भारतीय इतिहास का वैदिक युग: संस्कृति, राजनीति, सामाजिक जीवन और धर्म | Post Vedic Age of Indian History: Culture, Politics, Social life and Religion in Hindi.

वैदिक युग | Post-Vedic Era:


Contents:

  1. उत्तर वैदिक काल (1000-500 ई॰ पू॰) में आर्यों का विस्तार (Expansion of Aryans in Post-Vedic Stage (100 – 500 B.C)
  2. चित्रित धूसर मृदभांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) : लौहावस्था संस्कृति और उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्था  (Irony Culture and Post-Vedic Economy)
  3. उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक संगठन (Political Organization in Post-Vedic Era)
  4. उत्तर वैदिक काल में सामाजिक संगठन (Social Organization during Post-Vedic Era)
  5. उत्तर वैदिक काल के देवता, अनुष्ठान और दर्शन (Deities, Rituals and Philosophy of Post-Vedic Era)

# 1. उत्तर वैदिक काल (1000-500 ई॰ पू॰) में आर्यों का विस्तार (Expansion of Aryans in Post-Vedic Stage (100 – 500 B.C):

उत्तर वैदिक काल का इतिहास मुख्यत: उन वैदिक ग्रंथों पर आधारित है जिनकी रचना ऋग्वैदिक काल के बाद हुई । वैदिक सूक्तों या मंत्रों के संग्रह को संहिता कहते हैं । ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना वैदिक ग्रंथ है । इसी के आधार पर हमने आरंभिक वैदिक युग का वर्णन किया है ।

गाने के लिए ऋग्वैदिक सूक्तों को चुनकर धुन में बाँधा गया और इस पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम सामवेद संहिता पड़ा । ऋग्वेदोत्तर काल में सामवेद के अतिरिक्त और दो संकलन तैयार किए गए । वे हैं यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता ।

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यजुर्वेद में केवल ऋचाएँ ही नहीं उन्हें गाते समय किए जाने वाले अनुष्ठान भी दिए गए हैं । इन अनुष्ठानों से तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का परिचय मिलता है । अथर्ववेद में विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए तंत्र-मंत्र संगृहीत हैं । इसमें आए तथ्यों से आर्येतर लोगों के विश्वासों और रूढ़ियों पर प्रकाश पड़ता है ।

वैदिक संहिताओं के बाद कई ग्रंथ लिखे गए जिन्हें ब्राह्मण कहते हैं । इनमें वैदिक अनुष्ठान की विधियाँ संगृहीत हैं और उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी की गई हैं । ये सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000-500 ई॰ पू॰ में उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए ।

उत्खनन और अनुसंधान के फलस्वरूप इसी काल और इसी क्षेत्र के लगभग 700 स्थल प्रकाश में आए हैं, जहाँ सबसे पहले बस्तियाँ कायम हुई थीं । इन्हें चित्रित धूसर मृदभांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰ अर्थात् पेंटेड ग्रे वेअर) स्थल कहते हैं क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्‌टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों और थालियों का प्रयोग करते थे । वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे ।

उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ और चित्रित धूसर मृद्‌भांड लौह अवस्था के पुरातत्त्व इन दोनों के संयुक्त साक्ष्य से ईसा-पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के संलग्न क्षेत्रों में बसने वाले लोगों के जीवन का पता चलता है ।

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उक्त ग्रंथों से प्रकट होता है कि पंजाब से आर्यजन गंगा-यमुना दोआब के अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए थे । दो प्रमुख कबीले भरत और पुरु एक होकर कुरु कहलाए । आरंभ में वे लोग दोआब के ठीक छोर पर सरस्वती और दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे । शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली क्षेत्र और दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार जमाया जो कुरुक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

धीरे-धीरे वे पंचालों से भी मिल गए जो दोआब के मध्य भाग पर काबिज थे । इस प्रकार कुरु-पंचालों की सत्ता दिल्ली क्षेत्र पर और दोआब के ऊपरी और मध्य भागों पर फैल गई । तब उन्होंने हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाया जो मेरठ जिले में पड़ता है । कुरु कुल का इतिहास भारत युद्ध को लेकर मशहूर है जिस पर महाभारत नाम का विख्यात महाकाव्य है । यह माना जाता है कि भारत युद्ध 950 ई॰ पू॰ के आसपास कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था हालांकि ये दोनों कुरु कुल के ही थे । इस युद्ध के फलस्वरूप वस्तुतः सारे कुरुवंशियों का नाश हो गया ।

हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों से जिनकी तिथि 900 ई॰ पू॰ से 500 ई॰ पू॰ की जा सकती है, वहाँ की बस्तियों का और नगर जीवन के धुँधले आरंभ का पता चलता है । किंतु महाभारत में हस्तिनापुर का जो वर्णन है उससे इसका कोई भी मेल नहीं है, क्योंकि इस महाकाव्य की रचना बहुत बाद में ईसा की चौथी सदी के आसपास हुई है जब भौतिक जीवन में काफी प्रगति हो चुकी थी ।

उत्तर वैदिक काल में लोग पकाई हुई ईंट का प्रयोग शायद ही जानते थे । हस्तिनापुर की खुदाई में जो कच्ची संरचनाएँ मिली हैं वे न भव्य ही कही जा सकती हैं और न टिकाऊ ही । प्राचीन कथाओं के अनुसार हम जानते हैं कि हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरुवंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशांबी जाकर बस गए । आज के बरेली, बदायूं और फर्रुखाबाद जिलों में फैला पंचाल राज्य उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णित अपने दार्शनिक राजाओं और तत्वज्ञानी ब्राह्मणों को लेकर विख्यात था ।

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उत्तर वैदिक काल का अंत होते-होते 600 ई॰ पू॰ के आसपास वैदिक लोग दोआब से पूरब की ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कोसल और उत्तरी बिहार के विदेह में फैले । यद्यपि कोसल राम की कथा से जुड़ा है तथापि वैदिक साहित्य में रामकथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है ।

इन वैदिक लोगों का पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में ऐसे लोगों से संपर्क हुआ जो तांबे के औजारों और काले-व-लाल मृद्‌भांडों का इस्तेमाल करते थे । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनका सामना संभवतः उन लोगों से हुआ जो तांबे के औजारों और गेरुवे या लाल रंग के मृद्‌भांडों का इस्तेमाल करते थे ।

उन्हें संभवतः ऐसे लोगों की भी बस्तियाँ जहाँ-तहाँ मिलीं जो काले-व-लाल मृद्‌भांडों का प्रयोग करते थे । कहा जाता है कि कुछ स्थानों पर उनका मुकाबला उत्तर हड़प्पाई संस्कृति को अपनाने वाले लोगों से भी हुआ । परंतु लगता है कि ये लोग मिश्रित संस्कृति वाले थे जिसमें संभवतः कुछ हड़प्पाई अंश भी थे ।

उत्तर वैदिक लोगों के शत्रु चाहे जो भी रहे हों, उनका किसी भी बड़े और संलग्न क्षेत्र पर जमाव नहीं था और उत्तरी गंगा मैदान में उनकी संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी । विस्तार के दूसरे दौर में वैदिक लोग इसलिए सफल हुए कि उनके पास लोहे के हथियार और अश्वचालित रथ थे ।


# 2. चित्रित धूसर मृदभांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) : लौहावस्था संस्कृति और उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्था

  (Irony Culture and Post-Vedic Economy):

लगभग 1000 ई॰ पू॰ में लोहा कर्नाटक के धारवाड जिले में मिलता है । यह स्पष्ट नहीं है कि यहाँ से यह कैसे फैला पर उसी समय से पाकिस्तान के गंधार क्षेत्र में लोहे का प्रयोग होने लगा । मृतकों के साथ कब्रों में गाड़े गए लोहे के औजार भारी मात्रा में खुदाई से निकले हैं । ऐसे औजार बलूचिस्तान में भी मिले हैं ।

लगभग इसी काल में पूर्वी पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोहे का प्रयोग पाया गया है । खुदाई से ज्ञात होता है कि तीर के नोक, बरछे के फाल आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ई॰ पू॰ से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आमतौर से होने लगा था ।

लोहे के इन हथियारों से वैदिक लोगों ने ऊपरी दोआब में सामने आए अपने बचे-खुचे शत्रुओं को परास्त कर दिया होगा । ऊपरी गंगा के मैदानों के जंगलों को साफ करने में लोहे की कुल्हाड़ी से काम लिया होगा, हालांकि वर्षा केवल 35 सेंटीमीटर से 65 सेंटीमीटर तक होने के कारण ये जंगल ज्यादा घने नहीं रहे होंगे ।

