कुशन साम्राज्य के दौरान जीवन: सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन | Life During Kushan Empire: Social, Economical and Religious Life.

कुषाणयुगीन समाज सामाजिक जीवन (Social Life):

कुषाण काल में भारतीय समाज का मूल ढाँचा अपरिवर्तित रहा । परम्परागत वर्ण व्यवस्था पर विदेशियों के आक्रमण से गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया । इसका सामना करने के लिये सामाजिक व्यवस्थाकारों ने उन्हें अपनी व्यवस्था के अन्तर्गत स्थान दिया ।

परम्परागत चार वर्णों का आधार जन्म बन गया तथा बहुसंख्यक पेशेवर जातियों की उत्पत्ति हो गयी । विभिन्न श्रेणियों भी क्रमशः संकुचित होकर कठोर जातियों में परिणत हो गयीं । कृषि, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के परिणामस्वरूप समाज के निम्न वर्गों की दशा में सुधार हुए तथा अन्तिम दो वर्णों, वैश्य तथा शूद्र का अन्तर काफी कम हो गया ।

शक, कुषाण आदि विदेशी जातियों को स्मृतिकारों ने ‘व्रात्य क्षत्रिय’ कहकर वर्ण व्यवस्था में स्थान दे दिया । कुषाणयुगीन शिल्पों तथा मूर्तियों की वेशभूषा से तत्कालीन समाज के वस्त्राभूषण की जानकारी होती है । निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि आम जनता का जीवन सुखी एवं सुविधापूर्ण था ।

आर्थिक समृद्धि, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति (Economic Prosperity, Progress of Trade-Commerce):

ADVERTISEMENTS:

भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक कुषाणों का शासन बना रहा । आर्थिक दृष्टि से यह सर्वाधिक समृद्धि का काल माना जा सकता है । कुषाणों ने प्रथम बार एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की थी । इसके पूर्व में चीन तथा पश्चिम में पार्थिया के साम्राज्य स्थित थे ।

इस काल में आर्थिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है भारत का मध्य एशिया तथा पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध की स्थापना । कुषाणों ने चीन से ईरान तथा पश्चिमी एशिया तक जाने वाले रेशम के मार्ग को अपने नियंत्रण में रखा क्योंकि यह उनके साम्राज्य से होकर गुजरता था ।

यह मार्ग उनकी आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत था क्योंकि इससे जाने वाले व्यापारी बहुत अधिक कर देते थे । इस सिल्क व्यापार में भारतीय व्यापारियों ने बिचौलियों के रूप में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया । इसके फलस्वरूप उत्तरी-पश्चिमी भारत एक अत्यन्त समृद्ध व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित हो गया ।

इस समय रोम साम्राज्य का भी उदय हो रहा था । रोम तथा पार्थिया के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं थे । अत: चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखने के लिये रोमनों को कुषाण साम्राज्य की मित्रता पर ही निर्भर करना पड़ता था ।

ADVERTISEMENTS:

भारत के व्यापारी चीन से रेशम खरीदकर रोम को भेजते तथा उसके बराबर सोना प्राप्त करते थे । क्लासिकल लेखक रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्ध की पुष्टि करते हैं । प्लिनी भारत को बहुमूल्य पत्थरों रख रत्नों का प्रमुख उत्पादक बताता है ।

उसके विवरण से ज्ञात होता है कि रोम प्रतिवर्ष भारत से विलासिता की सामग्रियाँ माँगने में दस करोड़ सेस्टर्स व्यय करता था । वह अपने देशवासियों की इस अपव्ययिता के लिये निन्दा करता है । विलासिता सामग्रियों के बदले में भारत रोम से बड़ी मात्रा में स्वर्ण-मुद्रायें उपलब्ध करता था ।

पेरीप्लस से भी इस विवरण की पुष्टि होती है । इसके अनुसार भारत से मसाले, मोती, मलमल, हाथीदाँत की वस्तुएँ औषधियाँ, चन्दन, इत्र आदि बहुतायत में रोम पहुँचते थे । इनके बदले रोम का सोना भारत आता था । भारत में रोम के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं । रोम के निवासियों का भारतीय सामग्रियों के प्रति गहरा आकर्षण था ।

रोमन युवतियाँ भारतीय मोती के गहने धारण करती थी तथा महिलाएँ मलमल की साड़ियों की दीवानी थीं । इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि रोम तथा भारत के बीच सम्पर्क कुषाणकाल के पहले से ही स्थापित हो चुका था । पाम्पेई नगर की खुदाई से 1938 ई. में पाम्पेई के ध्वंसावशेषों में भारतीय शैली में निर्मित हाथीदाँत की एक यक्षिणी की मूर्ति मिली है ।

ADVERTISEMENTS:

इसका काल ईसा पूर्व दूसरी शती माना जाता है । इससे रोम के साथ भारतीय सम्पर्क सिद्ध होता है । स्ट्रेबो के विवरण से पता चलता है कि रोमन सम्राट आगस्टस (ई. पू. 29-14 ई.) के दरबार में एक भारतीय सम्राट (संभवतः पोरस) ने अपना दूतमण्डल भेजा था ।

मार्ग की कठिनाइयों के कारण मात्र तीन व्यक्ति ही वहाँ पहुंच सके जो अपने साथ भुजाहीन एक व्यक्ति, साँप तथा कछुआ ले गये थे । सुदूर दक्षिण के पाण्ड्य शासकों ने भी आगस्टस के दरबार में दूत भेजे थे । इसके बाद क्लाडियस तथा ट्रेजन के समय में भी राजदूतों का आदान-प्रदान चलता रहा । ट्रेजन के विषय में एक प्रसंग मिलता है जिसके अनुसार 116 ई. में भारत की ओर जाने वाले एक जहाज को देखकर उसने यह इच्छा व्यक्त की कि- ‘यदि मैं युवा होता तो अभी इस पर कूद कर बैठ जाता ।’

प्रारम्भ में रोम के साथ व्यापार स्थल मार्ग से ही होता था । वेग्राम तथा तक्षशिला की खुदाई में रोमन मूल की कई वस्तुयें मिलती है जो निश्चयत: स्थल मार्ग द्वारा ही आई होगी । ईरान के पार्थियन राजाओं तथा रोम के बीच पहली शताब्दी ईसा पूर्व में जो संघर्ष छिड़ा उससे व्यापार के स्थल मार्ग अवरुद्ध हो गये ।

कालान्तर में कुषाणों ने बैक्ट्रिया, काबुल तथा कान्धार को विजित कर इस मार्ग को पुन: चालू करवाया । भारत-रोम थलीय यातायात कुषाणों के इस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेने के कारण ही संभव हो सका । हिप्पोलस की खोज के बाद समुद्री व्यापार भी होने लगा ।

कुषाणकालीन भारत में व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में सिक्कों का नियमित रूप से प्रचलन हुआ । कुषाणों के पास स्वर्ण का भारी भण्डार था जिसे उन्होंने मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों एवं रोम से प्राप्त किया था । सिक्कों का प्रारम्भ विम कडफिसेस के काल से हुआ तथा कनिष्क के समय तक आते-आते भारी मात्रा में स्वर्ण मुद्राओं का निर्माण होने लगा ।

कुषाण सिक्के शुद्धता की दृष्टि खे उत्कृष्ट है । इनका वजन 123-24 ग्रेन है तथा इनमें स्वर्ण की मात्रा 92% हैं । कालान्तर में गुप्त शासकों ने इन्हीं के अनुकरण पर सिक्के चलवाये थे । उत्तर तथा पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कुषाणों ने बड़ी मात्रा में ताँबे के सिक्के प्रचलित करवाये थे ।

ऐसा लगता है कि सामान्य व्यवहार में इन्हीं का प्रयोग किया जाता था, जबकि विशेष लेन-देन स्वर्ण सिक्कों में होता होगा । इस प्रकार कनिष्क का शासन-काल आर्थिक समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल था । गंगा घाटी तथा मध्य एशिया के विभिन्न स्थलों कि खुदाइयों से स्पष्ट हो जाता है कि कुषाण काल में नगरीकरण चर्मोत्कर्ष पर था ।

मथुरा के समीप सोंख नामक स्थल की खुदाई से पता चलता है कि कुषाणकालीन भवनों के सात स्तर ये, जबकि गुप्तकालीन भवनों में केवल एक या दो ही स्तर थे । इस समय भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाता था ।

फर्श भी पकी ईंटों की बनती थी तथा छतों में पके खपरैल लगाये जाते थे । सोंख में गली के दोनों और दुकानों की पंक्तियां मिली है । विविध स्थलों की खुदाई में प्राप्त भौतिक अवशेषों से स्पष्ट है कि कुषाणकाल भवनों, नगरों तथा सिक्कों की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था ।

