गुप्त साम्राज्य: प्रशासन, व्यापार, सामाजिक जीवन, धर्म और विज्ञान | Read this article in Hindi to learn about:- 1. गुप्त राजवंशराजवंश में प्रशासन पद्धति (Administration System during Gupta Empire) 2. गुप्त  साम्राज्य में व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियाँ  (Trends in Trades and Agrarian Economy  in Gupta Empire) 3. गुप्त  साम्राज्य में सामाजिक गतिविधि (Social Activity during Gupta Empire) and Other Details.

Contents:

  1. गुप्त  राजवंशराजवंश में प्रशासन पद्धति (Administration System during Gupta Empire)
  2. गुप्त  साम्राज्य में व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियाँ  (Trends in Trades and Agrarian Economy  in Gupta Empire)
  3. गुप्त  साम्राज्य में सामाजिक गतिविधि (Social Activity during Gupta Empire)
  4. गुप्त  साम्राज्य में बौद्ध धर्म की अवस्था (Buddhist States during Gupta Empire)
  5. गुप्त  साम्राज्य में भागवत संप्रदाय का उद्‌भव और विकास (Origin and Development of Bhagwat Community during Gupta Empire)
  6. गुप्त  साम्राज्य में कलाएँ (The Arts and Crafts during Gupta Empire)
  7. गुप्त  साम्राज्य में साहित्य (Literature during Gupta Empire)
  8. गुप्त  राजवंशराजवंश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Science and Technology during Gupta Empire)

1. गुप्त  साम्राज्य में प्रशासन पद्धति (Administration System during Gupta Empire):

मौर्य राजाओं के विपरीत गुप्त राजाओं ने परमेश्वर महाराजाधिराज, परमभट्‌टारक आदि आडंबरपूर्ण उपाधियाँ धारण कीं । इससे संकेत मिलता है कि उन्होंने अपने साम्राज्य के भीतर छोटे राजाओं पर शासन किया । राजपद वंशगत था परंतु राजसत्ता ज्येष्ठाधिकार की अटल प्रथा के अभाव में सीमित भी ।

राजगद्दी हमेशा ज्येष्ठ पुत्र को नहीं मिलती थी । इससे अनिश्चितता उत्पन्न हो जाती थी जिसका लाभ सामंत और उच्चाधिकारी उठा सकते थे । गुप्त राजाओं ने ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान दिए । ब्राह्मणों ने राजा की तुलना विभिन्न देवताओं से करके उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया ।

ADVERTISEMENTS:

राजा को रक्षा और पालन करने वाले भगवान विष्णु के रूप में देखा जाने लगा और विष्णु की पत्नी लक्ष्मी राजसत्ता की देवी के रूप में सिक्कों पर सदा अंकित होती रही । गुप्त सेना की संख्या ज्ञात नहीं है ।

लगता है, राजा स्थायी सेना रखता था और इसके अतिरिक्त समय-समय पर सामंत सहायता के लिए अपनी-अपनी सेना प्रदत्त करते थे । अश्वचालित रथ के दिन लद चुके थे, और घुड़सवारों की महत्ता बढ़ गई थी । घोड़े पर सवार होकर तीर चलाना सैनिक रणनीति का अंग बन गया था ।

गुप्तकाल में भूमि करों की संख्या बढ़ गई परंतु वाणिज्य करों की संख्या घटी । संभवत: राज्य उपज का चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लेता था । इसके अतिरिक्त जब भी राजकीय सेना गाँवों से गुजरती थी तो उसे स्थानीय प्रजा खिलाती-पिलाती थी । ग्रामीण क्षेत्रों में काम करनेवाले राजकीय अधिकारी अपने निर्वाह के लिए किसानों से पशु, अन्न, खाट आदि वस्तुएँ लेते थे ।

मध्य और पश्चिम भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिए बेगार (नि:शुल्क श्रम) भी कराया जाता था जो विष्टि कहलाता था । पहले की अपेक्षा गुप्तकाल में न्याय-पद्धति अधिक विकसित थी । इस काल में अनेक विधि-ग्रंथ संकलित किए गए ।

ADVERTISEMENTS:

पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून (व्यवहार-विधि और दंड-विधि) भली-भांतिं परिभाषित और पृथक्कृत हुए । चोरी और व्यभिचार फौजदारी कानून में आए, और संपत्ति संबंधी विविध विवाद दीवानी कानून में । उतराधिकार के बारे में विस्तृत नियम निर्धारित हुए । पहले की भांति बहुत सारे नियमों का आधार वर्णभेद रहा ।

नियम-कानून बनाए रखना राजा का कर्त्तव्य रहा । राजा ब्राह्मण पुरोहितों की सहायता से न्याय-निर्णय करता था । शिल्पी वणिक आदि के संगठनों (श्रेणियों) पर उनके अपने ही नियम लागू होते थे । वैशाली से और इलाहाबाद के निकटवर्ती भीटा से प्राप्त मुहरों से पता चलता है कि गुप्तकाल में श्रेणियाँ अच्छी अवस्था में चल रही थीं ।

