ऋग वैदिक युग: आर्य, जनजातीय संघर्ष, सामाजिक जीवन और धर्म | Rig Vedic Era : Aryans, Tribal Sttruggle, Social Life and Religion.

ऋग वैदिक युग | Rig Vedic Period | Vedic Period Notes


Contents:

  1. हिंद-आर्यों का आगमन  (Arrival of Hind Aryans)
  2. ऋग्वेद में जनजातीय संघर्ष  (Tribal Struggle in the Rig Vedic Era)
  3. ऋग्वेद में भौतिक जीवन  (Physical Life in the Rig Vedic Era)
  4. ऋग्वेद में जनजातीय राज्यव्यवस्था  (Tribal State Administration during the Rig Vedic Era)
  5. ऋग्वेद में कबीला और परिवार (Rig Vedic Era – Tribe and Family)
  6. ऋग्वैदिक देवता  (Rigvedic God)
  7. ऋग्वेद का सामाजिक वर्गीकरण  (Social Classification of the Rig Vedic Era)

# 1. हिंद-आर्यों का आगमन (Arrival of Hind Aryans):

हिंद-ईरानी, जिनमें हिंद-आर्य और ईरानी शामिल हैं मध्य एशिया के दो इलाकों से चले । पहले इलाके को पुरातात्त्विक दृष्टि से अंद्रोनोवो संस्कृति का क्षेत्र कहते हैं । अंद्रोनोवो संस्कृति द्वितीय सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में मध्य एशिया के लगभग समूचे भाग में फैली हुई थी ।

दूसरे इलाके को पुरातात्त्विक दृष्टि से बैक्ट्रिया-मार्जिआना पुरातात्त्विक क्षेत्र (बी॰ एम॰ एल॰ सी॰ अर्थात् बैक्ट्रिया-मार्जिआना ऑर्किअलॉजिकल कमप्लेक्स) कहते हैं और इसकी तिथि 1900 ई॰ पू॰ से 1500 ई॰ पू॰ के बीच की जाती है । इस सांस्कृतिक क्षेत्र का विस्तार दक्षिणी मध्य एशिया में था ।

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इस इलाके के अंदर बैक्ट्रिया अथवा अफगानिस्तान को लेते हुए बल्ख और तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान को लेते हुए मार्जिआना शामिल हैं । दक्षिणी उजबेकिस्तान और उत्तरी अफगानिस्तान से उपलब्ध कुछ मिट्‌टी के बरतन गंधार की मकबरा संस्कृति (गंधार ग्रेव कल्चर) में प्राप्त मिट्‌टी के बरतनों से मेल खाते हैं । अंद्रोनोवो संस्कृति में आर्यों के जीवन के सभी महत्वपूर्ण तत्व दिखते हैं ।

इनमें पशुपालन घोड़ों का व्यापक इस्तेमाल, आरेदार पहिए, शवों को जलाने की प्रथा, फूस और लकड़ी से छाए हुए गड्‌ढेवाले घर तथा सोम पेय शामिल हैं । अतएव यह संस्कृति आद्य हिंद-ईरानी मानी जाती है । यह संस्कृति आखिरकार ईरान और भारतीय उपमहादेश के उत्तरी भाग में फैल गई ।

लगभग 1500 ई॰ पू॰ में बैक्ट्रिया-मार्जिआना पुरातात्त्विक समूह में पालतू घोड़े आरेदार पहियों के साथ रथ, शवों का आंशिक दहन और स्वस्तिक चिह्न दीखते हैं । आधे दर्जन कब्रिस्तानों से पशुचारी लोगों की गतिविधि का संकेत मिलता है । बैक्ट्रिया-मार्जिआना पुरातात्त्विक क्षेत्र में प्राक-आर्यों के समय के आद्य नगर संस्कृति के अवशेषों से भी मालूम होता है कि जिन पशुचारी लोगों ने इस संस्कृति को क्षति पहुँचाई थी वे इस इलाके से भारतीय उपमहादेश की सीमाओं की ओर गए ।

यही कारण है जिससे लगभग 1400 ई॰ पू॰ से स्वात घाटी में घोड़ों के अवशेष और दाहकर्म वाले बहुत-से कब्र मिले हैं । दक्षिणी मध्य एशिया के लगभग उसी समय के कुछ मिट्‌टी के बरतन स्वात क्षेत्र से प्राप्त तत्कालीन मिट्‌टी के बरतनों से मेल खाते हैं ।

