ब्रिटिश शासन के दौरान महात्मा गांधी का उद्भव | Read this article in Hindi to learn about the rise of Gandhi and the coming of mass nationalism in India during British rule.

मोहनदास करमचंद गांधी, जो जल्दी ही महात्मा गांधी कहे जाने लगे, 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस आए । उससे पहले भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को ज्यूडिथ ब्राउन ने ”सुविचारित सीमाबंदियों की राजनीति” और रवींदर कुमार ने जनता के विपरीत ”वर्गो का प्रतिनिधित्व करनेवाला एक आंदोलन” कहा है ।

मूलत: इन विशेषणों का अर्थ यह है कि उस समय तक राष्ट्रवादी राजनीति में भागीदारी पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त पेशेवर लोगों के एक सीमित समूह की ही थी, जिनकी नई कुशलताओं ने उन्हें इस योग्य बनाया था कि प्रशासनिक पदों, जिला बोर्डो या विधायिकाओं की सीटों के रूप में अंग्रेजी राज ने जो अवसर पैदा किए थे, उनका लाभ वे उठा सकें ।

वे मुख्य रूप से कुछ विशेष जातियों और समुदायों, कुछ विशेष भाषायी और आर्थिक समूहों के लोग थे, जो अधिकतर तीन प्रेसिडेंसी नगरों (कलकत्ता, बंबई और मद्रास) में रहते थे । इन वर्गों को डी. ए. लो ने ”ब्रिटिश शासकों के टहलुए” कहा है, जो भारत में किसी दूरगामी आर्थिक या सामाजिक परिवर्तन में दिलचस्पी भी रखते थे तो बस थोड़ी-सी रखते थे । उनका सरोकार अपने लिए एक नए कुलीन समाज और संस्कृति की रचना से अधिक था और वे ब्रिटिश कुलीनवर्ग या मध्यवर्गो के विचारों और आदर्शों से प्रेरित थे ।

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बंगाल में भद्रलोक, बंबई में चितपावन ब्राह्मणों या मद्रास के तमिल ब्राह्मणों जैसे इन समूहों को छोड़ दें, तो समाज के दूसरे हिस्से कांग्रेस की राजनीति में भाग लेने से हिचकते रहे, जैसे निचली जातियों के हिंदू या मुसलमान, जमींदार, धनी और भूमिहीन दोनों तरह के किसान, और हर तरह के उद्योगपति ।

ये लोग बिहार, उड़ीसा, मध्य  प्रांत और बरार में तथा संयुक्त  प्रांत और गुजरात में भी रहते थे जिनको, जहाँ तक कांग्रेस की राजनीति का सवाल है, ”पिछड़े प्रांत” कहा जा सकता था । इसलिए उपनिवेशी सरकार इस बात पर चैन की साँसें लेती रही कि ”एक अतिलघु अल्पमत” कांग्रेस को एक पिटी हुई दुकान की तरह चला रहा है । कांग्रेस की इस आरंभिक राजनीति वेन लक्ष्य भी सीमित थे और उसकी उपलब्धियाँ अपेक्षाकृत मामूली थीं ।

1907 के सूरत विभाजन के बाद नरमपंथी उपनिवेशी स्वशासन की माँग करते रहे, जबकि गरमपंथी पूर्ण स्वाधीनता की माँग कर रहे थे । देखने में उनके संगठन व्यक्तित्व पर केंद्रित थे; एक ओर सुरेंद्रनाथ बनर्जी, पी. एम. मेहता या गोपालकृष्ण गोखले जैसी प्रमुख हस्तियाँ थीं, तो दूसरी ओर विपिन पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाजपत राय थे ।

लोकचेतना में इन दोनों नेता-समूहों के बीच सिद्धांत या आस्था संबंधी कोई अंतर नहीं था और वे बस बेकार की बहसों में उलझते रहते थे । अपने-अपने घोषित उद्देश्यों को पाने में असफल रहने के कारण दोनों ही समूह अपनी साख खो चुके थे । नरमपंथियों की संवैधानिक राजनीति ब्रिटिश सरकार को प्रभावित करने में असफल रही और यह बात 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों से एकदम स्पष्ट थी ।

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गरमपंथ मुख्यत: बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब तक सीमित रहा, जहाँ क्रांतिकारी गतिविधियों के आरंभ ने सरकार को दमन का बहाना दिया । उम्रकैद और लंबी सजा ने उनके नेतृत्व की कतार को तोड़ दिया तथा आंदोलन को भूमिगत होने व जनता से और भी कट जाने पर विवश कर दिया ।

तिलक जैसे गरमपंथी नेता जब जेल में थे, तो नरमपंथी वर्चस्व वाली कांग्रेस पूरी तरह निष्क्रिय हो गई । दूसरे शब्दों में, 1915-17 तक राजनीति की ये दोनों धाराएँ एक अंधी गली में फँस चुकी थीं और जब इन राजनीतिज्ञों का सामना गांधी से हुआ, तो उन लोगों के पास जोड़तोड़ की बहुत कम संभावना बची थी ।

इसके विपरीत भारतीय राजनीति के एक नए खिलाड़ी के रूप में उभरे गांधी के ऊपर इन समूहों की असफलता का कोई कलंक नहीं था । राजनीतिक यथास्थिति से उनके निहित स्वार्थ जुड़े हुए नहीं थे और इस कारण वे पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त कुलीनों से जनता की ओर शक्ति के किसी भी हस्तांतरण का स्वागत करने के लिए अधिक तैयार थे ।

भारतीय समाज की बहुलवादी प्रकृति पर उनकी एक स्पष्ट समझ थी, पर वे एकजुट भारत के आदर्श के प्रति समर्पित थे । नरमपंथियों और गरमपंथियों के अंतहीन झगड़ों से कुंठित युवा भारतवासियों के सामने उन्होंने एक बिल्कुल नया और ताजा विकल्प प्रस्तुत किया ।

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नैतिक शून्य और भौतिक हताशा के काल में उन्होंने ऐसे राजनीतिक कार्यक्रम की बात कही जो आध्यात्मिक दृष्टि से उदात्त भी था । गांधी के दर्शन और राजनीतिक कार्यक्रम का जनता में आकर्षण क्यों व्यापक रहा, इसे समझने के लिए पहले विश्वयुद्ध के दौरान भारत के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण को समझना होगा, क्योंकि भारतीय राष्ट्रवाद के एक निर्विवाद नेता के रूप में गांधी के उदय के लिए इस वातावरण ने निश्चित ही एक अनुकूल संदर्भ पैदा किया ।

