ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में सामाजिक सुधार | Social Reforms in India during British Rule.

बिलकुल प्रारंभ से ही भारत में ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक और सामाजिक मामलों में उदारतापूर्ण तटस्थता की नीति अपनायी । क्रियाशीलता के साथ सहायता करना तो दूर रहा, भारी दबाव के बावजूद उसने भारत में ईसाई मिशनरियों के धार्मिक प्रचार को प्रोत्साहित करने से इनकार कर दिया । इसी नीति के फलस्वरूप उसने सरकार द्वारा संचालित शिक्षा-संस्थाओं से धार्मिक शिक्षा अलग कर दी ।

दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने न केवल भारतीयों के सभी अनुष्ठानों एवं रीतियों के प्रति सहिष्णुता का भाव दिखाया, बल्कि कभी-कभी वह इतना आगे बढ़ जाती थी कि उसकी आलोचना यह कहकर होती कि वह उन्हें संमानित और प्रोत्साहित कर पक्षपात बरत रही है । दो खास उदाहरण दिये जा सकते हैं ।

हिन्दू कानून के अंतर्गत, ईसाई धर्म में नवदीक्षित व्यक्ति अपनी उत्तराधिकार से प्राप्त संपत्ति खो देता था तथा अन्य अयोग्यताओं का शिकार होता था । इसे ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया । पुन: अनेक हिन्दू उत्सवों और धार्मिक संस्कारों के प्रति सरकार द्वारा अत्यंत आदर दिखलाया जाता था तथा इनमें से कुछ अवसरों पर सैनिकों का प्रदर्शन तट होता था एवं सलामी तक दागी जाती थी । किन्तु यह उदारतापूर्ण रुख शीघ्र ही त्याग दिया गया । एक कानून १८३२ ई॰ में पास हुआ तथा दूसरा १८५० ई॰ में पास हुआ, जिनके अनुसार धर्म परिवर्तन से होनेवाली सारी अयोग्यताएँ हटा दी गयी ।

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बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के अध्यक्ष ने १८३३ ई॰ में आदेश जारी किया कि सरकार को भारतीय धार्मिक संस्कारों के प्रति किसी प्रकार का विशेष अनुग्रह या आदर दिखलाना बंद कर देना चाहिए । यह आदेश तथा अन्य आदेश जो यात्री-कर के उठाने एवं मंदिर को दिये गये दानों के सरकारी नियंत्रण के संबंध में थे लार्ड आकलैंड द्वारा चालू किये गये ।

लेकिन उदारतापूर्ण तटस्थता की नीति तक के लिए उन मानवीय एवं प्रगतिशील विचारों से संघर्ष करना अवश्यंभावी हो गया, जो उदारचेता अंग्रेजों में प्राण-संचार कर रहे थे । अंग्रेज शासकों ने बार-बार अपनी नीति की घोषणा कर रखी थी कि हम भारनीयों के सामाजिक और धार्मिक रस्म-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे ।

किन्तु उस समय हिन्दू समाज में धर्म अथवा परंपरा के नाम पर भद्दी बुराइयाँ फैली हुई थीं । अतएव अपनी धोषित नीति के बावजूद उन्हें मानवता के विचारों से प्रेरित होकर इन बुराइयों के हटाने में अग्रगामी भारतीय सुधारकों से सहयोग करना पड़ा । पहली बुराई जिस पर आक्रमण किया गया शिशुहत्या की विचित्र प्रथा थी ।

कुछ हिन्दुओं में यह पुराना रिवाज चला आ रहा था कि वे धार्मिक संकल्पों की सिद्धि होने पर बच्चे को गंगा के मुहाने पर समुद्र में फेंक देते थे । उदाहरण के लिए कोई निस्संतान स्त्री संतान के लिए प्रार्थना करती हुई यह संकल्प करती कि यदि उसके एक से अधिक संतान होगी, तो वह एक को गंगा मैया को अर्पित कर देगी ।

