ब्रिटिश शासन के दौरान कांग्रेस का उद्भव | Emergence of Congress during British Rule.

राष्ट्रीय जागरण (National Awakening): 

नवीन भारत की सबसे महत्वपूर्ण घटना है राष्ट्रीय चेतना की अभिवृद्धि, जिसे अंत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और इस प्रकार की अन्य संस्थाओं के निर्माण में क्रियाशील अभिव्यक्ति मिली । इस राष्ट्रीय जागरण के विकास के बहुत-से कारण थे । यह राष्ट्रीय जागरण दो मौलिक सिद्धांतों पर आधारित था यानी संपूर्ण भारत की एकता और उसके निवासियों का अपने ऊपर शासन करने का अधिकार ।

जैसा कि फ्रांसीसी राज्यक्रांति-जैसे सभी महान् राष्ट्रीय दोलनों के साथ होता है, इस राजनीतिक पुनर्जीवन की एक बौद्धिक पृष्ठभूमि थी । यह साधारण ज्ञान की बात है कि उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजी राजनीति और साहित्य में उदारवाद की एक भीषण लहर दौड़ रही थी ।

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इंगलैंड असंदिग्ध रूप में घोषणा करता था कि प्रजातंत्र की भावना और राष्ट्रीय देशप्रेम उसके राजनीतिक आदर्श हैं । अंग्रेजी साहित्य और पूरोपीय इतिहास के अध्ययन द्वारा शिक्षित भारतीयों ने इन दोनों आदर्शो को हृदयंगम कर लिया ।

और भी, इंगलैंड प्रारंभ में भारत और अन्य राज्यों (डोमिनियनों) के प्रति अपनी नीति में उदार राजनीतिज्ञता दिखलाता था इससे इन भावनाओं की प्रोन्नति को जानबझकर प्रोत्साहन मिला । प्रारम्भ से ही ब्रिटिश सरकार ने खुले तौर पर भारत के प्रति अपनी उदार नीति की घोषणा कर रखी थी ।

१८१३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने निश्चित रूप में यह कह दिया था कि “भारत के ब्रिटिश राज्य के देशी निवासियों के हित और सुख की प्रोन्नति करना इस देश का कर्तव्य है” । १८३३ ई॰ की संसदीय समिति ने जब “यह निर्विवाद सिद्धांत” रखा “कि जब कभी देशी प्रजाजनों एवं यूरोपियनों के स्वार्थों की प्रतिद्वंद्विता होगी, तब यू रोपियनों के स्वार्थों की अपेक्षा देशी प्रजाजनों के स्वार्थों को तरजीह दी जाएगी” तब १८१३ ई॰ वाला उपर्युक्त सिद्धांत न केवल समर्थित हुआ, बल्कि उसकी और भी व्यास्या हो गयी ।

अंत में रानी की १८५८ ई॰ की घोषणा आयी, जिसमें उसने निश्चित रूप से कहा कि “हम अपने भारतीय राज्य के देशी निवासियों के प्रति कर्तव्य के उन्हीं बंधनों से अपने को बँधा हुआ मानते हैं, जो हमें हमारे अन्य सभी प्रजाजनों से बाँधते हैं” ।

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रानी के राजत्वकाल में कैनेडा के प्रजाजनों को प्रजातांत्रिक संविधान मिल गया इसके बाद के समय में अन्य उपनिवेशों को भी इसी प्रकार स्वायत्त शासन-सम्बन्धी अधिकार मिलते गये । इन बातों को दृष्टि में रखने से रानी विक्टोरिया की घोषणा ने भारतीयों के लिए विशेष महत्व प्राप्त कर लिया ।

इन सब कारणों ने शिक्षित भारतीयों के मन में नवीन उच्चाकांक्षाएँ उत्पन्न कर दी । उनका बिटेन के उदार राजनीतिज्ञों और उनकी न्याय एवं निरपेक्ष व्यवहार की भावना में बड़ा विश्वास था । वे सोचते थे कि ज्यों ही भारतीय कोई अच्छी बात लेकर उसे अच्छी तरह उपस्थित करेंगे त्यों ही ब्रिटिश उदारदली नेता भी उनकी विचारसंगत माँगों को पूरा करने में पीछे न पड़ेगे ।

पहली ठोस माँग स्वभावत: सिविल सर्विस की उच्चतर श्रेणियों में भारतीयों के अधिक प्रवेश के लिए हुई । सिविल सर्विस ब्रिटिश शासन के लिए बराबर “इस्पाती ढाँचा” (“स्टील-फ्रेम”) रही । मेकाले ने हाउस ऑफ कॉमन्स में यह कहकर अधिक अतिशयोक्ति नहीं की थी कि “नौकरों के चरित्र एवं भावना की अपेक्षा, जिनसे (नौकरों से) भारत का शासन चलाया जाता था, गवर्नर-जनरल का चरित्र तक कम महत्वपूर्ण था” ।

शिक्षित भारतीयों को यह स्पष्ट हो गया कि शासन-प्रबंध में वास्तविक एवं न्यायोचित भाग पाने का पहला कदम था सिविल सर्विस की उच्चतर श्रेणियों में धीरे-धीरे बढ़ती हुई संख्या में घुसना ।

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१८३३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने निश्चित वचन दिया था कि कोई भी भारतीय “केवल अपने धर्म, जन्म-भूमि, कुल, वर्ण या इनमें से किसी के कारण कम्पनी के अधीन किसी पद या नौकरी के पाने से वंचित नहीं किया जाएगा” । इसे १८५८ ई॰ की रानी की घोषणा और १८६१ ई॰ के इंडियन सिविल सर्विस ऐक्ट में फिर से कहा गया ।