वैदिक काल के अंतिम दौर में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था । इन प्रदेशों में जो सबसे पुराने लौहास्त्र पाए गए हैं वे ईसा-पूर्व सातवीं सदी के हैं और उत्तर वैदिक ग्रंथों में इस धातु को श्याम या अयस् कहा गया है ।

यद्यपि लोहे के कृषि औजार कम पाए गए हैं तथापि इसमें संदेह नहीं कि उत्तर वैदिक काल के लोगों की मुख्य जीविका खेती हो चली थी । वैदिक ग्रंथों में छह, आठ बारह और चौबीस तक बैल हल में जोते जाने की चर्चा है । इसमें कुछ अत्युक्ति हो सकती है ।

जुताई लकड़ी के फाल वाले हल से होती थी जिसमें ऊपरी गंगा के मैदानों की हल्की मिट्‌टी में संभवतः काम लिया जा सकता था । यज्ञों में पशु-बलि के प्रचलन के कारण बैल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं रहे होंगे । इसलिए खेती आरंभिक अवस्था में थी किंतु इसके व्यापक प्रचलन में संदेह नहीं है ।

शतपथ ब्राह्मण में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है । कहा गया है कि सीता के पिता और विदेह के राजा जनक ने हल चलाया था । उन दिनों राजा और राजकुमार भी शारीरिक श्रम करने में हिचकिचाते नहीं थे । कृष्ण का भाई बलराम हलधर कहलाता था क्योंकि हल उसका हथियार था । उत्तर वैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया ।

वैदिक काल के लोग जौ तो उपजाते ही रहे, पर इस काल में चावल और गेहूँ उनकी मुख्य फसलें हो गए । बाद में चलकर गेहूँ पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य खाद्य हो गया । वैदिक लोगों का चावल से परिचय सबसे पहले दोआब में हुआ । वैदिक ग्रंथों में इसका नाम व्रीहि है ।

चावल का अवशेष हस्तिनापुर में मिला है । वह ईसा-पूर्व आठवीं सदी का है । इसी समय के आसपास एटा जिले में स्थित अतरंजीखेड़ा में भी चावल मिला है । वैदिक अनुष्ठानों में चावल के प्रयोग का विधान है, पर गेहूँ के प्रयोग का कदाचित् ही । उत्तर वैदिक काल के लोग कई प्रकार के तेलहन भी पैदा करते थे ।

उत्तर वैदिक काल में भी बहुत प्रकार की कलाओं और शिल्पों का उदय हुआ । हमें लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती है अवश्य ही वे लोग 1000 ई॰ पू॰ के आसपास से कुछ-न-कुछ लोहे का काम करते होंगे । तांबे से उनका परिचय वैदिक काल के आरंभ से ही था ।

1500 ई॰ पू॰ के पहले के तांबे के बहुत सारे औजार के जखीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में मिले हैं । उनसे प्रकट होता है कि वैदिकेतर समाज में भी ताम्रशिल्पी थे । वैदिक लोग संभवतः राजस्थान की खेत्री की तांबे की खानों का उपयोग करते थे ।

जो भी हो वैदिक काल के लोगों ने जिन धातुओं का इस्तेमाल किया उनमें तांबा पहला रहा होगा । तांबे की वस्तुएँ चित्रित धूसर मृद्‌भांड स्थलों में पाई गई हैं । इन वस्तुओं का उपयोग मुख्यतः लड़ाई और शिकार तथा आभूषण के रूप में भी किया जाता था । बुनाई केवल स्त्रियाँ करती थीं, किंतु यह काम बड़े पैमाने पर होता था । चमड़े मिट्‌टी और लकड़ी के शिल्पों में भारी प्रगति हुई ।

उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृद्‌भांडों से परिचित थे-काला-व-लाल मृद्‌भांड, काली पालिशदार मृदभांड, चित्रित धूसर मृद्‌भांड और लाल मृद्‌भांड । इनमें अंतिम प्रकार का मृद्‌भांड उनके बीच सबसे अधिक प्रचलित था और लगभग समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है । लेकिन चित्रित धूसर मृदभांड उनके सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक हैं ।

इनमें कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिनका व्यवहार शायद उदीयमान उच्च वर्णों के लोग धार्मिक कृत्यों में या भोजन में या दोनों कामों में करते थे । चित्रित धूसर मृद्‌भांड वाले स्तरों में जो कांच की निधियाँ और चूड़ियाँ मिली हैं उनका उपयोग प्रतिष्ठावर्धक वस्तुओं के रूप में इने-गिने लोग ही करते होंगे ।