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अधिक विस्तृत क्षेत्र में नहीं फैली होने पर भी यह अमानुषिकता इतनी साफ थी कि कोई भी व्यक्ति, जिसकी भावनाएं धार्मिक अंधविश्वास द्वारा पूर्णतया कुंठित नहीं हुई थीं, इसकी अवहेलना नहीं कर सकता था । शिशु-हत्या का एक दूसरा रूप अधिक विस्तृत पैमाने पर फैला हुआ था ।

यह खासकर मध्य और पश्चिमी भारत में राजपूतों, जाटों एवं मेवातों में प्रचलित था । वहाँ लड़कियों के विवाह में दिक्कत होती थी । इससे माँ-बाप उन्हें बचपन में ही उचित भोजन न देकर या कभी-कभी माताओं के स्तनों के अग्रभागों में विष लगाकर भी मार डालते थे । प्रबुद्ध और लोकहितैषी ब्रिटिश अफसरों ने समझा-बुझाकर इस प्रथा के रोकने की चेष्टा की । किन्तु यह असफल सिद्ध हुई ।

अंत में शिशुहत्या के इन दोनों रूपों के बंद करने के लिए कानून बनाने ही पड़े । १७९५ ई॰ के बंगाल नियम २१ और १८०२ ई॰ के नियम ६ ने क्रमश: शिशुहत्या के पहले रूपों का उपाय किया तथा दोनों को हत्या घोषित किया ।

किन्तु १७९५ ई॰ का कानून भी, जो १८०४ ई॰ के एक दूसरे नियम के द्वारा नये जोड़े गये प्रांतों मैं लागू कर दिया गया, लड़कियों की गुप्त हत्या की बुरी प्रथा के तुरंत हटाने में असफल रहा क्योंकि बहुधा इसका पता नहीं लगने पाता था ।

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फिर भी, पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी विचारों के प्रभाव के फलस्वरूप यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गई । इन बुराइयों के सुधार के बाद एक दूसरी वीभत्स प्रथा का दमन किया गया । यह जूझ-चिन “सती” प्रथा थी । “सती” शब्द का अर्थ है एक पतिव्रता और चरित्रवती स्थ्य-किन्तु एक विचित्र प्रक्रिया से इसका अर्थ हो गया है पतिव्रता स्त्रियों के अपने देखा के मन जरीरों के साथ जल जाने की प्रथा ।

बहुत देशों की आदिम जातियों में यह विश्वास था कि मृत्यु के बाद का जीवन कम या ज्यादा वर्तमान जीवन का ही लगातार रूप है तथा उसकी भौतिक आवश्यकताएँ भी वर्तमान जीवन के ही समान है । तदनुसार मनुष्य को परलोक में अपनी पत्नी और नौकरों की आवश्यकता होती है ।

इसलिए जब कोई राजा या प्रसिद्ध सरदार मर जाता था, तब उसकी पत्नियों, रखेलियों और नौकर-चाकरों को भी उनकी इच्छा से या जबर्दस्ती मार डालते थे, जिससे वे अपने दिवंगत स्वामी के साथ रहकर पृथ्वी के समान वहाँ भी उनकी सेवा कर सकें । यह प्रथा भारत, चीन, बेबिलोनिया और बहुत से दूसरे देशों में प्रचलित थी । इसके चिह्न अभी भी जापान में पाये जाते है, जहाँ शासक के मरने पर कभी-कभी प्रिय प्रजाजन हराकिरी अर्थात् आत्महत्या कर लेते है ।

पत्नी का जलाना एक तरह से इस व्यापक आदिम प्रथा का अंतिम अवशिष्ट अंश है । यह भारत में बहुत पहले से प्रचलित रही होगी । यूनानी लेखकों ने ईसा-पूर्व चौथी सदी के एक दृष्टांत का विस्तृत विवरण लिख छोड़ा है । किन्तु फिर भी यह पवित्र धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में निर्धारित नहीं था । ऐसा सदियों बाद हुआ ।