गुप्तों का अधिकारी वर्ग उतना बड़ा नहीं था जितना मौर्यों का । गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे । उन्हें राजा उनके अपने प्रांत में ही नियुक्त करता था । शायद वे नगद वेतन पाते थे ।

चूंकि गुप्त लोग संभवत: वैश्य थे इसलिए प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति केवल उच्च वर्गों तक सीमित नहीं थी । परंतु अनेक पदों का प्रभार एक ही व्यक्ति के हाथ में सौंपा जाने लगा और पद वंशगत हो गए । स्वभावत: राजकीय नियंत्रण शिथिल हो गया ।

ADVERTISEMENTS:

गुप्त राजओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति चलाई । राज्य कई भुक्तियों अर्थात् प्रांतों में विभाजित था और हर भुक्ति एक-एक उपरिक के प्रभार में रहती थी । भुक्तियाँ कई विषयों अर्थात् जिलों में विभाजित थीं । हर विषय का प्रभारी विषयपति होता था । पूर्वी भारत में प्रत्येक विषय को वीथियों में बाँटा गया था और वीथियाँ ग्रामों में विभाजित थीं ।

गुप्तकाल में गाँव के मुखिया की सत्ता बढ़ गई । वह ग्रामश्रेष्ठों की सहायता से गाँव का काम-काज देखता था । ग्रामों और छोटे-छोटे शहरों के प्रशासन से प्रमुख स्थानीय लोग जुड़े हुए थे । उनकी अनुमति के बिना जमीन की खरीद-बिक्री नहीं हो सकती थी । नगर के प्रशासन में व्यवसायियों के संगठनों की अच्छी साझेदारी रहती थी ।

वैशाली से प्राप्त सीलों से प्रकट होता है कि शिल्पी वणिक और लिपिक एक ही सामूहिक संस्था में काम करते थे और इस हैसियत से वे स्पष्टत: नगर के कार्यों का संचालन करते थे । उत्तरी बंगाल (बांग्लादेश) के कोटिवर्ष जिले की प्रशासनिक परिषद् में मुख्य वणिक, मुख्य व्यापारी और मुख्य शिल्पी शामिल थे ।

भूमि के अनुदान या खरीद-बिक्री में उनकी सम्मति आवश्यक समझी जाती थी । शिल्पियों और बैंकरों के अपने अलग-अलग संगठन (श्रेणियाँ) थे । भीटा और वैशाली के शिल्पियों और वणिकों की अलग-अलग श्रेणियाँ थीं । मालवा के मंदसौर और इंदौर में रेशम बुनकरों की अपनी खास श्रेणी थी ।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर जिले में तेलियों की अपनी अलग श्रेणियाँ थीं । ऐसा प्रतीत होता है कि इन श्रेणियों विशेषत: वणिकों की श्रेणियों को कई खास छूटों की सुविधा दी गई थी । हर हालत में ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के मामले देखती थीं और श्रेणी के नियम कानून और परंपरा का उल्लंघन करनेवालों को सजा दे सकती थीं ।

उपर्युक्त प्रशासन पद्धति केवल उत्तरी बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में तथा मध्य प्रदेश के कुछ संलग्न क्षेत्रों में ही लागू थी जहाँ गुप्त राजा अपने अधिकारियों की सहायता से प्रत्यक्ष शासन करते थे । साम्राज्य के अधिकतर भाग सामंतों या मंडलेश्वरों के हाथ में थे जिनमें से अनेकों को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन कर लिया था ।

साम्राज्य के सीमावर्ती सामंतों को तीन पिम्मेवारियाँ पूरी करनी होती थीं । वे सम्राट के दरबार में स्वयं उपस्थित होकर सम्मान निवेदन करते नजराना चढ़ाते और विवाहार्थ अपनी पुत्री समप्रित करते थे । लगता है कि इनके बदले उन्हें अपने क्षेत्र पर अधिकार का शासनपत्र (सनद) मिलता था ।

गरुड़ छापवाली राजकीय मुहर जिन शासनपत्रों पर है, वे सामंतो के जारी किए गए प्रतीत होते हैं । इस प्रकार गुप्तों के अधीन मध्य प्रदेश में तथा अन्यत्र कई नजराना पेश करने वाले राजा थे । अधीनता की स्थिति ने इन राजाओं को सामंत बना दिया था ।

गुप्तकाल में पुरोहितों और प्रशासकों को क्षेत्र-विशेष में ग्राम अनुदान के द्वारा कर-ग्रहण और शासन करने की रियायत दी जाती थी जिससे सामंत तंत्र को बल मिला । भूमि अनुदान प्रथा का आरंभ दकन में सातवाहनों ने किया और गुप्तकाल में खासकर मध्य प्रदेश में तो यह सामान्य परिपाटी बन गई ।

पुरोहितों और अन्य धर्माचार्यों को कर-मुक्त भूमि दान में दी जाती थी और उन्हें वैसे सभी कर उगाहने का अधिकार भी दे दिया जाता जो अन्यथा राजकोष में जाते । जो ग्राम दे दिए जाते थे उनमें राजा के अधिकारियों और अमलों को प्रवेश करने का हक नहीं रहता था । अनुदानभोगी अपराधकर्मियों को सजा भी दे सकता था ।

