ब्रिटिश शासन के तहत भारत | India under the British Rule in Hindi.

गृह सरकार  (Home Government of India):

१८५८ ई॰ के कानून ने बोर्ड आव कंट्रोल, बल्कि उसके अध्यक्ष, और कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स’ के द्वयात्मक अधिकार का अंत कर दिया । भारत के राज्य-सचिव के नाम से कहे जाने वाले एक संसदीय मंत्री को अब भारत सरकार पर सर्वोच्च नियंत्रण की शक्तियों से संपन्न कर दिया गया ।

राज्य-सचिव को परामर्श देने के लिए एक कौंसिल बनी । इसका कारण यह था कि अंग्रेज राजनीतिज्ञ भारत के सम्बन्ध में सामान्यतया अनजान थे । निस्संदेह इसका आशिक कारण यह भी था कि एक व्यक्ति-विशेषमात्र की इतनी अधिक शक्तियों और नियूक्ति-अधिकार पर नियंत्रण स्थापित किया जाना था ।

इस कौंसिल ऑफ इंडिया (भारतीय परिषद्) मेंभारनीय अनुभव के व्यक्ति संमिलित थे । अपने कर्त्तव्य-पालन में उन्हें स्वनत्रना देने के ख्याल से सदस्य “अच्छे व्यवहार तक” नियुक्त होते थे । उन्हें खास-खास शक्तियों दी गयी थी । भारतीय राजस्व के प्रयोग और व्यय तथा वाइसराय की कौंसिल के साधारण सदस्य की नियुक्ति के लिए उनकी स्वीकृति की आवश्यकता होती थी ।

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फिर भी राज्य-सचिव अपनी कौंसिल के पूर्णतया अधीन नहीं था । आवश्यक और गुप्त बातों में वह अपने अधिकार पर ही काम कर सकता था । हाँ, यह आशा की जाती थी कि नीति-निर्धारण में कौंसिल का प्रभावकारी भाग रहेगा ।

किन्तु यह शीघ्र ही प्रकट हो गया कि राज्य सचिव सभी महत्वपूर्ण मामलों में अपनी कौंसिल की अवहेलना करने की स्थिति में है । यह स्थिति १८६९ ई॰ के कानून द्वारा वैध हो गयी । इस कानून ने कौंसिल की अधिकांश शक्तियों को ले लिया । इसकी एक अन्य धारा यह भी थी कि इसके (कौंसिल के) सदस्यों को केवल दस वर्ष के लिए पद ग्रहण करना था तथा राज्य-सचिव की इच्छा से ही उनका पद पुनर्नवीकृत हो सकता था ।

सर चार्ल्स डिल्क ने हाउस ऑफ कॉमन्स (ब्रिटिश लोक-सभा) में यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से बतलाया “जिस समय कौंसिल नियुक्त हुई थी, उस समय राज्य-सचिव की ताकत को घटाने का विचार था । यह भावना चली गयी थी । अब सभी इसे मानने लगे थे कि कौंसिल एक परामर्शदात्री संस्था होनी चाहिए, नियंत्रणकारिणी संस्था नहीं ।”

अन्य मंत्रियों के समान राज्य-सचिव ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी था किन्तु इस बारे में भी अंग्रेज राजनीतिज्ञों को साधारणतया भारतीय मामलों के सम्बन्ध में इतना कम ज्ञान रहता था तथा वे इनमें इतनी कम दिलचस्पी लेते थे कि भारत के राज्य-सचिव पर संसदीय नियंत्रण शायद ही कभी वास्तविक बन पाया ।

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अतएव, यदि कानून में नहीं, तो व्यवहार में राज्य-सचिव को भारत सरकार पर असीमित अधिकार रहता था । इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया ह्वाइटहॉलस्थित गृह सरकार और भारत सरकार के सम्बन्धों पर होती थी ।

ऊपरी तौर पर देखनेवाले की नजर में १८५८ ई॰ के कानून का अर्थ भारत सरकार के लिए मालिक का परिवर्तन-मात्र छोड़ और कुछ नहीं था । किन्तु वास्तव में इससे भारी परिवर्तन हुए ।