जितने अधिक सिक्के तथा उनके साँचे इस काल (ई. पू. 200ई. 200) में मिले हैं उतने किसी अन्य काल में नहीं मिलते । विविध धातुओं से मुद्रायें तैयार करना मौर्योत्तर नगरीय जीवन की खास विशेषता थी जिसने रोम तथा मध्य एशिया से होने वाले व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी ।

शिल्प, वाणिज्य तथा मुद्रा की स्थिति भी ऐसी ही थी । आर. एस. शर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘अर्बन डिके इन इण्डिया’ में 125 से अधिक उत्खनित स्थलों की सूची प्रस्तुत की है जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व दूसरी शती से ईस्वी सन् की तीसरी शती (ई. पू. 200-300 ई.) तक नगरीकरण अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था ।

अधिकांश स्थलों पर लौह उपकरण एवं लोहे को गलाकर औजार-हथियार बनाने की भट्ठियां, मुहरे, शंख एवं धातुनिर्मित वस्तुयें, मिट्टी की सुन्दर मूर्तियां, बहुमूल्य पत्थर के मनके, हाथीदांत एवं कांच निर्मित वस्तुयें आदि बहुतायत में मिलती हैं जो समुन्नत नगरीकरण की सूचक हैं ।

इस प्रकार आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से कुषाणकाल को ही कुछ आधुनिक इतिहासकार स्वर्णयुग मानते हैं । यह सुविकसित व्यापार-वाणिज्य एवं शिल्प उद्योग धन्धों का ही परिणाम था । इस समय वाह्य एवं आन्तरिक दोनों व्यापार उन्नति पर थे । विविध शिल्पों एवं व्यवसायों का सम्यक् विकास हुआ । व्यापार-व्यवसाय में श्रेणियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही ।

हुविष्ककालीन मथुरा लेख में आटा पीसने वालों की श्रेणी का उल्लेख मिलता है । शक-सातवाहन लेखों तथा बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित श्रेणियां अवश्य ही कुषाणकाल में भी सक्रिय रही होंगी । मथुरा नगर की स्थिति कुषाणों की दूसरी राजधानी जैसी थी ।

बौद्ध धर्म का प्रचार (Promotion of Buddhism):

कुषाण साम्राज्य मध्य एशिया से पूर्वी भारत तक फैला था । इस विस्तृत प्रदेश में बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । ईसा पूर्व दूसरी शती से ईस्वी सन् दूसरी शती सक की अवधि में भारत के समस्त धार्मिक अवशेषों में बौद्ध धर्म से संबंधित अवशेषों की संख्या सबसे अधिक है ।

इस समय बहुसंख्यक चैत्यों एवं विहारों का निर्माण करवाया गया । प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसेस के समय से ही कुषाणों का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया था । भारतीय इतिहास में कनिष्क की ख्याति उनकी विजयों के कारण नहीं, अपितु शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है ।

उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में कनिष्क के बौद्ध मत में दीक्षित होने की कथा अशोक के ही समान है । हमें ज्ञात होता है कि वह प्रारम्भ में अत्यन्त निर्दयी तथा अत्याचारी था जो बाद में बौद्ध धर्म के प्रभाव से उदार तथा सदाचारी बन गया ।

किन्तु बौद्ध लेखकों के इस प्रकार के विवरण अधिकांशतः काल्पनिक हैं तथा अपने धर्म की अतिरंजना करने के उद्देश्य से गढ़े गये हैं । कनिष्क के सिक्कों तथा पेशावर के लेख के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में ही बौद्ध हो गया था ।

उसे इस धर्म में दीक्षित करने का श्रेय सुदर्शन नामक बौद्ध आचार्य को दिया जाता है । पेशावर में प्रसिद्ध दैत्य का निर्माण करवाकर उसने इस धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की । उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया तथा उसका मध्य एशिया एवं चीन में प्रचार करवाया ।

मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रवेश तो सम्राट अशोक के काल में ही हो चुका था । पश्चिमोत्तर सीमा में हिन्दुकुश पर्वत पारकर अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया के मार्ग से बौद्ध प्रचारक काशगर, समरकन्द, टैरिमघाटी होते हुए सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैल गये थे ।

कुषाणों ने इस कार्य को आगे बढ़ाया । मध्य एशिया के साथ भारत का घनिष्ठतम संबंध कुषाणकाल में ही स्थापित हुआ । इसी समय महायान बौद्ध धर्म के प्रचारक अपना संदेश तथा धर्मग्रन्थों के साथ वहां पहुंचे । कनिष्क ने मध्य एशिया में अनेक विहार, स्तूप एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया ।

तजाकिस्तान से मिली बुद्ध की विशालकाय मूर्तियां तथा अवशेष यह स्पष्ट करते हैं कि कनिष्क के समय (प्रथम शताब्दी ईस्वी) में बौद्ध धर्म उन प्रदेशों में फैल चुका था । काशगर, खोतान, कूची, यारकन्द, कड़ासहर, तुर्फानर आदि में अनेक विहार थे जिनमें हजारों भिक्षु निवास करते थे ।

यही से बौद्ध प्रचारक चीन गये । चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश 65 ई. में हन सम्राट मिंग ती (57-75 ई.) में हुआ । हन शासक कुषाण राजाओं के समकालीन थे । चीनी इतिहासकारों के अनुसार मिंग ती ने बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होकर अपना दूत भारत भेजा था जो अपने साथ बौद्ध साहित्य, मूर्तियां तथा काश्यप, मातंग एवं धर्मारण्य जैसे बौद्ध विद्वानों को लेकर चीन पहुँचे थे ।

उनके निवास के लिये चीनी शासकों ने प्रसिद्ध श्वेताश्व विहार का निर्माण करवाया था । भारत से बौद्ध धर्म से संबंधित पाण्डुलिपियां, चित्र, आदि वहां ले जाये गये । कनिष्क के शासन काल में कश्मीर के ‘कुण्डलवन’ नामक स्थान में बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति का आयोजन किया गया था ।

उसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र ने की थी तथा अश्वघोष उसके उपाध्यक्ष बनाये गये । इस संगीति में बौद्ध त्रिपिटकों के प्रामाणिक पाठ तैयार हुये तथा ‘विभाषाशास्त्र’ आदि बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया गया । इसमें लगभग 500 विद्वान् भिक्षुओं ने भाग लिया था ।

कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टत: दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया- (1) हीनयान, (2) महायान । कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को ही राज्याश्रय प्रदान किया तथा स्वदेश एवं विदेश में उसका प्रचार-प्रसार करवाया ।

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय- हीनयान तथा महायान (Buddhist Religions – Heinan and Mahayana):

कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया- (1) हीनयान, (2) महायान । इस समय तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी । अनेक लोग इस धर्म में नवीन विचारों एवं भावनाओं के साथ प्रविष्ट हुये थे ।

अत: बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन लाना जरूरी था । अत: इसमें सुधार की माँग होने लगी । इसके विपरीत कुछ रूढ़िवादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को ज्यों-का-त्यों बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे ।

ऐसे लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया । हीनयान का शाब्दिक अर्थ हैं- निम्न मार्ग । यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही सम्भव था । बौद्ध धर्म का सुधारवादी सम्प्रदाय ‘महायान’ कहा गया । महायान का अर्थ है- उत्कृष्ट मार्ग ।

इसमें परसेवा तथा परोपकार पर विशेष बल दिया गया । बुद्ध की मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी । यह मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ था । इसकी व्यापकता एवं उदारता को देखते हुये इसका ‘महायान’ नाम सर्वथा उपयुक्त लगता है । इसके द्वारा अधिक लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते थे ।

इन दोनों सम्प्रदायों में निम्नलिखित मुख्य विभेद हैं:

(1) हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था । परन्तु महायान में उन्हें देवता माना गया तथा उनकी पूजा की जाने लगी । इसी के साथ अनेक बोधिसत्वों की भी पूजा प्रारम्भ हुई । मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दु:खों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे, बोधिसत्व कहे गये ।

प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है । निर्वाण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का परम कर्त्तव्य है । उसमें करुणा तथा प्रज्ञा होती है । करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है तथा प्रज्ञा से संसार का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है ।

बोधिसत्व को दस आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है । इन्हें ‘पारमिता’ कहा जाता है । पारमितायें वस्तुत: चारित्रिक पूर्णतायें हैं । ये हैं- दान, शील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल तथा ज्ञान । इन्हें ‘दशशील’ कहा जाता है ।

(2) महायान में परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया । उसका उद्देश्य समस्त मानव जीवन जाति का कल्याण है । इसके विपरीत हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है । इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये ।

(3) महायान आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है । महायान में मूर्ति-पूजा का भी विधान है तथा मोक्ष के लिये बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है । परन्तु हीनयान मूर्ति-पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखता । महायान में तीर्थों को भी स्थान दिया गया ।

(4) हीनयान की साधन-पद्धति अत्यन्त कठोर है तथा वह भिक्षु जीवन का हिमायती है । परन्तु महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ है । यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया गया है ।