कुल मिलाकर वैदिक ग्रंथ और उत्खनन दोनों से शिल्प-वस्तुओं के विशेषीकृत उत्पादन का संकेत मिलता है । उत्तर वैदिक ग्रंथों में स्वर्णकारों या आभूषण के निर्माताओं का भी उल्लेख है, जो संभवत: समाज के संपन्न वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति करते होंगे । खेती और विविध शिल्पों की बदौलत अब उत्तर वैदिक काल के लोग स्थायी जीवन अपनाने में समर्थ हो गए । उत्खननों और अनुसंधानों से हमें कुछ आभास मिलता है कि उत्तर वैदिक काल की बस्तियाँ कैसी थीं ।

चित्रित धूसर मृद्‌भांड स्थल न केवल कुरु-पंचाल क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दिल्ली में ही व्यापक रूप से फैले पाए गए हैं, बल्कि मद्र क्षेत्र अर्थात् पंजाब और हरियाणा के संलग्न भागों में और मत्स्य क्षेत्र अर्थात् राजस्थान के संलग्न भागों में भी मिले हैं ।

इन स्थलों की संख्या कुल मिलाकर 700 के करीब हो सकती है जो अधिकतर ऊपरी गंगा घाटी में पड़ते हैं । इनमें इने-गिने स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है, जैसे हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा और नोह । चूंकि बस्ती के भौतिक अवशेषों का जमाव एक मीटर तक है इसलिए मालूम पड़ता है कि ये बस्तियाँ एक से तीन सदियों तक टिकी रही होंगी ।

काफी स्थल नए वास के थे, जहाँ ठीक पहले कोई नहीं बसे थे । लोग कच्ची ईंटों के घरों में लकड़ी के खंभों पर टिके मिट्टी के घरों में रहते थे । उनके घर तो निम्न कोटि के हैं फिर भी उनके मूल्यों और अनाजों (धान) से प्रकट होता है कि चित्रित धूसर मृद्‌भांड काल के लोग जो उत्तर वैदिक लोग ही हैं कृषिजीवी और स्थिरवासी थे ।

लेकिन चूंकि किसान सामान्यतः काठ के फाल वाले हल से खेती करते थे इसलिए वे इतना अन्न नहीं उपजा सकते थे कि खेती से भिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की आवश्यकता पूरी कर सकें । अतः किसान नगरों के उदय में हाथ नहीं बँटा सके । उत्तर वैदिक ग्रंथों में नगर शब्द आया तो है पर उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में आकर हम नगरों के आरंभ का मंद आभास ही पाते हैं ।

हस्तिनापुर और कौशांबी (इलाहाबाद के पास) तो वैदिक काल के अंत के महज गर्भावस्था वाले नगर थे । इन्हें आद्य नगरीय स्थल (प्रोटो अर्बन साइट) ही कहा जा सकता है । वैदिक ग्रंथों में समुद्र और समुद्रयात्रा की भी चर्चा है ।

इससे किसी-न-किसी तरह के वाणिज्य का संकेत मिलता है, जिसे नई-नई कलाओं और शिल्पों के उदय से बल मिला होगा । कुल मिलाकर उत्तर वैदिक अवस्था में लोगों के भौतिक जीवन में भारी प्रगति हुई । पशुचारी और यायावरी जीवन-प्रणाली बहुत घट गई, खेती जीविका का मुख्य साधन बन गई और जीवन स्थानीय तथा खूंटे में बँधा जैसा हो गया ।

विविध शिल्पों और कलाओं से लैस होकर वैदिक लोग उत्तरी गंगा के मैदानों में स्थिर रूप से बस गए । मैदानों में बसने वाले किसान अपने निर्वाह के लिए तो काफी अनाज पैदा कर ही लेते थे, अपनी उपज का कुछ हिस्सा अपने मुखियों राजाओं और पुरोहितों के निर्वाह के लिए भी बचा लेते थे ।


# 3. उत्तर वैदिक काल मेंराजनीतिक संगठन (Political Organization in Post-Vedic Era):

उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक सभा-समितियों के दिन लद गए और उनकी जगह राजकीय प्रभुत्व ने ले ली । विदथ का नामोनिशान नहीं रहा । सभा और समिति अपनी जगह जीती तो रहीं पर उनका रंग-ढंग बदल गया । उनमें राजाओं और अभिजात्यों का बोलबाला हो गया । अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध हो गया और कुलीनों तथा ब्राह्मणों का प्राबल्य हो गया ।