युद्ध का सबसे तात्कालिक परिणाम रक्षा-व्यय में अभूतपूर्व वृद्धि था, जो 1919 के बाद भी, कटौती तो दूर लगातार बढ़ता रहा । इसके परिणामस्वरूप एक विशाल राष्ट्रीय ऋण जिसमें 1914   और 1923 के बीच 30 लाख रुपए से अधिक की बढ़ोतरी हुई ।

इसका अर्थ था भारी युद्धजनित कर्ज़ और करों में वृद्धि और चूंकि मालगुज़ारी तय की जा  चुकी थी और  तुरंत नहीं बढ़ाई जा सकती थी, इसलिए व्यापार और उद्योग पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा । सीमा शुल्क बढ़ा, एक आयकर लगा, कंपनियों पर और अविभाजित हिंदू परिवारों पर भारी कर लगे, अतिरिक्त लाभकर लगा,  आदि ।

इन नए करों का बोझ आखिरकार आम जनता पर ही पड़ा, क्योंकि इनके कारण भारी मूल्यवृद्धि हुई । सरकारी गणनाओं के अनुसार (1873 को आधार वर्ष मानने पर) अखिल भारतीय स्तर पर मूल्य सूचकांक 1914 में 147 से बढ्‌कर 1920 में 281 हो गया ।

यह अभूतपूर्व मूल्यवृद्धि अंशत: अप्रत्यक्ष करों का और अंशत: यातायात संबंधी या अन्य आर्थिक अव्यवस्थाओं का परिणाम थी । 1918-19  और 1920-21 मैं दो-दो बार फसलों की अभूतपूर्व हानि के कारण खाद्यान्न का उत्पादन कम रहा और इससे संयुक्त प्रांत, पंजाब, बंबई, मध्य प्रांत, बिहार और उड़ीसा के काफ़ी बड़े हिस्से प्रभावित हुए ।

लेकिन जहाँ घरेलू उपयोग के लिए पहले से ही अनाजों की भारी कमी थी, वहीं बाहर लड़ रही सेना के लिए अनाजों का निर्यात जारी रहा । इससे अनेक क्षेत्रों में लगभग अकाल जैसी दशाएँ पैदा हो गई और इंफ्लुएंजा की महामारी ने जनता की बदहाली को और बढ़ा दिया ।

1921 की जनगणना के अनुसार 1918-19 के अकाल और महामारी के कारण लगभग 1 करोड़ 20 लाख से 1 करोड़ 30 लाख लोग मरे, जिससे देश की स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि रुक गई । सेना के लिए जबरन भरती 1914 और 1923 के बीच बेरोकटोक जारी रही, जिससे गाँवों में जन-असंतोष लगातार बढ़ता रहा ।

यह इसलिए और भी बढ़ता रहा कि युद्ध के आर्थिक प्रभावों की मार ग्रामीण समाज के सभी वर्ग पहले सें झेल रहे थे । जहाँ औद्योगिक व आयातित वस्तुओं के और अनाजों के दाम बढ़ रहे थे और गरीब किसानों को प्रभावित कर रहे थे, वहीं भारतीय कृषि से निर्यातित कच्चे मालों के दाम उसी गति से नहीं बड़े ।

परिणाम हुआ कि नकदी फसलों के निर्यात गिरे, उनके भंडार में वृद्धि हुई और उनके क्षेत्रफल में गिरावट आई, जिससे 1917-19 के दौरान बाजार में एक संकट पैदा हो गया । इससे धनी किसानों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । इस काल में भूमिहीन होनेवाले और बेदखली खेतिहर बनते जानेवाले किसानों की संख्या में स्पष्ट वृद्धि हुई, और जमीनें गैर-खेतिहर वर्गों के हाथों में पहुंचती रहीं ।

1914  और 1922 के बीच सँयुक्त प्रांत और मद्रास में यह प्रक्रिया तीव्र रही और अधिक स्पष्ट रूप से देखी जाती रही । कुछ क्षेत्रों में किसानों की बढ़ती आर्थिक परेशानी संगठित किसान प्रतिरोधों में व्यक्त हुई, जैसे संयुक्त प्रांत में 1918 में आरंभ हुए किसान सभा आंदोलन  में ।

उद्योगों का प्रसार पहले विश्वयुद्ध के दौर का दूसरा महत्त्वपूर्ण आर्थिक विकासक्रम था । वित्तीय आवश्यकताओं, आर्थिक मज़बूरियों और राष्ट्रवादी दबाव के कारण उद्योगीकरण के प्रति सरकार की नीति बदली और जूट व कपड़ा उद्योगों का उल्लेखनीय विकास हुआ ।

जहाँ जूट उद्योग का विकास मुख्यत: ब्रिटिश पूँजी से हुआ वहीं बंबई और अहमदाबाद के कपड़ा उद्योगों में मुख्यत: भारतीय पूँजी लगी हुई थी । यहाँ के बड़े उद्योगपति अंग्रेजों के वफादार बने रहे, क्योंकि वे निर्यातों पर और कच्चे कपास की कीमतें कम रखवाने या श्रमिक असंतोष से निबटने के मामले  में सरकार की सहायता पर निर्भर थे ।

इसके विपरीत युद्धकालीन करों के विरुद्ध तथा रुपए और स्टर्लिग की घटती-बढ़ती विनिमय दरों को लेकर छोटे और मझोले व्यापारियों की अनेक शिकायतें थीं । जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 1911 और 1921 के बीच संगठित उद्योगों में मजदूरों की संख्या में 5.75 लाख की वृद्धि हुई तथा इस काल की अभूतपूर्व मूल्यवृद्धि ने इस प्रसारमान मज़दूर वर्ग पर सचमुच गहरी चोट की ।

युद्ध के दौरान और  बाद में व्यापारियों ने भारी मुनाफे कमाए, मगर मज़दूरों की वास्तविक मजदूरियाँ गिरी । लाहौर या बंबई जैसे नगरों में मजदूरों के जीवनयापन की औसत लागत में 60  या 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि, मजदूरी केवल 15  से 25 प्रतिशत तक बढ़ी; ऐसी ही हालत कलकत्ता के जूट मिलों में, जमशेदपुर के इस्पात संयंत्र में और असम के चाय बागानो में थी ।