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जिन तीन इलाकों में बैक्ट्रिया-मार्जिआना पुरातात्त्विक क्षेत्र फैला हुआ था उनमें बैक्ट्रिया का उल्लेख भारतीय परंपराओं में पाते हैं । इस वाह्लिक कहते हैं, जिसका अर्थ ‘बाहरी देश’ होता है और जिसकी पहचान आधुनिक बल्ख से की जाती है । यद्यपि इस शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं है, फिर भी यह उत्तर वैदिक मूलग्रंथों में मिलता है । एक ऐसे ही मूलग्रंथ में इस राजा का नामांश बतलाया गया है ।

चौथी शताब्दी के एक गुप्तकालीन अभिलेख में सात नदियों को पारकर वाह्लिक विजय का उल्लेख है । वास्तविक विजय भले ही नहीं हुई हो लेकिन गुप्तकाल में बैक्ट्रिया के अस्तित्व की जानकारी है । बाद के स्रोतों में पंजाब को वाह्लिक माना जाता था और इसे प्राच्य अथवा पूर्वी भारत से अलग माना जाता था ।

बैक्ट्रिया में अफगानिस्तान का बड़ा भाग शामिल था जिससे ऋग्वेद सुपरिचित था । इस देश में बहनेवाली अनेक नदियों का इसमें उल्लेख है । आर्य भाषा-भाषी अफगानिस्तान में बसने के लिए आए इसका संकेत नदियों के आर्य-नामों से मिलता है । इस देश का एक भाग ‘अरैय’ अथवा ‘हरैय’ कहलाता है, जिससे ‘हरात’ की उत्पत्ति है ।

प्राचीनतम आर्य भाषा-भाषी पूर्वी अफगानिस्तान उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती स्थानों तक फैले हुए थे । अफगानिस्तान की कुछ नदियाँ जैसे कुभा नदी और सिंधु नदी तथा उसकी पाँच शाखाएँ ऋग्वेद में उल्लिखित हैं ।

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सिंधु नदी जिसकी पहचान अंग्रेजी के ‘इंडस’ से की जाती है आर्यों की विशिष्ट नदी है और इसका बारंबार उल्लेख होता है । दूसरी नदी ‘सरस्वती’ ऋग्वेद में सबसे अच्छी नदी (नदीतम) कही गई है । इसकी पहचान हरियाणा और राजस्थान में स्थित घग्गर-हकरा की धारा से की जाती है ।

लेकिन इसके ऋग्वैदिक वर्णन से पता चलता है कि यह अवेस्ता में अंकित हरख्वती नदी है जो आजकल दक्षिण अफगानिस्तान की हेलमंद नदी है । यहाँ से सरस्वती नाम भारत में स्थानांतरित किया गया । भारतीय उपमहादेश के अंतर्गत जहाँ आर्य भाषा-भाषी पहले पहल बसे वह संपूर्ण क्षेत्र सात नदियों का देश कहलाता है ।

ऋग्वेद से हम भारतीय आर्यों के बारे में जानते हैं । ऋग्वेद में आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख है, और इससे सामान्यतया हिंद-आर्य भाषा बोलने वाले सांस्कृतिक समाज का संकेत मिलता है । ऋग्वेद हिंद-आर्य भाषाओं का प्राचीनतम ग्रंथ है । यह वैदिक संस्कृत में लिखा गया है लेकिन इसमें अनेक मुंडा और द्रविड शब्द भी मिलते हैं । शायद ये शब्द हड़प्पा लोगों की भाषाओं से ऋग्वेद में चले आए ।

ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मित्र, वरूण आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहीत हैं जिनकी रचना विभिन्न गोत्रों के ऋषियों और मंत्रस्रष्टाओं ने की है । इसमें दस मंडल या भाग हैं, जिनमें मंडल 2 से 7 तक प्राचीनतम अंश हैं । प्रथम और दशम मंडल सबसे बाद में जोड़े गए मालूम होते हैं । ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता से मिलती हैं ।

अवेस्ता ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है । दोनों ग्रंथों में बहुत-से देवताओं और सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं । पर हिंद-यूरोपीय भाषा का सबसे पुराना नमूना इराक में पाए गए लगभग 2200 ई॰ पू॰ के एक अभिलेख में मिला है ।

बाद में इस तरह के नमूने अनातोलिया (तुर्की) में उन्नीसवीं से सत्रहवीं सदी ईसा-पूर्व के हत्ती अभिलेखों में मिलते हैं । इराक में मिले लगभग 1600 ई॰ पू॰ के कस्सी अभिलेखों में तथा सीरिया में मितानी अभिलेखों में आर्य नामों का उल्लेख मिलता है । उनसे पश्चिम एशिया में आर्य भाषा-भाषियों की उपस्थिति का पता चलता है । लेकिन भारत में अभी तक इस तरह का कोई अभिलेख नहीं मिला है ।