एक राज्य-मंत्री के हाथों में कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स एवं बोर्ड ऑफ कंट्रोल की शक्तियों का संकेंद्रण होने से महत्वपूर्ण परिणाम निकले । दो मालिकों की चाकरी करना एक क्लांतिजनक व्यापार हो सकता है किन्तु इसके स्पष्ट लाभ भी थे । दोनों के बीच की शाश्वत् प्रतिद्वंद्विता को अच्छी तरह जानकर कोई चालाक और योग्य गवर्नर-जनरल एक को दूसरे से लड़ा सकता था तथा बहुधा वह ऐसा करता भी था । इस प्रकार वह जैसा चाहता कर लेता था ।

इसके अतिरिक्त, अधिकारियों के बीच की यही प्रतिद्वंद्विता उनके मजबूत एवं शक्तिपूर्ण नीति के निर्धारण में बाधा डालती थी, जिसे भारत सरकार नहीं मानती थी । और भी, बराबर ऐसी संभावना रहती थी कि राज्यमंत्री बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष की अपेक्षा कहीं अधिक वजन का आदमी होगा ।

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इस दृष्टांत में, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, राज्य-सचिव एक तौर से बिना किसी नियंत्रण के अपनी महान् शक्तियों का उपयोग करता था तथा स्वभावत: अधिक प्रभाव का उपयोग कर सकता था । इसके अतिरिक्त, १८५८ ई॰ के कानून ने कौंसिल ऑफ इंडिया (भारतीय परिषद्) को भारत सरकार की वित्तीय नीति पर अधिक अधिकार दे डाले । ये अधिकार धीरे-धीरे राज्य-सचिव के हाथों में आ पड़े ।

परिणाम यह हुआ कि वह वाइसराय और उसकी कौंसिल पर प्रभावकारी नियंत्रण रखने में समर्थ हो गया । किन्तु, कानूनों के पास होने के अतिरिक्त, अन्य तत्व भी राज्य-सचिव के अधिकारों के बढ़ाने में काम कर रहे थे । १८७० ई॰ में इंगलैंड और भारत के बीच एक सीधी टेलीग्राफ लाइन की स्थापना हो गयी ।

यह अत्यंत महत्त्व की घटना थी । परिवाहन में विलम्ब भारत सरकार के लिए महान् लाभ का विषय था क्योंकि आवश्यक मामलों में नीति-निर्धारण की बात आवश्यकता के कारण इसी के हाथों में रह जाती थी तथा वह (भारत सरकार) घटनाओं के गुजर चुकने पर राज्य-सचिव का सामना करने में समर्थ हो जाती थी ।

किन्तु जब राज्यसचिव को भारत की घटनाओं के दौरान से बराबर सूचित रखना पड़ गया तथा वह तात्कालिक आदेश निकालने की स्थिति में हो गया, तब पूर्वलिखित बातों का बदलना लाजिमी हो गया । अब से राज्य-सचिव भारत के शासन पर पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावकारी नियंत्रण रखने लगा तथा वाइसराय वास्तव में राज्य-सचिव का केवल “एजेंट” बन गया ।

भारत सरकार (Indian Government):

जिस समय क्राउन ने भारत सरकार को अपने हाथों में १८५८ ई॰ में लिया, उस समय, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, भारत में सर्वोच्च विधायक एवं कार्यपालक अधिकार गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल में निहित था । कार्यपालिका शक्तियों के लिए इसमें गवर्नर-जनरल, चार साधारण सदस्य (तीन दस वर्षों की स्थापित ख्याति के अफसर तथा एक बैरिस्टर) और प्रधान सेनापति (जो असाधारण सदस्य था) समिलित थे । विधायक उद्देश्यों के लिए इस संस्था में १८५३ ई॰ में छ: सदस्य जोड़े गये थे ।

१८५३ ई॰ के परिवर्तन से भारत में एक संसदीय पद्धति का साधारण आरंभ हो जाता है । अतएव इस पर खास विचार होना चाहिए । जैसा कौवेल ने कहा- “विवाद लिखित के बदले मौखिक हो गया, बिल किसी एक सदस्य के बदले प्रवर समितियों के सुपुर्द होने लगे तथा कानून-निर्माण का काम गुप्त रूप में न होकर प्रकट रूप में होने लगा ।”

फिर भी, लेजिस्लेटिव कौंसिल में दो बड़ी त्रुटियाँ थीं । कोई भारतीय तत्व इससे संबद्ध न था । बंगाल के बाहर की स्थानीय दशाओं का इसका ज्ञान यथेष्ट न था, जिससे यह अन्य प्रांतों के लिए कानून बना सकती ।