इसका स्पष्ट परिणाम चेम्सफोर्ड के शब्दों   में  ”हड़तालों का एक तरह का तपता बुखार था”,  जिसने भारत के सभी औद्योगिक केंद्रों को प्रभावित किया । इस तरह भारतीय जनता के लगभग सभी वर्गो के लिए पहले विश्वयुद्ध ने सामाजिक और आर्थिक अफ़रातफ़री पैदा की और जनाक्रोश के एक आसन्न उभार के लिए आवश्यक सामाजिक लामबंदी की दशा उत्पन्न की ।

युद्ध ने पश्चिम की तड़क-भड़क से प्रभावित शिक्षित नवयुवकों का मोहभंग भी किया और एकाएक उनको पश्चिमी सभ्यता का घिनौना चेहरा नजर आने लगा । इस तरह नैतिक और राजनीतिक हताशा के एक वातावरण ने तब गांधी का स्वागत किया जब वे दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों से सफल टकराव की एक पृष्ठभूमि के साथ भारत आए ।

जैसा कि ज्यूडिथ ब्राउन का तर्क है गांधी की नई राजनीतिक विचारधारा ने ”कुछ को पूरी तरह लेकिन बहुतों को अंशत:” आकर्षित किया, क्योंकि हरेक को इसमें ऐसी कोई बात नजर आई जिससे वह स्वयं को जोड़ सके । पहले के राजनीतिज्ञों के विपरीत वे भारत की बहुलता के बारे में पूरी तरह सजग थे और उन्होंने ध्यान रखा कि कोई भी समुदाय या वर्ग विमुख न हो ।

पहले के राजनीतिज्ञ पश्चिम से लिए गए विचारों पर निर्मित एक राष्ट्रवादी विचारधारा का वर्चस्व चाहते थे, जबकि गांधी का तर्क था कि इस विचारधारा की जड़ें भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति में होनी       चाहिए । उनकी राय में जनता की वकादारियाँ वर्ग से निर्धारित नहीं होती थीं, बल्कि जनमानस पर धर्म का प्रभाव कहीं अधिक था ।

इसलिए उन्होंने जनता की लामबंदी के लिए धार्मिक मुहावरों का सफलतापूर्वक उपयोग किया । लेकिन यह पिछले राजनीतिज्ञों वाला पुनरुत्थानवाद नहीं था, क्योंकि वे (गांधी) इतिहास की नहीं, धार्मिक नैतिकता की बात कर रहे थे । उनका लक्ष्य एक नैतिक लक्ष्य और इसलिए एक हवाई लक्ष्य था-अप्राप्य और हमेशा दूर-दूर रहनेवाला ।

उन्होंने स्वराज को अपना राजनीतिक लक्ष्य बतलाया पर कभी उसका भाव स्पष्ट नहीं किया और इसलिए अपने छतरी समान नेतृत्व में उन्होंने विभिन्न समुदायों को एकजुट किया । ”सर्व-समावेश”  को ”गांधी की अनोखी राजनीतिक शैली” समझा जाने लगा, जो भारत में विविधताओं की स्वीकृति पर आधारित थी ।

गांधीजी ने अपने राजनीतिक विचार विभिन्न स्त्रोतों से लिए । उन्होंने हेनरी डेविड थोरो, जॉन रस्किन, राल्फ़ वॉल्डो इमर्सन और लियो तालस्ताय को पढ़कर उनसे प्रेरणा ली । वैष्णव धर्म और जैन धर्म से वे उनसे अधिक नहीं तो उतने ही प्रभावित थे, क्योंकि गुजरात में जीवन के आरंभिक दिनों में ही वे इन विचारों से परिचित हो चुके थे ।

गांधी का दर्शन पहले के राष्ट्रवादी नेताओं के दर्शन से सार्थक सीमा तक इस अर्थ में भिन्न था कि उन्होंने ”आधुनिक” सभ्यता की जमकर आलोचना की-और बाद के टीकाकारों ने इस आलोचना पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं ।

आशीष नंदी की राय में वे ”पश्चिम के एक प्रति-आधुनिक (counter modernist) आलोचक” थे, जैसे कि उनसे पहले रवींद्रनाथ ठाकुर थे और वे समझते थे कि अपनी असामान्य शक्ति और प्रसार के कारण पश्चिम रोगग्रस्त हो चुका है; गांधी ने यह तर्क देकर ”शासक संस्कृति की आंतरिक वैधता के लिए खतरा पैदा कर दिया ।” पार्थ चटर्जी की राय में उनका दर्शन ”नागरिक समाज की एक समालोचना” था या और भी सीधे-सीधे कहें तो ”पूँजीवादी समाज के पूरे ढाँचे की एक बुनियादी समालोचना” था ।

मैनफ्रेड स्टेगर (2000) ने इसे ”उदारवाद की समालोचना” कहा है, जबकि भिखु पारिख की राय में वह ”आधुनिक सभ्यता की समालोचना” था, जिसने साम्राज्यवाद से टकराव के लिए एक विचारधारा प्रदान करके ”उसकी कुछ महान उपलब्धियों और शक्तियों को अनदेखा भी किया ।”

गांधी की संकलित रचनाएँ आज सौ से अधिक खंडों में प्रकाशित हैं और विभिन्न प्रश्नों पर उनके विचार लगातार विकासमान रहे । इसलिए उनके दर्शन पर कोई प्रामाणिक वक्तव्य दे सकना कठिन है । यहाँ हमारे पास जो थोड़ा सा स्थान उपलब्ध है, उसमें हम उनके राजनीतिक चिंतन के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों को ही सामने लाने के प्रयास करेंगे ।

हिंद स्वराज (1909) में, जिसे अकसर गांधी की विचारधारा का प्रामाणिक वक्तव्य माना जाता है, गांधी ने भारतीय राष्ट्र की एक सभ्यतामुखी धारणा पेश की है । कहते हैं कि इस्लाम-पूर्व काल से ही भारतीय एक कौम या प्रजा थे ।

प्राचीन भारतीय सभ्यता जो, ”असंदिग्ध रूप से सर्वश्रेष्ठ” थी, भारतीय राष्ट्रीयता की स्रोत थी, क्योंकि इसमें विभिन्न पंथों वाले विदेशियों को आत्मसात करने की असीमित क्षमता है और अब उन विदेशियों ने इस देश को अपना देश बनाया । इस सभ्यता को, जिसकी ”बुनियाद ठोस” है और जिसने हमेशा ”नैतिक प्राणी को उदात्त बनाया”  इस ”ईश्वरहीन” आधुनिक सभ्यता से ”कुछ भी नहीं सीखना” है, जो केवल ”अनैतिकता का प्रचार” करती है ।

