ ई॰ और पुन: १८९९-१९०० ई॰ में पड़ने वाले अकालों और इन दोनों मौकों पर नियुक्त किये गये आयोगों के बारे में पहले ही जिक्र किया जा चुका है ।

सर ऐन्टनी मैकडोनेल की अध्यक्षता में अंतिम आयोग ने १९०१ ई॰ में अपना प्रतिवेदन पेश किया । इसने “नैतिक युद्धकौशल” अथवा “जनता में मन समाहित करने” की आवश्यकता पर जोर दिया ।

अर्थात् जैसे ही खतरे का आभास मिले, कर्ज देकर अथवा अन्य उपायों से जनता की मदद की आवश्यकता पर इसने बन दिया जैसे, समयानुकूल और उदारतापूर्वक तकावी कर्ज देकर, भू-राजस्व की वसूली स्थगित कर आनेवाली आपत्ति के लक्षणों के प्रति सजग रहकर, खानगी दातव्य का संगठन कर तथा गैर सरकारी सहायता प्राप्त कर ।

इसी की सिफारिशों के प्रकाश में आधुनिक अकाल-सहायता की नीति निर्मित हुई है । अकाल में सहायता के लिए यंत्र की बुद्धि के साथ-साथ रेलवे, सिंचाई, कृषि एवं उद्योगों की उन्नति द्वारा दुर्भिक्ष-निरोध की नीति का भी विकास हुआ है ।

१९१९ ई॰ के भारत शासन कानून के वित्तीय विकेन्द्रीकरण नियमों के अन्तर्गत बर्मा और आसाम को छोड्‌कर प्रत्येक प्रान्तीय सरकार के लिये अकाल पर खर्च करने के लिए अपने साधनों में से प्रति वर्ष एक निश्चित रकम देना आवश्यक हो गया ।

प्रान्तों के राजस्वों से इन वार्षिक अनुदानों को केवल अकाल सम्बन्धी सहायता पर ही खर्च करना था । यहाँ “अकाल” के अन्तर्गत अनावृष्टि या अन्य प्राकृतिक आपत्तियों से होनेवाले अकाल भी सम्मिलित हैं ।

जिस रकम को अकाल-सम्बन्धी सहायता पर खर्च करने की जरूरत नहीं होता थी, वह एक अकाल-सहायता कोष के निर्माण में लगा दी जाती थी । १९३५ ई॰ के संविधान के अन्तर्गत अकाल-सहायता-व्यय पूर्णत: प्रान्तीय दायित्व बन गया, यद्यपि अकाल-सहायता कोष के लिए प्रान्तों के वार्षिक अनुदान पूर्ववत जारी रहे ।