इनमें पहली त्रुटि बहुत द्वारा सिपाही विद्रोह के समय में जबर्दस्ती महसूस की गयी । “गदर की भयंकर घटनाओं ने लोगों को खूब समझा दिया कि देश के कानून निर्माण से भारतीयों को पूर्णतया अलग रखने के क्या खतरे हो सकते हैं ।”

सर सैयद अहमद-जैसे प्रबुद्ध भारतीयों ने इस खतरे के दो पहलू बतलाये । एक ओर तो इसने लोगों को किसी अप्रिय काम के विरुद्ध प्रतिवाद करने के साधन से वंचित कर दिया दूसरी ओर सरकार को अपने लक्ष्य एवं अभिप्राय समझाने का अवसर न रहा, जिस कारण ये गलत समझ लिये गये ।

अंग्रेज राजनीतिज्ञों तक ने इसी विचार का समर्थन किया । १८६० ई॰ के अपने योग्यतापूर्ण संक्षिप्त विवरण में सर बट्‌लि फियर ने लेजिस्लेटिव कौंसिल में भारतीयों के शामिल करने की आवश्यकता की वकालत की, जिसमें “लाखों लोगों के लिए कानून बनाते रहने के खतरनाक प्रयोग से छुट्टी मिल जाए, क्योंकि हमारे पास विद्रोह छोड्‌कर यह जानने का और कोई साधन नहीं है कि ये कानून उनके लिए उपयुक्त हैं या नहीं” ।

तत्कालीन लेजिस्लेटिव कौंसिल की उन अंतवर्ती त्रुटियों के अतिरिक्त शीघ्र ही ऐसी कठिनाइयाँ खड़ी हुई, जिन्होंने भारतीय सरकार की पूरी बनावट को ही बदल डालने की घमकी दी ।

इनका संक्षिप्त विवरण योग्यतापूर्ण तरीके से इन पंक्तियों में किया गया है- “१८५३ ई॰ के कानून के निर्माताओं के अभिप्रायों के विरुद्ध यह (लेजिस्लेटिव कौंसिल) ‘एक अंग्रेज-भारतीय लोकसभा’ के रूप में विकसित हो चली थी । यह कार्यपालिका और उसके कानूनों पर आपत्ति करती थी तथा उसे गुप्त कागजों तक अपने सामने रखने को लाचार करती थी । इसने कानून-निर्माण-संबंधी परियोजनाओं को उनके कौंसिल में विचारित होने के पहले राज्य-सचिव के सम्मुख रखना अस्वीकार कर दिया था । इसने राज्य-सचिव (या १८५८ ई॰ के पूर्व कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स) द्वारा चाहे गये कानून को पास करना नामंजूर कर दिया था । दूसरी ओर, यह स्वतंत्र कानून-निर्माण का अपना अधिकार दृढ़ता से जताती थी ।”

प्रारम्भ से ही लेजिस्लेटिव कौंसिल द्वारा प्रदर्शित स्वतंत्रता की भावना ने इसके निर्माता बोर्ड ऑव कंट्रोल के अध्यक्ष सर चार्ल्स उड को घबड़ा दिया । उसने कहा कि- “मैं इसे भारत में संविधानिक पार्लियामेंट के केंद्र एवं प्रारम्भ के रूप में नहीं देखता, यद्यपि नौजवान भारतीय ऐसा करते हैं” । किन्तु डलहौजी ने बतलाया कि “कानून ने स्पष्ट रूप मई लेजिस्लेटिव कौंसिल को जितना अधिकार दिया है, उससे अधिक अधिकार मैं नहीं मानता” ।

यह बहुत ठीक तौर पर कहा गया है कि उड “न तो प्रथम और न अंतिम कानून-निर्माता था, जो किसी बिल के परिणामों को अपने अभिप्रायों तक सीमित करने में असफल हो जाता है” ।

परिस्थिति शीघ्र बदल गयी । १८६१ ई॰ का इंडियन कौंसिल ऐक्ट इस देश में लेजिस्थेटिव कौंसिलों के विकास में अगली उल्लेखनीय घटना है । इसने एक्विक्यूटिव कौंसिल में एक पाँचवाँ साधारण गैर-सरकारी सदस्य बढ़ा दिया । राज्य-सचिव की प्रधान सेनापति को एक असाधारण सदस्य के रूप में नियुक्त करने की शक्ति जारी रही । गवर्नर-जनरल की शक्तियां काफी बढ़ गयीं ।