भारत में आर्य जन कई खेपों में आए । सबसे पहले की खेप में जो आए वे हैं ऋग्वैदिक आर्य, जो इस उपमहादेश में 1500 ई॰ पू॰ के आसपास दिखाई देते हैं । उनका दास, दस्यु आदि नाम के स्थानीय जनों से संघर्ष हुआ । चूंकि दास जनों का उल्लेख प्राचीन ईरानी साहित्य में भी मिलता है, इसलिए प्रतीत होता है कि वे पूर्ववर्ती आर्यों की ही एक शाखा में पड़ते थे ।

ऋग्वेद में कहा गया है कि भरत वंश के राजा दिवोदास ने शंबर को हराया । यहाँ दास शब्द दिवोदास के नाम में लगता है । ऋग्वेद में जो दस्यु कहे गए हैं वे संभवतः इस देश के मूलवासी थे और आर्यों के जिस राजा ने उन्हें पराजित किया था, वह त्रसदस्यु कहलाया ।

वह राजा दासों के प्रति तो कोमल था, पर दस्युओं का परम शत्रु था । ऋग्वेद में दस्युहत्या शब्द का बार-बार उल्लेख मिलता है, पर दासहत्या का नहीं । दस्यु लोग शायद लिंगपूजक थे और दूध के लिए पशुपालन नहीं करते थे ।


# 2. ऋग्वेद में जनजातीय संघर्ष (Tribal Struggle in the Rig Vedic Era):

हम यह तो नहीं जानते कि आर्यों के शत्रुओं के हथियार कैसे थे, पर यह ज्ञात होता है कि इंद्र ने आर्यों के शत्रुओं को बार-बार पराजित किया । ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर कहा गया है जिसका अर्थ है दुर्गों को तोड़ने वाला । लेकिन आर्य-पूर्व जनों के इन दुर्गों का हमें कोई पता नहीं है ।

हो सकता है इनमें कुछ दुर्ग अफगानिस्तान में रहे हों । आर्य जन हर जगह जीतते गए क्योंकि उनके पास अश्वचालित रथ थे । उन्होंने पश्चिम एशिया और भारत में पहले-पहल इन रथों को प्रचलित किया । आर्य सैनिकों के पास शायद कवच (वर्मन्) और अन्य अच्छे अस्त्र भी थे ।

वैदिक आर्यों को दो तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा । एक ओर उनकी आर्य-पूर्व जनों से लड़ाई हुई तो दूसरी ओर अपने ही लोगों के बीच । आंतरिक जनजातीय संघर्षों से आर्य समुदाय दीर्घकाल तक जर्जर रहे । परंपरानुसार तो आर्यों के पाँच कबीले, अर्थात् जन थे, जिनका समुदाय पंचजन कहलाता था, लेकिन और भी जन रहे होंगे । ये जन आपस में लड़ते थे और कभी-कभी इसके लिए आर्येत्तर जनों का भी सहारा लेते थे ।

भरत और त्रित्सु आर्यों के शासक वंश थे और पुरोहित वसिष्ठ दोनों वंशों के समर्थक थे । बाद में चलकर इस देश का नाम इसी भरत कुल के आधार पर भारतवर्ष पड़ा । इस कुल या कबीले का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है ।

भरत राजवंश का दस राजाओं के साथ विरोध था जिनमें पाँच आर्य जनों के प्रधान थे और शेष आर्येतर जनों के । भरत और दस राजाओं के बीच जो लड़ाई लड़ी गई वह दशराज्ञ युद्ध (दस राजाओं के बीच लड़ाई) के रूप में विदित है । यह युद्ध परुष्णी नदी के तट पर हुआ, जिसकी पहचान आज की रावी नदी से की जाती है । इसमें सुदास की जीत हुई और इस प्रकार भरती की प्रभुता स्थापित हुई ।

पराजित जनों में पुरु जन सबसे महान थे । कालांतर में भरतों और पुरुओं के बीच मैत्री हो गई और दोनों ने मिलकर नया शासक कुल बनाया जो कुरु के नाम से प्रसिद्ध हुआ । फिर कुरु जनों ने पंचालों के साथ मिलकर उच्च गंगा मैदान में अपना संयुक्त राज्य स्थापित किया । यहाँ कुरु-पंचालों ने उत्तर वैदिक काल में बड़ा महत्व प्राप्त किया ।


