ब्रिटिश शासन के दौरान कांग्रेस से मुस्लिमों का पृथक्करण | Read this article in Hindi to learn about the separation of Muslims from Congress during British rule in India. 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्वावधान में धीरे-धीरे उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो से ही मुख्यधारा का भारतीय राष्ट्रवाद जिस तरह विकसित हो रहा था उसे भारतीय समाज के अंदर से ही बराबर चुनौतियाँ मिलती रहीं ।

इसके परिणामस्वरूप हम पाते हैं राष्ट्र-संबंधी वैकल्पिक धारणाओं की एक शृंखला, जिनका प्रतिनिधित्व ऐसे अनेक अल्पमत या हाशिए के (marginal) समूह करते थे जो लगातार कांग्रेस को चुनौती देते या उससे सौदेबाजी करते रहे ।

भारत के मुसलमानों ने राष्ट्रवाद की इस कांग्रेसी धारणा को सबसे पहले चुनौती दी और लगभग आरंभ से ही उनमें से ही अनेक तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मानने से मना करते रहे । 1892 और 1909 के बीच कांग्रेस में मुसलमान प्रतिनिधि केवल 6.59 प्रतिशत रहे ।

सर सैयद अहमद खाँ जैसे मुसलमान नेता इसे स्पष्ट रूप से बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रतिनिधि मानते थे । वे राष्ट्रवाद के विरोधी नहीं थे, पर राष्ट्र की एक अलग धारणा के समर्थक थे । उनका मानना था कि राष्ट्र विभिन्न प्रकार के राजनीतिक अधिकारों के पात्र समुदायों का एक संघ है ये अधिकार उनकी वंशावलियों और राजनीतिक महत्त्व पर निर्भर होते हैं और भूतपूर्व शासक वर्ग का होने के नाते मुसलमानों का नए विश्वमुखी (cosmopolitan) ब्रिटिश साम्राज्य में विशिष्ट स्थान है ।

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सर सैयद की यह धारणा कांग्रेस की धारणा के एकदम विपरीत थी । प्रतिनिधि शासन के आरंभ की संभावना ने बहुसंख्यक वर्चस्व के प्रभुत्व का एक राजनीतिक खतरा उत्पन्न किया जिसके अनुसार राष्ट्र नागरिकों न कि समुदायों से बनता है । इससे 1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का जन्म हुआ ।

यह एक अलग निर्वाचकमंडल के निर्माण के द्वारा एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में, अपने राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग के साथ-साथ एक अलग राजनीतिक पहचान की तलाश का, न कि एक अलग वतन (homeland) की तलाश का, आरंभ भी था ।

उपनिवेशी राजसत्ता ने 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार के रूप में जब अलग निर्वाचकमंडल का यह विशेषाधिकार उन्हें दिया, तो उन्हें एक ”अखिल भारतीय राजनीतिक प्रवर्ग” का दर्जा मिला, लेकिन इसने उनको भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक ”स्थायी अल्पसंख्यक समूह” भी बना दिया । इसके बाद तो प्रतिनिधि शासन की ये ढाँचागत मजबूरियाँ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संबंधों को प्रभावित करने लगीं ।

कांग्रेस के साथ लीग के समझौते का संक्षिप्त काल 1916 के लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर के बाद शुरू हुआ, जिसने अलग निर्वाचकमंडल की मुस्लिम माँग को मान्यता दी । लेकिन ऐसी सभी व्यवस्थाएँ जल्द ही अप्रासंगिक हो गईं, जब गांधी के आगमन और राष्ट्रवादी राजनीति के अभी तक बंद दायरे में जनता के प्रवेश ने भारतीय राजनीति के पूरे ढाँचे को बदल डाला ।

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खिलाफत आंदोलन को जो मुसलमानों की अखिल भारतीय एकता स्थापित करने के लिए एक अखिल इस्लामी प्रतीक का उपयोग करता था, गांधी द्वारा दिए गए समर्थन ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अभूतपूर्व सामंजस्य पैदा करने में दूर तक सहायता की ।