औद्योगिक पूँजीवाद को, जो इस आधुनिक सभ्यता का सारतत्त्व है, हितों के सारे टकरावों के लिए जिम्मेदार बतलाया गया, क्योंकि उसने नैतिक सरोकारों से आर्थिक कार्यकलापों का नाता तोड़ दिया और इस तरह साम्राज्यिक आक्रामकता को प्रोत्साहन दिया ।

अपनी गुलामी के लिए भारतवासी स्वयं ही जिम्मेदार है, क्योंकि उन्होंने पूँजीवाद को और उससे जुड़े कानूनी और राजनीतिक ढाँचों को अपनाया है । ”भारत को अंग्रेजों ने नहीं छीना है; इसे हमने उनको दिया है ।” और गांधी का विश्वास था कि रेल वकील और डॉक्टर देश को दरिद्र बना रहे हैं । इस राष्ट्रीय विपदा के बारे में उनका समाधान नैतिक और हवाई था । भारतवासियों को चाहिए कि लोभ और उपभोग का मोह त्यागकर प्राचीन काल की, ग्राम-केंद्रित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की ओर वापस लौटें ।

दूसरी ओर, संसदीय लोकतंत्र, जो पश्चिम की उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी सिद्धांत और इस कारण आधुनिक सभ्यता का एक और बुनियादी पहलू है, गांधी की राय में जनता की नहीं, राजनीतिक दलों की आम इच्छा को व्यक्त करता है जो विशेष हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और पार्टी-अनुशासन के नाम पर सांसदों की नैतिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते है ।

इसलिए उनकी राय में स्वतंत्रता पा लेना और फिर ”अंग्रेजों से रहित अंग्रेजी राज” को स्थायी बनाना काफ़ी नहीं है; पश्चिम के उदारवादी राजनीतिक ढाँचों के एक भारतीय विकल्प का विकास करना भी आवश्यक      है । उनका विकल्प जनता की प्रभुसत्ता का विचार था जिसमें हर व्यक्ति अपने स्व को नियंत्रण या संयम में रखे और यही स्वशासन और मात्र होमरूल के बीच गांधी का सूक्ष्म अंतर था ।

गांधी का कथन था: ”हर व्यक्ति को ऐसे स्वराज का स्वयं अनुभव होना चाहिए ।” अगर इस लक्ष्य को पाना कठिन था, तो भी गांधी ने इसे मात्र एक ”स्वप्न” मानने से इनकार कर दिया । गांधी ने अपने आलोचक को यह जवाब दिया: ”यह समझना कि इतिहास में जो कुछ नहीं हुआ वह होगा ही नहीं मानव की गरिमा में अविश्वास की बात करना है ।”

इसकी प्राप्ति के लिए उनकी तकनीक थी सत्याग्रह, जिसे उन्होंने सत्य या आत्मा की शक्ति के रूप में परिभाषित किया । इसका और व्यावहारिक अर्थ सविनय अवज्ञा था, बल्कि उससे भी श्रेष्ठतर कोई चीज़ । यह प्रतिरोधियों के श्रेष्ठतर नैतिक बल की मान्यता पर आधारित था, जो नैतिक बल का प्रदर्शन करके उत्पीड़कों के दिल को भी बदल दे ।

उनके संदेश का मूल सिद्धांत था अहिंसा, जो सभी परिस्थितियों में समझौतों से परे थी । संभवत: यह कहना एकदम सही न हो कि गांधी ने पूरी आधुनिकता को अस्वीकार किया । हिंद स्वराज की भूमिका में एंथनी पटेल लिखते हैं कि यह पाठ एक पाठक और एक संपादक के बीच एक संवाद की तर्ज पर पेश किया गया था, जिसमें संपादक ”एक बहुत आधुनिक व्यक्ति” है और यह भूमिका गांधी ने अपने लिए रखी है ।

अपने पूरे जीवन में उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का जमकर उपयोग किया दक्षिण अफ्रीका में बिताए दिनों में उन्होंने इंडियन ओपिनियन का संपादन किया, और फिर यंग इंडिया और हरिजन उनके विचारों के प्रमुख वाहक रहे । अपने अभियानों के दौरान उन्होंने रेल यात्राएँ भी कीं ।

फिर भी, पश्चिमी सभ्यता के आधुनिक चरण की वैचारिक समालोचना प्रस्तुत करते हुए गांधी ने ब्रिटिश राज की नैतिक वैधता को कारगर चुनौती दी, जो पश्चिम की श्रेष्ठता की कथित मान्यता पर आधारित था । जहाँ तक उनके तरीकों का सवाल था, पार्थ चटर्जी का तर्क है कि यथार्थ राजनीति के मामले में इन तरीकों ने गांधी को जोड़-तोड़ की असीमित क्षमता प्रदान की । नैतिकता और राज के बीच मौजूद दरार को निहित ढंग से स्वीकार किया गया-अहिंसा इस खाई को पाट सकती थी ।

असफलताओं की व्याख्या या तो आदर्श की उदात्तता के या मानव की निमित्ति की अपूर्णताओं के आधार पर की जा सकती थी । लेकिन जोड़-तोड़ की इस यथार्थ संभावना के बावजूद राष्ट्रीय आंदोलन की वास्तविकताओं से अहिंसा के सिद्धांतों का तालमेल बिठाने की यह समस्या ऐसी एक स्थायी ”दुविधा” सिद्ध हुई जिससे गांधी को भारतीय राष्ट्रवाद के नेता के रूप में जीवन भर जूझना पड़ा, और समय के साथ आंदोलन में तेजी आई, तो यह दुविधा और तीखी होती गई ।

फिर भी यह कहना भ्रामक होगा कि गांधी भारतवासियों का परिचय एक बिल्कुल नई तरह की राजनीति से करा रहे थे । 1890 के दशक में महाराष्ट्र में तिलक द्वारा संगठित जन-आंदोलन, पंजाब के गरमपंथियों के कार्यकलाप और सबसे बढ्‌कर 1905-08 के दौरान बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने भारत में आंदोलनों की राजनीति के आगमन का पहले ही संकेत दे दिया था ।

जहाँ तक जनता की लामबंदी का प्रश्न है, तो तिलक और ऐनी बेसेंट के होमरूल लीगों ने गांधी से पहले सत्याग्रह आंदोलन की सफलता का रास्ता तैयार कर दिया था । वास्तव में तिलक जब 1914 में जेल से रिहा हुए और मद्रास में केंद्रित थियोसोफिकल सोसायटी की विश्व अध्यक्ष एनी बेसेंट कांग्रेस में शामिल हो गईं, तो उन लोगों ने भारतीय राजनीति को लगभग ऐसी ही दिशा में ले जाने की कोशिश की ।