इन प्रतिज्ञाओं के बावजूद ब्रिटिश सरकार की ओर से सिविल सर्विस में अधिक संख्या में भारतीयों के भर्ती करने में बढ़ती हुई अनिच्छा स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होने लगी । बार-बार दिये गये वचनों की पूर्ति में जो असफलता हुई, उसे स्वयं ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने स्वीकार किया है ।

“लार्ड हाउटन ने कहा कि वह घोषणा, जिसमें कहा गया था कि भारत की सरकार नस्ल की भिन्नताओं पर बिना ध्यान दिये ही चलायी जाएगी, अत्युक्तष्ट थी, किन्तु अब तक व्यर्थ हुई है ।”

सरकार इस नीति को कार्यान्वित नहीं करना चाहती थी-इसे गवर्नर-जनरल लार्ड लिटन प्रथम-जैसे महान् अधिकारी ने स्वीकार किया है । इस विषय पर भेजे गये एक गुप्त सरकारी पत्र में उसने लिखा कि “प्रतिज्ञा के जो शब्द कान के समीप जाकर जोर जोर से कहे गये थे उन्हें हृदय तक तोड़ने में सभी साधनों का उपयोग किया गया” ।

अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त भारतीयों की भावनाओ की कल्पना करना आसान है, जो अंग्रेज राजनीतिज्ञों की उदारवादिता एवं न्याय-बुद्धि का विश्वास किये बैठे थे । उन्हें गहरी निराशा हुई । उनका मोह प्रचंड रूप से ढह गया । तदनंतर उनमें घोर रोष की भावनाएँ आ गयीं । शीघ्र ही ऐसी घटनाएं घटी, जिन्होंने निष्क्रिय असंतोष को क्रियाशील आदोलन में परिवर्तित कर डाला ।

इन घटनाओं का सम्बन्प श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी की इंडियन सिविल सर्विस में नियुक्ति से था । यद्यपि वे प्रतियोगितात्मक परीक्षा में सफल सिद्ध हुए, तथापि उनका नाम सूची से हटा देने की चेष्टाएँ की गयीं । अंत में रानी के न्यायालय के लिखित आज्ञापत्र द्वारा नाम पूर्वावस्था में पुन: स्थापित किया गया । श्री बनर्जी आई॰ सी॰ एस॰ में नियुक्त हुए । किन्तु शीघ्र ही वे सर्विस से बर्खास्त कर दिये गये । जिन कारणों से वे बर्खास्त किये गये, वे अब अपर्याप्त समझे जाते हैं ।

जो व्यक्ति इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की सेवा (नौकरी) करने के अवसर से वंचित किया गया, उसे भारत के महान् राष्ट्रीय आंदोलन का नेता होना बदा था । उन्होंने सार्वजनिक जीवन को अपनाया । १८७६ ई॰ में उन्होंने कलकत्ते के भारतीय संघ (इंडियन ऐसोसिएशन ऑफ कलकटा) की स्थापना की इस संघ को इसके संस्थापक की भाषा में “एक अखिल-भारतीय आन्दोलन का केंद्र होना था” , जिसका आधार “मैजिनी की प्रेरणा से लिया गया संयुक्त भारत का भाव” होता ।

यह शिक्षित मध्यम वर्ग का संगठन था, जिसका उद्देश्य था जनता से सीधे अपील कर लोकमत का निर्माण करना । श्री बनर्जी का महान् अवसर तब आया जब १८७७ ई॰ में सिविल सर्विस परीक्षा की सवसे अधिक अवस्था-सीमा घटाकर इक्कीस से उन्नीस कर दी गयी । समग्र भारत पर इसकी कष्टपूर्ण छाप पड़ी ।

इसे भारतीय उम्मीदवारों की इंडियन सिविल सर्विस के लिए आशाओं को उड़ा देने का जान-बूझकर प्रयत्न समझा गया । भारतीय संघ ने इस प्रतिक्रियात्मक काम के विरुद्ध राष्ट्रीय प्रतिवाद का संगठन किया । कलकत्ते में एक बृहत् सार्वजनिक सभा हुई ।

श्री बनर्जी ने इसी तरह की सभाएं आगरे, लाहौर, अमृतसर, मेरठ, इलाहाबाद, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, अलीगढ़ और बनारस में कीं । इस प्रकार उन्होंने एक तूफानी आंदोलन का नेतृत्व किया ।

इन सभाओं की प्रकृति और लक्ष्य का वर्णन श्री बनर्जी ने यों किया है “आंदोलन साधन था । खुली प्रतियोगितात्मक परीक्षा के लिए सबसे अधिक अवस्था-सीमा का बढ़ाना और समकालिक परीक्षाओं का कराना साध्यों में से थे । किन्तु सिविल सर्विस आंदोलन का आधारभृत् विचार और सच्चा उद्देश्य एवं लक्ष्य था भारत के लोगों में एकता और समस्वार्थता की भावना जगाना ।”

श्री बनर्जी की यात्रा बहुत सफल रही । सर हेनरी कौट्‌न ने इसके बारे में अपनी पुस्तक ‘न्यू इंडिया’ में यों लिखा- “पंजाब में बंगाली प्रभाव का विचार लार्ड लारेंस के लिए अविश्वसनीय होता….फिर भी बात यह है कि गत वर्ष ऊपरी भारत में अंग्रेजी में भाषण देते हुए एक बंगाली भाषणवर्ता की यात्रा ने विजयपूर्ण प्रगति का रूप धारण किया । और इस समय सुरेंद्रनाथ बनर्जी का नाम मुलतान की नयी पीढ़ी में उतना ही उत्साह पैदा करता है, जितना ढाका में ।”