(5) हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है । जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें ‘अर्हत्’ कहा गया है । परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुर्वजन्म नहीं होता । इसके विपरीत महायान का आदर्श ‘बोधिसत्व’ है ।

बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं । महायान की महान्‌ता का रहस्य उसकी नि:स्वार्थ सेवा तथा सहिष्णुता है । इस प्रकार महायान में व्यापकता एवं उदारता है । जापानी बौद्ध विद्वान डी. टी. सुजुकी के शब्दों में- ‘महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया ।’

यद्यपि कनिष्क बौद्ध हो गया तथापि राजा के रूप में वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था । उसके सिक्कों पर बुद्ध की आकृतियों के अतिरिक्त यूनानी, एलमी, मिश्री, जरथ्रुस्त्री तथा हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं ।

इनमें आइशो (शिव), मिइरो (ईरानी मिथ्र, सूर्य), माओ (चन्द्र), नाना (सुमेरियन मातृदेवी), हेलियोस तथा सेलेनी (यूनानी सूर्य तथा चन्द) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । कनिष्क के उत्तराधिकारी हुविष्क के काल में भी अन्य धर्मों के साथ-साथ बौद्ध धर्म की भी प्रगति होती रही ।

उसके शासन काल के 47वें वर्ष में अंकित एक बौद्ध स्तम्भ लेख से पता चलता है कि जीवक नामक भिक्षु ने हुविष्क के बौद्ध विहार को दान दिया था । 51वें वर्ष के वर्दक लेख में शाक्यमुक्ति की धातु मंजूषा स्थापित किये जाने का वर्णन है ।

वासुदेव के काल में भी इस धर्म की उन्नति हुई । मथुरा से प्राप्त 67वें वर्ष के लेख में महासंधिक आचार्यों के लिये एक बुद्ध प्रतिमा बनवाने का उल्लेख है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यवन-शक-कुषाण राजाओं के काल में बौद्ध धर्म उत्तर-पश्चिम तथा देश के अन्य भागों में काफी लोकप्रिय हो गया ।

साहित्यिक प्रगति (Literary Progress):

कनिष्क का शासन-काल साहित्य की उन्नति के लिये भी प्रसिद्ध है । वह विद्या का उदार संरक्षक था तथा उसके दरबार में उच्चकोटि के विद्वान तथा दार्शनिक निवास करते थे । ऐसे विद्वानों में अश्वघोष का नाम सर्वप्रमुख है । वे कनिष्क के राजकवि थे ।

उनकी रचनाओं में तीन प्रमुख हैं:

(1) बुद्धचरित,

(2) सौन्दरनन्द तथा

(3) शारिपुत्रप्रकरण ।

इनमें प्रथम दो महाकाव्य तथा अन्तिम नाटक गन्थ है । बुद्धचरित में गौतम बुद्ध के जीवन का सरल तथा सरस वर्णन मिलता है । सौन्दरनन्द में बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दर नन्द के सन्यास ग्रहण का वर्णन है । यह ग्रन्थ अपने पूर्ण रूप में उपलब्ध होता है ।

इसमें 18 सर्ग हैं । शारिपुत्रप्रकरण नौ अंको का एक नाटक ग्रन्थ है जिसमें बुद्ध के शिष्य शारिपुत्र के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय विवरण प्रस्तुत किया गया है । कवि तथा नाटककार होने के साथ-साथ अश्वघोष एक महान् संगीतज्ञ, कथाकार, नीतिज्ञ तथा दार्शनिक भी थे ।

इस प्रकार उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी । विद्वानों ने अश्वघोष की तुलना मिल्टन, गेटे, कान्ट तथा वाल्टेयर आदि से की है । अश्वघोष के अतिरिक्त माध्यमिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन भी कनिष्क की राजसभा में निवास करते थे । उन्होंने ‘प्रज्ञापारमितासूत्र’ की रचना की थी जिसमें (सापेक्ष्यवाद) का प्रतिपादन है । अन्य विद्वानों में पार्श्व, वसुमित्र, मातृचेट, संघरक्ष आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । संघरक्ष उसके पुरोहित थे ।

वसुमित्र ने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की तथा त्रिपिटकों का भाष्य तैयार करने में प्रमुख रूप से योगदान दिया था । विभाषाशास्त्र की रचना का श्रेय वसुमित्र को ही दिया जाता है । कनिष्क के ही दरबार में आयुर्वेद के विख्यात विद्वान् चरक निवास करते थे । वे कनिष्क के राजवैद्य थे जिन्होंने ‘चरक संहिता’ की रचना की थी । यह औषधिशास्त्र के ऊपर प्राचीनतम रचना है । इसका अनुवाद अरबी तथा फारसी भाषाओं में बहुत पहले ही किया जा चुका था ।

कला एवं स्थापत्य (Art and Architecture):

बौद्ध कला का विकास कुषाण राजाओं के संरक्षण में भी होता रहा । प्रसिद्ध कुषाण शासक कनिष्क एक महान् निर्माता था । उसके शासन-काल में अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण हुआ । अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में 400 फीट ऊंचा विशाल स्तूप उसने बनवाया था जिसकी वेदिका 150 फीट ऊँची थी ।

फाह्यान तथा ह्वेनसांग दोनों ने इसका विवरण दिया है । फाह्यान के अनुसार उसने जितने भी स्तूप देखे थे, उनमें यह सर्वाधिक प्रभावशाली था । ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि यह स्तूप पाँच भूमियों में बना था तथा इसके शिखर में 25 सुनहले मण्डप बनाये गये थे ।

पूर्वी मुख के सोपान के दक्षिण में महाचैत्य की दो छोटी प्रतिकृतियां तथा भगवान् बुद्ध की दो विशाल मूर्तियां थीं । दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम में दो और मूर्तियां बनी थीं । इसके निकट एक विशाल संधाराम (विहार) बना था जो ‘कनिष्क चैत्य’ कहा जाता था और सम्पूर्ण बौद्ध जगत् में प्रसिद्ध था ।

इसका निर्माण यवन वास्तुकार अगिलस द्वारा किया गया था । यह अनेक शिखर, भूमि, स्तम्भ आदि से अलंकृत था । ह्वेनसांग के भारत आने के कुछ पूर्व ही यह स्तूप जलकर नष्ट हो गया था । पेशावर स्थित शाहजी जी की ढेरी के उत्खनन में कनिष्क चैत्य के अवशेष प्राप्त होते हैं ।

तक्षशिला का सबसे महत्वपूर्ण धर्मराजिका स्तूप था । मूलतः इसका निर्माण अशोक के समय में हुआ किन्तु कनिष्क के समय में उसका आकारवर्धन किया गया । ऊंचे चबूतरे पर निर्मित यह स्तूप गोलाकार है । चार दिशाओं में चार सीढ़ियाँ हैं । इसका निर्माण पाषाण से किया गया है । चौकी से स्तूप के ऊपरी भाग तक इसे विविध अलंकरणों से सजाया गया है ।

इसके अतिरिक्त बल्ख तथा खोतान तक अनेक स्तूप निर्मित करवाये गये थे । मनिक्याल क्षेत्र में कई स्तूप बने थे । मनिक्याल, रावलपिण्डी से बीस मील की दूरी पर है । यहां से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि कनिष्क के अठारहवें वर्ष दण्डनायक लल द्वारा इन स्तूपों को बनवाया गया था ।

मनिक्याल स्तूप का चबूतरा गोल है जिस पर अर्ध गोलाकार गुम्बद 127 फीट व्यास तथा 400 फीट के क्षेत्रफल में फैला हुआ है । स्तूप की खुदाई में एक धातु मंजूषा मिली है जिसमें कई सिक्के तथा मोतियां एक स्वर्णपात्र में रखे गये थे ।

उल्लेखनीय है कि गन्धार क्षेत्र से स्तूपों का वास्तु विन्यास मध्य भारतीय स्तूप जैसा नहीं था । गन्धार स्तूप काफी ऊँचे होते थे । उनके चौकोर अधिष्ठान का कई भूमियों में निर्माण होता था जिन पर चढ़ने के लिये एक या अधिक सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं ।

वेदिका तथा तोरण का प्रयोग बन्द हो गया । स्तूप पर ही विविध शिल्प उत्कीर्ण किये गये थे । ये जातक कथाओं की अपेक्षा बुद्धचरित्र से अधिक संबंधित थे । सम्पूर्ण स्तूप एक जैसा दिखाई देता था । इन स्तूपों पर गन्धार शैली विशेष कर प्लास्टर प्रतिमा स्पष्टतः दिखाई देती है ।

I. सारनाथ कला शैली:

गन्धार तथा मथुरा के अतिरिक्त सारनाथ से भी कुषाणकाल की एक बोधिसत्व की विशाल मूर्ति मिली है जो खड़ी मुद्रा में है । इसके ऊपर कनिष्क संवत् 3 की तिथि खुदी हुई है । इससे सूचित होता है कि वाराणसी के महाक्षत्रप खरपल्लान ने दान देकर भिक्षु बल द्वारा यहाँ बोधिसत्व की प्रतिमा तथा छत्रयष्टि स्थापित करवाया था ।

इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश के अमरावती (गुन्टूर जिला) से भी बैठी तथा खड़ी मुद्रा में निर्मित कई बुद्ध मूर्तियों प्राप्त होती हैं । इनमें बुद्ध के बाल घुँघराले हैं, उनके कन्धों पर संघाटिवस्त्र है तथा ने अपने बायें हाथ से संघाटि को पकड़े हुए है । अमरावती की बुद्ध मूर्तियों का समय ईसा की दूसरी शती माना जाता है ।

II. कौशाम्बी कला शैली:

कुछ विद्वानों का विचार है कि मौर्योत्तर काल में कौशाम्बी में एक स्वतंत्र शैली का विकास हुआ । यह कहीं-कहीं तो मथुरा के समान थी किन्तु कहीं उससे भिन्न भी थी । चूंकि मथुरा कला शैली का विस्तार एवं वर्चस्व इतना अधिक था कि उसके आगे कौशाम्बी शैली का महत्व गौड़ हो गया और इसे स्वतंत्र रूप से स्थापित करने का प्रयास ही नहीं किया गया ।

इधर आर. एन. मिश्र जैसे कुछ विद्वानों के प्रयास से कौशाम्बी शैली के पूथक् अस्तित्व एवं विकास पर समुचित प्रकाश पड़ा है । यहाँ की कलाकृतियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इस शैली ने गंगा-यमुना के दोआब तथा वाह्य क्षेत्रों की कलात्मक गतिविधियों को पूर्णतः प्रभावित किया है ।

यह मथुरा शैली जैसी ओजपूर्ण तो नहीं थी किन्तु मूर्तियों की मौलिकता एवं सारगर्भिता की दृष्टि से उल्लेखनीय माना जा सकता है । कौशाम्बी कला को विकसित करने में वहाँ की राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का प्रमुख योगदान रहा है ।

ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में यहाँ वत्स राज्य की राजधानी थी । बुद्ध ने यहाँ कई बार जाकर अपने उपदेश दिये । अनेक धनाढ्य श्रेष्ठि तथा व्यापारी यहाँ निवास करते थे जिनमें घोषित प्रमुख था । बाद में यहां मध राजाओं ने शासन किया ।

यहाँ की खुदाई से एक विशाल दुर्ग क्षेत्र घोषिताराम विहार, पत्थर एवं मिट्टी की मूर्तियाँ, स्तूप की पाषाणवेदिका के टुकड़े, हारीति की समर्पित गजपृष्ठाकार मन्दिर के अवशेष, श्येनचितिवेदी तथा पुरुषमेध के प्रमाण आदि प्राप्त होते हैं ।

पाषाण प्रतिमाओं के अध्ययन से पता चलता है कि भरहुत, साँची तथा बोधगया की भाँति यहाँ भी कलाकृतियों का सृजन किया जा रहा था और गुप्तकाल में कौशाम्बी भी उक्त कला-केन्द्रों के ही समान एक अलग कला-केन्द्र के रूप में विकसित हो गया था ।

यहाँ वैदिक तथा श्रमण दोनों परम्पराओं का प्रचलन था । अत: कलाकृतियों की रचना में दोनों के तत्व ग्रहण किये गये । कौशाम्बी कला के तत्व मूर्तियाँ, स्तूप, वेदिकास्तम्भ, मृण्मूर्तियाँ आदि हैं । ये मथुरा से भी मिलती हैं । किन्तु कौशाम्बी कलाकृतियों का अपना अलग ही अस्तित्व देखने को मिलता है । कुछ कला प्रतीक जैसे भागवत धर्म से संबंधित ध्वजस्तम्भ मथुरा से पूर्व ही यहाँ निर्मित किये गये ।

मथुरा में इनका निर्माण शक-कुषाण काल के बाद हुआ किन्तु मौर्य काल के तत्काल बाद कौशाम्बी में इन्हें बनाया गया । कौशाम्बी से भागवत धर्म संबंधी जो पाषाण प्रतिमायें मिलती हैं उन्हें मौर्यकालीन मूर्तियों के समान चुनार के बलुआ पत्थर से बनाया गया है तथा उन पर वैसी ही चमकीली पॉलिश है ।

इससे स्पष्ट होता है कि मथुरा से प्राप्त भागवत मूर्तियों के पूर्व कौशाम्बी में इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ था । कौशाम्बी से ही सर्वप्रथम संकर्षण तथा प्रद्युम्न, जिनका उल्लेख चतुर्व्यूह में हुआ है, के लाञ्छन क्रमशः तालध्वज तथा मकरध्वज की प्राप्ति हुई है । एक स्तम्भ के ऊपर प्रद्युम्न का अंकन उनकी पत्नी के साथ मिलता है ।

उनके दायें हाथ में वाणों का गुच्छा दिखाया गया है । इससे सूचित होता है कि मथुरा से पूर्व ही कौशाम्बी के कलाकारों के मस्तिष्क में कालान्तर के भागवत धर्म में प्रचलित चतुर्व्यह की कल्पना उत्पन्न हो चुकी थी जिसमें उक्त दोनों के अतिरिक्त अनिरुद्ध तथा वासुदेव की कल्पना हुई ।

मूर्ति बनाने के पहले कौशाम्बी के कलाकारों ने देवता के प्रतीक का अंकन किया । अगास्थोक्लीज के सिक्कों (लगभग ई. पू. 180-165) पर भागवत देवताओं, चक्रधर कृष्ण तथा हलधर बलराम, की प्रतिमाएँ मिलती हैं जो कौशाम्बी की भागवत मूर्तियों के समान हैं ।

इनसे भी सूचित होता है कि कौशाम्बी कला मौर्य तथा कुषाण दोनों कालों के बीच के समय में विकसित हुई थी । अगास्थोक्लीज के सिक्कों के आधार पर कौशाम्बी कला भरहुत से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होती है । कौशाम्बी से बहुसंख्यक मृण्मूर्तियाँ मिलती हैं । ये स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, मिथुन, हारीति, गजलक्ष्मी, सूर्य आदि की हैं । ये मथुरा से प्राप्त मृण्मूर्तियों की तुलना में अधिक कुशलता से गढ़ी गयी हैं ।

इनका शरीर हृष्ट-पुष्ट है तथा मुखाकृतियाँ फूली हुई हैं । स्पष्ट होता है कि कौशाम्बी की मृण्मूर्तियों के आधार पर ही यहाँ पाषाण मूर्तियाँ गढ़ी गयीं । कौशाम्बी से शिव-पार्वती की एक प्रतिमा मिली है जो गुप्तकालीन प्रतिमाओं जैसी सुन्दर और सजीव हैं । इसका समय कुषाण काल से पहले निर्धारित किया जाता है ।

यहाँ मूर्ति निर्माण में मिट्टी से पाषाण में संक्रमण स्पष्टतः परिलक्षित होता है जो मथुरा की कला में अप्राप्य है । कौशाम्बी के कलाकारों ने पहले गन्धार शैली के आधार पर बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ किया, किन्तु शीघ्र ही वेषभूषा तथा संघाटि की एक नई पद्धति को अपनाकार भिन्न प्रकार की मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया ।

कौशाम्बी में 161 ई. के लगभग बुद्ध मूर्तियाँ बननी प्रारम्भ हो गयी जिस पर मथुरा कला का भी प्रभाव था । किन्तु शीघ्र ही कलाकारों ने इस प्रभाव से मुक्त होकर मिट्टी की मूर्ति अपनी शैली में बनाना प्रारम्भ कर दिया ।

उल्लेखनीय है कि गुप्तकालीन सारनाथ की बुद्ध मूर्ति में संघाटि दोनों कन्धों पर मिलती है । यह पद्धति कौशाम्बी में इसके पूर्व ही प्रचलन में आ गयी थी । अब यह कहा जा सकता है कि सारनाथ बुद्ध की वेशभूषा तथा संघाटि का आदि रूप कौशाम्बी में ही विद्यमान था ।

प्रतीकों के स्थान पर मूर्तियों के निर्माण की प्रथा भी सबसे पहले कौशाम्बी में ही प्रारम्भ हुई जहाँ इसके लिए अनुकूल आधार था । मथुरा तथा कौशाम्बी, दोनों ही स्थानों पर, यक्ष मूर्तियाँ मिलती हैं, लेकिन कौशाम्बी की यक्ष मूर्ति कुछ भिन्न प्रकार की है ।

भीटा तथा कौशाम्बी से प्राप्त यक्ष मूर्तियों पर मथुरा शैली का कोई प्रभाव नहीं है । भीटा की यक्ष मूर्ति में तीन यक्ष दिखाये गये हैं । इनके बगल में एक सिंह तथा वाराह की मूर्ति है । कौशाम्बी की मूर्ति, जो बैठी हुई मुद्रा में है, में पैरों के मध्य वाराह का अंकन है । कौशाम्बी की ‘शिव-पार्वती’ प्रतिमा में शिव के जटाजूट, त्रिनेत्र, कान, होंठ, ठुड्डी के बीच हल्का गड्ढा मिलता है जो गुप्तकाल की विशेषता है ।