# 3. ऋग्वेद में भौतिक जीवन (Physical Life in the Rig Vedic Era):

ऋग्वैदिक आर्यों के भौतिक जीवन का कुछ आभास मिलता है । भारत में उनकी सफलता के कारण थे घोड़े, रथ और संभवत: कांसे के कुछ बेहतर हथियार भी जिनके बारे में हमें पुरातात्त्विक प्रमाण नाममात्र के मिले हैं । संभवत: उन्होंने आरा वाला पहिया भी चलाया जो सबसे पहले कॉकेसस क्षेत्र में 2300 ई॰ पू॰ में प्रयोग में लाया गया ।

जब वे इस उपमहादेश के पश्चिमी भाग में बसे तब उन्हें राजस्थान की खेत्री खानों से तांबा मिलता रहा होगा । ऋग्वैदिक लोगों को खेती की बेहतर जानकारी थी । ऋग्वेद के प्राचीनतम भाग में फाल का उल्लेख मिलता है हालांकि कुछ विद्वान इसे प्रक्षिप्त पाठ मानते हैं । शायद वह फाल लकड़ी की रही होगी ।

उन्हें बोवाई, कटाई और दावनी का ज्ञान था । विभिन्न ऋतुओं के बारे में भी उन्हें जानकारी थी । जहाँ वैदिक जन बसे थे उन प्रदेशों के आर्य-पूर्व जनों को भी खेती का अच्छा ज्ञान था । पर खेती का उपयोग शायद चारा पैदा करने के लिए अधिक हुआ ।

ऋग्वेद में गाय और साँड़ की इतनी चर्चा है कि ऋग्वैदकि आर्यों को मुख्य रूप से पशुचारक कहा जा सकता है । उनकी अधिकांश लड़ाइयाँ गाय को लेकर हुई हैं । ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गविष्टि (गाय का अन्वेषण) है । गाय सबसे उत्तम धन मानी जाती थी ।

जहाँ कहीं पुरोहितों को दी जाने वाली दक्षिणा की बात आई है उसमें आमतौर से गायें और दासियाँ होती और भूमि कभी न होती । ऋग्वैदिक लोग गाय चराने खेती करने और बसने के लिए जमीन पर कब्जा करते होंगे परंतु भूमि निजी संपत्ति नहीं होती थी ।

ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं । इससे पता चलता है कि आर्य लोगों में इन सभी शिल्पों का प्रचलन था । तांबे या कांसे के अर्थ में ‘अयस्’ शब्द के प्रयोंग से प्रकट होता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी ।

परंतु नियमित व्यापार के होने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है । आर्य जन या वैदिक जन का अधिक संबंध स्थल मार्ग से था क्योंकि ऋग्वेद में उल्लिखित समुद्र शब्द मुख्यत: जलराशि का वाचक है । जो भी हो आर्य जन शहरों में नहीं रहते थे ।

संभवत: वे किसी-न-किसी तरह का गढ़ बनाकर मिट्‌टी के घरवाले गाँवों में रहते थे और पुरातत्त्वेत्ताओं को अभी तक ऐसी गढ़ वाली बस्तियों का पता नहीं लगा है । वे पहाड़ी में स्थित गुफाओं से भी परिचित थे । हाल में हरियाणा के भगवानपुरा में एक और पंजाब में तीन स्थलों की खुदाई हुई है । इन सभी स्थलों में उत्तरकालीन हथाई मृद्‌भांडों के साथ चित्रित धूसर मृदभांड पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰ प्राप्त हुए हैं ।

भगवानपुरा में प्राप्त वस्तुओं का काल 1600 ई॰ पू॰ से 1000 ई० पू० निर्धारित किया गया है । लगभग यही काल ऋग्वेद का भी है । इन चार स्थलों का भौगोलिक क्षेत्र भी वही है जो ऋग्वेद के पर्याप्त अंश में मिलता है । यद्यपि इन सभी स्थलों में चित्रित धूसर मृद्‌भांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) मिले हैं तथापि लोहे की वस्तु और अनाज का पता नहीं है ।

इसलिए हम ऋग्वैदिक अवस्था के समान काल में चित्रित धूसर मृद्‌भांड संस्कृति (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) के अंतर्गत लौह-पूर्व अवस्था की कल्पना कर सकते हैं । यह बात रोचक है कि भगवानपुरा में तेरह कमरों वाला एक मिट्‌टी का घर मिला है । इसका काल निर्धारण पक्का नहीं है ।