लेकिन अंदरूनी फूट के कारण और आखिरकार तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में एक गणतांत्रिक क्रांति के द्वारा खिलाफ़त के उन्मूलन के कारण यह आंदोलन 1924 तक समाप्त हो गया । लेकिन यह अहम बात है कि पंजाब और बंगाल में मुस्लिम पहचान को और पुष्ट करने में स्वयं खिलाफ़त आंदोलन का भी योगदान रहा ।

मैदान में उतारे गए अति-उत्साही उल्मा द्वारा बार-बार धार्मिक प्रतीकों के उपयोग ने भारतीय मुसलमानों के इस्लामी स्वत्व को उजागर किया । वास्तव में मलाबार में 1921 में खिलाफ़त आंदोलन के ही कारण एक गंभीर सांप्रदायिक दंगा फूटा । इसलिए, जैसा कि क्रिस्तोफ जेफ्रीलॉ (1996) का कथन है, खिलाफ़त के झंडे तले मुसलमानों की इस लामबंदी ने हिंदुओं में हीनता और असुरक्षा की एक भावना को जन्म दिया, जिन्होंने अब अपने हमलावर प्रतिद्वंद्वी का अनुकरण करते हुए जवाबी लामबंदी शुरू की ।

आर्यसमाज ने पंजाब और संयुक्त प्रांत में एक जुझारू शुद्धि अभियान आरंभ किया और हिंदू महासभा ने 1924 में हिंदू संगठन का अभियान शुरू किया; एक प्रत्यक्ष आक्रामक हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना इसी साल हुई ।

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सामुदायिक आधारों पर ऐसी लामबंदी का अनिवार्य परिणाम 1920 के दशक के दौरान अनेक दंगों का फूटना था जिन्होंने भारत के लगभग सभी भागों को प्रभावित किया । दुखी होकर गांधी ने 1927 में कहा कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों की समस्या का समाधान अब मनुष्य के बस से बाहर और केवल भगवान के हाथों में था ।

खिलाफत आंदोलन के पतन के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों के तेजी से हुए इस बिखराव की व्याख्या हम कैसे करें ? ज्ञानेंद्र पांडे (1985) का तर्क है कि 1920 के दशक के दौरान कांग्रेस की राष्ट्रवाद की धारणा में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया ।

अब धर्म को निजी जीवन की चीज बताकर धार्मिक राष्ट्रवाद की वैधता समाप्त करने की एक सुस्पष्ट प्रवृत्ति सामने आई । जवाहरलाल नेहरू जैसे कांग्रेसी नेताओं ने अपने सार्वजनिक भाषणों में भारतीय राष्ट्र की एक धर्मनिरपेक्ष धारणा पर जोर दिया, जिसे सामुदायिक हितों से ऊपर माना गया ।

राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद के बीच एक द्वैत विरोध माना जाने लगा और इसलिए जो भी समुदाय की बात करता था, उसे राष्ट्रवाद विरोधी या संप्रदायवादी कहा जाने लगा । इस बात से एक संश्लिष्ट राष्ट्रीयता के अंदर सामुदायिक पहचानों को खपाने की संभावना समाप्त हो गई और इसलिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच तालमेल की सारी संभावनाएँ नष्ट हो गई ।

जैसा कि आयशा जलाल का तर्क है, इस मोड़ पर मुसलमानों को ”ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता थी, जो सांस्कृतिक भेदों को खपाने में समर्थ हो ।” वे आशा कर रहे थे एक ”संभवत प्रभुसत्ता” की; वे एकजुट भारत के विरुद्ध नहीं थे, बल्कि कांग्रेस के अविभाज्य प्रभुसत्ता के दावे के विरोधी थे ।