श्री बनर्जी की सहायता से भारतीय संघ द्वारा संगठित राष्ट्रीय आंदोलन के परि सचमुच बहुत महत्वपूर्ण हुए । श्री बनर्जी के शब्दों में “ब्रिटिश शासन में प्रथम वार अपनी विविध नस्लों और धर्मों वाला भारत एक मंच पर एक सामान्य एवं संयुक्त यत्न के लिए लाया गया था । इस प्रकार चित्ताकर्षक महत्व के एक वस्तु-पाठ द्वारा यह शिखला दिया गया कि नस्ल और भाषा या सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं के संबंध म हमारे जो भी मतभेद हों, भारत के लोग अपने सामान्य राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिल सकते है तथा संयुक्त हो सकते हैं ।”

सिविल सर्विस आंदोलन ने इस प्रकार ऐसी महत्वपूर्ण शिक्षाएं दीं, जिन्हें अंत में भारतीय कांग्रेस में अभिव्यक्ति मिली । सिविल सर्विस आंदोलन ने एक दूसरा रास्ता भी निकाला, जिस पर चलकर देश के राजनीतिक पुनरुत्थान की ओर प्रगति की जा सकती थी ।

कलकत्ते वाली सभा में सिविल सर्विस के प्रश्न पर एक स्मारक-पत्र (प्रार्थना-पत्र) अपनाया गया तथा अन्य सार्वजनिक सभाओं में उसे ताईद किया गया । इसमें हाउस ऑफ कॉमन्स से यह प्रार्थना की गयी थी कि इंडियन सिविल सर्विस की खुली प्रतियोगितात्मक परीक्षा के लिए अवस्था सीमा न घटायी जाए तथा भारत और इंगलैंड में समकालिक परीक्षाएँ हों ।

डाक से स्मारक-पत्र भेजने की पुरानी परिपाटी अपनाने के बदले कलकत्ते के एक प्रसिद्ध बंगाली बैरिस्टर श्री लालमोहन घोष इसे भारतीय संघ के प्रतिनिधि की हैसियत से स्वयं उपस्थित करने के लिए इंगलैंड भेजे गये । श्री घोष अच्छे वक्ता थे । उन्होंने ब्रिटिश श्रोतागण पर भारत की अत्यावश्यक शिकायत के सम्बन्ध में गहरी छाप डाली ।

श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने आंदोलन का वर्णन यों करते हैं- “जौन ब्राइट के सभापतित्व में एक बड़ी सभा हुई । श्री घोष इतनी शक्ति और वाग्मिता के साथ बोले कि सभी मुग्ध हो गये तथा सभापति ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की । उस सभा का तात्कालिक परिणाम हुआ । इसके चौबीस घंटों के भीतर हाउस ऑफ कॉमन्स के टेबुल पर स्टैटचूटरी सिविल सर्विस (यह नाम पीछे दिया गया) का निर्माण करनेवाली नियमावली रख दी गयी । इस प्रकार भारत की शिकायत बतलानेवाले एक भारतीय के इंगलैंड भेजने से आशातीत सफलता मिली तथा भविष्य के वर्षों में इस प्रयोग की बार-बार आजमाइश की गयी ।”

सिविल सर्विस आंदोलन के तुरत बाद इसी तरह के आंदोलन लार्ड लिटन के शस्त्र कानून (आर्म्स ऐक्ट) और देशीभाषा प्रेस कानून (वर्नेक्यूर प्रेस ऐक्ट) के विरुद्ध भी किये गये । उपर्युक्त कानूनों का उद्देश्य था शस्त्र रखने पर प्रतिबंध तथा देशीभाषा प्रेस का नियंत्रण ।

तीनों काम एक ऐसी नीति के अंग समझे गये, जो राष्ट्रीय भारत की अभिवृद्धि रोकती थी तथा भारत के राज्य-सचिव की हैसियत से लार्ड सैलिसबरी के कार्यकाल का प्रतिक्रियात्मक रूप दिखलाती थी । इतिहास हमें सिखलाता है कि “प्रतिक्रियावादी शासक बहुधा महान् सार्वजनिक आंदोलनों के सष्टा होते हैं” ।

यही भारत में सिद्ध हुआ । इन अप्रिय कामों के विरुद्ध आदोलन ने भारत के राजनीतिक जीवन को निश्चित रूप दिया तथा इसे अपनी शक्ति और संभावनाओं से परिचित कराया । शीघ्र ही यह इन घृणाजनक कामों के रह करने का प्रश्नमात्र न रह गया । राष्ट्रीय उच्चाकांधाओं का क्रमिक विकास हुआ तथा उच्चतर आदर्श राजनीतिक भारत की दृष्टि को चकाचौंध करने लगा ।

यह पर्याप्त नहीं समझा गया कि भारतीयों को उच्चतर पदों में पूरा हिस्सा मिलना चाहिए । उन्हें अंत में संपूर्ण शासन को जनता के नियंत्रण में ले आना पड़ेगा और इसलिए प्रतिनिधिचालित संस्थाओं के लिए एक निश्चित माँग करनी पड़ेगी । इस नवीन आदर्श के लिए एक स्थायी अखिल-भारतीय संगठन की आवश्यकता थी । इल्बर्ट बिल पर हुए विवाद ने इसे इतनी हद तक आसान बना दिया ।