या तो यह किसी बहुत बड़े परिवार का निवासगृह होगा या कबीला-सरदार का आवास । इन सभी स्थलों पर गोरूओं की हड्‌डियाँ भारी तादाद में मिली है और भगवानपुरा में घोड़ों की भी हड्‌डियाँ मिली हैं ।


# 4. ऋग्वेद में जनजातीय राज्यव्यवस्था (Tribal State Administration during the Rig Vedic Era):

ऋग्वैदिक काल में आर्यों का प्रशासन तंत्र कबीले के प्रधान के हाथों चलता था क्योंकि वही युद्ध का सफल नेतृत्व करता था । वह राजन् (अर्थात् राजा) कहलाता था । प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था । राजा एक प्रकार का सरदार था पर उसके हाथ में असीमित अधिकार नहीं रहता था क्योंकि उसे कबायली संघटनों से सलाह लेनी पड़ती थी ।

हमें इस बात का भी आभास मिला है कि कबीले की आम सभा जो समिति कहलाती थी अपने राजा को चुनती थी । राजा को अपने कबीले का रक्षक कहा जाता था । वह कबीले के मवेशी की रक्षा करता था युद्ध में लड़ता था और कबीले की ओर से देवताओं की प्रार्थना करता था ।

ऋग्वेद में कबीलों या कुलों के आधार पर बन बहुत-से संघटनों क उल्लेख मिलते हैं जैसे सभा, समिति, विदथ, गण । ये संघटन विचार-विमर्श करते थे तथा सैनिक और धार्मिक कार्य देखते थे । ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विदथ में भाग लेती थों । सभा और समिति ये दोनों संघटन इतने महत्वपूर्ण थे कि प्रधान या राजा भी समर्थन के लिए इनका मुँह जोहते रहते थे ।

दैनिक प्रशासन में कुछ अधिकारी राजा की सहायता करते थे । सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी पुरोहित होता था । ऋग्वेद काल में वसिष्ठ और विश्वामित्र दो महान पुरोहित हुए । वसिष्ठ रूढ़िवादी थे और विश्वामित्र उदार । लोगों को आर्य बनाने के लिए विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र की रचना की ।

पुरोहित राजा को कर्त्तव्य का उपदेश देते थे उनका गुणगान करते थे और बदले में गायों और दासियों के रूप में प्रचुर दान-दक्षिणा पाते थे । पुरोहित के बाद शायद सेनानी का स्थान था जो भाला कुठार तलवार आदि शस्त्र चलाना जानता था । हमें ऐसे किसी अधिकारी का पता नहीं चलता जो कर वसूलता हो ।

संभवतः प्रजा स्वयं राजा को उसका अंश स्वेच्छा से देती थी । इस अंश का नाम बलि (अर्थात् चढ़ावा) था । युद्ध में प्राप्त भेंट और लूट की वस्तुएँ वैदिक सभा में बाँट दी जाती थी । ऋग्वेद में किसी तरह के न्यायाधिकारी का उल्लेख नहीं है । लेकिन वह कोई आदर्श समाज नहीं था कि जहाँ इसकी जरूरत न रही हो ।

चोरी और सेंधमारी होती थी और गायों की चोरी तो विशेष रूप से होती थी । ऐसी समाज विरोधी हरकतों को रोकने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे । अधिकारियों के पदनामों से नहीं लगता कि वे भू-भाग पर शासन करते थे । फिर भी लगता है कि अधिकारी क्षेत्रों से जुड़े थे ।

चारागाहों और आबाद गाँवों पर उनके विशेष अधिकार थे । चारागाह या बड़े जत्थे का प्रधान व्राजपति कहलाता था । वही परिवारों के प्रधानों को, जो कुलपा कहलाते थे, अथवा लड़ाकू दलों के प्रधानों को जो ग्रामणी कहलाते थे, साथ करके युद्ध में ले जाता था । आरंभ में ग्रामणी छोटी-सी कबायली लड़ाकू टोली का मुखिया होता

था । पर बाद में जब ऐसी टोली स्थिरवासी हो गई तब ग्रामणी सारे गाँव का मुखिया हो गया और कालांतर में वही व्रजपति बन गया ।