गुप्तकाल में अधिकारियों को वेतन का भुगतान जमीन देकर किया जाता था कि नहीं यह स्पष्ट नहीं है । स्वर्णमुद्रा की बहुतायत से पता चलता है कि ऊँचे अधिकारियों को नगद वेतन देने की परिपाटी चलती रही किंतु उनमें से कुछ-न-कुछ अधिकारी अपना पावना भूमि के जरिए भी प्राप्त करते थे ।

चूंकि साम्राज्य के प्रशासन संबंधी बहुत सारे काम सामंतों और अनुदानभोगियों के हाथों ही संपन्न हो जाते थे इसलिए मौर्यों की भांति गुप्तों को बहुत बड़ा अधिकारी वर्ग रखने की आवश्यकता नहीं रही ।

बहुत अधिकारी रखना इसलिए भी अनावश्यक हो गया होगा क्योंकि मौर्य राज्य की भांति गुप्त राज्य बड़े पैमाने पर आर्थिक कार्यकलाप में संलग्न नहीं था । ग्राम और नगर के प्रशासन में शिल्पियों, वणिकों श्रेष्ठियों आदि के भाग लेने से अधिकारियों का लंबा तांता आवश्यक न रह गया ।

गुप्तों का मौर्यों की भांति न लंबा-चौड़ा प्रशासन तंत्र था और न उन्हें उसकी आवश्यकता ही थी । कई दृष्टियों से गुप्तों की राजनीतिक प्रणाली सामंती लगती है ।


2. गुप्त  साम्राज्य में व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियाँ (Trends in Trades and Agrarian Economy  in Gupta Empire):

गुप्तकालीन आर्थिक जीवन की कुछ झलक हमें चीनी बौद्ध यात्री फा-हियान से मिलती है जो गुप्त साम्राज्य के विभिन्न भागों में घूमा था । अन्य बातों के अलावा वह हमें बतलाता है कि मगध नगरों और धनवानों से भरा-पूरा था, और धनी लोग बौद्ध धर्म का संरक्षण करते थे और उसके लिए दान देते थे ।

प्राचीन भारत में गुप्त राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं जो उनके अभिलेखों में दीनार कही गई हैं । नियंत्रित आकार और भार वाली ये स्वर्णमुद्राएँ अनेक प्रकारों और उप-प्रकारों में पाई जाती हैं । इन पर गुप्त राजाओं के स्पष्ट चित्र हैं और इनसे उनकी युद्धप्रियता और कलाप्रियता का संकेत मिलता है ।

यद्यपि स्वर्णांश में ये मुद्राएँ उतनी शुद्ध नहीं हैं जितनी कुषाण मुद्राएँ तथापि ये न केवल सेना और प्रशासन के अधिकारियों को वेतन चुकाने में अपितु भूमि की खरीद-बिक्री संबंधी आवश्यकता की पूर्ति में भी सहायक हुईं । गुजरात विजय के बाद गुप्त राजाओं ने बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के भी जारी किए जो केवल स्थानीय लेन-देन में चलते थे क्योंकि पश्चिमी क्षत्रपों के यहाँ चांदी के सिक्के खूब चलते थे । कुषाणों के विपरीत गुप्तों के तांबे के सिक्के बहुत हो कम मिलते हैं ।

इससे यह प्रकट होता है कि जनसामान्य में मुद्रा का प्रयोग जितना कुषाणों के समय होता था उतना अब नहीं रहा । पूर्वकाल की तुलना में दूर के व्यापार में ह्रास दिखाई देता है । 550 ई॰ तक भारत पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ कुछ-कुछ व्यापार करता रहा जहाँ वह रेशम भेजता था ।

550 ई॰ के आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली । इससे भारत के निर्यात व्यापार पर बुरा असर पड़ा । छठी सदी का मध्य आते-आते भारतीय रेशम की माँग विदेश में कमजोर पड़ गई थी । पाँचवी सदी के मध्य में रेशम बुनकरों की एक श्रेणी पश्चिम भारत के अपने मूल निवास स्थान लाट देश को छोड्‌कर मंदसोर चली गई । वहाँ उन बुनकरों ने अपना मूल पेशा छोड्‌कर अन्य पेशों को अपना लिया ।

गुप्तकाल में, विशेषत: मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय बात हुई । ये थी ब्राह्मण पुरोहितों का भू-स्वामी के रूप में उदय जो किसानों के हितों के विपरीत था । ब्राह्मण पुरोहितों को दान में जो भूमि दी जाने लगी उससे अवश्य ही बहुत-सी परती जमीन आबाद हुई ।