बात ये हुई कि वाइसराय की कौंसिल के कानून-तदस्य इल्बर्ट ने १८८३ ई॰ में एक बिल पेश किया । अब तक यूरोपियन ब्रिटिश प्रजाजनो को जिलों में उनकी अपनी नस्ल (जाति) के जज से जाँचे जाने का विशेषाधिकार मिला हुआ था । इस बिल ने इस विशेषाधिकार के हटा देने का प्रस्ताव रखा ।

ऐंग्लो-इंडियन वर्ग ने भारत और इंगलैंड दोनों में इस प्रस्ताव के विरुद्ध आंदोलन मचा दिया । उसने एक प्रतिरक्षा-संघ (डिफेंस ऐसोसिएशन) चालू किया । इसकी शाखाएँ समस्त भारत में कायम हुईं । इस वर्ग ने डेढ़ लाख से भी अधिक रुपये जमा कर लिये । इसके फलस्वरूप शिक्षित भारतीयों ने प्रति-आंदोलन ( इसके विरोध में आंदोलन) चला दिया ।

सरकार ने अंत में इस बिल को वापस ले लिया । इसके बदल में उसने एक अधिक संयत कानून बनाया । इसके अनुसार यूरोपियनों के जाँचने की ताकत सेशंस जजों और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटों को दे दी गयी, जो भारतीय हो सकते थे । इल्बर्ट विल-विरोधी आंदोलन की सफलता ने “शिक्षित भारत के मन पर मानमर्दन की उग्र पीडात्मक भावना छोड़ दी” । किन्तु इसने मेल और संगठन की कीमत भी दिखला दी ।

शिक्षित भारत इस शिक्षा ( नसीहत) को नहीं भूला ? पूर्ववत् सुरेंद्रनाथ ने नेतृत्व किया । एक वर्ष के भीतर एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय कोष कायम किया गया तथा भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (इंडियन नेशनल कंफरेंस की बैठक कलकत्ते में हुई, जिसमें भारत के सभी भागों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए (१८८३ ई॰) ।

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress):

१८८३ ई॰ में ही अलन ऑक्टेवियन हयूम नामक एक अवकाश-प्राप्त सिविलियन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रेजुएटों के पास एक खुला पत्र भेजा । इसमें उनके सामने यह बात रखी गयी कि भारत के लोगों के मानसिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक पुनरुत्थान के लिए किसी संस्था का संगठन किया जाए । उसने ऐसे संगठन के समर्थन में सरकारी सहायता प्राप्त कर ली ।

गवर्नर-जनरल लार्ड डफरिन ने उससे कहा- “कि उसे (लार्ड डफरिन को) जनता की वास्तविक इच्छाओं का निश्चय करने में बहुत ज्यादा कठिनाई होती थी और यह सार्वजनिक लाभ की बात होती यदि कोई जवाबदेह संगठन होता, जिसके सहारे सरकार सर्वोत्तम भारतीय लोकमत के संबंध में सूचित होती रहती ।”

मिस्टर झूम कुछ प्रमुख भारतीयों के समर्थन से अपनी योजना को कार्यान्वित करने में सफल हुआ । प्रथम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बम्बई में १८८५ ई॰ के बड़े दिन के सप्ताह में बैठी । इसका सभापतित्व श्री डब्ल्यू. सी. बनर्जी (Bonnerjea) नामक एक बंगाली बैरिस्टर ने किया ।

करीब-करीब उसी समय भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (इंडियन नेशनल कंफरेंस) का दूसरा अधिवेशन कलकत्ते में हुआ । ऐसा मालूम पड़ता है कि दोनों आंदोलन समकालिक एवं स्वतंत्र थे तथा किसी के भी संगठनकर्ताओं को दूसरे के बारे में उसके अधिवेशनों के पहले कोई जानकारी न थी, अधिवेशनों के ठीक पहले आकर यह जानकारी हुई ।

दोनों संगठन एक ही ढंग पर सोचे गये तथा दोनों ने एक ही कार्यक्रम अपनाया । यह स्पष्टत: अवांछनीय था कि दो ऐसे संघ हो, जो भारत के दो विभिन्न भागों में स्वतंत्र रूप से काम करें । यह राष्ट्रीय एकता की भावना की वृद्धि का जबर्दस्त सबूत है कि बिना किसी कठिनाई के भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन चुपचाप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में मिल गया । मद्रास महाजन सभा एवं बच्चे प्रेसिडेंसी संघ क्रमश: १८८४ ई॰ एवं १८८५ ई॰ में स्थापित हुए । इन दोनों संस्थाओं ने प्रशासन और जनजीवन की विविध समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान केन्द्रित करने की चेष्टा की ।

प्रथम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में केवल ७० प्रतिनिधि थे, क्योंकि उसी समय भारतीय राष्ट्रीय संघ का अधिवेशन होने से सुरेंद्रनाथ सहित कुछ प्रमुख नेता इसमें सम्मिलित न हो सके ।

अब से कांग्रे स अनेक वर्षों तक प्रति वर्ष बड़े दिन के सप्ताह में भारत के किसी महत्वपूर्ण शहर में बैठती रही । उदाहरणार्थ दूसरे और तीसरे अधिवेशन क्रमश: कलकत्ते और मद्रास में हुए । हर जगह स्थानीय जनता में इसने महान् उत्साह पैदा किया ।