लेकिन तिलक भले ही बेसेंट के हस्तक्षेप: के बाद 1915 में दोबारा कांग्रेस में शामिल कर लिए गए, पर फिर भी ये लोग पार्टी को लगभग एक दशक की जड़ता से मुक्त कराने में असफल रहे । कुंठित होकर तिलक ने अप्रैल 1916 में अपना भारतीय होमरूल लीग शुरू कर दिया और बेसेंट ने सितंबर में अपना होमरूल लीग शुरू कर दिया-दोनों आपसी सहयोग से और अलग-अलग भी काम करते थे ।

होमरूल आंदोलन का साधारण-सा लक्ष्य था-भारत के लिए होमरूल प्राप्त करना और ऐसा शिक्षा कार्यक्रम चलाना, जो भारतीयों में मातृभूमि के प्रति गर्व की भावना का विकास करे । 1917-18 में सरकार ने जब होमरूल लीगों पर जबरदस्त हमला किया, तब तक फिर पूरे भारत में उनकी सदस्यता लगभग 60,000 हो गई थी-सबसे बढ़कर गुजरात, सिंध, संयुक्त प्रांत, बिहार जैसे क्षेत्रों और दक्षिण भारत के कुछ भागों में, जो पहले राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग नहीं लेते थे ।

फिर भी भले ही उनका प्रभाव उनकी अपनी सदस्यता से बाहर एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ा, फिर भी ये लीगें भारत में जन आंदोलनों की राजनीति का आरंभ नहीं कर सकीं । मद्रास, महाराष्ट्र और कर्नाटक में, अछूतों के थोड़े-बहुत समर्थन के बावजूद, इन लीगों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व था और गैर-ब्राह्मणों ने इनका विरोध किया ।

लेकिन सबसे अहम बात यह है कि एनी बेसेंट, जिनको 1917 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, नरमपंथियों के प्रति समझौते का रवैया अपनाने लगीं, खासकर मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के प्रस्तावों की घोषणा के बाद, और सविनय अवज्ञा के कार्यक्रम को उन्होंने स्थगित कर दिया ।

इससे उन युवा गरमपंथी नेताओं को कुंठा हुई, जो उनके प्रमुख समर्थक थे और होमरूल लीगें जल्द ही ठप होकर रह गईं । फिर भी, गांधी के आरंभिक सत्याग्रहों के अनेक स्थानीय नेता होमरूल लीगों की पृष्ठभूमि वाले थे और उन्होंने इन लोगों के बनाए हुए सांगठनिक तंत्र का उपयोग किया ।

एनी बेसेंट अगर असफल रहीं तो गांधी एक साझे राजनीतिक मंच पर नरमपंथियों और गरमपंथियों को साथ लाने में सफल रहे । भारतीय राजनीति के विभाजित और विवादों से भरे संसार में उन्होंने प्रभावी ढंग से अपने केंद्रीयतावादी होने का दावा किया, क्योंकि उन्होंने दोनों में किसी को भी विमुख नहीं किया और चुपके-चुपके नरमपंथियों के लक्ष्य को गरमपंथियों के तरीकों से समन्वित किया ।

उन्होंने नरमपंथियों के स्वराज के लक्ष्य को अपनाया, लेकिन उसकी परिभाषा को (नेहरू के शब्दों में कहें तो) “सुखद सीमा तक अस्पष्ट” रखा, क्योंकि उन्हें  पता था कि कोई भी परिभाषा इस या उस समूह को विमुख कर देगी । इसलिए हर समूह उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से कर सकता था ।

उनका सत्याग्रह का तरीका बहुत कुछ गरमपंथियों के सविनय अवज्ञा (passive resistance) जैसा लगता था, लेकिन अहिंसा पर उनके आग्रह ने नरमपंथियों और दूसरे संपत्तिशाली वर्गो के भय को दूर किया, जो आंदोलनों की राजनीति से शंकित थे ।

उन दिनों मुस्लिम समुदाय में भी अलीगढ़ के बुजुर्गों और मुसलमान नेताओं की नई पीढ़ी के बीच एक दरार पड़ चुकी थी । खिलाफ़त के लक्ष्य का समर्थन करके गांधी ने स्वयं को युवा नेताओं से जोड़ लिया । उन्होंने उसके ब्रिटिश राज-विरोधी पक्षों को उजागर किया, परंतु उसकी अखिल-इस्लामी प्रवृत्तियों को कम करके पेश किया, और इस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध एक साझी लड़ाई में हिंदुओं और मुसलमानों को पहली बार एकजुट किया ।

इससे भी अहम बात यह थी कि, इन कुलीन नेताओं की कतारों से परे, गांधी ने सीधे भारतीय किसान वर्ग से गुहार की और पहले ही युद्धकालीन अव्यवस्थाओं से त्रस्त जनता के समर्थन के विशाल भंडार को अपने हाथों में ले लिया । इस बारे में वे होमरूल लीगवालों की सीमाओं से बंधे हुए नहीं थे ।

ज्यूडिथ ब्राउन का तर्क है कि गांधी का उदय ”राजनीतिक जीवन के एक अतिवादी पुनर्गठन” का या ”जनता”  के लिए आधुनिक राजनीति के द्वारों के खुलने का सूचक नहीं था । बल्कि यह प्रेसिडेंसी नगरों के पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त नेताओं की जगह पिछड़े क्षेत्रों के पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा-प्राप्त कुलीनों के उदय का सूचक था । भारत के देहातों और छोटे शहरों-कस्बों में गांधी के लिए जन समर्थन इन्हीं स्थानीय कुलीन नेताओं या कथित ”शिकमी ठेकेदारों” (sub-contractors) की वफादारियों के तंत्रों ने जुटाया ।

ऐसी कोई भी व्याख्या गांधी के प्रति जनता के आकर्षण को बहुत मामूली बनाकर प्रस्तुत करती है । उनकी सादी वेशभूषा, ग्रामीण हिंदी के प्रयोग, रामराज्य के लोकप्रिय रूपक के उल्लेख ने उनको आम जनता की समझ में आनेवाली चीज बना दिया । धार्मिक प्रतीकों और मुहावरों का कुशल प्रयोग उनके करिश्माई आकर्षण का आधार था ।