अपनी कौंसिल से स्वीकृति लेकर वह गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल की सभी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग कर सकता था । और भी, इस कानून ने उसे कौंसिल का काम चलाने के लिए नियम एवं आदेश बनाने का अधिकार दे दिया । लार्ड कैनिंग ने इस अधिकार का प्रयोग एक ऐसी चीज के चलाने में किया, जिसे अब कार्यविभाग-प्रणाली (पोर्टफोलिओ सिस्टम) कहते हैं ।

इस प्रणाली के द्वारा प्रत्येक सदस्य को एक या अधिक विभागों का जिम्मा दिया जाता था । वह उस विभाग की छोटी बातों का अंतिम फैसला अपने अधिकार से ही कर सकता था तथा अधिक महत्व की बातों का अंतिम निर्णय वाइसराय से परामर्श लेकर कर सकता था केवल सामान्य नीति के प्रश्न निर्णयार्थ कौंसिल में भेजे जाते थे । काम में हुई काफी बढ़ती को देखते हुए इस प्रकार की प्रणाली करीब-करीब अवश्यंभावी थी ।

किन्तु इसका फल यह हुआ कि कौंसिल का महत्व बहुत-कुछ घट गया तथा इसी अनुपात में वाइसराय की शक्ति और प्रभाव बढ़ गये । १८६१ ई॰ के कानून की विधान-सम्बन्धी धाराएँ कहीं अधिक महत्वपूर्ण थीं । कानून बनाने के उद्देश्य से वाइसराय की कौंसिल बड़ी कर दी गयी-इसमें “छ: से कम नहीं और बारह अतिरिक्त सदस्यों से अधिक नहीं” बढ़ा दिये गये जिनमें आधे से कम गैर-सरकारी सदस्य नहीं होने चाहिए । ये अतिरिक्त सदस्य गवर्नर-जनरल द्वारा दो वर्षों के लिए नामजद होनेवाले थे ।

इस कौसिल का काम कठोरतापूर्वक कानून-निर्माण तक सीमित कर दिया गया । १८६१ ई॰ के कानून ने किसी दूसरे काम के करने की साफ-साफ मना ही कर दी । इसे यह अधिकार दे दिया गया कि यह “सभी व्यक्तियों के लिए चाहे वे बिटिश हों या देशी, विदेशी हो या अन्य, उक्त राज्य के अन्तर्गत सभी स्थानों एवं चीजों के लिए तथा ब्रिटिश सरकार से संधिबद्ध राजाओं के इलाकों और राज्यों में भारत सरकार के सभी नौकरों के लिए (पीछे बढ़ाकर सभी ब्रिटिश प्रजाजनों के लिए लागू) कानून एवं नियम बना” सकती है ।

फिर भी विधान-सम्बन्धी इस विस्तृत शक्ति पर कई प्रतिबंध थे । प्रथमत: कतिपय उल्लिखित विषयों-जैसे सार्वजनिक ऋण, सार्वजनिक राजस्व, भारतीय धार्मिक रीतियां, सैनिक अनुशासन और भारतीय राज्यों के प्रति नीति-के सम्बन्ध में कोई कानून पेश करने के लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी ।

दूसरे, ऐसा कोई कानून नहीं बन सकता था, जो गृह सरकार के अधिकार का उल्लंघन करता था अथवा पार्लियामेंट द्वारा निर्मित कुछ कानूनों की धाराओं को भंग करता था । तीसरे गवर्नर-जनरल को न केवल कौंसिल से पारित किसी कानून के रद्द करने की शक्ति थी, बल्कि आकस्मिक संकट आने पर उसे आर्डिनेंस (विशेष कानून) निकालने का भी अधिकार था तथा इन आर्डिनेंसों का उतना ही अधिकार होता था जितना कौंसिल द्वारा पारित किसी कानून का । अंतत: कौंसिल द्वारा पारित कोई कानून ब्रिटेन की रानी द्वारा अस्वीकृत हो सकता था ।

१८६१ ई॰ के कानून ने बम्बई और मद्रास की सरकारों को इन प्रेसिडेंसियों की शांति एवं सुशासन के लिए कानून और नियम बनाने की शक्ति लौटा दी हाँ, उन पर इस सम्बन्ध में वे प्रतिबंध अवश्य रहे जो गवर्नर-जनरल की कौंसिल पर थे ।