राजा कोई नियमित या स्थायी सेना नहीं रखता थे लेकिन युद्ध के समय स्वजनों की सेना (मिलिशिया) संगठित कर लेता था । व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नाम से विदित विभिन्न कबायली टोलियाँ लड़ाई लड़ती थीं । कुल मिलाकर यह कबायली ढंग का शासन था जिसमें सैनिक तत्व प्रबल होता था । नगरीय शासन या प्रादेशिक प्रशासन जम नहीं पा रहा था क्योंकि लोग निरंतर स्थान बदलते और फैलते जाते थे ।


# 5. ऋग्वेद में कबीला और परिवार (Rig Vedic Era – Tribe and Family):

सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक संबंध था । जैसा कि कई ऋग्वैदिक राजाओं के नामों से सात होता है व्यक्ति की पहचान उसके कुल या गोत्र से होती थी । लोगों की सबसे अधिक आस्था अपने-अपने कबीले के प्रति रहती थी जिसे जन कहा जाता था ।

एक पुरानी ऋचा में दो जनों की संयुक्त युद्ध क्षमता इक्कीस बताई गई है । इससे लक्षित होता है कि किसी जन में सदस्यों की संख्या कुल मिलाकर 100 से अधिक नहीं रहती होगी । ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख लगभग 275 बार हुआ है, पर जनपद (अर्थात् राज्यक्षेत्र) शब्द एक बार भी नहीं आया है । लोग कबीले के अंग थे क्योंकि उन दिनों राज्यक्षेत्र या राज्य स्थापित नहीं हो पाया था ।

ऋग्वेद में दूसरा महत्वपूर्ण शब्द जो कबीले के अर्थ में मिलता है वह है विश् । इसका अनुवाद गोत्र या क्लैन भी किया जा सकता है । ऋग्वेद में इसका उल्लेख 170 बार हुआ है । संभवतः विश् को लड़ाई के उद्देश्य से ग्राम नामक टोलियों में बाँटा गया था । उस समय ग्राम से स्वजनों के छोटे समूह का बोध होता था । जब ये ग्राम आपस में टकरा जाते थे तो संग्राम या युद्ध हो जाता था ।

वैश्य नामक बहुसंख्यक वर्ण का उदय इसी विश्र या कबायली जनसमूह से हुआ है । ऋग्वेद में परिवार वाचक कुल शब्द का प्रयोग विरल है । इसमें केवल माता पिता पुत्र दास आदि ही नहीं आते थे, बल्कि और भी लोग आते थे । प्रतीत होता है कि आरंभिक वैदिक अवस्था में परिवार के अर्थ में गृह शब्द था जो ऋग्वेद में बार-बार आया है ।

प्राचीनतम हिंद-यूरोपीय भाषाओं में पोते नाती भांजे भतीजे आदि सबके लिए एक ही शब्द था । इसका अर्थ हुआ कि पृथक कुटुंबों की स्थापना की दिशा में पारिवारिक संबंधों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था और कुटुंब एक बड़ी सम्मिलित इकाई था । रोमन समाज की तरह यह पितृतंत्रात्मक परिवार था जिसमें पिता मुखिया होता था ।

जान पड़ता है कि परिवार की अनेक पीढ़ियाँ एक घर में साथ-साथ रहती थीं । निरंतर युद्ध में लगे पितृतंत्रात्मक समाज में लोग हमेशा वीर पुत्रों की प्राप्ति के लिए देवता से प्रार्थना करते थे । ऋग्वेद में बेटी के लिए कामना कहीं व्यक्त नहीं की गई है जबकि प्रजा (संतान) और पशु की कामना सूक्ष्मों में बार-बार आई है ।

स्त्रियाँ सभा-समितियों में भाग ले सकती थीं । वे पतियों के साथ यज्ञों में आहुतियाँ दे सकती थीं । सूक्तों की रचना करने वाली पाँच महिलाएँ ज्ञात हैं । बाद के ग्रंथों में तो ऐसी 20 स्त्रियों के उल्लेख मिले हैं । निस्संदेह सूक्तों की रचना मौखिक होती थी और उस काल का कोई लेख नहीं मिला है ।

विवाह संस्था कायम हो चुकी थी यद्यपि कुछ आदिम प्रथाओं के अवशेष का भी आभास मिलता है । जुड़वाँ भाई-बहन यम और यमी की कहानी हमें मालूम है । यमी ने यम से विवाह का प्रस्ताव रखा, यम ने अस्वीकार कर दिया । बहुपति-प्रथा के भी कुछ संकेत मिले हैं ।