इससे सूचित होता है कि शिव प्रतिमा के ये लक्षण गुप्त युग से पूर्व ही कौशाम्बी में अपना लिये गये थे । कौशाम्बी से एक ऐसी देवी की मूर्ति मिली है जिसकी केश-सज्जा में पाँच प्रतीक खुसे हुए हैं । यह अपने आप में विशिष्ट है । कौशाम्बी की मूर्तियों में एक ऐसी अनौपचारिकता का वातावरण है जो प्राचीन लोककला के निकट है । कौशाम्बी के दक्षिण में भरहुत का प्रसिद्ध कला केन्द्र था ।

के. डी. वाजपेयी का विचार है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कौशाम्बी कला का प्रभाव अगास्थीक्लीज के सिक्कों पर पड़ा तथा यहाँ की मूर्तियों पर तिथियां अंकित मिलती है । मनकुंवर से प्राप्त बुद्ध प्रतिमा तिथियुक्त है जो गुप्त शैली से भिन्न है ।

इससे कौशाम्बी कला का काल भरहुत से पहले सिद्ध होता है । इसी तथ्य के प्रमाण में प्रतापगढ़ जनपद के अजगरा लेख का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे सूचित होता है कि सुदर्शना यक्षिणी का मूल स्थान कौशाम्बी क्षेत्र के अन्तर्गत ही आता था, भरहुत के नहीं ।

यह सुदर्शना के सम्मान में एक ‘यक्षमह’ बनाने तथा तालाब खुदवाने का उल्लेख करता है । इससे भी संकेत मिलता है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है । मालवा के समान कौशाम्बी में भी मणिभद्र की पूजा होती थी । उसे कुबेर का कोषाध्यक्ष माना गया है ।

इस विवरण से स्पष्ट है कि कौशाम्बी को एक पृथक कला केन्द्र मानने में कोई आपत्ति नहीं है । बुद्ध काल में यह अत्यन्त समृद्धशाली नगर हो गया था जिसकी गणना बौद्ध साहित्य बुद्ध के समकालीन छ: नगरों में करता है । इसमें कौशाम्बी के अतिरिक्त चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत तथा वाराणसी शामिल थे । सर्वत्र नगरीकरण प्रस्फुटित हुआ जिसका प्रमुख आधार व्यापार-वाणिज्य बना ।

व्यापारियों द्वारा कला को प्रोत्साहन दिया जाना स्वाभाविक था । कौशाम्बी में बौद्ध धर्म के साथ-साथ हिन्दू वैष्णव या भागवत एवं शैव धर्मों का भी प्रचलन था तथा दोनों के अनुयायी निवास करते थे । अत: कलाकारों ने दोनों धर्मों के उपासकों की धार्मिक तृष्णा की तुष्टि के लिये कृतियों का निर्माण किया तथा यहाँ एक ऐसी कला शैली उद्भूत हो गयी जिसका समीपवर्ती क्षेत्रों की कला पर भी प्रभाव पड़ा ।

यह निश्चयत: मथुरा एवं भरहुत शैली की पूर्ववर्ती थी तथा इसके प्रतिमा लक्षण गुप्तकालीन प्रतिमाओं में भी ग्रहण किये गये । इस प्रकार कुषाण काल पाषाण शिल्प की उन्नति की दृष्टि से काफी गौरवशाली रहा । किन्तु इस समय मृण्मूर्तियों का निर्माण उतना अच्छा नहीं हुआ । मथुरा, अहिच्छत्र आदि स्थानों से काफी कम संख्या में मृण्मूर्तियां मिलती है तथा कौशाम्बी में तो इनका अभाव सा है ।

कुषाण-सिक्के (Kushan-Coins):

यद्यपि उत्तर-पश्चिम भारत में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन यवन राजाओं ने करवाया तथापि इन्हें नियमित एवं पूर्णरूपेण प्रचलित करने का श्रेय कुषाण राजाओं को दिया जा सकता है । कुषाण-सत्ता में रोम तथा अन्य पाश्चात्य देशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क बढ़ जाने से निश्चित माप के सिक्कों की आवश्यकता प्रतीत हुई । अत: कुषाण राजाओं ने विभिन्न आकार-प्रकार के स्वर्ण, ताम्र एवं रजत सिक्कों का प्रचलन करवाया ।

कुजुल कडफिसेस के सिक्के (Coins of Kujul Kadphisses):

कुषाणवंश के संस्थापक सम्राट कुजुल कडफिसेस के केवल तांबे के सिक्के ही मिलते हैं । मार्शल को तक्षशिला की खुदाई से उसके बहुसंख्यक सिक्के मिलते हैं । ये दो प्रकार के हैं । पहले प्रकार के सिक्कों पर काबुल के यवन नरेश हर्मियस तथा कुजुल दोनों का उल्लेख मिलता है ।

इसका विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse)- बेसिलियस बेसिलिन हरमेआय ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- खरोष्ठी में कुजुल कसस कुषाण युवगस ।

कुजुल तथा हर्मियस के साथ-साथ उल्लेख से ऐसा निष्कर्ष निकाला गया है कि कुजुल पहले हर्मियस की अधीनता स्वीकार करता था । बाद में उसने अपनी स्वाधीनता घोषित कर दिया ।

कुजुल ने स्वतन्त्र शासक बनने के बाद जो सिक्के प्रचलित करवाये उनका विवरण निम्नलिखित है:

1. मुख भाग (Obverse)- यूनानी भाषा में उपाधि सहित नाम ‘कोसानो’ ‘कोजोलौ कैडफिजाय’ उत्कीर्ण है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- खरोष्ठी लिपि में ‘कुजुल कसस कुषण यवुगसध्रमिथिदस’ अंकित मिलता है ।

‘ध्रमथिदस’ अर्थात् ‘धर्म में स्थित’ से ऐसा निष्कर्ष निकाला जाता है कि कुजुल कडफिसेस ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था । कुजुल कडफिसेस के ताम्र सिक्कों का वजन 30 ग्रेन के लगभग है ।

विम कडफिसेस के सिक्के (Coins of Vim Kadphisses):

सर्वप्रथम स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन इसी शासक ने करवाया था । यद्यपि उसके ताम्र तथा रजत सिक्के भी मिले हैं तथापि स्वर्ण सिक्कों की संख्या अधिक है ।

स्वर्ण सिक्कों का विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse):

टोप धारण किये हुए राजा की आकृति है । वह अपने दायें हाथ में वज्र ग्रहण किये है तथा उसके कन्धे से अग्नि की लपटें निकल रही हैं । यूनानी भाषा में मुद्रालेख ‘सिलियस बेसिलियन ओमो कडफिसेस’ उत्कीर्ण है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse):

त्रिशूलधारी शिव की आकृति है जो नन्दी के सामने है । साथ में खरोष्ठी मुद्रालेख ‘महरजस रजदिरजस सर्वलोग इश्वरस महिश्वरस विम कडफिशस त्रतरस’ (महाराज राजाधिराज सर्वलोकेश्वर विम कडफिसेस त्राता) उत्कीर्ण है ।

उपर्युक्त स्वर्ण मुद्रायें 124 ग्रन वजन की हैं । विम कडफिसेस का 20 ग्रेन वजन का एक स्वर्ण सिक्का मिला है । इसके मुख भाग पर चौखट में राजा का सिर है तथा यूनानी लेख उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर ‘महाराज राजाधिराज विम कडफिसेस’ मुद्रालेख अंकित है । त्रिशूल की आकृति भी बनी हुई है ।

ताम्र सिक्के (Copper Coins):

विम कडफिसेस के जो ताम्र सिक्के मिलते हैं उनका वजन 270-65 ग्रेन है ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse)- राजा की खड़ी मूर्ति बनी है । वह वेदी पर आहुति दे रहा है । उसकी बाई ओर त्रिशूल की आकृति तथा मुद्रा लेख ‘बेसिलियस बेसिलियन सोटर मेगास वोमो कैडफिसेस’ अंकित है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- शिव की आकृति है । वह दायें हाथ में त्रिशूल धारण किये है तथा बायाँ हाथ नन्दी के ऊपर टिका हुआ है । खरोष्ठी में मुद्रालेख स्वर्ण मुद्रालेख जैसा ही है ।

विम कडफिसेस का अब तक केवल एक रजत सिक्का प्राप्त हुआ है और यह सम्प्रति ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है । इस पर राजा की खड़ी मूर्ति है । इसका विवरण विल्सन ने दिया है । वह पट्टीयुक्त टोप, कुरता, कोट, पायजामा धारण किये हुए है । सामने वेदी तथा त्रिशूल है । उसके दायें हाथ के पीछे गदा है तथा बायें हाथ में कोई बर्तन लिये हुए है ।