लेकिन यह अनुदानभोगी वर्ग स्थानीय जनजातीय किसानों के मत्थे पर ऊपर से लाद दिया गया जिसके परिणामस्वरूप उन किसानों की हैसियत नीचे गिर गई । मध्य और पश्चिम भारत में किसानों से बेगार भी लिया जाने लगा । दूसरी ओर, मध्य भारत के जनजातीय इलाकों में ब्राह्मण अनुदानभोगियों ने बहुत-सारी परती जमीन को आबाद कराया और खेती की अच्छी जानकारी प्रचलित की ।


3. गुप्त  साम्राज्य में सामाजिक गतिविधि (Social Activity during Gupta Empire):

ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर ग्राम-अनुदान मिलना इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मणों की श्रेष्ठता गुप्तकाल में मजबूत हुई । ब्राह्मण गुप्तवंशियों को क्षत्रिय मानने लगे जबकि वे मूलत: वैश्य थे । ब्राह्मणों ने गुप्त राजाओं को देवताओं के गुणों से अलंकृत रूप में चित्रित किया ।

इससे गुप्त राजाओं की हैसियत धर्मशास्त्र-सम्मत हो गई और वे ब्राह्मण-प्रधान वर्णव्यवस्था के परम प्रतिपालक हो गए । भारी संख्या में मिले ग्राम-अनुदानों के फलस्वरूप ब्राह्मणों ने खूब धन-संचय किया । इस प्रकार ब्राह्मणों ने बहुत-से विशेषाधिकार अर्जित किए जो लगभग पाँचवीं सदी में रचित नारदस्मृति में गिनाए गए हैं ।

वर्ण अनगणित जातियों-उपजातियों में बँट गए । इसके दो कारण हुए भारी संख्या में विदेशों से आए लोग भारतीय समाज में घुल-मिल गए और उन विदेशियों का हर समूह एक-एक खास जाति समझा जाने लगा । चूंकि विदेशी लोग विजेता के रूप में आए इसलिए समाज में उन्हें क्षत्रिय का स्थान मिला ।

हूण लोग पाँचवी सदी का अंत होते-होते आए और अंतत: राजपूतों के छत्तीस कुलों में से एक कुल के मान लिए गए । आज भी हूण उपाधि वाले राजपूत मिलते हैं । जातियों की संख्या बढ़ने का दूसरा कारण था ग्राम अनुदान की प्रक्रिया में बहुत-से जनजातीय लोगों का ब्राह्मण समाज में समा जाना । जनजातीय सरदार लोग उच्च कुल के माने गए ।

किंतु उनके सामान्य स्वजनों को नीच कुल का माना गया और हर जनजाति अपने नए जीवन में एक-न-एक जाति के रूप में अवतीर्ण हुआ । यह प्रक्रिया किसी-न-किसी रूप में आज तक चल रही है । इस काल में शूद्रों की स्थिति सुधरी । अब उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार मिल गया ।

वे अब कृष्ण नामक देवता की पूजा भी कर सकते थे । उन्हें कुछ ग्रहम संस्कारों या घरेलू अनुष्ठानों का भी अधिकार मिला । इन कर्मों में अवश्य ही पुरोहितों को दक्षिणा प्राप्त होती थी । यह समझा जा सकता है कि ये सभी शूद्रों की आर्थिक स्थिति में सुधार के ही परिणाम थे ।

सातवीं सदी से उनकी पहचान मुख्यत: कृषक के रूप में होने लगी जबकि पूर्वकाल में उनका चित्रण केवल अपने ऊपर के तीनों वर्णों के वास्ते खटने वाले सेवक दास और कृषि-मजदूर के रूप में ही होता था । इस काल में अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई विशेषकर चांडालों की संख्या में ।

समाज में चांडाल बहुत ही पहले ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी से ही दिखाई देते हैं । ईसा की पाँचवीं सदी में आकर उनकी संख्या इतनी बढ़ गई और उनकी अपात्रताएँ इतनी प्रखर हो गईं कि उनकी ओर चीनी यात्री फा-हियान की दृष्टि बरबस खिंच गई । फा-हियान ने लिखा है कि चांडाल गाँव के बाहर ही बसते थे और मांस का व्यवसाय करते थे ।

जब कभी वे नगर में प्रवेश करते उच्च वर्ण के लोग उनसे दूर ही रहते क्योंकि वे मानते थे कि चांडालों के स्पर्श से सड़क अपवित्र हो जाती है । गुप्तकाल में शूद्रों की भांति स्त्रियों को भी रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ और उनके लिए कृष्ण का पूजन विहित किया गया ।

लेकिन गुप्तकाल के पहले और गुप्तकाल में भी उच्च वर्णों की स्त्रियों को स्वतंत्र जीवन-निर्वाह का साधन प्राप्त नहीं था । निचले दो वर्णों की स्त्रियाँ अपने जीवन- यापन के लिए अर्जन कर सकती थीं । इतने से ही उन्हें बहुत-कुछ स्वतंत्रता मिल गई पर उच्च वर्णों की स्त्रियाँ इस स्वतंत्रता से वंचित थीं ।

