ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में मुस्लिम राजनीति का उदय | Rise of Muslim Politics in India During British Rule.

पूर्वी बंगाल के मुसलमानों के नेता और ढाका के नवाब सलीमुल्लाह की ओर से मुसलमानो के लिए एक अलग पार्टी के गठन के बारे में पहले ही एक प्रस्ताव रखा जा चुका था, और आगे की बहस के लिए यह एक बेहतरीन प्रस्थान बिंदु हो सकता था ।

इसलिए नई पार्टी की घोषणा दिसंबर 1906 को ढाका के इसी शिक्षा सम्मेलन में की गई और उसे ऑल इंडिया मुस्लिम लीग (अखिल भारतीय मुस्लिम लीग) नाम दिया गया । मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों और हितों की रक्षा करना अंग्रेजों के प्रति वफादारी का प्रचार करना और समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा देना, उसके घोषित उद्देश्य थे । कांग्रेस के मुस्लिम समर्थकों ने तुरंत इस कदम का तोड़ निकालने की कौशिश की पर वे सफल नहीं हो सके ।

शिक्षित मुसलमानों का बहुमत एक अलग रास्ते पर चलने का निर्णय पहले ही कर चुका था । लगभग 1910 तक, व्यवहार में लगभग पूरी तरह अखिल भारतीय मुस्लिम लीग मुहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का पुछल्ला बनी रही, और फिर ये दोनों संगठन अलग हो गए ।

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एम. एस. जैन (1965) जैसे कुछ विद्वान यह समझते है कि लीग अलीगढ़ आंदोलन का तार्किक चरमोत्कर्ष थी । लेकिन जयंती मैत्र का मानना यह है कि मुस्लिम लीग अलीगढ़ आंदोलन की उपज न थी; यह बल्कि बंगाली मुसलमानों में जारी राजनीतिक विकासक्रमों की उपज थी, जो अपने उत्तर भारतीय समकक्षों से हमेशा अधिक राजनीतिक रहे ।

नई राजनीतिक पार्टी को अस्तित्व में लाने के लिए उत्प्रेरक का काम भी तो बहरहाल बंगाल की 1906 की स्थिति ने ही किया था । लेकिन जैसा कि लेलीवेल्ड कहते हैं ढाका के नवाब तक का यही मानना था कि यह राजनीतिक पार्टी उस ”राजनीतिक जीवन का अगला चरण” थी, जिसमें पहले-पहल जवानी अलीगढ़ में आई, और उससे यह आशा की जा रही थी कि वह नौजवान शिक्षित मुसलमानों के लिए सार्वजनिक संस्थाओं में और अधिक अवसर पैदा करेगी ।

लीग के अस्तित्व की कम से कम पहले दशक में उस पर संयुक्त प्रांत के मुसलमान हावी रहे और इसके कारण अलीगढ़ को अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति के केंद्र का दर्जा मिला । विकारुल-मुल्क और मोहसिनुल-मुल्क उस तदर्थ समिति के संयुक्त सचिव बने जिसने उसका संविधान तैयार किया, जिसको स्वीकृति अगले सत्र (कराची, दिसंबर 1907) में मिली । इस तरह कुछ पंजाबी नेताओं की मदद से अलीगढ के बजुर्गो ने लीग को अपना स्वयं का संगठन बना लिया और उसे स्वयं की वैचारिक प्राथमिकताओं के साँचे में ढाला ।

उदाहरण के, लिए इस संविधान ने यह सुनिश्चित किया कि यह नया संगठन ”संपत्ति और प्रभाव वाले लोगों” के नियंत्रण में रहेगा । इसके कारण लीग की शक्ति-संरचना से ऐसे बहुत-से नाराज युवा बाहर कर दिए गए जिनके दबाव के कारण ढाका में इस पार्टी का जन्म हुआ था ।

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1907  और 1909 के बीच सभी प्रमुख प्रांतों में प्रांतीय मुस्लिम लीगों का गठन हुआ उरौर उन्हें अपने संविधान तैयार करने की स्वतंत्रता प्राप्त थी । उन पर अखिल भारतीय संगठन का औपचारिक नियंत्रण नहीं था न ही वे केंद्रीय संगठन के मामलों में दखल दे सकती थीं ।

इस कारण प्रांतीय लीगों की राजनीतिक रंगत अलग-अलग रही और अकसर उनकी नीतियाँ केंद्रीय संगठन की नीतियों से अलग होती थीं । उसकी लंदन शाखा का आरंभ मई 1908 में हुआ और उसने सैयद अमीर अली के नेतृत्व में अपने 1909 के संवैधानिक सुधारों, अर्थात् मॉर्ले-मिंटो, सुधारों को निर्धारित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

इस नए कानून ने केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिकाओं में भी मुसलमानों के लिए आबादी में उनके अनुपात से कहीं बहुत अधिक संख्या में और उनके राजनीतिक महत्त्व के अनुरूप सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया ।

इस तरह मुसलमानों को अलग निर्वाचकमंडल की प्राप्ति से उनके अल्पसंख्यक के दर्ज़े को तथा भारतीय मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान को भी एक आधिकारिक वैधता मिली, और लीग उस पहचान का सार्वजनिक चेहरा बन गई ।

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अल्पसंख्यक के पद से लेकर राष्ट्रत्व की प्राप्ति तक इस मुस्लिम पहचान के आगे के विकास का रास्ता लंबा और टेढ़ा-मेढ़ा रहा और इस बीच मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आपसी संबंध कमजोर बुनियादों पर खड़ा रहा । 1920 और 1924 के बीच उन्होंने खिलाफ़त के सवाल पर एक संयुक्त आंदोलन चलाया, परंतु उसके बाद उनके रास्ते अधिकाधिक अलग होते गए ।

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