मार्शल को कुछ ऐसे रजत सिक्के मिले हैं जिनके प्रचलन का श्रेय विम को ही दिया जाता है । विम के सिक्कों पर उत्कीर्ण चिह्न पूर्णतया भारतीय है । शिव, नन्दी, त्रिशूल की आकृतियों तथा ‘महेश्वर’ की उपाधि से उसका नैष्ठिक शैव होना सूचित होता है ।

कनिष्क के सिक्के (Kanishka Coins):

कनिष्क के बहुसंख्यक स्वर्ण एवं ताम्र सिक्के पश्चिमोत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल तथा उड़ीसा के विभिन्न स्थानों से प्राप्त किये गये हैं । स्वर्ण सिक्के तौल में रोमन सिक्कों (लगभग 124 ग्रेन) के बराबर हैं ।

स्वर्ण सिक्कों का विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse):

खड़ी मुद्रा में राजा की आकृति है । वह लम्बी कोट, पायजामा, नुकीली टोपी पहने हुये है । उसके बायें हाथ में माला है तथा दायें हाथ से वह हवन-कुण्ड में आहुति दे रहा है । ईरानी उपाधि के साथ यूनानी लिपि में ‘शाओ नानी शाओ कनिष्की कोशानो’ मुद्रालेख अंकित है । ‘शाओ नानो शाओ’ से तात्पर्य ‘शाहनशाह’ से है । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ-लेख से पता चलता है कि कुषाण शासक ‘देवपुत्रषाहिषाहानुषाहि’ की उपाधि ग्रहण करते थे ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse):

विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियां उत्कीर्ण मिलती हैं । ये यूनानी, भारतीय तथा ईरानी देव समूह से लिये गये हैं । प्रत्येक सिक्के पर एक ही देवता तथा नीचे उसका नाम उत्कीर्ण है । नाम यूनानी भाषा में है, जैसा- मिइरो (सूर्य), मेओ (चन्द), आरलेग्नो, नाना, आरदीक्षो (देवी) आदि ।

कुछ सिक्कों के पृष्ठ भाग पर चतुर्भुजी शिव की आकृति तथा यूनानी भाषा में ‘आइसो’ (शिव) अंकित है । हाथ में त्रिशूल, बकरा, डमरू तथा अंकुश है । किसी-किसी सिक्के पर प्रभामण्डलयुक्त खड़ी मुद्रा में बुद्ध प्रतिमा तथा उसके नीचे यूनानी लिपि में ‘वोडो’ (बुद्ध) खुदा हुआ है ।

ताम्र सिक्के:

ये गोलाकार हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse)- कनिष्क की आकृति तथा मुद्रालेख ‘बेसिलियस बेसेलियन’ उत्कीर्ण है । यह यूनानी उपाधि है जिससे तात्पर्य ‘राजाओं का राजा’ से है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- यूनानी, ईरानी अथवा भारतीय देवी-देवता की आकृति तथा यूनानी भाषा में उसका नाम उत्कीर्ण है ।

कुछ ऐसे ताम्र मिले हैं जिनके ऊपर बैठी हुई मुद्रा में राजा की आकृति बनी है । इन पर राजा का नाम नष्ट हो गया है । इनमें से चार सिक्कों का वजन 68 ग्रेन है । ह्वाइटहेड ने आकार तथा के आधार पर इन्हें कनिष्क का बताया है । गार्डनर ने कनिष्क के कुछ कांस्य सिक्कों का उल्लेख किया है । इनके मुख भाग पर राजा की खड़ी आकृति तथा यूनानी उपाधि अंकित है । पृष्ठ भाग पर यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियाँ हैं ।

कनिष्क के सिक्कों का प्रसार जहाँ एक ओर उसके साम्राज्य विस्तार को सूचित करता है वहीं दूसरी ओर उन पर उत्कीर्ण विविध देवी-देवताओं की आकृतियों से उसकी धार्मिक सहिष्णुता सूचित होती है । लगता कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विभिन्न जातियाँ निवास करती थीं ।

यही कारण था कि उसने सभी वर्ग के देवी-देवताओं की आकृतियों को ग्रहण कर उनकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान किया था । इस प्रकार कनिष्क ने सभी वर्गों के लोगों की सहानुभूति तथा समर्थन प्राप्त कर लिया होगा ।

हुविष्क के सिक्के (Coins of Huvish):

हुविष्क ने भी बहुत से स्वर्ण एवं ताम्र सिक्कों का प्रचलन करवाया था ।

स्वर्ण सिक्कों की विशेषतायें निम्न प्रकार से हैं:

1. मुख भाग (Obverse)- राजा के आधे शरीर की आकृति बनी हुई है । वह गोलाकार टोप, अलंकृत कोट पहने हुए है । उसके दायें हाथ में दण्ड तथा बायें हाथ में अंकुश है । मुद्रालेख ‘शाओ नानो शाओ ओइशकी कोशानो’ उत्कीर्ण है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियों तथा यूनानी लिपि में उनके नाम मिलते हैं ।

ताम्र सिक्के (Copper Coins):

ये गोल आकार के हैं ।

जिनका विवरण इस प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse)- प्रभामण्डल से युक्त राजा अंकुश, भाला के साथ हाथी पर सवार है । कुछ सिक्कों पर पलंग पर झुके हुए अथवा गद्दे पर वज्रासन में बैठे हुए राजा की आकृति है । उसके बायें हाथ में दण्ड है और वह अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाए हुए है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse)- विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियाँ तथा यूनानी भाषा में उनके नाम खुदे हुए हैं ।

उल्लेखनीय है कि कनिष्क के सिक्कों पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं की तुलना में हुविष्क के सिक्कों पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं की संख्या अधिक है । भारतीय देवताओं में बुद्ध तथा शिव के अतिरिक्त विष्णु, महासेन, कुमार, विशाख, उमा आदि का भी अंकन मिलता है ।

उमा के हाथ में कमल अथवा समृद्धि श्रुंग (कार्नोकोपिया) दिखाया गया है । हुविष्क के स्वर्ण सिक्कों की तौल कनिष्क के स्वर्ण सिक्कों के बराबर है । हुविष्क के कुछ रजत सिक्के भी प्राप्त हुए हैं । इनके ऊपर ईरानी वेष-भूषा में राजा की आकृति बनी हुई है ।

वासुदेव के सिक्के (Vasudev’s Coins):

वासुदेव के स्वर्ण तथा ताम्र सिक्के प्राप्त हुए हैं । सभी गोलाकार हैं तथा तौल में रोमन सिक्कों के बराबर है । सिक्कों पर शिव तथा उनके प्रतीकों का अंकन प्रमुखता से किया गया है ।

विवरण निम्न प्रकार है:

1. मुख भाग (Obverse):

प्रभामण्डल युक्त राजा की खड़ी आकृति है । वह लम्बी टोप तथा पायजामा पहने हुये है । उसके बायें हाथ में त्रिशूल है तथा दायें हाथ से अग्निकुण्ड में आहुति दे रहा है । मुद्रालेख- ‘शाओ नानो शाओ बोजैड़ो वासुदेव कोशानो’ उत्कीर्ण है ।

2. पृष्ठ भाग (Reverse):

त्रिशूल तथा पाश लिये हुये दोभुजी शिव की आकृति है । शिव के पीछे नन्दी तथा यूनानी भाषा ‘ओएशों’ (शिव) उत्कीर्ण है । कुछ ताम्र सिक्कों के पृष्ठ भाग पर सामने की ओर देवी (उमा) सिंहासन पर बैठी हुई है । उसके दायें हाथ में फीता तथा बायें हाथ में समृद्धिश्रुंग है ।

कुछ ताम्र सिक्कों के मुख भाग पर ब्राह्मी लिपि में ‘वासु’ उत्कीर्ण है तथा पृष्ठ भाग पर वासुदेव का मोनोग्राम मिलता है । अल्तेकर ने वासुदेव के एक नये प्रकार के सिक्के का उल्लेख किया है जिसके पृष्ठ भाग पर शिव का हाथी के साथ चित्रण किया गया है ।

यह गजासुर का वध करते हुए शिव का चित्रण प्रतीत होता है । इस प्रकार सभी कुषाण राजाओं के सिक्कों के अग्रभाग पर ईरानी वेष-भूषा में शासक की आकृति तथा उपाधि के साथ उसका नाम मिलता है । मुद्रालेख सदा यूनानी भाषा में है । पृष्ठ भाग पर विभिन्न देवी-देवताओं का अंकन हुआ है ।

परवर्ती कुषाण राजाओं के सिक्के:

परवर्ती कुषाण राजाओं के दो प्रकार के सिक्के मिलते हैं:

1. शिव तथा नन्दी प्रकार ।

2. सिंहासनासीन देवी प्रकार ।

सिक्कों के मुख भाग पर कवच तथा ऊंची टोपी धारण किये हुए राजा की आकृति है । वह दायें हाथ से आहुति दे रहा है तथा उसके बायें हाथ में लम्बा त्रिशूल है । मुद्रालेख यूनानी तथा ब्राह्मी दोनों में है । पृष्ठ भाग पर शिव, नन्दी तथा देवी की आकृतियाँ मिलती हैं ।