भारत के विभिन्न भागों से धीरे-धीरे बढ़ती हुई संख्या में प्रतिनिधि आने लगे । इसने प्रंशसनीय रूप में उस उद्देश्य को पूरा किया, जिसे हयूम ने अपने प्रथम सिद्धांत- सम्बन्धी घोषणापत्र में निन्नलिखित शब्दों में निर्धारित किया था- “प्रत्यक्ष रूप में, राष्ट्रीय पक्ष के निष्कपट कार्यकर्ताओं को इस योग्य बना देना जिसमें वे एक दूसरे से व्यक्तिगत तौर पर परिचित हो जाएँ और अगले वर्ष किये जानेवाले राजनीतिक कामों के सम्बन्ध में वादविवाद कर निर्णय कर लिया जाए; तथा अप्रत्यक्ष रूप में यह सम्मेलन एक देशी पार्लियामेंट का मूल तत्व बनेगा और ठिक से चलाये जाने पर कुछ ही वर्षों में इस बात का अकाटय उत्तर बनेगा कि भारत किसी भी प्रकार की प्रतिनिधि-संस्थाओं के अयोग्य हैं ।”

उन्नीसवीं सदी भर कांग्रेस मुख्यत: सरकारी नीति की आलोचना और सुधारों के लिए मांगों में लगी रही । इसके विचार प्रस्तावों के रूप में निर्धारित होते थे । ये प्रस्ताव सस्कार के पास विचारार्थ भेजे दिये जाते थे । इसने सरकार का ध्यान देश की भयंकर गरीबी की ओर खींचा तथा उचित जाँच और प्रतिकार की मांग की । इसने शस्त्र-कानून और विविध प्रशासनिक कामों-विशेषकर आबकारी एवं नमक कर-की आलोचक की ।

जहां तक सुधारों की बात है इसने निन्नलिखित खास कामों पर विशेष जोर डाला:

(१) केंद्रीय और प्रांतीय दोनों सरकारों में प्रतिनिधि-चालित परिषदों (कौंसिलों) के सहारे स्वायत्त शासक का विकास ।

(२) इंडिया कौंसिल का उठा दिया जाना ।

(३) सामान्य और टेक्निकल दोनों प्रकार की शिक्षा का प्रचार ।

(४) सैनिक खर्च की कमी तथा भारतीयों क’ सैनिक प्रशिक्षण ।

(५) फौजदारी न्याय के शासन में न्यायपालक एवं कार्यपालक कृत्यों का पृथककरण ।

(६) विशेषकर इंगलैंड और भारत दोनों में आई.सी.एस. परिक्षाएं चलाकर सार्वजनिक सेवा (नौकरी) के उच्चतर पदों पर भारतीयों की अधिकाधिक नियुक्ति ।

सरकारी नीति की आलोचना करने में कांग्रेस बराबर अत्यंत प्रतिष्ठा और संयम बरतती थी । यह सिंहासन के प्रति अविचलित राजभक्ति स्वीकार करती थी । ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के उदारवाद एवं न्यायबुद्धि में इसका अपार विश्वास था । इसकी पूरी कोशिश भारतीय दावों के अंतर्वर्ती न्याय के प्रति उनकी चेतनता जगाने की ओर लगी हुई थी ।

सन् १८९६ ई॰ में कांग्रेस के सम्बन्ध में एक औद्योगिक प्रदर्शिनी हुई । इसका उद्देश्य था भारतीय उद्योग को प्रेरणा देना । एक सामाजिक सम्मेलन भी जोड़ दिया गया । इसका लक्ष्य था स्वीकृत सामाजिक बुराइयों के प्रति सार्वजनिक ध्यान खींचना और उनके हटाने के लिए उपाय निकालना ।

बिलकुल प्रारंभ में सरकार कांग्रेस आंदोलन को अनुकूल दृष्टि से देखती थी, कम- से-कम किसी प्रकार की अरुचि न थी । सरकारी अफसर न केवल कांग्रेस की पहली बैठक में सम्मिलित हुए, बल्कि उन्होंने इसके विचार-विमर्श में भाग तक लिया ।

कांग्रेस सदस्य गवर्नर-जनरल (लार्ड डफरिन) द्वारा कलकत्ते (१८८६ ई॰) में और गवर्नर द्वारा मद्रास (१८८७ ई॰) में उद्यानभोज के लिए आमंत्रित किये गये । किन्तु सरकारी जगत् ने शीघ्र अपना विचार बदल दिया । लार्ड डफरिन (१८८४-१८८८ ई॰) ने अपने अवकाश-ग्रहण के ठीक पूर्व कलकत्ते के सेंट एंड्रज डिनर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीति और रीतियों के प्रति अपनी अस्वीकृति अभिव्यक्त की तथा शिक्षित समाज को “अति सूक्ष्म अल्पसंख्यक दल” बतलाया ।

उच्च अफसरों ने उससे अपना इशारा ले लिया । धीरे-धीरे सरकारी अफसर कांग्रेस आंदोलन से अलग रहने लगे । कांग्रेस के प्रति सरकारी रुख इस बात पर आधारित था कि शिक्षित समाज के अत्यल्प अल्पसंख्यक दल का होने के कारण उसे भारत के विचारों का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार या हक न था ।

इस दलील का कांग्रेस द्वारा दिया गया प्रत्युत्तर ही वह आधार बना, जिस पर इसके प्रतिनिधि-स्वरूप होने के दावे का एकमात्र औचित्य अवलंबित था ।

सर रमेश चंद्र मित्र ने १८९६ ई॰ में कलकत्ते में हुई कांग्रेस की स्वागत-समिति के अध्यक्ष की हैसियत से जो अपना भाषण दिया, उसमें उन्होंने इसे यों योग्यतापूर्वक संक्षिप्त रूप में रखा था:

“शिक्षित समाज देश का मस्तिष्क एवं विवेक होता है । वह निरक्षर जनता का कानूनी तौर पर प्रतिनिधि वक्ता होता है, उसके स्वार्थों का स्वभाविक संरक्षक होता है । अन्य प्रकार से कोई विचार रखने का मतलब होता है कि हम मान लेते है कि सरकार की नौकरी में रहनेवाला कोई विदेशी शासक जनता की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में उसके (जनता के) शिक्षित देशवासियों की अपेक्षा अधिक जानता है । यह सभी युगों में सच है कि जो विचार करते है वे कठिन परिश्रम करनेवालों पर अवश्य ही शासन करते हैं । क्या ऐसा हो सकता है कि प्रकृति का यह स्वाभाविक क्रम इस अभागे देश में उलट जाए ?”

यह आश्चर्य की बात नहीं कि कांग्रेस के प्रस्तावों का सरकार से कोई उत्तर नहीं मिला । जैसा कि हयूम ने घोषित किया, “राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार को शिक्षा देने की चेष्टा की थी, किन्तु सरकार ने शिक्षित होने में इनकार कर दिया था” । सरकारी रुख से निराश होकर कांग्रेस ने निर्णय किया कि भारत और इंगलैंड दोनों में लोकमत का संगठन कर सरकार पर दबाव डाला जाए । यह ढंग, जो संविधानिक आंदोलन के नाम से लोक-प्रसिद्ध हुआ, अब से कांग्रेस का मुख्य साधन बन गया ।

भारत में सभाओं के संगठन के अतिरिक्त लंदन में १८८८ ई॰ में क वेतनयुक्त एजेंसी भी स्थापित की गयी । यह एजेंसी इंगलैंड के विभिन्न भागों में भाषणों का प्रबंध करती थी तथा लोक मत को शिक्षित करने के लिए पुस्तिकाएँ बाँटती थी । शीघ्र ही इसका स्थान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति ने ले लिया, जो ‘इंडिया’ नामक एक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करने लगी ।

इंगलैड में किये गये आंदोलन का फल निकला । पार्लियामेंट का सदस्य चार्ल्स ब्रड़लॉं १८८९ ई॰ में बम्बई में कांग्रेस के पाँचवें अधिवेशन में सम्मिलित हुआ । भारतीय नेताओं से परामर्श करके उसने लेजिस्लेटिव कौंसिलों के सुधार और विस्तार के लिए एक बिल का मसविदा (प्रारूप) तैयार किया ।

इसे उसने १८९० ई॰ में हाउस ऑफ कॉमन्स में पेश किया । इसका प्रतिकार करने के लिए सरकार ने अपना एक खास बिल पेश किया, जो १८९२ ई॰ में पास हुआ । इस प्रकार १८९२ ई॰ का इंडिया कौंसिल्स ऐक्ट परोक्ष रूप में कांग्रेस की एक सफलता है ।

जहाँ तक कांग्रेस के अन्य प्रस्तावों का सम्बन्ध है, सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया । प्रति वर्ष कांग्रेस करीब-करीब वही प्रस्ताव पास करती थी, किन्तु सरकार पर विशेष फल रही होता था । इससे निराशा की भावना पैदा हुई । धीरे-धीरे सरकार के विरुद्ध विरोध की भावना जोर पकड़ने लगी ।

कांग्रेस का एक वर्ग तो कांग्रेस कार्यक्रम की प्रभावकारी शक्ति में विश्वास तक सोने लगा । यह वर्ग सरकार के पास प्रतिवर्ष विनीत निवेदन-पत्र भेजने के विचार की खिल्ली उड़ाने लगा, जो (निवेदन-पत्र) उसके द्वारा अत्यंत शिष्टाचारहीन ढंग से अस्वीकृत कर दिये जाते थे । इसका विश्वास था कि सुधार बात से नहीं, काम से प्राप्त होंगे ।

इस वर्ग के नेता बाल गंगाधर तिलक (१८५६-१९२० ई॰) थे । वे उसी वर्ग के एक मराठा ब्राह्मण थे, जिस वर्ग के प्रसिद्ध पेशवा थे । मराठों ने बिलकुल हाल में स्वतंत्रता खोयी थी । अतएव भारत के विभिन्न भागों के लोगों में मराठों के राष्ट्रीय पुनरुत्थान के किसी आंदोलन में भाग लेने में विशेष कारण थे । इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि मराठा देश नवीन भावना के पोषण के लिए अनुरूप भूमि सिद्ध हुआ ।

तिलक ने भारतीयों के ऐतिहासिक अतीत के प्रति अपील कर उनमें प्रबल राष्ट्रीय भावना पैदा करने की चेष्टा की । उन्होंने सामाजिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप के विरोध का नेतृत्व किया । उन्होंने शिवाजी की स्मृति में वार्षिक उत्सवों का संगठन किया ।

अपने पत्र ‘केसरी’ के द्वारा उन्होंने जनता में स्वावलंबन एवं राष्ट्रीय पुनरुद्धार के अपने राजनीतिक आदर्शों का प्रचार किया । साधारणत: यह समझा जाता है कि तिलक के भाषणों और लेखों के फलस्वरूप एक पूर्ण सुधारवादी वर्ग विकसित हुआ, जो शीघ्र कांग्रेस का एक शक्तिशाली पक्ष बन गया ।