लोकप्रचलित दंतकथाओं में वे ऐसी पराप्राकृतिक शक्ति से लैस थे जो कष्टों को दूर करके आम जनता को उसके दैनिक कष्टों से मुक्ति दिला सकते थे । गांधी की व्याख्या जनता ने अपने ही ढंग से की अपने स्वयं के भोगे हुए अनुभवों से अर्थ निकाले और उनको निर्बल के बल का प्रतीक बना दिया ।

गांधी के जनव्यापी आकर्षण के इस सहस्राब्दिक (millenarian) पक्ष को अनदेखा करना कठिन है; जमीनी सतह के इस उभार पर ब्राउन के ”शिकमी ठेकेदारों” का नियंत्रण बहुत कम था । गांधीवादी राजनीति का प्रमुख विरोधाभास यहाँ भी दिखाई देता है, क्योंकि वे केवल जनता को उभारना नहीं चाहते थे, बल्कि एक ”नियंत्रित जन-आंदोलन” चाहते थे, जो उनके निर्धारित किए हुए मार्ग पर कठोरता से चले ।

जनता ने गांधीवादी राजनीति की सीमाओं का बार-बार उल्लंघन किया और उनके आदर्शो से अलग हटी, पर साथ ही यह विश्वास भी करती रही कि वह अपने मसीहा के पीछे-पीछे चलकर गांधी राज के एक नए स्वर्गलोक में पहुँचेगी ।

गांधी के अपने अनुयायियों ने इसमसीहा की जो कल्पना की उसपर ”शिकमी ठेकेदारों” की बात तो जाने दें, स्वयं गांधी का नियंत्रण बहुत कम था । उन्होंने उनके तौर-तरीकों को नियंत्रित करने की कोशिश की और जब कभी असफल रहे, उसकी निंदा उसे ”भीड़-राज” (mobocracy) कहकर की ।” इस अर्थ में वे भारत में राजनीतिक जीवन के अतिवादी पुनर्गठन के प्रतीक तो थे ही ।

यह बात आरंभ के तीन आंदोलनों-चंपारन, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय सत्याग्रह आंदोलनों में एकदम स्पष्ट हो गई । चंपारन (बिहार) में यूरोपीय निलहे किसानों को तिनकठिया व्यवस्था के अंतर्गत नील पैदा करने के लिए विवश करते थे (इस व्यवस्था में किसान अपनी जमीन के 3/20 भाग पर नील उगाने के लिए मजबूर थे) ।

इसके विरुद्ध किसानों का असंतोष, स्थानीय मझोले और धनी किसान नेताओं के नेतृत्व में, 1860 के दशक से ही बढ़ता चला आ रहा था । उनमें से एक थे राजकुमार शुक्ल जो 1916 की लखनऊ कांग्रेस में भी पहुँचे और गांधी जी को बिहार आकर आंदोलन का नेतृत्व करने पर तैयार किया ।

यहाँ किसानों को लामबंद करने में राजेंद्र प्रसाद या जे.बी. कृपलानी जैसे कांग्रेस के स्थानीय शिक्षित युवा नेताओं की मामूली भूमिका ही रही । इस किसान जनता ने महात्मा के आह्वान का तुरंत उत्तर दिया जिन्हें वे ईश्वर का भेजा हुआ मुक्तिदाता समझते थे ।

उनके नाम पर लेकिन उनकी जानकारी के बिना धनी किसान नेताओं ने मामूली किसानों को हिंसक कार्यो के लिए गोलबंद किया, जिसका गांधी ने अनुमोदन नहीं किया । अफ़वाहों के बीच उनके हस्तक्षेप ने गरीब किसानों के मन से भय को बाहर निकाल फेंका, जो अब अंग्रेजी राज और यूरोप के निलहों की सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत कर पाते थे ।

पर गांधी इस आंदोलन को उसके सीमित लक्ष्य से आगे नहीं ले गए और नवंबर 1918 में चंपारन कृषि कानून (चंपारन एग्रीकल्चरल ऐक्ट) के पारित होने के साथ यह लक्ष्य पूरा हो गया । फिर भी इस कानून ने न तो निलहों के दमन को पूरी तरह रोका, न यह किसान प्रतिरोध को ठंडा कर सका ।

स्थानीय किसान नेता गांधी का नाम लेकर समर्थन जुटाते रहे और उन्होंने इस क्षेत्र को भावी गांधीवादी आंदोलनों का एक ठोस आधार बना दिया । चंपारन इस तरह राष्ट्रवाद की एक दंतकथा बन गया हालांकि प्रतिरोध करनेवाले किसानों के साथ स्थानीय कांग्रेस नेताओं की कोई विशेष सहानुभूति नहीं थी खासकर तब जब वे देसी जमींदारों के विरुद्ध खड़े थे । 1919 में स्वामी विश्वानंद ने जब स्थानीय किसानों को दरभंगा राज की भारी माँगों और उसके अमलों की यातना के विरुद्ध संगठित किया तो उनको बिहार कांग्रेस से कोई समर्थन नहीं मिला ।

इसी तरह 1917 में गुजरात के खेड़ा जिले में खासकर धनी पाटीदार किसानों के लिए अनेक कारणों ने असामान्य कठिनाइयाँ पैदा कर दीं, जैसे वर्षा में देरी होने से फ़सलों का नष्ट होना, खेतिहर मजदूरियों में एकाएक बढ़ोतरी, मुद्रास्फीति की भारी दर, और ब्यूबोनिक प्लेग का हमला ।

ज़िले के उत्तरी भाग में स्थित छोटे-से कठलाल कस्बे में मोहनलाल पाण्ड्य और शंकरलाल पारिख नाम के दो स्थानीय नेताओं ने एक लगानबंदी आंदोलन आरंभ कर दिया । उनकी माँग मालगुजारी में छूट की     थी । गुजरात सभा के माध्यम से उन्होंने जनवरी 1918 में गांधी से संपर्क किया, लेकिन गांधी ने उनके  समर्थन में सत्याग्रह शुरू करने का निर्णय 22 मार्च को ही किया ।

तब भी यह एक ”मामूली अभियान” ही था, क्योंकि इससे कुछ ही गाँव प्रभावित हुए; किसान अकसर सरकार के दबाव के आगे झुक जाते थे और अहिंसा की गांधीवादी राजनीति की सीमाओं को तोड़ देते थे । अप्रैल तक बंबई की सरकार ने किसानों की माँगों को अंशत: मान लिया; उसने मालगुजारी न दे सकनेवाले किसानों की जमीनें जब्त नहीं कीं । जून में गांधी ने आंदोलन को वापस ले लिया ।