इसमें तर्क यह दिया गया कि चूंकि वैश्य और शूद्र स्त्रियाँ खेती का काम और घरेलू काम करती हैं इसलिए उन पर पति का आधिपत्य नहीं रहता है । गुप्तकाल में उच्च वर्णों के लोग अधिक-से-अधिक जमीन अर्जित करते गए जिससे उनमें अधिक-से-अधिक पत्नी रखने और अधिक-से-अधिक संपत्ति बटोरने की प्रवृत्ति आई । पितृतंत्रात्मक व्यवस्था में वे पत्नी को निजी संपत्ति समझने लगे यहाँ तक कि पत्नी से मृत्यु में भी साथ देने की आशा करने लगे ।

पति के मरने पर उसकी पत्नी का पति की चिता में आत्मदाह करने का पहला अभिलेखीय उदाहारण गुप्तकाल में ही 510 ई॰ में मिलता है । फिर भी, गुप्तोत्तर काल की कुछ स्मृतियों में कहा गया है कि यदि पति खो जाए, मर जाए, नपुंसक हो जाए, संन्यास ले ले या पतित (जातिबाह्य) हो जाए तो स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है ।

उच्च वर्णों की स्त्रियों की पराधीनता का मुख्य कारण यह था कि वे जीवन- निर्वाह के लिए पूर्णत: अपने पतियों पर आश्रित रहती थीं । उन्हें स्वामित्वाधिकार नहीं था । लेकिन विवाह के समय वधू को भेंट के रूप में माँ-बाप द्वारा दिए गए भूषण अलंकरण, वस्त्र आदि सामान स्त्रीधन होते थे । गुप्तकाल और गुप्तोत्तर काल की स्मृतियों में तो इन भेंटों का दायरा काफी बढ़ाया गया है ।

उनके अनुसार विवाह आदि के समय वधू के माता-पिता से तथा सास-ससुर से उसे जो कुछ उपहार मिलता है वह स्त्रीधन होता है । छठी सदी के स्मृतिकार कात्यायन का कहना है कि स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल संपत्ति को भी बेच सकती है और गिरवी रख सकती है ।

इससे यह बात साफ-साफ निकलती है कि कात्यायन के अनुसार जमीन में स्त्रियों को हिस्सा मिलता था, परंतु भारत के पितृतंत्रात्मक समाज में धर्मशास्त्र के अनुसार सामान्यत: बेटी को अचल संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं मिलता था ।


4. गुप्त  साम्राज्य में बौद्ध धर्म की अवस्था (Buddhist States during Gupta Empire):

गुप्तकाल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना बहुत घट गया । फा-हियान ऐसी धारणा देता है कि बौद्ध धर्म बहुत समुन्नत स्थिति में था । लेकिन यथार्थ में इस धर्म का जो उत्कर्ष अशोक और कनिष्क के दिनों में था वह गुप्तकाल में नहीं रहा । परंतु कुछ स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ, तथा नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया ।


5. गुप्त  साम्राज्य में भागवत संप्रदाय का उद्‌भव और विकास (Origin and Development of Bhagwat Community during Gupta Empire):

भागवत धर्म का केंद्रबिंदु भगवत् या विष्णु की पूजा है । इसका उद्‌भव मौर्योत्तर काल में हुआ । वैदिक काल में विष्णु गौण देवता था । वह सूर्य का प्रतिरूप था और उर्वरता पंथ का देवता भी । ईसा-पूर्व दूसरी सदी में आकर वह नारायण नामक देवता से अभिन्न हो गया और नारायण-विष्णु कहलाने लगा ।

नारायण मूलत: अवैदिक जनजातीय देवता था । वह भगवत कहलाता था और उसका उपासक भागवत । यह देवता जनजातीय सरदार का दिव्य प्रतिरूप समझा जाता था । जिस प्रकार जनजातीय सरदार स्वजनों से भेंट पाता था और उसे हिस्सा लगाकार उन्हीं स्वजनों के बीच बाँट देता था उसी प्रकार माना जाता था कि नारायण भग अर्थात् हिस्सा या भाग्य अपने भक्तों के बीच उनकी भक्ति के अनुसार बाँटता है ।

जब विष्णु और नारायण दोनों एक हो गए तब दोनों के उपासक भी धर्म की एक ही छत्रछाया में आ गए । पहला वेदमूलक देवता था तो दूसरा अवैदिक । लेकिन ये दोनों संस्कृतियाँ ये दोनों प्रकार के लोग और ये दोनों देवता सभी आपस में घुल-मिल गए ।

आगे चलकर विष्णु पश्चिमी भारत के निवासी वृष्णि-काल के एक पौराणिक महापुरुष से मिल गया, जो कृष्ण-वासुदेव कहलाता था । इस कृष्ण की विष्णु से अभिन्नता दिखाने के उद्देश्य से महान गाथाकाव्य महाभारत को नया रूप दिया गया । 200 ई॰ पू॰ में आते-आते उपासकों की ये तीनों धाराएँ और उनके तीनों उपास्य देव मिलते-मिलते एक हो गए । भागवत या वैष्णव संप्रदाय का उद्‌भव इसी का परिणाम है ।