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता संबंधी घोषणाएँ एक ऐसे समय में की गईं, जब हिंदू और मुसलमान दोनों ही सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में धार्मिक पहचान को व्यक्त कर रहे थे । जहाँ तक हिंदुओं का प्रश्न है, हिंदू पुनरुत्थानवादी प्रतीकों का उपयोग करने वाले परंतु कांग्रेस के दायरे में ही रहनेवाले पिछले राष्ट्रवादी नेताओं के विपरीत हिंदू महासभा के वर्तमान नेताओं ने कांग्रेस के अंदर एक अलग दबाव समूह की तरह काम करने का निर्णय किया; वे लोग धर्मनिरपेक्ष तत्त्वों को हाशिये पर डालने की और मुसलमानों के साथ आपसी समझ की हर संभावना को नष्ट करने की कोशिशें करते रहे ।

जैसा कि जेफ्रीलॉ (1996) ने दिखाया है, कांग्रेस के अंदर राष्ट्रवाद की दो विरोधी धारणाओं के बीच लगातार एक संघर्ष चल रहा था: इनमें से एक तो समन्वित संस्कृति पर आधारित अर्थात् राष्ट्र को समुदाय से ऊपर मानती थी, जबकि दूसरी हिंदुओं के नस्ली वर्चस्व के और विशेषकर मुसलमानों की अधीनता के विचार पर आधारित थी ।

इससे भी अहम बात यह है कि पहली धारणा के समर्थक अकसर दूसरी के आगे समर्पण या उससे समझौते करते रहे और इस तरह मुसलमानों को कांग्रेसी राजनीति के असल इरादे पर संदेह करने के पर्याप्त कारण देते रहे ।

यह विरोध उस संस्थागत राजनीति के क्षेत्र में और भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था, जिसमें असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद गांधी के अनुमोदन से, मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास के नेतृत्व में, कांग्रेस के स्वराजवादी धड़े ने फिर से प्रवेश करने का निर्णय लिया ।

संयुक्त प्रांत में नगरपालिकाओं के स्तर पर स्वराजवादियों और खिलाफ़त समर्थकों के गठजोड ने 1923 में, सांप्रदायिक सौहार्द के नारे पर अधिकांश सीटें जीत लीं । लेकिन उनके समर्थन के आधार को मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने लगातार कमजोर किया; महासभा की कार्रवाईयों ने हिंदू-मुस्लिम तनाव को और बढ़ाया, जिसके फलस्वरूप 1924 में इलाहाबाद और लखनऊ में दंगे हुए ।

1925 के अगले नगरपालिका चुनाव में स्वराजवादी सारी सीटों पर हिंदू महासभा से हार गए । मुस्लिम-बहुल पंजाब  प्रांत में 1923 के उस नगरपालिका संशोधन अधिनियम (म्यूनिसिपल एमेंडमेंट ऐक्ट) के कारण, जिसने मुसलमानों के लिए अतिरिक्त सीटों की व्यवस्था करके नगरपालिका बोर्डो में हिंदुओं को अल्पमत में डाल दिया, सांप्रदायिक तनाव और बढ़ा ।

मालवीय और हिंदू महासभा के आशीर्वाद से स्थानीय हिंदुओं ने मुसलमानों के विरुद्ध मोर्चाबंदी की और सांप्रदायिक घृणा इतनी बढ़ गई कि गांधी सौहार्द्र पुनर्स्थापित करने के लिए जब दिसंबर 1924 में लाहौर आए, तो स्थानीय हिंदुओं ने उन्हें कोई महत्त्व नहीं दिया ।

मुसलमानों की ओर मुहम्मद अली जैसे वे नेता हाशिये पर चले गए, जो सांप्रदायिक सौहार्द्र के समर्थक थे और कभी भारत की कल्पना धर्मों के महासंघ के रूप में कर चुके थे; और डॉ॰ किचलू जैसे नेता, जो कभी हिंदू-मुस्लिम एकता के जबरदस्त समर्थक हुआ करते थे, अब पूरी तरह किसी साप्रदायिक तालमेल के विरुद्ध थे ।

केंद्रीय असेंबली (सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली) में बंबई के मुसलमानो द्वारा निर्वाचित मुहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के सबसे प्रमुख प्रवक्ता बनकर उभरे । संवैधानिक विधियों के लिए जिन्ना की व्यक्तिगत वरीयता और आंदोलनों की राजनीति से उनकी घृणा ने उनको गांधीवादी कांग्रेस से दूर कर दिया था ।