इसके अतिरिक्त, प्रांतीय कौंसिलों को सिक्के, कॉपीराइट, डाक और तार, दंड-संहिता आदि- जैसे अखिल भारतीय विषयों पर नियम बनाने के पहले गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करनी थी । कानून-निर्माण के ख्याल से गवर्नर की एक्जिक्यूटिव कौंसिल को बड़ा कर दिया गया-इसमें ऐडवोकेट-जनरल और गवर्नर द्वारा मनोनीत कुछ सदस्य बढ़ा दिये गये ।

ये सदस्य “चार से कम नहीं और आठ से अधिक नहीं” होते थे, जिन में कम-से-कम आधे को गैर-सरकारी सदस्य होना चाहिए । इस कानून ने गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल को न केवल बंगाल, उत्तर-पश्चिमी प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) और पंजाब-जैसे बचे हुए प्रांतों में बल्कि नये प्रांतों में भी लेजिस्लेटिव कौंसिलों के निर्माण का अधिकार दे दिया ।

इसे नये प्रांतों के बनाने की ताकत भी दे दी गयी । इस कानून के अनुसार तीनों प्रांतों में क्रमश: १८६२ ई॰, १८८६ ई॰ और १८९८ ई॰ में एक-एक लेजिस्लेटिव कौंसिल की स्थापना हुई । यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि १८६१ ई॰ का कानून कई दृष्टियों से पश्चाद्गामी था, तथा इसने लेजिस्लेटिव कौंसिल को स्वतंत्र शक्ति से वंचित कर दिया । अब कार्यपालिका पर उसका कोई नियंत्रण या रोकथाम न रही ।

यहाँ तक कि इसके कानून-निर्माण-सम्बन्धी कार्य भी अत्याधिक प्रतिबंधों द्वारा सीमाबद्ध हो गये । किन्तु अपनी सब त्रुटियों के बावजूद १८६१ ई॰ का इंडियन कौंसिल ऐक्ट सदैव एक स्मरणीय कानून माना जायगा । इसने भारत सरकार को वह रूप दिया जो आगे भी बना रहा आगे होनेवाले परिवर्तन इसी रूप (गठन) के अंतर्गत थे ।

इसने एक वैसा महान् विकास जारी किया, जो इस देश में हुए आगे के शासन-सुधारों को अलग कर देता है, अर्थात् सरकार की उच्चतर कौंसिलों में भारतीयों का प्रवेश । कानून में यह साफ तौर से संमिलित नहीं किया गया था । फिर भी लेजिस्लेटिव कौंसिल के गैर-सरकारी तत्त्व की कोई परिभाषा नहीं दी गयी थी ।

अतएव इसमें भारतीय शामिल समझे जा सकते थे । डलहौजी ने १८५३ ई॰ के कानून द्वारा निर्मित कौंसिल में भारतीयों के समिलित करने पर जोर दिया था पर कोई सफलता नहीं मिली थी । स्पष्टत सिपाही विद्रोह ने इस सम्बन्ध में इंगलैंड में विचार-परिवर्तन कर डाला था तथा १८६२ ई॰ में कौनिग ने पटियाला के महाराजा, बनारस के राजा और सर दिनकर राव को नवनिर्मित लेजिस्लेटिव कौंसिल में नामजद कर दिया ।

बाद के तीस वर्षों (१८६१-१८९१ ई॰) में जो विविध कानून बने, उनका विस्तृत वर्णन करना आवश्यक नहीं है । एक उल्लेखनीय परिवर्तन यह था कि वाइसराय और उसकी कौंसिल दोनों के कानून-निर्माण-सम्बन्धी अधिकार में काफी वृद्धि हुई । १८७० के इंडियन कौंसिल ऐक्ट द्वारा गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल को बिना लेजिस्केटिव कौंसिल के पूछे ही नियम पास करने का अधिकार मिल गया ।

उसी कानून ने वाइसराय की इस शक्ति को दुहराया तथा अधिक स्पष्टता के साथ बताया कि वह अपनी कौंसिल के बहुमत के निर्णयों को ठुकरा सकता था और “भारत में ब्रिटिश राज्य अन्यथा इसके किसी भी भाग की सुरक्षा, निर्विध्नता या स्वार्थो” पर प्रभाव डालनेवाले किसी काम को बहुमत के विरुद्ध भी अपनाकर कार्यान्यित कर सकता था अथवा स्थगित कर सकता था या अस्वीकार सकता था ।