राज्यों की आकार वृद्धि से मुखिया या राजा अधिकाधिक शक्तिशाली होता गया । सत्ता धीरे-धीरे जनजातीय से प्रादेशिक होती गई । राजा या सरदार कबीलों पर शासन करते थे और उनके प्रमुख कबीले के नाम पर प्रदेशों का नाम पड़ा भले ही उस प्रदेश के भीतर प्रमुख कबीलों से भिन्न लोग भी बसते हों ।

आरंभ में हर प्रदेश का नाम वहाँ पर सबसे पहले बसने वाले कबीले के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उदाहरणार्थ, पहले पंचाल एक जन या कबीले का नाम था । बाद में यह प्रदेश विशेष का नाम हो गया । राष्ट्र शब्द जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है पहले पहल इसी समय मिलने लगा है ।

उत्तर वैदिक ग्रंथों में संकेत मिलता है कि राज्य के प्रधान या राजा का निर्वाचन होता था । जो व्यक्ति शारीरिक और अन्य गुणों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था वही राजा चुना जाता था ।

वह अपने सामान्य कुलजनों या अन्य जनों से जो विश्र कहलाते थे स्वेच्छा से दी गई भेंट प्राप्त करता था जो बलि अथवा चढ़ावा कहलाती थी । परंतु राजा ने भेंट प्राप्त करने की प्रथा को अपना अधिकार बना लिया । इस अधिकार और अपने पद की अन्य सुविधाओं को कायम रखने के उद्देश्य से उसने राजा के पद को आनुवंशिक बना लिया; इस प्रकार राजा का पद सामान्यतः उसके ज्येष्ठ पुत्र को मिलने लगा ।

लेकिन उत्तराधिकार का यह क्रम हमेशा निर्विघ्न रूप से नहीं चला । महाभारत में कहा गया है कि युधिष्टिर के छोटे भाई दुर्योधन ने उसका राज्य हड़प लिया । राज्य की खातिर हुए युद्ध ने पांडवों और कौरवों के कुल का विनाश किया । इस युद्ध से स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता के आगे स्वजन कुछ नहीं हैं । कर्मकांड के विधानों से राजा और भी प्रभावशाली बना दिया गया । राजा राजसूय यज्ञ करता था, जिससे यह समझा जाता था कि उसे दिव्य शक्ति मिल गई । वह अश्वमेध यज्ञ करता था ।

इस यज्ञ में राजा का छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजरता था उन सारे क्षेत्रों पर उस राजा का एकछत्र राज्य माना जाता था । वह वाजपेय यज्ञ (रथदौड़) भी करता था जिसमें राजा का रथ उसके अन्य सभी बंधुओं के रथों से आगे निकलता था । इन सारे अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर राजा की बढ़ती हुई शक्ति एवं महिमा की गहरी छाप पड़ती थी ।

ऐसा लगता है कि इस काल में कर और नजराना (ट्रिब्यूट) का संग्रह प्रचलित हो गया था । इनके संग्रह और संचालन के लिए एक अधिकारी रहता था जो संग्रीहीतृ कहलाता था । रामायण और महाभारत से ज्ञात होता है कि बड़े-बड़े यज्ञों के अवसर पर राजा भारी मात्रा में दान और उपहार बाँटता था और हर वर्ग के लोगों को उत्तम भोजन कराता था ।

राजा अपने कर्तव्य के संपादन में पुरोहित सेनापति पटरानी और कई अन्य उच्च कोटि के अधिकारियों की सहायता लेता था । निचले स्तर में प्रशासन का भार संभवतः ग्राम सभाओं पर रहता था जिनपर प्रमुख कुलों के प्रधानों का नियंत्रण रहता था ।

ये सभाएँ स्थानीय वाद-विवादों का फैसला भी करती थीं । लेकिन उत्तर वैदिक काल में भी राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था । युद्ध के समय कबीले के जवानों के दल भरती कर लिए जाते थे; और कर्मकांड के अनुष्ठान के अनुसार युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को एक ही थाली में अपने भाई-बंधुओं (विश्) के साथ खाना पड़ता था ।