भागवत संप्रदाय के मुख्य तत्व हैं भक्ति और अहिंसा । भक्ति का अर्थ है प्रेममय निष्ठा निवेदन । यह एक प्रकार की वही निष्ठा है जो जनजाति के लोग अपने सरदार के प्रति रखते हैं या प्रजा राजा के प्रति रखती है ।

अहिंसा अर्थात् किसी जीव का वध नहीं करना, कृषक समाज के लिए अनुकूल थी तथा विष्णु से जुड़ी प्राणदायिनी उर्वरता के पंथ से भी मेल खाती थी । लोग विष्णु की प्रतिमा की पूजा करते थे और जौ तिल आदि चढ़ाते थे । जीव-हत्या से घृणा के कारण बहुत-से उपासकों ने मांस-मछली खाना छोड़ दिया ।

यह नया धर्म परम उदार था । सहज ही इसने विदेशियों को भी अपनी ओर खींच लिया । यह शिल्पियों और वणिकों को भी भाया जो सातवाहनों और कुषाणों के काल में प्रबल हो चुके थे । कृष्ण ने भगवद्‌गीता में घोषणा की है कि जन्मत: अपवित्र स्त्री वैश्य और शूद्र भी उसकी शरण में आ सकते हैं ।

इस धार्मिक ग्रंथ में वैष्णव धर्म का प्रतिपादन किया गया है । विष्णुपुराण में और कुछ-कुछ विष्णुस्मृति में भी इस संप्रदाय का प्रतिपादन है । गुप्तकाल में आकर महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावी हो गया । इसने अवतारवाद का उपदेश दिया और इतिहास को विष्णु के दस अवतारों के चक्र के रूप में प्रतिपादित किया गया ।

इसके अनुसार जब-जब सामाजिक व्यवस्था पर संकट आता है तब-तब विष्णु उपयुक्त रूप में अवतार लेकर उसे बचाता है । विष्णु का प्रत्येक अवतार धर्म के उद्धार के लिए आवश्यक माना गया और धर्म का अर्थ राज्य द्वारा संरक्षित वर्णविभाजित समाज और पितृतंत्रात्मक परिवार की संस्था समझा जाने लगा ।

छठी सदी में आकर विष्णु की गणना शिव और ब्रह्मा के साथ त्रिदेव में होने लगी । फिर भी वह अपने आप में प्रमुख देवता रहा । छठी सदी के बाद उसकी पूजा से मिलने वाले पुण्य फलों के प्रचारार्थ बहुत-सी पुस्तकें लिखी गईं जिनमें सबसे ऊपर स्थान है भगवतपुराण का ।

इस पुराण की कथा का प्रवचन पुरोहित लोग कई दिनों में संपन्न करते थे । मध्यकाल में पूर्वी भारत में जहाँ-जहाँ भागवत-घर स्थापित हुए वहाँ विष्णु की पूजा और उनकी लीलाओं का कीर्त्तन होता था । विष्णु के उपासकों के लिए विष्णुसहस्त्रनाम आदि बहुत-से स्तोत्र लिखे गए ।

गुप्तवंश के कुछ राजा शिव के उपासक हुए, जो संहार या प्रलय के देवता हैं । लेकिन शिव का उत्कर्ष बाद में हुआ और गुप्त शासन की आरंभिक अवस्था में शिव का उतना बड़ा स्थान नहीं है जितना विष्णु का ।

गुप्तकाल में मूर्तिपूजा ब्राह्मण धर्म का सामान्य लक्षण बन गई । अनेक त्योहार मनाए जाने लगे । विभिन्न वर्गों के लोगों में जो कृषि-संबंधी त्योहार चलते थे उन्हें भी धार्मिक रूपरंग दे दिया गया और वे पुरोहितों की आय के अच्छे साधन बन गए ।

गुप्तवंशी राजाओं ने विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहनशीलता का मार्ग अपनाया । हम बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों को सताए जाने का उदाहरण नहीं पाते हैं । इसका एक कारण बौद्ध धर्म के रंग-ढंग में हुआ परिवर्तन भी था जिसके क्रम में ब्राह्मण धर्म के बहुत-से तत्त्व बौद्ध धर्म में आ गए थे ।


6. गुप्त  साम्राज्य में कलाएँ (The Arts and Crafts during Gupta Empire):

गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है । यह बात आर्थिक क्षेत्र में सही नहीं मानी जा सकती है क्योंकि इस काल में उत्तर भारत में कई नगरों का पतन हुआ । लेकिन गुप्तों के पास सोना भारी मात्रा में था चाहे वह किसी भी स्रोत से आया हो । गुप्तों ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं ।

अमीर और रईस लोग अपनी आय का कुछ भाग कला और साहित्य की साधना में लगे लोगों के भरण-पोषण में लगाते थे । समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य दोनों के संपोषक हुए । समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए एक सिक्के पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है और चंद्रगुप्त द्वितीय का दरबार नवरत्न अर्थात् नौ बड़े-बड़े विद्वानों से अलंकृत था ।