प्राचीनतम स्मृतिग्रंथों में इस प्रथा का उल्लेख नहीं है । बाद के ग्रंथों में विधवाओं को केवल ऐच्छिक रूप में इसके लिये आज्ञा दी गयी है । यह प्रथा प्राचीन काल के अंत में या शायद इसके भी बाद निश्चित तौर पर धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में निर्धारित हुई ।

इस दु:खांत नाटक की अंतिम अवस्था तब आयी, जब धर्मग्रंथों ने चरित्रवती स्त्री के लिए अपने स्वामी का चिता पर जल मरना ही एकमात्र पुण्यकार्य ठहराया । ऐसी स्त्री न केवल स्वर्ग में अपने स्वामी के साथ शाश्वत. आनंद का उपभोग करती, वरन् उसका काम उसके पति के परिवार-पिता और माता दोनों-की तीन पीढ़ियों के पापों को धो डालता ।

इस प्रकार की आशाएँ और प्रोत्साहन बलिदान होनेवाली स्त्री और उसके स्वाभाविक संरक्षण दोनों को दिये जाते रहे । परिणाम वही हुआ जो होना था । प्रत्येक वर्ष सैकड़ों स्त्रियाँ धर्म के नाम पर निष्ठुर मृत्यु का आलिंगन करने लगीं ।

बहुत बार तो ऐसा होता था कि मर्द संबंधी अपने भौतिक लाभों के चलते तथा धार्मिक विश्वास दिखाकर बेचारी विधवा से ऐसा दु:खमय मार्ग अपनाने को कहते और कभी-कभी इसके लिए जबर्दस्ती तक करते थे । कभी-कभी स्त्री की इंद्रियों को शक्तिहीन करने के लिए अफीम और अन्य औषध-द्रव्यों का व्यवहार किया जाता था, जिससे बहु आसानी से यह प्राणघातक निश्चय अख्तियार करना मंज्‌र कर ले ।

ऐसे दृष्टांत कागजों में लिखे मिलते है कि स्त्री जब अग्नि के प्रथम स्पर्श से भाग खड़ी होती थी तब फिर जबर्दस्ती चिता पर रख दी जाती थी । ऐसी घटनाएँ रोकने के लिए मर्द संबंधी एक सावधानी बरतते थे । वे विधवा के शरीर को लकड़ी, पत्तों एवं पुआल से ढँक देते थे और तब चिता में आग लगाने के पहले दो बाँसों के सहारे उसे नीचे दबाते थे ।

साथ-ही-साथ भीड़ वज्रध्वनि की भाँति घोर कोलाहल करती थी तथा ढोल बजाकर आवाज की जाती थी । ऐसा करने से बेचारी लड़की का आर्तनाद कोई दर्शक न सुन पाता था । केवल यही बात कि ऐसी प्रथाएँ एक बुद्धि-संपन्न एवं संस्कृति जाति में सदियों तक टिकी रह गयी, आश्चर्यजनक रूप से बतलाती है कि किस प्रकार अपार्थिव अस्तित्व में विश्वास कभी-कभी मनुष्य के विचार एवं भावनाएँ ऊँचा उठाने और शुद्ध करने के बदले मानवीय उसके निर्णय को विकृत कर देता है तथा उसकी उदार स्वाभाविक प्रवृत्तियों एवं भावों को पंगु कर डालता है ।

यह लिखते प्रसन्नता होती है कि अकबर-जैसे प्रबुद्ध मुगल बादशाहों ने न केवल प्रतिवाद में अपनी आवाज उठायी, बल्कि इस प्रणित प्रथा के बंद करने के लिए प्रभावकर उपाय भी किये । किन्तु संगठित और लगातार प्रयत्न न होने के कारण स्थायी परिणाम न निकला ।

ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक दिनों से ही अफसर और मिशनरी दोनों सरकार से इस दु:खदायी रिवाज के बंद करने के लिए अपील कर रहे थे । स्वदेश के अधिकारियों को विज्ञश करने के लिए इंगलैंड में एक आंदोलन भी प्रारंभ किया गया । किन्तु दो कारणों से भारत की ब्रिटिश सरकार बहुत समय तक कोई निर्णयात्मक कदम उठाने से हिचकती रही ।

पहली बाधा थी उसकी धर्म के मामलों में अहस्तक्षेप की घोषित नीति । दूसरे, वह प्रजाजनों के एक बड़े वर्ग की धार्मिक संवेदनशीलता को अप्रसन्न करने में डरती थी, क्योंकि ऐसा होने से अंत में संपूर्ण सैनिक-शक्ति पर प्रभाव पड़ सकता था ।

फिर भी, सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ते की सीमा के भीतर इसे चलने देना अस्वीकार कर दिया तथा डचों, डेनों और फ्रांसीसियों ने क्रमश: चिनसुरा, श्रीरामपुर एवं चंद्रनगर में इसे रोक दिया ।

सरकार ने प्रारंभ में अपने अफसरों को हिदायत दी कि आप मीठे ढंग से समझा- बूझकर बलिदान होनेवाली स्त्रियों को रोकिए, किन्तु इसके आगे कोई कदम न बढ़ाइए । १७८९ ई॰ में शाहाबाद के कलक्टर ने लार्ड कार्नवालिस के पास निम्नलिखित शब्दों में इस मामले का जिक्र किया- “हिन्दु धर्म के अनुष्ठानों और अंधविश्वासों को बिना शर्त की अत्यधिक सहिष्णुता के साथ चलने देना चाहिए । किन्तु एक ऐसी प्रथा, जिससे मानवीय स्वभाव काँप उठता है, मैं बिना विशेष आदेशों के नहीं चलने दे सकता ।”

उत्तर में उसे कहा गया कि आपका काम “समझा-बुझाकर निवारण करने तक सीमित रहना चाहिए आप उत्पीड़क उपायों का सहारा न लें और न सरकारी शक्तियों का प्रयोग ही करें” । कलक्टर का पत्र और उसका उत्तर इस प्रश्न पर प्रारंभिक सरकारी रुख के नमूने हैं ।

जब इसी प्रकार का पत्र बिहार जिले के मैजिस्ट्रेट द्वारा १८०५ ई॰ में लिखा गया, तब लार्ड वेलेस्ली ने इसे निजामत अदालत के सुपुर्द कर दिया । प्राप्त उत्तरों के आधार पर सरकार ने १८१२ ई॰ में इस विषय पर नियम बनाये तथा १८१५ ई॰ और १८१७ ई॰ में उन्हें अन्य नियमों से परिभूत किया ।

इन नियमों का असल परिणाम निकला उन विधवाओं के जलाने की मनाही जो या तो कम उम्र की थीं या गर्भवती थीं या जिनके छोटे बच्चे थे । उन्होंने किसी स्त्री को आत्म-दहन के लिए विवश करना या उसे इस मतलब से विषपूर्ण औषध पिलाना या नशे में चूर करना भी अपराधात्मक करार दिया ।

इन नियमों से कोई फल न निकला । विश्वसनीय प्रमाण बतलाता है कि केवल कलकते के आसपास के जिलों में ही “सतियों” की औसत वार्षिक संख्या पाँच सौ से अधिक थी । ब्रिटिश अफसर इस प्रथा के पूर्णतया उठा देने को आवश्यकता के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित करते कभी नहीं थकते थे ।

किन्तु सरकार साहस दिखलाने में असमर्थ थी । उसने इस प्रथा के अंतिम रूप में उठा दिये जाने के लिए भारतीय मत के क्रमिक प्रबुद्धीकरण पर विश्वास करना ही अधिक अच्छा समझा । इस प्रगतिवादी भावना के लक्षणों का अभाव नहीं था ।