# 4. उत्तर वैदिक काल में सामाजिक संगठन (Social Organization during Post-Vedic Era):

उत्तर वैदिक काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था-ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । यज्ञ का अनुष्ठान अत्यधिक बढ़ गया था जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई । आरंभ में सोलह प्रकार के पुरोहितों में ब्राह्मण केवल एक प्रकार के पुरोहित होते थे, किंतु धीरे-धीरे ब्राह्मण अन्य पुरोहित वर्गों को दबाते गए और स्वयं प्रमुख वर्ग बन गए ।

उनकी यह प्रमुखता विलक्षण बात है जो भारत से बाहर के आर्यों के समाज में नहीं पाई जाती है । लगता है कि ब्राह्मण वर्ग की स्थापना में आर्येतर तत्वों का कुछ हाथ रहा होगा ।

ब्राह्मण लोग अपने यजमानों के लिए और अपने लिए भी धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे और कृषि कार्यों से जुड़े पर्वों या त्योहारों में यजमानों का प्रतिनिधित्व करते थे और उसके बदले में राजा से अभयदान प्राप्त करते थे ।

कभी-कभी ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए राजन्यों से भिड़ जाते थे जिनमें राजा के बांधव भी होते थे और क्षत्रिय वर्ग के नेता भी । लेकिन निचले दो वर्गों से सामना होने की स्थिति में ऊपर के ये दोनों वर्ग तुरंत आपसी झगड़ा भूल जाते ।

उत्तर वैदिक काल के अंत से इस बात पर बल दिया जाने लगा कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भाग पर उन दोनों का प्रभुत्व बना रहे ।

राजाओं के परिजन होते हुए भी वैश्य जनसामान्य की कोटि में रखे गए और उन्हें उत्पादन संबंधी काम सौंपा गया, जैसे कृषि, पशुपालन आदि । उनमें कुछ लोग पंसारी या शिल्पी का काम भी करते थे । वैदिक काल का अंत होते-होते वे व्यापार को अपनाने लगे । लगता है, उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे ।

ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले राजस्व पर ही जीते थे । आम कबायली लोगों को वश में लाकर उन्हें करदाता बनाने की प्रक्रिया लंबे समय तक चलती रही । ऐसे कई अनुष्ठान ज्ञात है जो दुर्दम लोगों को (विश् या वैश्यों को) राजा तथा उसके निकट बंधुओं (राजन्यों) के वश में लाने की कामना से किए जाते थे ।

यह अनुष्ठान वे ही पुरोहित कराते थे जो स्वयं प्रजा या वैश्यों को खसोट कर जीते थे । ऊपर के तीन वर्णों की सामान्य विशेषता यह थी कि वे ऐसे उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात् वे वैदिक मंत्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे ।

चौथा वर्ण उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था वह गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकता था और यहीं से उपनयन का अभाव शूद्र की दासता का द्योतक बन गया । राजा राजन्यों या क्षत्रियों का अगुआ था, और वह अन्य तीनों वर्णों पर अपना प्रभुत्व जमाए रखने की चेष्टा करता था ।

उत्तर वैदिक काल के अंत भाग में लिखे गए एतेरये ब्राह्मण नामक वैदिक ग्रंथ में कहा गया है कि ब्राह्मण जीविका चाहने वाला और दान लेने वाला है, लेकिन राजा जब भी चाहे उसे हटा सकता है ।

वैश्य के बारे में कहा गया है कि वह राजस्व का देनदार है और राजा जब चाहे उसका दमन कर सकता है । सबसे बुरी स्थिति शूद्रों की थी । शूद्र को अन्य वर्णों का सेवक बतलाया गया है । वह दूसरे की इच्छा के अनुसार काम करने वाला है और मार खाने वाला है ।

सामान्यतः उत्तर वैदिककालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच विभाजक रेखा देखने को मिलती है । फिर भी राज्याभिषेक संबंधी ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र शायद मूल आर्य जातीय कबीलों के बचे हुए सदस्यों की हैसियत से भाग लेते थे ।

शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था । इस प्रकार दिखाई देता है कि उत्तर वैदिक काल में भी वर्णभेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था । परिवार स्तर पर हम देखते हैं कि पिता का अधिकार बढ़ता गया ।

वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था । राजपरिवार में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया । पूर्व पुरुषों की पूजा होने लगी । स्त्रियों का दर्जा सामान्यतः गिरा यद्यपि कुछ महिलाओं ने शास्त्रार्थों में भाग लिया और कुछ रानियाँ पति के राज्याभिषेक अनुष्ठानों में साथ रहीं पर सामान्यतः स्त्रियों का स्थान पुरुषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा ।

उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई । गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था, परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया । फिर गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी । तदनुसार एक ही गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया ।

वैदिक काल में आश्रम अर्थात् जीवन के चार चरण सुप्रतिष्ठत नहीं हुए थे । वैदिकोत्तर काल के ग्रंथों में हमें चार आश्रम स्पष्ट दिखाई देते हैं: ब्रह्मचर्य या छात्रावस्था, गार्हस्थ या गृहस्थावस्था, वानपप्रस्थ या वनवासावस्था और संन्यास या सांसारिक जीवन से विरत होकर रहने की अवस्था ।

उत्तर वैदिक ग्रंथों में आदि से केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है । अंतिम या चतुर्थ आश्रम उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठि नहीं हुआ था हालाँकि संन्यास अज्ञात नहीं था । वैदिकोत्तर काल में भी केवल गार्हस्थ आश्रम सभी वर्णों में सामान्यतः प्रचलित था ।


# 5. उत्तर वैदिक काल के देवता, अनुष्ठान और दर्शन (Deities, Rituals and Philosophy of Post-Vedic Era):

उत्तर वैदिक काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केंद्र स्थल बन गया । लगता है सारा उत्तर वैदिक साहित्य कुरु-पंचालों के इसी प्रदेश में विकसित हुआ । यज्ञ इस संस्कृति का मूल था और यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक अनुष्ठान और मंत्र विधियाँ प्रचलित हुईं ।

देवताओं में दो सबसे बड़े देवता इंद्र और अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे । इनकी जगह उत्तर वैदिक देवमंडल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला । ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हुए । पशुओं के देवता रुद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई ।

जो लोग ऋग्वैदिक काल के अपने अर्द्ध खानाबदोशी जीवन को छोड़ स्थानीय रूप से बस गए थे, वे लोग विष्णु को अपना पालक और रक्षक मानने लगे । इसके अलावा देवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की भी पूजा प्रचलित हुई । उत्तर वैदिक काल में मूर्तिपूजा के आरंभ का कुछ आभास मिलने लगता है ।

चूंकि समाज ब्राह्मण राजन्य, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभक्त हो गया था इसलिए कुछ वर्णों के अपने देवता भी हो गए । पूषन् जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था, शूद्रों का देवता हो गया हालांकि ऋग्वेद युग में पशुपालन सारी आर्य जाति का मुख्य व्यवसाय था ।

देवताओं की आराधना के जो भौतिक उद्देश्य पूर्व में थे वे ही इस काल में भी रहे । लेकिन आराधना की रीति में महान अंतर आया । स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे लेकिन वे देवताओं को प्रसन्न करने की प्रमुख रीति नहीं रहे; प्रत्युत यज्ञ करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया और यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए ।

सार्वजनिक यज्ञ राजा अपनी सारी प्रजा के साथ करता था और प्रजा में अक्सर एक ही कबीले के लोग होते । निजी यज्ञ अलग-अलग व्यक्ति अपने-अपने घर में करते थे क्योंकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी निवासों में रहते थे और उनके नियमित कुटुंब होते थे ।

घर का प्रत्येक. व्यक्ति अग्नि में आहुति देता था और ऐसा प्रत्येक कर्म अनुष्ठान या यज्ञ का रूप धारण कर लेता था । यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी, जिससे खास तौर से पशुधन का ह्रास होता गया । अतिथि गोघ्न कहलाते थे क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था ।

यज्ञों में कर्म के साथ मंत्र पड़े जाते थे । यज्ञकर्ताओं को इन मंत्रों का उच्चारण बड़ी सतर्कता से करना होता था । यज्ञ करनेवाला यजमान कहलाता था और यज्ञ का फल बहुत कुछ इस पर निर्भर करता था कि यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण कितनी शुद्धता से किया गया । वैदिक आर्यों में प्रचलित बहुत-से अनुष्ठान हिंद-यूरोपीय भाषाभाषियों के कर्मकांड से मिलते हैं लेकिन कुछ हिंदं- भूमि में विकसित प्रतीत होते हैं ।

इन सारे मंत्रों और यज्ञों का सृजन अंगीकरण और विस्तारण पुरोहितों ने किया जो ब्राह्मण कहलाते थे । ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान-विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे । उन्होंने बहुत-सारे अनुष्ठानों को चलाया जिनमें कुछ आर्येतर लोगों से भी लिए ।