प्राचीन भारत में कला अधिकतर धर्म से अनुप्राणित होती थी । प्राचीन भारत की धर्मनिरपेक्ष कला के अवशेष बहुत कम हैं । मौर्य काल और मौर्योत्तर काल में कला को बौद्ध धर्म से खूब बढ़ावा मिला ।

पत्थर के बड़े-बड़े स्तंभ खड़े किए गए चट्‌टानों को काट-काट कर सुंदर गुफाएँ बनाई गईं और ऊँचे-ऊँचे स्तूप खड़े किए गए । बुद्ध संबंधी पुरावशेषों पर निर्मित गोलाकार आधारों पर टिकी गुंबदनुमा मिट्‌टी, ईंट या प्रस्तर की संरचना को स्तूप कहते हैं । बुद्ध की अनगिनत प्रतिमाएँ बनाई गईं ।

गुप्तकाल में बनी दो मीटर से भी ऊँची बुद्ध की कांस्यमूर्ति भागलपुर के निकट सुल्तानगंज में पाई गई है । फा-हियान ने 25 मीटर से भी अधिक ऊँची बुद्ध की ताम्रमूर्ति देखी थी, जो अब ब्रिटेन के बरमिंघम म्यूजियम में है । गुप्तकाल में सारनाथ और मथुरा में बुद्ध की सुंदर प्रतिमाएँ बनीं । पर गुप्तकालीन बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है अजंता की चित्रावली ।

यद्यपि इस चित्रावली में ईसा की पहली सदी से लेकर सातवीं सदी तक के चित्र शामिल हैं तथापि अधिकतर गुप्तकालीन ही हैं । इन चित्रों में गौतम बुद्ध और उनके पिछले जन्मों की विभिन्न घटनाएँ चित्रित हैं ।

ये चित्र वास्तविक जैसे सजीव और सहज लगते हैं । आश्चर्य यह है कि चौदह सौ वर्ष के बाद भी उनके रंगों की चमक में विशेष अंतर नहीं है, यद्यपि गुप्त शासक अजंता चित्रकारियों के संरक्षक नहीं थे ।

चूंकि गुप्त राजा ब्राह्मण धर्म के संपोषक थे इसलिए पहली बार हम गुप्तकाल में ही विष्णु शिव तथा अन्य हिंदू देवताओं की प्रतिमा पाते हैं । कई स्थानों में हम संपूर्ण देवमंडल पाते हैं जहाँ मध्य में मुख्य देवता हैं और चारों ओर उनके परिचर और गौण देवता एक ही पट्‌ट पर विराजमान हैं ।

मुख्य देवता का आकार बड़ा रहता है, पर उसके परिचर तथा गौण देवता छोटे पैमाने पर उतारे जाते हैं । इससे स्पष्टत: सामाजिक विभेद तथा श्रेणीबद्धता का संकेत मिलता है ।

वास्तुकला में गुप्तकाल पिछड़ा था । वास्तुकला के नाम पर हमें ईंट के बने कुछ मंदिर उत्तर प्रदेश में मिले हैं । एक पत्थर का मंदिर भी मिला है । यहाँ कानपुर के भीतरगाँव, गाजीपुर के भीतरी और झाँसी के देवगढ़ के ईंट के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं । नालंदा का बौद्ध महाविहार पाँचवीं सदी में बना और इसकी सबसे पहले की संरचना जो ईंट की है, गुप्तकाल में बनी है ।


7. गुप्त  साम्राज्य में साहित्य (Literature during Gupta Empire):

गुप्तकाल लौकिक साहित्य की सर्जना के लिए स्मरणीय है । भास के तेरह नाटक इसी काल के हैं । शूद्रक का लिखा नाटक मृच्छकटिक या माटी की खिलौना-गाड़ी, जिसमें निर्धन ब्राह्मण के साथ वेश्या का प्रेम वर्णित है प्राचीन नाटकों में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है ।

परंतु जिस कृति को लेकर गुप्तकाल का सबसे ऊँचा नाम है वह है कालिदास की कृति अभिज्ञानशाकुंतलम् । इसका स्थान विश्व की एक सौ उत्कृष्टतम साहित्यिक कृतियों में है । इसमें राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम की कथा चित्रित है जिनका पुत्र भरत नामी राजा हुआ ।

अभिज्ञानशाकुंतलम् प्रथम भारतीय रचना है जिसका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ । ऐसी दूसरी रचना है भगवद्‌गीता । भारत में गुप्तकाल में लिखे नाटकों के बारे में दो बातें उल्लेखनीय हैं । पहली बात यह कि ये सभी नाटक सुखांत हैं । दुखांत नाटक एक भी नहीं मिलता । दूसरी बात यह है कि उच्च वर्गों के लोग भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हैं । इन नाटकों में स्त्री और शूद्र प्राकृत बोलते हैं जबकि भद्रजन संस्कृत ।

इस काल में धार्मिक साहित्य की रचना में भी भारी प्रगति हुई है । गुप्तकाल की अधिकांश रचनाओं में प्रबल धार्मिक रुझान है । दो महान गाथाकाव्य रामायण और महाभारत ईसा की चौथी सदी में आकर लगभग पूरे हो चुके थे । रामायण में राम की कथा है, जिन्हें उनके पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माँ कैकेई की साजिशों के कारण चौदह वर्षों के लिए निष्कासित किया था ।