राजा राममोहन राय के अथक परिश्रम के कारण प्रबुद्ध भारतीय मत धीरे-धीरे दृढ़ता का परिचय देने लगा । जब कट्टर हिन्दुओं ने १८१७ ई॰ के नियमों के विरुद्ध प्रतिवाद किया तथा सरकार के पास उनकी मन्सूखी के लिए आवेदन-पत्र भेजा, तब राजा और उनके सहकर्मियों द्वारा प्रति-आवेदन-पत्र पेश किया गया ।

“सती” की भयंकरता का सजीव शब्दों में वर्णन करने के बाद उन्होंने घोषणा की कि “ये सभी दृष्टांत प्रत्येक शास्त्र के अनुसार और सभी राष्ट्रों के सामान्य विचार के अनुसार खून हैं” । लोकमत को शिक्षित करने के लिए राजा राममोहन ने इस विषय पर एक पुस्तिका लिखी तथा यह देखने के लिए एक सजगता-समिति का संगठन किया कि प्रत्येक दृष्टांत में सरकारी नियमों का पालन किया जाता है ।

राजा राधाकांत देव के नेतृत्व में कट्टर हिन्दुओं ने राजा का घोर विरोध किया । कड़वापन अंत में इतना अधिक बढ़ गया कि राजा राममोहन को मारने तक की धमकी दी गयी ।

जब बातें इस कठिन अवस्था तक पहुँच चुकी थीं, तभी लार्ड विलियम बेंटिंक गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ । स्वदेश के अधिकारियों ने उसे आदेश दिया कि वह “सती” के तुरंत अथवा धीरे-धीरे उठा देने के लिए निश्चित कार्रवाइयों पर विचार करें । परिस्थिति का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने के बाद उसने इसे तुरत उठा देने का निर्णय किया । उसका सुधार के लिए जैसा उत्साह था वैसा बहुत का नहीं था ।

यहाँ तक कि राजा राममोहन ने सतर्कता की सलाह दी क्योंकि उनका विश्वास था कि तुरत उठा देने से महान् असंतोष और उत्तेजना फैल सकती थी । किन्तु बेंटिंक की सुधारार्थ उत्साहपूर्ण आकांक्षाओं को विलंब सहन नहीं हुआ । ४ दिसम्बर, १८२९ ई॰ को प्रसिद्ध सत्र-हवां नियम पास हुआ, जिसने “सती” को अवध और कचहरियों द्वारा दंडनीय करार दिया । केवल वे ही व्यक्ति नहीं जो किसी प्रकार के प्रलोभन या बलप्रयोग का सहारा लेते थे, बल्कि वे भी जो किसी प्रकार “सती” के स्वेच्छाकृत काम से संबद्ध थे अपराधों माने जानेवाले थे ।

जैसी आशा की जाती थी, बेंटिंक के कामों का जोरदार प्रतिवाद हुआ । गवर्नर-जनरल के पास बहुत लोगों से दस्तखत कराकर एक विरोध-पत्र दिया गया । इंगलैंड-स्थित अधिकारियों के पास भी अपील की गयी । इन बातों के प्रतिकार के लिए राजा राममोहन ने कलकत्ते के तीन सौ निवासियों से दस्तखत कराकर गदर-जनरल के पास एक बधाई-सूचक आवेदन-पत्र भेजा ।

उनके इंगलैंड जाने का एक कारण यह भी था कि वे प्रिवी कौंसिल द्वारा इस नवीन नियम के रह करवाने के किसी भी प्रयत्न को निष्फल कर डालना चाहते थे । राममोहन के प्रयत्न सफल हुए ।

नया नियम इंगलैंड-स्थित अधिकारियों द्वारा समर्थित रहा इस प्रकार यह अमानुषिक प्रथा अंत में निश्चित रूप से समाप्त हुई । बेंटिंक के प्रयत्य प्रथम लार्ड हार्डिज द्वारा उदारतापूर्वक परिपूरित हुए, जो भारतीय रियासतों में “सती” और शिशु-हत्या दबाने में मुख्य साधन बना ।