लेकिन अब असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद, जबकि कांग्रेस स्वराजवादियों के कारण एक बार फिर संविधानवाद की ओर मुड़ी, वे उससे सहयोग करने के लिए तैयार थे । उनकी ‘इंडिपेंडेंट पार्टी’ ने स्वराजवादियों से गठजोड़ किया और विधायिका में इस गठबंधन को नेशनलिस्ट पार्टी कहा जाने लगा ।

पर साथ ही उन्होंने 1923 में मुस्लिम लीग के लाहौर सत्र में उसे (लीग को) फिर से खड़ा करने पर ध्यान केंद्रित किया, भारत के लिए एक नई संवैधानिक व्यवस्था के लिए काम करने का निर्णय किया, और इस उद्देश्य से कांग्रेस के साथ लखनऊ समझौते पर दोबारा वार्ता करनी चाही ।

स्वराजवादी तैयार थे मगर मालवीय, बी. एस. मुंजे और लाजपत राय जैसे महासभा के नेता तैयार नहीं थे और उन्होंने तालमेल की सभी कोशिशों को सफलता के साथ समाप्त कर दिया । दिसंबर 1923 में कांग्रेस के काकीनाडा सत्र में बंगाल समझौता भी, जिसे स्थानीय मुसलमानों के साथ चितरंजन दास ने किया था, इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि एक राष्ट्रीय प्रश्न को प्रांतीय आधार पर हल नहीं किया जा

सकता ।

इस बीच, संस्थागत राजनीति के दायरे से बाहर, देश के विभिन्न भागों में मस्जिदों के सामने बाजे बजाने के अधिकार के दावे के आधार पर हिंदुओं की लामबंदी तेज होती रही ।  वास्तव में, जैसा कि कहा गया, उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो से ही अर्थात् उपनिवेशी राजसत्ता ने जब से एक नए सार्वजनिक क्षेत्र को निरूपित करना शुरू किया, तभी से धार्मिक क्षेत्र संबंधी विवाद उदाहरण के लिए एक धार्मिक जुलूस के रास्ते संबंधी विवाद, तेजी से सांप्रदायिक टकरावों का आधार और भारत में सांप्रदायिक पहचानों के निरूपण का ढंग बनता आ रहा था ।

और अब, जबकि परस्परविरोधी सांप्रदायिक अधिकारों संबंधी सार्वजनिक विवाद तीखा हो चुका था, जैसे 1890 के दशक के दौरान गोवध/गोरक्षा के मुद्दे पर तो ”धार्मिक क्षेत्र का निरूपण ध्वनियों के दायरे को लेकर तय होने लगा” और पूरे भारत में सांप्रदायिक लामबंदी का एक प्रमुख प्रतीक बन गया ।

सार्वजनिक रूप से बाजे बजाने की इस परंपरा को गांधी ने हिंदू धर्म का एक अनावश्यक पक्ष कहा था । लेकिन प्रतीकों की लड़ाई में उन लोगों के लिए ऐसी कम महत्त्वपूर्ण बातें समझौते से परे की माँगे बन गई जो धार्मिक आधारों पर समुदायों को लामबंद करना चाहते थे ।

इस मुद्दे का प्रयोग संयुक्त  प्रांत, पंजाब और  बंगाल में हिंदू एकता को पुष्ट करने के लिए तथा मध्य प्रति और बंबई में ब्राह्मणवाद विरोध की उठती लहर से ध्यान हटाने के लिए किया गया । ”मस्जिद के सामने बाजे बजाने” के इस मुद्दे ने न केवल 1923 और 1927 के बीच अनेक हिंसक दंगे भड़काए, बल्कि 1926 के चुनाव  में  भी इसे मतदाताओं को धार्मिक आधार पर विभाजित करनेवाला एक भावात्मक प्रश्न बना दिया ।