भारतीय आबादी के सभी वर्गों और जातियों ने प्रारंभ में कांग्रेस आंदोलन के लिए समान उत्साह नहीं दिखलाया । कुछ उल्लेखनीय मुसलमान नेता इसके वार्षिक विचार-विमर्शों में भाग लेते थे तथा कुछ अवसरों पर इसका मुसलमान अध्यक्ष होता था ।

फिर भी यह बात निर्विवाद है कि मुसलमानों के एक मजबूत वर्ग ने बिलकुल प्रारंभ से ही कांग्रेस के प्रति सहानुभूतिशून्य रुख अपनाया, यद्यपि आम मुसलमान इसके प्रति उदासीन थे, न कि शत्रुतापूर्ण । मिस्टर सयानी ने, जो १८९६ ई॰ की कांग्रेस के अध्यक्ष थे, रचाई के साथ कहा कुछ लोगों के द्वारा यह कल्पना की जाती है कि भारत के सभी, या करीब-करीब सभी, मुसलमान कांग्रेस आंदोलन के विरुद्ध हैं । यह सच नहीं है । वस्तुत: सबसे बड़ा हिस्सा तो यह जानता ही नहीं कि कांग्रेस आंदोलन क्या है ।

इस उदासीनता के गहरे कारण थे । हिन्दू जाति ने राममोहन राय, राम-नारायण बोस, हरीश मुखर्जी, तेलंग, राणडे एवं अन्यों के नेतृत्व में पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति के प्रति जोश और: उत्साह दिखलाया था । मुसलमानों ने इसके लिए उतना जोश और उचाह न दिखलाया । वे अभी भी क्लासिकल अध्ययनों के प्रति तरजीह दिखलाते थे, जिनमें वे अब तक अभ्यस्त रहते आये थे ।

ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया भी भिन्न थी । भारत के अधिकतर भाग पर जो उनका कुछ ही पहले राजनीतिक प्रभुत्व रह चुका था, उस पर विचार कर वे अभी भी सोच में डूबे रहते थे तथा अंग्रेजों के विरुद्ध आंतरिक रोष महसूस करते थे ।

इसलिए उन्होंने स्वभावत: क्रांतिकारी वहाबी आंदोलन और सिपाही विद्रोह का समर्थन किया अथवा उसके प्रति सहानुभूति महसूस की । यह लिख देना मनोरंजक होगा कि प्रारम्भिक अवस्था तक में अंग्रेजों ने “फूट डालो और शासन करो” की नीति के सहारे इस परिस्थिति का लाभ उठाने की चेष्टा की थी ।

लार्ड एलेनबरा ने १८४३ ई॰ में लिखा- मैं इस विश्वास से अपनी रखें नहीं मूंद सकता कि वह नस्ल (मुसलमान) मौलिक रूप में हमारे विरुद्ध है तथा हमारी सच्ची नीति हिन्दुओं को मिलाकर रखना है । यह नीति कुछ समय तक सफलतापूर्वक बरती गयी । अंत: में हिन्दुओं के बीच राष्ट्रीय चेतना की अभिवृद्धि ने धीरे-धीरे अंग्रेजों को विमुख कर डाला तथा उन्हें मुसलमानों के प्रति अनुकूल बना दिया ।

ब्रिटिश शासकों के रुख में यह परिवर्तन उसी समय हो रहा था, जिस समय सर सैयद अहमद खाँ (१८१७-१८९८ ई॰) का मुसलमानों के नेता की हैसियत से उदय हुआ तथा उन्होंने उनकी नीति एवं कामों में एक बिलकुल नया मोड़ दिया ।

उन पर इस बात की गहरी छाप पड़ी कि मुसलमान पश्चिमी विद्या के सम्बन्ध में हिन्दुओं से बहुत पीछे थे तथा फलस्वरूप हिन्दुओं ने राज्य के उच्चतर पदों पर एक तौर से एकाधिकार स्थापित कर लिया था । इसलिए उन्होंने अपने को मुसलमानों के बीच अंग्रेजी शिक्षा की प्रोन्नति में लगाया । १८७५ ई॰ में उन्होंने एक स्कूल कायम किया, जो शीघ्र अलीगढ़ के मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कालेज में विकसित हो गया । उनके प्रयत्न सफल हुए । ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी एक संस्था ने किसी जाति के लिए इतना अधिक नहीं किया है, जितना इस कालेज ने मुसलमानों के बीच उच्चतर शिक्षा एवं आधुनिक संस्कृति की प्रोन्नति के लिए किया है ।

सर सैयद अहमद उत्साही देशभक्त और राष्ट्रीयतावादी थे । उन्होंने इल्‌बर्ट बिल और सिविल सर्विस के निमित्त समकालिक परीक्षाओं के पक्ष में होनेवाले आंदोलन का समर्थन किया । उनका विचार था कि भारत के हिन्दू और मुसलमान मिलकर एक राष्ट्र बनाते हैं ।

उन्होंने कहा- “वे भारत की दो आँखें हैं । एक को हानि पहुंचाइए और दूसरी को हानि पहुंच जाएगी । हम लोगों को हृदय एवं आत्मा से एक बनने की कोशिश करनी चाहिए तथा मिलकर काम करना चाहिए । अगर हम मिले हुए हैं, तो हम एक-दूसरे का भार थाम सकते हैं । यदि हम मिले हुए नहीं हैं, तो एक के दूसरे के विरुद्ध होने का परिणाम यह होगा कि दोनों का नाश एवं अध:पतन होगा ।”

उन्होंने यह विचार भी प्रकट किया कि- “कोई राष्ट्र तब तक आदर और सम्मान नहीं प्राप्त कर सकता, जब तक वह शासन करनेवाली नस्ल के साथ समानता नहीं पा लेता तथा अपने देश की सरकार में हाथ नहीं बँटाता ।”