१८७४ ई॰ के कानून ने वाइसराय की कौंसिल में एक छठे साधारण सदस्य- “सार्वजनिक निर्माणार्थ सदस्य”-के बढ़ाने की व्यवस्था की । तीस वर्षों के इसी युग ने भारत में प्रथम महान् राष्ट्रीय आंदोलन एवं भारतीय राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) की स्थापना देखी, जिसका विस्तृत विवरण पीछे दिया जायगा । भारतीयों में नये तौर से राजनीतिक चेतना उमड़ पड़ी । कांग्रेस ने संविधानिक अधिकार निकाले थे । उक्त चेतना ने इन अधिकारों की माँग कर अपने को प्रकट किया ।

कांग्रेस ने स्थानीय और केंद्रीय दोनों तरह की लेजिस्फेटिव कौंसिलों के सुधार को विशेषकर निम्नलिखित लाइनों पर अपने कार्यक्रम के बिलकुल आगे रखा:

(१) बंगाल, बम्बई और मद्रास को छोड़ अन्य प्रांतों में कौंसिलों की स्थापना ।

(२) निर्वाचित सदस्यों के एक बड़े अनुपात के साथ कौंसिलों का विस्तार ।

(३) कौंसिलों को अधिक अधिकारों की स्वीकृति विशेषकर बजट पर विवाद करने और प्रश्नोत्तर के सहारे खबर जानने के अधिकार की स्वीकृति ।

इन माँगों को कम-से-कम आंशिक रूप में पूरा करने के लिए लार्ड डफरिन ने गृह सरकार को कुछ उपाय सुझाये । फलस्वरूप १८९२ ई॰ का इंडियन कौंसिल ऐक्ट पास हुआ जो भारत में संविधानिक विकास के इतिहास में एक दूसरी महान् उल्लेखनीय घटना है ।

इस कानून के द्वारा सुप्रीम कौंसिल एवं स्थानीय कौंसिल दोनों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या कुछ बढ़ा दी गयी । सुप्रीम कौंसिल में अधिक-सें-अधिक संख्या सोलह निश्चित की गयी बम्बई, मद्रास और बंगाल में यह संख्या बीस रखी गयी उत्तर-पश्चिम प्रांत और अवध में, जहां १८८६ ई॰ में एक लेजिस्लेटिव कौंसिल स्थापित हो चुकी थी, यह संख्या पंद्रह कर दी गयी ।

यह वृद्धि न केवल कांग्रेस की, वरन् भारतीयों की राजनीतिक भावनाओं से सहानुभूति रखनेवाले बहुत-से-अंग्रेज राजनीतिज्ञों की भी आशाओं के बहूत नीचे थी । इन सदस्यों की नियुक्ति के तरीके में जो परिवर्तन हुआ वह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण था । कांग्रेस ने चुनाव के सिद्धान्त की माँग की थी । यह सुविधा प्रत्यक्ष रूप में नहीं दी गयी ।

किन्तु कानून ने गवर्नर-जनरल-इन कौंसिल को अधिकार दिया कि वह अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति की प्रणाली निर्धारित करें । जिस समय हाउस ऑफ कॉमंस में बिल पर विवाद चल रहा था, उस समय सरकारी सदस्यों ने स्पष्ट दिया था कि इस धारा के अंतर्गत गवर्नर-जनरल के लिए अतिरिक्त सदस्यों के चुनाव की व्यवस्था करना संभव होगा । वस्तुत: लार्ड लैसडाउन (१८८८-१८९४ ई॰) ने इस शक्ति का उपयोग कर स्थानीय कौसिन्हों के आठ सदस्यों को नगरपालिकाओं, जिलाबोर्डो, व्यापार- मंडलों विश्व-विद्यालयों आदि में चुनवा लिया तथा सुप्रीम कौंसिल के चार सदस्यों को स्थानीय कौंसिल के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा चुनवा लिया ।

१८९२ ई॰ के कानून ने लेजिस्लेटिव कौंसिलों के सदस्यों को बजट पर विवाद करने और सार्वजनिक हिन्दू की बातों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दे दिया । यद्यपि १८९२ ई॰ कानून भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की माँगों के बहुत नीचे रहा, तथापि यह चुनाव की अपेक्षा बहुत आगे था ।

चुनाव के सिद्धान्त को मानकर तथा लेजिस्लेटिव कौंसीलों को कार्यपालिका पर थोड़ा नियंत्रण देकर इसने इस प्रकार के अगले सुधारे कमा क्या प्रशस्त कर दिया, जिन्हें भारतीयों के हाथों में देश के शासन पर काफी नियंत्रण देना पड़ा था ।