कुछ सिक्कों के पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी का चित्रण है । वह पाश दंड धारण किये हुये है । परवर्ती कुषाणों के द्वितीय प्रकार के सिक्के, जिनमें अग्रभाग पर खड़ी मुद्रा में राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन देवी की आकृति दिखाई गयी है, का अनुकरण गुप्त राजाओं ने किया था ।

समुद्रगुप्त अपने ध्वजारोही प्रकार के सिक्कों पर कुषाण शासकों की वेषभूषा में दिखाया गया है । कुषाण सिक्कों की देवी को गुप्तकाल में लक्ष्मी के रूप में ग्रहण कर लिया गया । इस प्रकार कुषाण राजाओं ने भारत में मुद्रा निर्माण के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात किया । स्वर्ण मुद्राओं के तो वे जनक थे । कुषाण मुद्राओं ने परवर्ती युगों के लिये प्रतिमान का काम किया था ।

विदेशी आक्रमणों का प्रभाव तथा विदेशियों का आत्मसातीकरण (The Effect of Foreign Invasions and the Assimilation of Foreigners):

मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में विदेशी आक्रमणों का दौर प्रारम्भ हुआ । अब आने वाले आक्रमणकारी- यवन, शक, पह्लव, कुषाण आदि भारत के विभिन्न भागों में स्थायी रूप से बस गये तथा उन्होंने अपने विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिये । लगभग चार शताब्दियों के उनके शासन काल में भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष- समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, राजनीति तथा शासन, साहित्य, कला आदि सभी न्यूनाधिक रूप से प्रभावित हुए ।

सामाजिक दशा (Social Condition):

मौर्योंत्तरकालीन समाज में बहुसंख्यक विदेशी जन एवं जातियां अपनी-अपनी परम्पराओं एवं प्रथाओं के साथ प्रवृष्ट हुई । धीरे-धीरे वे सभी भारतीय समाज एवं संस्कृति में समाहित हो गयी । विदेशियों का आत्मसातीकरण इसी काल में सबसे अधिक हुआ ।

यद्यपि मेनान्डर एवं हेलियोडोरस जैसे कुछ राजाओं ने अपना विदेशी नाम बनाये रखा, किन्तु उन्होंने भारतीय रीति रिवाज एवं प्रथाओं को अपना लिया । लेखों में हम इन्द्राग्निदत्त, धर्मरक्षित, ऋणभदत्त, दक्षमित्र, रुद्रदामन् जैसे नाम पाते हैं ।

नहपान की पुत्री का नाम दक्षमित्रा तथा दामाद का नाम उषावदात (ऋषभदत्त) था । ब्राह्मण, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों में विदेशी मूल के लोग प्रवृष्ट कर गये । विभिन्न विदेशी राजाओं ने इन धर्मों को प्रचुर दानादि भी दिये ।

भारतीय शास्त्रकारों के समक्ष समाज में उनकी स्थिति निर्धारित करना एक समस्या बन गयी । कट्टरपंथियों ने उन्हें शूद्र, ‘वृषल’ आदि नाम दिये । पंतजलि यवनों तथा शकों को अनिरवासित शूद्र कहते हैं । इससे सूचित होता है कि वे समाज से बहिष्कृत नहीं माने जाते थे ।

व्यवहारिक जीवन में स्थिति इससे भिन्न रही तथा अधिकांश विदेशी आक्रान्ताओं ने अपने को क्षत्रिय घोषित कर लिया तथा उनकी प्रभुसत्ता के कारण भारतीय लोगों को वस्तुस्थिति से समझौता करना पड़ा । कुछ विदेशियों के साथ उनके पुरोहित भी आये थे जिन्हें ब्राह्मणों के साथ संयुक्त कर लिया गया । मग या शाकद्वीपी ऐसे ही ब्राह्मण थे जो शकों के साथ भारत आये थे ।

स्वयं मनु के वचन से निष्कर्ष निकलता है कि शक, यवन, पह्लव आदि विदेशी जातियां संस्कार युक्त होने पर क्षत्रिय जाति में गिनी जा सकती थीं । मिलिन्दपन्ह में मेनान्डर को क्षत्रिय जाति का बताते उसकी वंशावली दी गयी है । महाभारत शक, यवन आदि जातियों को छोटे-मोटे यज्ञ करने की अनुमति प्रदान करता है । लेखों से उनकी उन्नत सामाजिक स्थिति की सूचना मिलती है । स्थानीय द्विजवर्ण में उनके विवाह भी होते थे ।

यद्यपि गौतमीपुत्र शातकर्णि अपने लेखों में वर्णसंकरता रोकने का दावा करता है किन्तु स्वयं उसने ही अपने पुत्र का विवाह रुद्रदामन् की पुत्री से किया । ईस्वाकुवंशी शान्तमूल ने अपने पुत्र वीरपुरुषदत्त का विवाह उज्जैनी के शक महाराज की कन्या रुद्रभट्टारिका से किया था ।

रुद्रदामन् यह दावा करता है कि उसने कई स्वयंवरों में जाकर राजकुमारियों से विवाह किया था । इनमें अवश्य ही कुछ स्थानीय क्षत्रिय कुलों की राजकन्यायें रही होगी । विदेशियों ने भारतीय धर्मों को भी ग्रहण किया, उन्हें दानादि दिया तथा उनमें अपने लिये प्रतिष्ठित स्थान बना लिया ।

उनके लेखों में प्राकृत का प्रयोग मिलता है । नहपान की पुत्री ने बौद्धों और ब्राह्मणों को दान दिया था । रुद्रदामन् वैदिक धर्म एवं संस्कृति का महान् पोषक था । यवन हेलियोंडोरस ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण किया तथा मेनान्डर ने बौद्ध धर्म में ‘अर्हत्’ पद प्राप्त किया । कुषाण-काल में भी आत्मसातीकरण की प्रक्रिया जारी रही ।

राजनीतिक संरचना (Political Structure):

विदेशी आक्रमणों का प्रभाव भारतीय राजनीति और शासन के कुछ तत्वों पर स्पष्टतः दिखाई देता है । सिकन्दर के आक्रमण के प्रभाव के संबंध में हम देख चुके हैं कि भारतीय सम्राटों को एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की प्रेरणा उसी से मिली तथा इसके बाद साम्राज्यिक व्यवस्था हिन्दू राज्यतंत्र का स्थायी तत्व बन गयी ।

मौर्योत्तर काल में राजत्व का देवत्व से अविच्छिन्न संबंध स्थापित हो गया । इसके पीछे भी विदेशी प्रभाव एक बड़ा कारण था । कुषाण शासकों का दैवीकरण एक सुविदित तथ्य है । विम कडफिसेस के सिक्कों पर ‘महेश्वर’, ‘सर्वलोकेश्वर’ की उपाधि अंकित है ।

मथुरा लेख में उसे ‘देवपुत्र’ कहा गया है । वस्तुतः दैवी राजत्व संबंधी विचारधारा पश्चिमी एशिया, ईरान तथा चीन में कुषाणों के उदय के पूर्व ही काफी लोकप्रिय थी । मनुस्मृति (ई. पू. 200-200 ई.) तक इसका स्वरूप स्थायी हो गया जो शाक-कुषाण प्रभाव ही था ।

मनु स्पष्टतः घोषणा करते हैं कि बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान् देवता है । मथुरा लेख से पता चलता है कि इस समय राजाओं के लिये देवकुल का निर्माण होता था ।

कनिष्क को ‘देवपुत्र’ तथा गोण्डोफर्नीज को ‘देवव्रत’ कहा गया है । कालान्तर में भारतीय राजाओं ने इसका अनुकरण किया । प्रयाग लेख में समुद्रगुप्त को ‘लोकधाम्नो देवस्य’ अर्थात् पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया है जो लौकिक क्रियाओं के कर्त्ता के रूप में ही मनुष्य था ।

हर्ष को बाण ने ‘सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार’ (सर्वदेवतावतारमिवैकत्र) कहा है । कुषाण शासक उच्च सम्मानपरक उपाधियां, जैसे- राजराज, राजाधिराज आदि धारण करते थे । इन्हीं के अनुकरण पर भारतीय शासक ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करने लगे ।

गुप्तोत्तर काल में सामन्तवाद पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गया । इसके उद्भव के पीछे भी विदेशी प्रभाव देखा जा सकता है । शक शासक ‘षाहानुषाहि’ कहे जाते थे । पश्चिमी भारत के शक शासकों में महाक्षत्रप तथा क्षत्रप जैसी उपाधियां प्रचलित थीं । इसका प्रभाव राजनीतिक सामन्तवाद के उदय पर पड़ा ।