यहाँ भी गुजरात सभा के या उसके वल्लभभाई और विट्ठलभाई पटेल जैसे शिक्षित नेताओं के हस्तक्षेप का प्रत्यक्ष परिणाम बहुत कम ही रहा, क्योंकि एक आंदोलन अब आरंभ हो चुका था और स्थानीय नेताओं ने उसे बाद में जारी रखा । खेड़ा जिले के गाँवों में गांधी ने एक ठोस राजनीतिक आधार बना लिया । पर गाँववालों का समर्थन अपनी शर्तो पर लिया ।

पहले विश्वयुद्ध के दौरान जब गांधी ने सेना के लिए भरती की अपील की तब किसानों ने उसे अपमान के साथ ठुकरा दिया । खेड़ा सत्याग्रह के बीच गांधी फरवरी-मार्च 1918 के दौरान अहमदाबाद के कपड़ा मिलों की हड़ताल में भी संलग्न रहे । यहाँ उनके विरोधी गुजरात के मिल-मालिक थे, जो अन्यथा उनके बड़े करीबी थे ।

औद्योगिक टकराव का तत्कालीन कारण प्लेग-बोनस की समाप्ति थी, जो प्लेग से हो रही अधिकाधिक मौतों के भय से मजदूरों को शहर छोड़ने से रोकने के लिए दिया जाता था । इसे ऐसे समय में समाप्त किया गया, जब पहले विश्वयुद्ध के कारण, दामों में असामान्य वृद्धि के कारण मजदूर मुश्किल समय से गुजर रहे थे; पलक झपकते हड़तालें हो जाती थीं और बुनकरों की एक सभा बन चुकी थी ।

इस तरह अहमदाबाद के मजदूर जब बेचैन हो रहे थे तब सामाजिक कार्यकर्ता अनुसूया साराभाई और उनके भाई व अहमदाबाद मिल-मालिक सभा (अहमदाबाद मिलओनर्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष अंबालाल साराभाई ने गांधी को मध्यस्थता करके संकट को दूर करने के लिए आमंत्रित किया ।

लेकिन गांधी का हस्तक्षेप और एक मध्यस्थता बोर्ड का गठन बेकार साबित हुए क्योंकि बातचीत से किसी भी समझौते की शर्त के रूप में मिल-मालिकों ने हड़तालों पर पूरी पाबंदी की माँग की । 22 फरवरी को अपनी माँग पर अड़े मिल-मालिकों ने ताले लगाकर जब बुनकरों को बाहर कर दिया, तो गांधी ने मजदूरों का पक्ष लेने का निर्णय किया ।

लेकिन उन्होंने मजदूरों को राजी किया कि वे अपनी मजदूरी में बढ़ोतरी की माँग को मूल 50 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दें । उन्होंने और उनके साबरमती आश्रम के स्वयंसेवकों ने मजदूरों को लामबंद किया और नियमित सभाएँ कीं, जिनमें आरंभ में हजारों मजदूर शामिल होते थे ।

लेकिन गतिरोध जारी रहा और मिल-मालिक टस से मस नहीं हुए, तो मजदूरों का मनोबल गिरने लगा । गांधी ने अब अपने अंतिम हथियार का, भूख-हड़ताल का सहारा लिया; अक्खड़ मिल-मालिक झुक गए और मामले को एक मध्यस्थता बोर्ड में भेजने पर तैयार हो गए ।

मजदूरों को आखिरकार 27.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी मिली पर यह आंदोलन अहमदाबाद के मजदूरों को लामबंद करने में काफी सफल रहा और इसने फरवरी 1920 में कपड़ा मजदूर सभा (टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन) के गठन का रास्ता तैयार किया । लेकिन औद्योगिक विवादों को हल करने की एक नई, गांधीवादी तकनीक के रूप में ”मध्यस्थता” के विचार से वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रमाण न तो अहमदाबाद के मजदूरों ने दिया, न पूँजीपतियों ने ।

इन स्थानीय लक्ष्यों को उठाकर गांधी ने राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की । फिर भी, अगर हम इन आंदोलनों पर गहराई से ध्यान दें, तो पता चलेगा कि हर मामले में गांधी को नेतृत्व के लिए तब आमंत्रित किया गया, जब स्थानीय पहल से जनता की अच्छी-खासी लामबंदी पहले ही हो चुकी थी ।

जनता ने गांधी के संदेश की अपने ढंग से व्याख्या की और इस मसीहा जैसे नेता की शक्तियों से जुड़ी अफवाहों ने शक्तिशाली दुश्मनों का सामना करने में लगनेवाले भय को दूर कर दिया । जनता ने भी हर जगह अपने एजेंडा को आगे बढ़ाया, जिसे उन क्षेत्रों के कुलीन राष्ट्रवादी नेता बहुत नापसंद करते थे ।

लेकिन इस प्रक्रिया में ये सभी क्षेत्र गांधी के राजनीतिक समर्थन के आधार बन गए, क्योंकि वहाँ की जनता ने राजनीतिक कार्रवाई के बारे में उनकी बाद की पुकारों का मुखर प्रत्युत्तर दिया । पर यहाँ भी कार्रवाई के ढर्रे ऐसे रहे जो नेता के पसंदीदा ढर्रे से बहुत भिन्न थे ।

1919 के रौलट सत्याग्रह में गांधी ने ऐसा अभियान चलाने का प्रयास किया, जो पूरे राष्ट्र को अपने साथ ले ले । परंतु यहाँ भी हमें वही संवृत्ति दिखाई देती है; गांधी के लिए प्रचंड जन-समर्थन लेकिन ऐसे कारणों और विचारों से प्रेरित जो (खुद) नेता के कारणों और विचारों से भिन्न थे । यह आंदोलन न्यायमूर्ति एस. ए. टी. रौलट की अध्यक्षतावाली एक समिति द्वारा तैयार किए गए दो विधेयकों के विरुद्ध था, जो राजनीतिक हिंसा से निबटने के लिए सरकार को बलप्रयोग के अतिरिक्त अधिकार देते ।

इनमें से एक विधेयक इंपीरियल लेजिस्लेटिव असेंबली में, एक राय से भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद, 18 मार्च 1919 को पारित हो चुका था । जब इस विधेयक की विषय:वस्तु (content) प्रकाशित हुई थी, तभी से गांधी ने सत्याग्रह के द्वारा इसके प्रतिरोध का प्रस्ताव किया था ।