दूसरा महान् सुधार, जिसका श्रेय लार्ड विलियम बेंटिंक को प्राप्त है, ठगों के संगठित गिरीहों का दमन है । ये अपराधियों के गुप्त जमाव थे । इनके सदस्यों के दीक्षित होने के खास ढंग थे । ये भेष बदलकर चलते थे तथा अधिकतर रूमाल या गलबंध का फंदे की नाईं इस्तेमाल कर असहाय राहियों के गले घोंट उन्हें मार डालते थे ।

यद्यपि इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों थे तथापि ठग काली दैवी के भक्तों के रूप में प्रसिद्ध थे । ये हत्या का अपना जघन्य व्यापार इस भ्रामक विश्वास में करते थे कि इसे देवी की स्वीकृति प्राप्त थी ।

यह संगठन करीब-करीब समस्त भारत में फैल गया था । ऐसा सोचने के कारण है कि इन्हें कतिपय सरदारों, जमींदारों और सौदागरों से अच्छी सहायता मिलती थी । इस संगठन को पीस डालने के लिए सर विलियम स्लीमन और कुछ योग्य अफसर खास तौर से चुने गये ।

उनकी कार्रवाइयों को नियमानुकूल बनाने के लिए बेंटिंक ने कई विशेष कानून पास किये । १६३१-१८३७ ई॰ में तीन हजार से भी अधिक ठग पकड़े गये । इन मजबूत कार्रवाइयों के फलस्वरूप भारत शीघ्र इस भारी बला से फुर्सत पा गया ।

एक अत्यंत महत्वपूर्ण सुधार था १८४३ ई॰ के पाँचवें कानून द्वारा दासता का उठा दिया जाना, यद्यपि इससे बहुत कम सनसनी पैदा हुई । दासता इस की बहुत पुरानी संस्था थी, यद्यपि सामान्य जन-विश्वास ऐसा नहीं समझता था । १८४३ ई॰ में भी “भारत में बहुत लाख दास थे” ।

फिर भी जिस कानून ने “दासता को कानूनी स्थान देने से इनकार किया” तथा इस प्रकार आप-से-आप बिना मालिकों को हर्जाना दिये दासों को स्वतंत्र कर दिया, उसका न तो विरोध हुआ और न उसके विरुद्ध उत्तेजना ही हुई । यह पश्चिमी शिक्षा और उदार अंग्रेजी परंपरा से जनित उच्च नैतिक स्तर का प्रमाण है ।

करीब-करीब इसी समय प्रेसिडेंसी शहरों में स्टेट लॉटरियों (राज्य की ओर से परिचालित भाग्य-परीक्षा के खेल) उठा दी गयीं । उस समय की सरकार की उदार भावना का यह एक दूसरा उदाहरण है । यह कहकर कि उनसे जो आमदनी होती है स्थानीय उन्नतियों में खर्च की जाती है, उनका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश स्तई गयी । किन्तु आर्थिक लाभ के विचार पर नैतिक कारणों की विजय हुई, जिनके आधार पर उस प्रथा का गंभीर विरोध किया गया था ।

प्रथम लार्ड हार्डिज की सरकार को नर-बलि बंद करने के कदम उठाने का श्रेय प्राप्त है । यह नर-बलि उड़ीसा में खोंद नाम की जाति द्वारा की जाती ही । खोंदों का यह भ्रामक विश्वास था कि ऐसा करने से जमीन की उर्वरता बढ़ती है । हार्डिज के गवर्नर- जनरल काल में अधिक संतोषजनक परिणाम नहीं निकले । किंतु १८४७ ई॰ से १८५४ ई॰ के बीच कैपबेल और दूसरे अफसर इसी उद्देश्य से नियुक्त किये गये । इनके शक्ति-पूर्ण प्रयत्नों ने निश्चित रूप से इस निष्ठुर और नृशंस प्रथा का उच्छेद कर डाला ।