उदाहरणार्थ, मरुतों ने रोदसी को मिलकर भोगा और सूर्य की पुत्री सूर्या दोनों भाई अश्विन् के साथ रहती थी । लकिन ऐसे उदाहरण बहुत नहीं हैं । शायद ये मातृतंत्रात्मक स्थिति के द्योतक अवशेष हैं; और हम माता के नाम पर पुत्रों का नामकरण भी पाते हैं जैसे मामतेय ।

ऋग्वेद में नियोग-प्रथा और विधवा-विवाह के प्रचलन का भी आभास मिलता है । बाल-विवाह का कोई उदाहरण नहीं है । जान पड़ता है ऋग्वैदिक काल में सोलह-सत्रह वर्ष की आयु में विवाह होता था ।


# 6. ऋग्वैदिक देवता  (Rigvedic God):

हर समुदाय को अपना धर्म का आलोक अपने ही परिवेश में मिलता है । वर्षा का होना, सूर्य और चंद्र का उदय, नदी-पर्वत आदि का अस्तित्व ये सब बातें वैदिक लोगों के लिए पहेली जैसी थीं । अतः उन लोगों ने इन प्राकृतिक शक्तियों को अपने मन में दैहिक रूप देकर इन्हें प्राणियों के रूप में देखा और इनमें मानव और पशु के गुण आरोपित किए ।

ऐसे बहुत-से देवताओं के दर्शन हमें ऋग्वेद में मिलते हैं जिसमें इन देवताओं की स्तुति में विभिन्न ऋषियों के रचे सूक्त भरे पड़े हैं । ऋग्वेद में सबसे अधिक प्रतापी देवता इंद्र है जिसे पुरंदर अर्थात् किले या आवास संग्रह को तोड़ने वाला कहा गया है ।

इंद्र आर्यों के युद्ध नेता के रूप में चित्रित है जिसने असुरों से लड़ने में आर्य सैनिकों का नेतृत्व किया और उन्हें विजय दिलाई । इंद्र पर 250 सूक्त हैं । वह बादल का देवता माना गया है, जो वर्षा देता है । अग्नि का दूसरा स्थान है । उस पर 200 सूक्त हैं । आदिम अवस्था के लोगों में अग्नि की भूमिका बड़े महत्व की रही क्योंकि इससे वे जंगलों को जलाना खाना पकाना आदि काम लेते थे ।

अग्नि की उपासना न केवल भारत में अपितु ईरान में भी होती थी । वैदिक काल में अग्नि ने देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थ का काम किया है । समझा जाता था कि अग्नि में डाली जाने वाली आहुतियाँ धुआँ बनकर आकाश में जाती हैं और अंततः देवताओं को मिल जाती हैं । तीसरा स्थान वरूण का है जो जल या समुद्र का देवता माना गया है ।

उसे ऋतु अर्थात् प्राकृतिक संतुलन का रक्षक कहा गया है और समझा जाता था कि जगत में जो भी घटना होती है वह उसी की इच्छा का परिणाम है । सोम वनस्पतियों का अधिपति माना गया है और एक मादक रस का नाम उसी के नाम पर पड़ा है ।

ऋग्वेद के बहुत-से सूक्तों में एक प्रकार के पौधे से, जिसकी पहचान अभी तक पक्की नहीं हो पाई है । सोमरस बनाने की विधि बताई गई है । मरुत आँधी के देवता हैं । इस प्रकार हमें इसमें ऐसे बहुत सारे देवताओं के उल्लेख मिलते है जो किसी-न-किसी रूप में प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के प्रतिरूप हैं और साथ ही मानवोचित व्यवहार भी करते हैं । देवताओं में कुछ देवियाँ भी हैं जैसे अदिति और उषा जो प्रभात समय के प्रतिरूप हैं ।

किंतु ऋग्वेद काल में देवियों की प्रमुखता नहीं थी । उस काल के पितृतंत्रात्मक समाज में देवों का बोलबाला देवियों से कहीं अधिक था । देवताओं की उपासना की मुख्य रीति थी स्तुतिपाठ करना और यज्ञ-बलि (चढ़ावा) अप्रित करना ।

ऋग्वैदिक काल में स्तुतिपाठ पर अधिक जोर था । स्तुतिपाठ सामूहिक भी होता था और अलग-अलग भी । सामान्यतः हर कबीले या गोत्र का अपना अलग देवता होता था । लगता है कि स्तुतिपाठ कबीले या गोत्र भर के लोग समवेत स्वर में करते थे । यज्ञाहुतियों में भी यही बात होती थी ।