कांग्रेस के अंदर मोतीलाल नेहरू जैसे स्वराजवादी अधिकाधिक हाशिये पर कर दिए गए और वे चुनाव में महासभा समर्थक उम्मीदवारों को खड़ा करने के दबाव के आगे झुक गए । 1926 में बंगाल या पंजाब के कांग्रेसी उम्मीदवारों में एक भी मुसलमान नहीं था; दूसरी जगहों पर सभी कांग्रेसी मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गए ।

निर्वाचित कांग्रेसी सदस्यों में बहुसंख्यक वे थे जो हिंदूवादी सहानुभूति के लिए जाने जाते थे । गुवाहाटी कांग्रेस में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचकमंडल की निंदा करनेवाला प्रस्ताव समय रहते गांधी और नेहरू के हस्तक्षेप के ही कारण पारित नहीं हुआ ।

लेकिन जनवरी 1928 में दिल्ली के सर्वदलीय सम्मेलन में लखनऊ समझौते पर पुन बातचीत की प्रक्रिया को अंतत: महासभा ने असफल कर ही डाला । अलीगढ़ के मुसलमान अब हिंदुओं के छा जाने के बारे में भयभीत हो उठे ।

1929 में शौकत अली ने बड़ी निराशा के साथ कहा कि ”कांग्रेस हिंदू महासभा की एक दुमछल्ला बन चुकी” है । इस तरह कांग्रेस की राजनीति से मुसलमानों का अलगाव सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलनों में उनकी बड़े पैमाने पर गैर-भागीदारी के रूप में व्यक्त हुआ ।

मुसलमानों का यह अलगाव, जिसे भारतीय इतिहास लेखन में अकसर ”संप्रदायवाद” कह कर कलंकित किया गया है, इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय रहा है । इसकी व्याख्या का एक ढंग तो यह है कि इसे एक स्वार्थी निम्न पूँजीपति वर्ग और दिग्भ्रमित किसानों और मजदूरों की ”मिथ्या चेतना” कहकर खारिज कर दिया जाए, जो गलती से अपने हितों को सांप्रदायिक आईने में देखते थे और उनकी सुरक्षा संवैधानिक विशेषाधिकारों के द्वारा करना चाहते थे ।

1929 के बाद के सालों में उनकी कुंठा बढ़ गई, जब मंदी ने अवसर सीमित कर दिए और इससे तनाव, टकराव और हिंसा में और भी वृद्धि हुई । दूसरी ओर, एक बड़ी सीमा तक यह बात भी सही है कि प्रातिनिधिक शासन की विवशताओं ने-उपनिवेशी राजसत्ता द्वारा अलग निर्वाचकमंडल और अल्पसंख्यक की स्थिति की स्वीकृति ने-एक अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीतिक पहचान को रूपरेखा देने में योगदान किया ।

इसलिए उसकी व्याख्या प्रदत्त (ascriptive) मानदंडों के आधार पर प्रतिनिधित्व की इस्लामी धारणा की दृष्टि से की जाती है, अर्थात् मुसलमान केवल मुसलमानों से ही अपना प्रतिनिधित्व कराना चाहते थे, न कि ऐसे लोगों से जो उनके समुदाय के सदस्य नहीं थे ।

जहाँ तक इस राजनीतिक दृष्टि को समझने का प्रश्न है, संप्रदायवाद को मिथ्या चेतना कहकर खारिज करके हम कहीं भी नहीं पहुँचते; लेकिन वहीं एक वर्चस्ववादी इस्लामी विचारधारा के बारे में बाद वाले तर्क के साथ भी समस्याएँ हैं ।

यह व्याख्या मूलत: इस कल्पित मान्यता पर आधारित है कि मुस्लिम समुदाय के अंदर एक अच्छी-खासी वैचारिक सहमति है, लेकिन इस व्याख्या पर अनेक इतिहासकारों ने सवाल उठाए हैं । मुसलमान अभी भी, यहाँ तक कि 1930 के दशक के अंत तक भी, कोई राजनीतिक समुदाय नहीं थे ।