शक-कुषाण काल में हम सामन्तवाद के न केवल राजनीतिक अपितु सामाजिक-आर्थिक कारक भी देखते हैं । राजनीतिक क्षेत्र में सामन्तवाद का मूलतत्व शासक- अधीनस्थ संबंध होता है और यह हमें शक-कुषाण राज्यतन्त्र में ही दिखाई देता है ।

जैन ग्रन्थ कालकाचार्य कथानक में कहा गया है कि शकों में जागीरदारों को ‘षाहि’ तथा उनके अधिपतियों को ‘षाहानुषाहि’ कहा जाता था । कुषाण शासक ‘रजतिराज’ की उपाधि धारण करते थे जो सामन्तवादी व्यवस्था की ओर संकेत करता है । कालान्तर में इसी का रूपांतरण ‘महाराजाधिराज’ हो गया जो भारतीय सम्राट धारण करते थे ।

मुद्रा प्रवर्त्तन (Currency Enforcement):

मुद्रा प्रवर्त्तन पर भी विदेशी प्रभाव स्पष्ट है । यद्यपि यूनानी प्रभाव से भारतीय सिक्कों की उत्पत्ति ढूंढ़ने का कोई ठोस आधार नहीं है, तथापि इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय सिक्के यूनानी तथा कुषाण सिक्कों से अवश्यमेव प्रभावित हुए थे ।

यवनों से सम्पर्क के पूर्व भारत में आहत सिक्के प्रचलित थे । ये सामान्यतः चाँदी के टुकड़े होते थे जिन पर कोई मुद्रालेख नहीं होता था । यवनों द्वारा प्रचलित भारतीय सिखों पर एक ओर राजा की आकृति तथा दूसरी ओर किसी देवता की आकृति अथवा उसका प्रतीक चिह्न बना होता था ।

भारतीय राजाओं ने इसे अपनाया । जो क्षेत्र यवन प्रभाव में थे, वहां सिक्का निर्माण के लिप पुरानी विधि के स्थान पर ठप्पा विधि को अपनाया गया । इसमें धातु के गर्म टुकड़े पर ठप्पा लगाकर लेख तथा प्रतीक चिह्न उत्कीर्ण कर दिये जाते थे ।

भारतीय गणराज्यों के सिक्के इसी विधि से ढाले गये हैं । कुषाणों ने भारत में पहली वार बड़े पैमाने पर स्वर्ण सिक्के प्रचलित करवाये । इसका अनुकरण कालान्तर के राजवंशों ने किया । यवनों ने ही सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाना प्रारम्भ किया । उनके द्विभाषी सिक्कों के अनुकरण पर बाद के भारतीय शासकों ने अपने सिक्के ढलवाये ।

यवन प्रभाव से भारतीय सिक्के सुडौल एवं सुनिश्चित भार-माप के बनने लगे । यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व मध्यकालीन लेखों में सिक्के के लिये ‘द्रम्म’ नाम मिलता है । यह यूनानी ‘द्रेक्कम’ का भारतीय रूपान्तर है । बाद में इसी को दाम कहा जाने लगा ।

धर्म:

विदेशी शासकों का अपना कोई धर्म नहीं था । अत: भारत में बस जाने के उपरान्त उनकी प्रवृत्ति वैष्णव, शैव तथा बौद्ध धर्मों में हुई जो उस समय समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे । भक्ति भावना का उदय हो चुका था तथा भारतीय धर्मों का द्वार विदेशियों के लिये खुल गया था । शास्त्रकारों ने उन्हें हिन्दू धर्म तथा समाज में आकर्षित करने के लिये विधान बना दिये ।

मनु ने घोषित किया कि यवन, शक, पह्लव आदि जातियां वैदिक क्रियाओं के त्याग तथा ब्राह्मणों से विमुख होने के कारण ही वृषतत्व (शूद्रता) को प्राप्त हुई । भागवत पुराण में व्यवस्था दी गयी कि ये विष्णु की पूजा करने से पवित्र होकर पुन: हिन्दू धर्म एवं समाज में प्रतिष्ठित हो सकती हैं । फलस्वरूप वैष्णव एवं शैव धर्मों के प्रति विदेशी शासकों का आकर्षण बढ़ा और उन्होंने इन धर्मों को ग्रहण कर दिया । यवन राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण कर बेसनगर में गरुड़ध्वज स्थापित कर पूजा की ।

महाक्षत्रप शोडासकालीन मोरा (मथुरा) पाषाण लेख में पञ्चवीरों (संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, साम्ब तथा अनिरुद्ध) की पाषाण प्रतिमाओं को मन्दिर निर्माण कर स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है । शोडासकालीन लेखों से स्पष्ट है कि वह भागवत अथवा वैष्णव धर्म का संरक्षक था । भागवत धर्म गंधार क्षेत्र में प्रचलित था जहां विदेशी भी इसे ग्रहण कर रहे थे ।

कुषाण राजाओं में से अन्तिम ने वासुदेव नाम धारण किया जो इस बात का सूचक है कि वह भागवत या विष्णु का उपासक था । हुविष्क की एक ऐसी स्वर्ण मुद्रा मिलती है जिस पर चित्रित एक देवता एक हाथ में चक्र तथा दूसरे में उर्ध्वालंग लिये हुए दिखाया गया है । यह स्पष्टतः हरिहर का आदि रूप है ।

किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वैष्णव धर्म शक-कुषाण राजाओं में लोकप्रियता नहीं प्राप्त कर सका क्योंकि उनका झुकाव शैव तथा बौद्ध धर्मों की ओर ही अधिक था । शक क्षत्रपों तथा कुषाण शासकों में शैवधर्म अधिक लोकप्रिय रहा ।

रुद्रदामन्, रुद्रसिंह, रुद्रसेन, शिवसेन क्षत्रप आदि नाम यह सूचित करते हैं कि क्षत्रप शासक शिव के भक्त थे । उनके सिक्कों पर वृषभ, नन्दिपद जैसे शैव प्रतीकों का अंकन मिलता है । कुषाण शासकों के शैव होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं । विमकडफिसेस के सिक्कों पर ‘महीश्वर’ (महेश्वर) की उपाधि तथा त्रिशूल और नन्दी का अंकन है । कनिष्क तथा हुविष्क के सिक्कों पर शिव तथा उनके सहायकों की आकृतियां है ।

ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित एक विशिष्ट कुषाण सिक्के पर शिव को उमा के साथ चित्रित किया गया है । लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित हुविष्क के कुछ सिक्कों पर उमा के साथ-साथ शिव परिवार के अन्य सदस्यों-महासेन, स्कन्द-कुमार, विशाख आदि का अंकन है ।

वासुदेव के सिक्कों पर भी शिव तथा उनके प्रतीकों का अंकन है । इन सबसे सिद्ध होता है कि प्रायः सभी कुषाण शासक शैव भक्त थे तथा शैवधर्म इस समय एक अत्यन्त लोकप्रिय धर्म बन गया था । तीसरा भारतीय धर्म जिसने विदेशियों को बहुत अधिक आकर्षित किया बौद्ध धर्म है ।

यह एक सुविदित तथ्य है कि हिन्द यवन शासक मेनान्डर (मिलिन्द) बौद्ध धर्म तथा दर्शन से अत्यधिक प्रभावित था । वह महान् बौद्ध दार्शनिक एवं विद्वान् नागसेन द्वारा बौद्ध धर्म में दीक्षित किया गया । इस मत का समर्थन मिलिन्दपञ्ह नामक पालि ग्रन्थ से होता है । इसमें मेनान्डर तथा नागसेन के बीच संवाद सुरक्षित है ।

मेनान्डर के बाद भी पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बौद्ध धर्म प्रचलित रहा । स्वात मंजूषा लेख से पता चलता है कि थियोडोरस नामक यूनानी गवर्नर ने बुद्ध के धातु अवशेषों को प्रतिष्ठित करवाया था । वह गन्धार क्षेत्र का क्षत्रप था ।

मेनान्डर की भाँति उसने भी बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था । लेख की तिथि दूसरी शती ईसा पूर्व है । तक्षशिला ताम्रपत्र अभिलेख से पता चलता है कि मेरीदर्ख उपाधि युक्त किसी यवन ने अपनी पत्नी के साथ एक स्तूप स्थापित करवाया था ।

पतिककालीन तक्षशिला ताम्रपत्र से विदित होता है कि उसने तक्षशिला में भगवान बुद्ध के धातु अवशेष तथा संघाराम स्थापित करवाया । इसका उद्देश्य क्षहराहों की शक्ति में वृद्धि करना था । महाक्षत्रप रजवुल की अग्रमहिषी अयसिअ कुमुस ने भी बुद्ध के धातु अवशेष, स्तूप तथा संघाराम की स्थापन्न करवायी थी । मथुरा सिंहशीर्ष लेख (लगभग 5-10 ई.) से इसकी सूचना मिलती है । लेख का अन्त बुद्ध, धम्म तथा संघ के अभिवादन के साथ होता है ।

Home››History››