किन्तु इन उदार विचारों के बावजूद सर सैयद बिलकुल प्रारम्भ स ही निश्चित रूप से कांग्रेस आंदोलन के विरुद्ध थे । उन्होंने मुस्लिम जाति को इससे अलग रहने की सलाह दी (१८८५ ई॰) तथा इसके उद्देश्यों की निंदा की । इन निंदित उद्देश्यों में सिविल सर्विस के निमित्त समकालिक परीक्षाएँ भी थीं ।

एक समय था जब उन्होंने इस उद्देश्य की वकालत की थी । १८८६ ई॰ में उन्होंने प्रतिद्वंद्वी संगठन के रूप में एक ऐजुकेशनल कांग्रेस (शैक्षिक महासभा) कायम की । उनका कहना था कि मुसलमान राजनीतिक मामलों के विवाद से लाभान्वित नहीं होंगे तथा उनकी प्रगति को निरापद करने का एकमात्र साधन शिक्षा ही है ।

उन्होंने कांग्रेस का विरोध करने के लिये दो अन्य संघ भी स्थापित किये । पहला था यूनाइटेड इंडियन पैट्रिऔटिक ऐसोसिएशन (संयुक्त भारतीय स्वदेशानुरागविशिष्ट संघ) । यह १८९३ ई॰ में कायम हुआ । इसके सदस्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे । दूसरा था मुहम्मदन ऐंग्लो-ओरियण्टल डिफेंस ऐसोसिएशन ऑफ अपर इंडिया (ऊपरी भारत का मुहम्मदी अंग्रेज-पूर्वी प्रतिरक्षा संघ) ।

यह १८९३ ई॰ में कायम हुआ । इसकी सदस्यता मुसलमानों और अंग्रेजों तक सीमित रही । इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि सर सैयद अहमद के रुख में परिवर्तन का एक आशिक कारण था “फूट डालो और शासन करो” की ब्रिटिश नीति, जो अब हिंदुओं के विरुद्ध लागू की जा रही थी ।

इस नीति को मिस्टर बेक के रूप में एक महान् व्याख्याता मिल गया । मिस्टर बेक १८८३ ई॰ से १८९९ ई॰ तक अलीगढ़ में मुहम्मदन ऐंग्लो-ओरिएंटल कालेज का प्रिंसिपल था । इस संपूर्ण लंबे अरसे तक वह अदम्य उत्साह एवं उद्योग से काम करता रहा, जिसमें वह राष्ट्रीय आंदोलन से सर सैयद अहमद का साथ छुड़ा दे तथा मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग रहने और अपने को ब्रिटिश सरकार के संरक्षणकारी पक्षों के अधीन रखने को प्रवृत्त करें ।

बेक के प्रयत्न बहुत सफल रहे । किन्तु यह सोचना आवश्यक नहीं है कि बेक के प्रयत्न ही सर सैयद अहमद के कांग्रेस-विरोध होने के लिए बिलकुल उत्तरदायी है । यह बहुत सम्भव है कि उनका यह पक्का विश्वास रहा हो कि अंग्रेजी शिक्षा उस जाति की प्रबल आवश्यकता थी तथा इसकी शक्ति को राजनीति की दिशा में लगाना मूर्खतापूर्ण होगा ।

यह भी सम्भव है कि उन्होंने जनता की सरकार की कांग्रेसी माँग में मुस्लिम पक्ष के लिए अत्यंत हानिकारक बात पायी हो । आखिर, मुसलमान तो भारत की आबादी की केवल एक चौथाई थे ।

और सर सैयद अहमद ने सार्वजनिक रूप से अपने भय व्यक्त कर दिये थे कि शासन की प्रजातांत्रिक प्रणाली के अधीन, जो कांग्रेसी नेताओं का आदर्श बन गयी थी, “बहुसंख्यक जाति छोटी (अल्पसंख्यक) जाति के हितों को पूरे तौर पर कुचल डालेगी ।”

तभी से यह भावना मुस्लिम नेताओं द्वारा अपना ली गयी है और इसने उनके विचारों और कार्यों को प्रभावित किया है । सर सैयद अहमद १८९८ ई॰ में मरे और मिस्टर बेक १८९९ ई॰ में मरा । किन्तु उनकी नीति उनकी मृत्यु के बाद भी जीवित रही तथा बाद के वर्षों में मुस्लिम राजनीति की पृष्ठभूमि बनी ।

यद्यपि उस समय भी, और बाद भी, कुछ प्रमुख मुस्लिम नेता कभी-कभी अधिक उदार विचार रखते थे, राष्ट्रीयतावादी नीति अपनाते थे और यहां तस्थ कि कांग्रेस के उत्साही समर्थक बन जाते थे तथापि वे समूची जाति को अपने साथ न ले जा सके, तथा कुछ उल्लेखनीय दृष्टांतों में वे अंत में पुरानी नीति के साथ जा पड़े ।

बहुसंख्यक जाति के शासन के डर को पहले-पहल सर सैयद ने सार्वजनिक रूप से क्यक्त किया था । बेक और उसके उत्तराधिकारियों के प्रचार द्वारा यह खूब फैला दिया गया था । इसने मुस्लिम राजनीति के विकास की क्रमिक अवस्थाओं में नामजदगी, अधिक प्रतिनिधित्व के साथ अलग निर्वाचक-दल और अंत में पाकिस्तान की मांगों को प्रेरणा दी ।