मुस्लिम राजनीति में आरंभ से ही उसमें स्तर संबंधी (positional) भेद और वैचारिक विवाद रहे । 1930 के दशक के दौरान मुस्लिम राजनीति प्रांतीय राजनीतिक “गतिशास्त्र में जकड़ी रही, क्योंकि बंगाल और पंजाब में उनके हित, जहाँ वे बहुसंख्यक थे, दूसरे प्रांतों के अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों से भिन्न थे ।

बंगाल में ए. के. फज़्लुल हक के नेतृत्व वाली कृषक प्रजा पार्टी ने वर्गीय माँगों के आधार पर मुसलमान किसानों और निचली जातियों के हिंदू किसानों दोनों को लामबंद किया और 1936 में मुस्लिम लीग के पुनरूत्थान के बाद मुसलमान वोटों के लिए उससे टक्कर लेती रही ।

पंजाब में फ़ज़ले-हुसैन, सिकंदर हयात खाँ और जाट किसान नेता छोटू राम के नेतृत्व वाली यूनियनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम सिख और हिंदू धनी जमींदारों और किसान उत्पादकों के एक समन्वित समूह को जो 1900 के  पंजाब भूमि हस्तांतरण अधिनियम (land alienation act) से लाभान्वित हुए थे, संबोधित किया और ग्रामीण राजनीति पर पूरा-पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया ।

दूसरी ओर, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग 1937 तक आयशा जलाल के शब्दों में ”अल्पसंख्यक मुसलमानों वाले प्रांतों में कुछ मुखर मुसलमानों के वाद-विवाद के मंच से अधिक कुछ भी नहीं थी और बहुसंख्यक मुसलमानों वाले प्रांतों पर उसने कोई प्रभाव नहीं डाला ।”

1937 के चुनाव में दोनों क्षेत्रीय पार्टियों को अच्छी सफलता मिली, जबकि पूरे भारत में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन निराशाजनक रहा । लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की प्रचंड विजय और उससे पैदा हुए दंभ ने इन सभी विविधताओं से भरे समूहों को जिन्ना के नेतृत्व वाली नवजीवन और नवशक्ति प्राप्त मुस्लिम लीग के झंडे तले एकजुट कर दिया ।

जैसा कि आर. जे. मूर (1888) ने दिखाया है अंग्रेजी राज के सहभागियों के रूप में 1920 और 1930 के दशकों के दौरान राजनीतिक दृष्टि से मुसलमानों ने बहुत कुछ पाया था । अलग निर्वाचकमंडल का सिद्धांत अब भारतीय संविधान में पक्के रूप में शामिल हो चुका था ।

बहुसंख्यक मुसलमानों वाले पंजाब और बंगाल प्रांतों में उन्होंने कांग्रेस से सत्ता छीन ली थी । दो दूसरे मुस्लिम-बहुल  प्रांत, सिंध और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत भी, अब पूरे-पूरे प्रांत का दर्जा पा चुके थे । 1937 के चुनावों में कांग्रेस की विजय से उन सबको भी खतरा पैदा हो गया ।

संयुक्त प्रांत जैसे मुस्लिम अल्पसंख्यकों वाले प्रांतों में न केवल कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ कोई गठबंधन सरकार बनाकर सत्ता में भागीदारी से इनकार कर दिया, बल्कि भरपूर दंभ के साथ जवाहरलाल नेहरू ने यह घोषणा भी की कि भारतीय राजनीति के मंच पर अब केवल दो पार्टियाँ थीं-अंग्रेजी राज और कांग्रेस ।

उसके बाद कांग्रेस अलग निर्वाचकमंडल के विरुद्ध लगातार प्रचार करती रही तथा देशद्रोही और प्रतिक्रियावादी कहकर लगातार मुस्लिम लीग की निंदा करती रही । मुस्लिम लीग की चुनावी हार को देखकर नेहरू ने मुसलमानों को कांग्रेस के दायरे में लाने के लिए अपना मुस्लिम जन-संपर्क अभियान शुरू कर दिया ।

लेकिन यह प्रयास असफल रहा, क्योंकि हिंदू महासभा ने भीतरघात किया । मुसलमानों के पास हिंदुओं के प्रभुत्व से भय के पर्याप्त कारण थे, खासकर उन प्रांतों में जहाँ वे अल्पसंख्यक थे । कांग्रेस मंत्रिमंडलों द्वारा मुसलमानों के विरुद्ध भेदभाव की अनेक शिकायतें आई ।