इंद्र और अग्नि समस्त जन द्वारा दी गई बलि ग्रहण करने के लिए आहूत होते थे । बलि या यज्ञाहुति में शाक, जौ आदि वस्तुएँ दी जाती थीं । परंतु ऋग्वैदिक काल में ये वस्तुएँ चढ़ाते समय कोई आनुष्ठानिक या याज्ञिक मंत्र नहीं पढ़े जाते थे । उन दिनों शब्द में किसी जादुई असर का होना उतना नहीं माना जाता था जितना उत्तर वैदिक काल में माना जाने लगा ।

ऋग्वैदिक काल के लोग देवाराधना क्यों करते थे ? वे लोग आध्यात्मिक उत्थान या जन्म-मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिए ऐसा नहीं करते थे । वे अपने देवताओं से संतति, पशु, अन्न, धान्य, आरोग्य आदि पाने की कामना से उनकी उपासना करते थे ।


# 7. ऋग्वेद का सामाजिक वर्गीकरण  (Social Classification of the Rig Vedic Era):

ऋग्वेद में हमें 1500-1000 ई॰ पू॰ के आसपास के पश्चिमोतर भारत के लोगों के शारीरिक रूप-रंग की चेतना का कुछ आभास मिलता है । वर्ण शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में होता था और प्रतीत होता है कि आर्य भाषा-भाषी गौर वर्ण के थे और मूलवासी लोग काले रंग के । हो सकता है कि सामाजिक वर्ग-विन्यास में रंग को परिचायक चिह्न बनाया गया हो लेकिन रंगभेददर्शी पश्चिमी लेखकों ने रंग की धारणा को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया है ।

वास्तव में समाज में वर्गों के सृजन का सबसे बड़ा कारण हुआ स्थानीय निवासियों पर आर्यों का आधिपत्य । आर्यों द्वारा जीते गए दास और दस्यु जन दास (गुलाम) और शूद्र हो गए । ऋग्वेद में आर्य वर्ण और दास वर्ण का उल्लेख है । जीती गई वस्तुओं में कबीले के सरदारों और पुरोहितों को अधिक हिस्सा मिलता था और स्वभावतः वे अपने गोतियों और भाई-बंधुओं को वंचित करते हुए अधिकाधिक संपन्न होते गए ।

इससे कबीले में सामाजिक असमानता का सृजन हुआ । धीरे-धीरे कबायली समाज तीन वर्गों में बँट गया-योद्धा पुरोहित और सामान्य जन (प्रजा) । इसी तरह का विभाजन ईरान में भी हुआ था । चौथा वर्ग जो शुद्र कहलाता था ऋग्वेद काल के अंत में दिखाई पड़ता है, क्योंकि इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दशम मंडल में है, जो सबसे बाद में जोड़ा गया है ।

पुरोहितों को दक्षिणा में दास दिए जाने की बात बार-बार आई है । मुख्य रूप से दासियाँ दी जाती थीं जिनसे घरेलू काम कराया जाता था । इससे साफ जाहिर होता है कि ऋग्वेद काल में दास प्रत्यक्षत: खेती के काम में या अन्य उत्पादनात्मक कार्य में नहीं लगाए जाते थे ।

ऋग्वेद के युग में ही व्यवसाय के आधार पर समाज में विभेदीकरण आरंभ हुआ । किंतु उन दिनों यह विभेदकीरण बहुत कड़ा नहीं हुआ था । ऋग्वेद में किसी परिवार का एक सदस्य कहता है ”में कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और माता चक्की चलाने वाली है, भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं… ।” गायें, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ दान में दिए जाते थे ।

युद्ध में हाथ लगी संपत्ति का असमान वितरण होने के कारण समाज में असमानता आई और इससे सामान्य कबायली लोगों को वंचित करते हुए राजाओं और पुरोहितों को आगे बढ़ने में सहायता मिली । लेकिन चूंकि मुख्य आर्थिक आधार पशुचारण था इसलिए प्रजा से नियमपूर्वक कर (राजस्व) वसूलने की गुंजाइश बहुत कम थी ।

हमें दान में भूमि मिलने का उल्लेख नहीं मिलता है और अन्नदान का भी विरल वर्णन ही मिलता है और हम दास-दासियाँ पाते हैं लेकिन मजदूर (अर्थात् मजदूरी पर खटने वाले श्रमिक) नहीं देखते हैं । समाज में कबायली तत्व प्रबल थे, तथा कर-संग्रह और भूमि-संपदा के स्वामित्व पर आश्रित सामाजिक वर्गीकरण नहीं हुआ था । समाज अब भी कबायली और काफी हद तक समतानिष्ठ था ।


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