इतने सारे अनुष्ठानों को चलाने और उनको विस्तृत बनाने का क्या कारण रहा होगा यह तो पता नहीं चलता लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसके पीछे धन लोलपुता की भावना रही होगी । कहा गया है कि राजसूय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 240,000 गायें मिलती थीं ।

यज्ञ की दक्षिणा में सामान्यतः गायें और दासियाँ तो दी ही जाती थीं साथ-साथ सोना कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे । कभी-कभी पुरोहित दक्षिणा में राज्य का कुछ भाग भी माँग लेते थे । किंतु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था ।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम चारों दिशाएँ दे देनी हैं । यदि वास्तव में ऐसा हो तो राजा के पास क्या बचा होगा ? अतः इसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पुरोहित जहाँ तक संभव हो अधिक-से-अधिक भूमि हड़पना चाहते थे ।

परंतु यथार्थ में भूमि अधिक मात्रा में ब्राह्मणों के हाथ नहीं गई होगी । एक जगह इस बात का भी उल्लेख है कि भूमि जब ब्राह्मण को दी जाने लगी तो उसने ब्राह्मण के हाथ जाना अस्वीकार कर दिया ।

वैदिक काल के अंतिम दौर में पुरोहितों के प्रभुत्व के विरुद्ध तथा यज्ञ और कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया प्रारंभ हुई । यह प्रतिक्रिया पंचालों और विदेह के राज्य में विशेषकर हुई जहाँ 600 ई॰ पू॰ के आसपास उपनिषदों का संकलन हुआ था ।

इन दार्शनिक ग्रंथों ने कर्मकांड की निंदा की और सम्यक् विश्वास एवं ज्ञान पर बल दिया । उपनिषदों ने आत्मा को पहचानने और आत्मा तथा ब्रह्म के संबंध को सही रूप में समझने पर बल दिया । तत्कालीन शक्तिशाली राजाओं की तरह ब्रह्म की परिकल्पना परम सत्ता के रूप में की गई । पंचाल और विदेह के कई क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिंतन को अपनाया और ब्राह्मण धर्म में सुधार लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया ।

उनके उपदेशों से स्थायित्व और अखंडता की भावना को बल मिला । आत्मा अपरिवर्ती अविनाशी और अमर है इस बात पर बल देने से उस स्थायित्व की भावना को बल मिला जिसकी अत्यधिक आवश्यकता क्षत्रिय शासकों के अधीन उदीयमान राजसत्ता को थी । आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) के बीच संबंध की भावना से प्रजा में राजा के प्रति भक्ति जगी ।

उत्तर वैदिक काल में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । प्रदेशाश्रित राज्यों की शुरुआत हुई । युद्ध केवल पशुओं को हथियाने के लिए ही नहीं बल्कि राज्यक्षेत्र पर कब्जा करने के लिए भी होने लगे । कौरवों और पांडवों के बीच हुआ प्रख्यात महाभारत युद्ध इसी काल की स्थिति का प्रतिबिंब माना जा सकता है ।

आरंभिक वैदिक काल का प्रधान पशुचारी समाज अब कृषि-प्रधान हो गया । पूर्व के कबायली पशुचारक अब किसान बन गए और बार-बार राजस्व या नजराना दे-देकर अपने राजा का भरण-पोषण करने में समर्थ हो गए । राजा कबायली किसानों के बूते पर समृद्ध होते गए और उन पुरोहितों को प्रचुर दान-दक्षिणा देते रहे जो वैश्य कोटि अर्थात् आम जनता के विरुद्ध हमेशा अपने दाता का पक्ष लेते थे ।

शूद्र इस काल में भी छोटा सेवक वर्ग बना रहा । कबायली समाज टूट कर वर्णों में विभक्त नया समाज बन गया । किंतु वर्णमूलक भेदभावों पर अत्यधिक बल नहीं दिया जा सका । ब्राह्मणों के सहयोग के बावजूद राजन्य या क्षत्रिय राजतंत्र की स्थापना नहीं कर पाए थे ।

तब तक कोई राज्य कैसे चल सकता है जब तक कोई निर्यात कर-प्रणाली न हो और वेतनभोगी सेना न हो । सेना करों के भरोसे ही रखी जा सकती थी । परंतु खेती के प्रचलित तरीके में पर्याप्त कर और राजस्व उगाहने की गुंजाइश नहीं थी ।


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