ये शिकायतें सच रही हों या काल्पनिक, ये मुसलमानों की इस भावना को अवश्य प्रतिबिंबित करती थीं कि 1935 की नई संवैधानिक व्यवस्था में संरक्षण के वितरण की जो प्रणाली स्थापित की गई थी उससे वे बाहर रह गए हैं ।

दूसरे शब्दों में, कांग्रेस की नीतियों का वर्गीय दृष्टिकोण और वैयक्तिक नागरिकता पर उसका बल मुसलमानों की समुदाय-केंद्रित चिंताओं को संतुष्ट नहीं कर सके । जिन्ना ने मुसलमानों के भय और असंतोष की इसी सामूहिक भावना को राजनीतिक वाणी दी, जो लदन में स्वघोषित निर्वासन का थोड़ा-सा काल व्यतीत होने के बाद मुस्लिम लीग का नेतृत्व सँभालने के लिए 1934 में भारत लौटे ।

परंतु 1934 और 1937 के बीच भी जिन्ना केंद्र में कांग्रेस से सहयोग के लिए तैयार थे, ताकि 1935 के कानून में निरूपित संघीय संवैधानिक ढाँचे में संशोधन कराया जा सके । परंतु चुनाव परिणामों ने उनको असुविधा की स्थिति  में डाल दिया, क्योंकि कांग्रेस अब आसानी से उनको अनदेखा कर सकती थी ।

इस चरण में जिन्ना की इच्छा थी कि भारत के भावी संविधान संबंधी किसी भी वार्ता में मुस्लिम लीग को एक बराबर का पक्ष-एक तीसरा पक्ष-बनाया जाए । केंद्रीय असेंबली में जिन्ना की जोरदार वकालत के बाद 1937 में पारित शरीअत व्यवहार अधिनियम (शरीअत ऐप्लिकेशन ऐक्ट) ने राष्ट्रीय स्तर पर, सभी विभाजक और अंदरूनी राजनीतिक वाद-विवाद से दूर जाकर, मुस्लिम एकजुटता का एक प्रतीकात्मक वैचारिक आधार तैयार किया ।

उन्होंने एक जन-संपर्क अभियान शुरू किया और उल्मा की सेवाएँ लीं, जबकि अलीगढ़ के भावनाओं में बह रहे छात्रों ने अभियान में और तेजी पैदा की । नवंबर 1939 में जब कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने भारत को उनसे परामर्श किए बिना दूसरे विश्वयुद्ध में खींचे जाने के विरुद्ध त्यागपत्र दे दिए, तो जिन्ना ने उसे ”मुक्ति दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय किया ।

दिसंबर 1939 तक लीग की सदस्यता 30 लाख से ऊपर जा चुकी थी और जिन्ना स्वयं को उसके ”एकमात्र प्रवक्ता” के रूप में पेश कर चुके थे । अलगाव और अविश्वास के इसी राजनीतिक संदर्भ में धीरे- धीरे एक और विचार पनपा और यह विचार मुस्लिम राष्ट्रीयता का था ।

1930 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष क रूप में सर मुहम्मद इकबाल ने भारत के अंदर ही चार प्रांतों (पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान) को मिलाकर एक केंद्रीकृत क्षेत्र के गठन का प्रस्ताव रखा       था । इस विचार को और विस्तार दिया कैंब्रिज के छात्र रहमत अली ने, जिन्होंने 1933 में इन चारों मुस्लिम प्रांतों और कश्मीर को मिलाकर अस्पष्ट रूप से ‘पाकिस्तान’ बनाने की बात की ।

लेकिन मुस्लिम लीग की सिंध शाखा की कराची बैठक ने, जिसकी अध्यक्षता स्वयं जिन्ना ने की थी, एक प्रस्ताव पारित किया, जिसने ”हिंदू और मुसलमान नाम के दो राष्ट्रों के लिए राजनीतिक आत्मनिर्णय” की आवश्यकता का उल्लेख किया ।