वे इस विधेयक की भावना के विरुद्ध थे, और उसे उन्होंने आम आदमी के प्रति अविश्वास का नाम दिया था । यह मनमानी शक्तियों को छोड़ने के बारे में सरकार की हिचक का सूचक था और इस तरह उसने लोकतांत्रिक संवैधानिक सुधारों को मजाक बनाकर रख दिया ।

लेकिन गांधी का आरंभिक कार्यक्रम बहुत मामूली था: कुछ घनिष्ठ सहयोगियों के साथ उन्होंने इस कानून या ऐसे ही दूसरे अन्यायपूर्ण कानूनों के उल्लंघन के विषय में 24 फरवरी को एक सत्याग्रह शपथपत्र पर हस्ताक्षर किए ।

26 फरवरी को उन्होंने सभी भारतवासियों के नाम एक ‘खुला पत्र’ जारी करके उनसे सत्याग्रह में शामिल होने का आग्रह किया । उन्होंने 6 अप्रैल को एक आम हड़ताल के साथ एक राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू करने का निर्णय किया । लेकिन आंदोलन शीघ्र ही, खासकर 9 अप्रैल को गांधी की गिरफ्तारी के बाद हिंसा के भँवर  में  फँस गया ।

सरकार के पास ऐसे व्यापक जन-आंदोलन से निबटने के बारे में पहले का कोई अनुभव नही था । परेशानी से बचने के लिए उन्होंने गांधी को गिरफ्तार कर लिया पर इससे एक संकट फूट पड़ा तथा दिल्ली, अहमदाबाद और अमृतसर जैसे क्षेत्रों में जनता का अभूतपूर्व गुस्सा उमड़ पड़ा ।

गांधी के भरोसेमंद स्वयंसेवक इस व्यापक हिंसा को नियंत्रित नहीं कर सके और स्वयं उसमें शामिल हो गए । सरकार की प्रतिक्रिया में भिन्नताएँ रहीं क्योंकि संचार के पूरी तरह ठप हो जाने की स्थिति में प्रांतों की सरकारें अपनी पूर्व-निर्धारित धारणाओं के अनुसार व्यवहार करने लगीं ।

बंबई में प्रतिक्रिया संयमित रही, जबकि पंजाब में सर माइकेल ओ’ डायर ने एक आतंक-राज कायम कर दिया । हिंसा की घिनौनी घटना 13 अप्रैल के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग हत्याकांड थी, जिसमें जनरल डायर ने सत्याग्रहियों का मनोबल तोड़ने की धुन में उनकी एक शांतिपूर्ण सभा पर गोलीबारी करके 379 लोगों की जानें ले लीं ।

मध्य अप्रैल तक सत्याग्रह का जोश ठंडा पड़ने लगा था और गांधी उसे वापस लेने के लिए विवश हो गए । इसलिए एक राजनीतिक अभियान के रूप में यह स्पष्ट रूप से असफल रहा, क्योंकि वह अपने अकेले लक्ष्य को, रौलट ऐक्ट को निरस्त कराने के लक्ष्य को भी नहीं पा सका ।

उसमें हिंसा भी शामिल हो गई, हालांकि उसको अहिंसक होना चाहिए था । गांधी ने माना कि अहिंसा के अनुशासन के लिए अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनता को सत्याग्रह का हथियार थमाकर उन्होंने भारी गलती की है ।

लेकिन यह आंदोलन फिर भी महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह पहला राष्ट्रव्यापी जन-आंदौलन था और कुछ सीमित वर्गो की राजनीति से जनता की राजनीति में भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति के रूपांतरण के आरंभ का सूचक था ।

लेकिन यह सब मानने के बाद हमें इस गांधीवादी जन-आंदोलन की सीमाओं को भी स्वीकार करना होगा । शब्दश: कहें तो पूरा भारत प्रभावित नहीं हुआ और यह आंदोलन ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक शहरों में प्रभावशाली रहा । वहाँ भी आंदोलन को बल महँगाई या आवश्यक वस्तुओं की दुर्लभता जैसे स्थानीय कष्टों से अधिक मिला अपेक्षाकृत रौलट ऐक्ट विरोधी प्रतिरोध के, जिसके विषय में जनता की समझ कम थी ।

आखिरी बात आंदोलन की प्रभाविता रौलट ऐक्ट जैसे राष्ट्रीय प्रश्न से स्थानीय कष्टों को जोड़ने के क्रम में स्थानीय नेताओं की क्षमता पर निर्भर थी । दूसरे शब्दों में किसी केंद्रीय संगठन और व्यापक जन-चेतना का अभाव क्षेत्रीय विशिष्टताओं का महत्त्व और स्थानीय मुद्दों और नेतृत्व की प्रमुखता उस आंदोलन में एकदम स्पष्ट थे जिसे राष्ट्रवादी इतिहास लेखन में अकसर राष्ट्रीय स्तर का पहला जन-आंदोलन कहा जाता है ।

कांग्रेस पर अभी भी गांधी का नियंत्रण नहीं था; इसलिए आंदोलन के आयोजन के लिए उन्होंने बंबई में एक सत्याग्रह सभा की स्थापना की और उनको होमरूल लीगों की मदद मिली । इसके अलावा फरवरी-मार्च में भारत के अनेक भागों में अपने व्यापक दौरों के दौरान उन्होंने स्थानीय नेताओं से निजी संपर्क बनाए और उनके माध्यम से अपने संदेश को फैलाने के प्रयास किए ।

लेकिन इन नेताओं की क्षमताओं और लोकप्रियता में और स्थानीय समाज पर उनके नियंत्रण में भिन्नताएँ थीं, जिस तरह गांधीवादी विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता में भिन्नताएँ थीं । जनता की लामबंदी के पहले चरण में मध्यस्थता जहाँ एक प्रमुख तत्त्व थी वहीं ये नेतागण भावनाओं के एक बार भड़कने के बाद अकसर उनको नियंत्रित करने में असफल रहे थे ।

जैसा कि जल्द ही स्पष्ट हो गया भारत जैसे विशाल देश में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के आयोजन के लिए ऐसा आमने-सामने का नेतृत्व अपर्याप्त था । रौलट ऐक्ट विरोधी आंदोलन की असफलता ने गांधी को कांग्रेस जैसे एक अवैयक्तिक राजनीतिक संगठन की आवश्यकता का अनुभव दिया । उनका अगला कदम कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का था ।

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