और मुस्लिम लीग से इसे साकार करने के लिए उपयुक्त कदमों के बारे  में  सोचने का आग्रह किया । यह ”दो राष्ट्रों” के सिद्धांत की पहली घोषणा थी, हालांकि इसमें अभी भी अलगाव की बात नहीं थी; हिंदुओं व मुसलमानों के दोनों संघ एक साझे केंद्र के कारण एकजुट रहते । उसके बाद तो ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की व्यावहारिकता पर सार्वजनिक रूप से बहसें होने लगीं, जो इस अमूर्त धारणा को एक रूपरेखा दे ।

इस विषय में सिंधी नेता अब्दुल्ला हारून, डॉ॰ सैयद अब्दुल लतीफ़, पाकिस्तान मजलिस (लाहौर) के अब्दुल बशीर से लेकर प्रमुख अलीगढ़ी विद्वानों प्रोफेसर सैयद जफरूल-हसन और डॉ॰ एम. ए. एच. कादिरी तक अनेक प्रकार के मुस्लिम नेताओं ने बौद्धिक योगदान किए ।

अंतत: मार्च 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव ने औपचारिक रूप से मुसलमानों को एक राष्ट्र घोषित किया । उसने विभाजन या पाकिस्तान का उल्लेख नहीं किया, बल्कि केवल अनिश्चित ”भविष्य” में मुस्लिम-बहुल प्रांतों से ”स्वतंत्र राज्यों” के गठन की बात की ।

दूसरे शब्दों में, यह प्रस्ताव भारतीय मुसलमानों के एक ‘अल्पसंख्यक’ से एक ‘राष्ट्र’ में रूपांतरण का सूचक मात्र था ताकि भारत के लिए किसी भी भावी संवैधानिक व्यवस्था पर उनकी भागीदारी और सहमति के बिना बातचीत न की जा सके । उसके बाद ऐसी किसी भी व्यवस्था में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ‘बराबरी’ की माँग जिन्ना की राजनीति का केंद्रीय तत्त्व बन गई ।

राष्ट्रीयता की इस घोषणा से लेकर 1947 में एक अलग प्रभुसत्तासंपन्न राज्य के वास्तव में साकार होने तक का रास्ता लंबा और कष्टों से भरा रहा । यहाँ इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि एक मुस्लिम राष्ट्र की यह धारणा केवल जिन्ना की या मुखर बुद्धिजीवियों के एक चयनित समूह की कल्पना नहीं थी ।

उसे उन हजारों आम मुसलमानों ने वैधता प्रदान की जो कराची, पटना या लाहौर के जुलूसों में शामिल हुए, हड़तालों में भाग लिया, प्रदर्शन किए, बल्कि 1938 और 1940 के बीच हुए दंगों तक में भाग लिया । उनका अलगाव उग्रवादी हिंदू राष्ट्रवादियों की उत्तेजक कार्रवाइयों से तथा कांग्रेस के एक कट्टर धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व द्वारा मुस्लिम राष्ट्र की माँग की खिल्ली उड़ाते रहने के कारण भी पैदा हुआ था ।

जो मुस्लिम नेता 1921 में अपनी भारतीयता और अपनी मुस्लिम पहचान के बीच कोई टकराव नहीं मानते थे, उन्हीं के लिए उनकी अलग मुस्लिम राष्ट्रीयता की मान्यता 1940 के दशक में समझौतों से परे एक न्यूनतम माँग बन गई । धीरे-धीरे व्यापक मुस्लिम जनता ने भी इन भावनाओं को अपना लिया ।

वास्तव में, जैसा कि अचिन विनायक का कथन है, जिन दिनों एक उपनिवेशवाद विरोधी अखिल भारतीय राष्ट्रीय पहचान निर्माण की प्रक्रिया में थी, उन दिनों एक अलग मुस्लिम पहचान के इस उदय के लिए ”कांग्रेसी नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन बड़ी सीमा तक जिम्मेदारी से बच नहीं सकता ।”

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