वे निष्ठापूर्वक पिता की आज्ञा मानकर वन में रहने लगे जहाँ उनकी पत्नी सीता को लंकेश्वर रावण ने हर लिया । अंत में राम ने अपने भाई लक्ष्मण की सहायता से रावण को मारा और वे सीता को वापस ले आए । इस कहानी में दो आधारभूत नैतिक तत्व हैं । पहला यह कि इसमें परिवार रूपी संस्था का आदर्श दिखाया गया है जिसमें किसी भी परिस्थिति में पुत्र को पिता की आज्ञा और छोटे भाई को बड़े भाई की आज्ञा माननी होती है, और स्त्री को पति के प्रति निष्ठा बरतनी पड़ती है ।

दूसरा यह कि रावण बुराई के और राम भलाई के प्रतीक हैं । अंत में असत् पर सत् की और कुव्यवस्था पर सुव्यवस्था की जीत होती है । महाभारत की मुख्य कथा की अपेक्षा राम की कथा कहीं अधिक सामाजिक और धार्मिक थी । रामायण के अनेकानेक रूप-रूपांतर भारतीय भाषाओं में तथा दक्षिण-पूर्व एशिया की भाषाओं में पाए जाते हैं ।

महाभारत सार रूप में चचेरे भाईयों के दो समूह कौरवों और पांडवों के आपसी झगड़े की कहानी है जो बतलाती है कि राजसत्ता स्वजनों के प्राण से भी अधिक प्यारी होती है । यद्यपि धृतराष्ट्र द्वारा छोड़े गए राज्य के उत्तराधिकारी पांडव थे, तथापि कौरवों ने सुई की नोंक भर भी जमीन देने से इंकार कर दिया ।

फलत: कौरवों और कृष्ण समर्थित पांडवों के बीच लंबी बंधुघाती लड़ाई हुई । अंत में कौरवों को हरा कर पांडव विजयी हुए । इसमें भी दुष्ट शक्ति पर इष्ट शक्ति की विजय दिखाई देती है । भगवद्‌गीता महाभारत का महत्वपूर्ण अंश है ।

इसमें शिक्षा दी गई है कि वर्ण और जाति के अनुसार जिसका जो कर्त्तव्य निर्धारित है उसे उस कर्त्तव्य का पालन हर हालत में किसी प्रतिफल की कामना के बिना करना चाहिए । पुराण उपर्युक्त दोनों महाकाव्यों के ढर्रे पर ही लिखे गए हैं ।

इनमें जो अधिक पहले के हैं, उनका अंतिम संकलन-संपादन गुप्तकाल में हुआ । ये मिथकों आख्यानों और प्रवचनों से भरे हैं । इनका उद्देश्य सामान्य लोगों को शिक्षा और बुद्धिविवेक देना था । इस काल में बहुत-सी स्मृतियाँ भी लिखी गईं जिनमें धार्मिक और सामाजिक नियम-कानून पद्यबद्ध किए गए । स्मृतियों पर टीकाएँ लिखने की अवस्था गुप्तकाल के बाद आई ।

गुप्तकाल में पाणिनि और पतांजलि के ग्रंथो के आधार पर संस्कृत व्याकरण का भी विकास हुआ । यह काल विशेष रूप से स्मरणीय है अमत्काशे को लेकर जिसका संकलन चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा के नवरत्न अमरसिंह ने किया है । प्राचीन रीति से संस्कृत पढ़नेवाले छात्रों को यह शब्दकोश रटा दिया जाता है ।

कुल मिलाकर शास्त्रीय साहित्य के इतिहास में गुप्तकाल एक उज्ज्वल अध्याय है । इस काल में जटिल अलंकारिक शैली का विकास हुआ जो पुराने सरल संस्कृत साहित्य की शैली से भिन्न थी । जब हम इस काल में आगे की ओर बढ़ते हैं तो गद्य की अपेक्षा पद्य पर अधिक जोर पाते हैं । कुछ टीका ग्रंथ भी मिलते हैं ।

संस्कृत निस्संदेह गुप्त राजाओं की शासकीय भाषा थी । यों तो ब्राह्मण धर्म विषयक साहित्य की बहुतायत है, फिर भी इस काल में पहली बार धर्मनिरपेक्ष साहित्य की बहुत-सी रचनाएँ पाई जाती हैं ।


8. गुप्त  साम्राज्य में विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Science and Technology during Gupta Empire):

गणित के क्षेत्र में इस काल का प्रसिद्ध ग्रंथ है आयर्भटीय । इसके रचयिता आर्यभट पाटलिपुत्र के रहने वाले थे । प्रतीत होता है कि गणित के ये विद्वान विविध प्रकार की गणना में पारंगत थे । इलाहाबाद जिले में मिले 448 ई॰ के गुप्त अभिलेख से पता चलता है कि ईसा की पाँचवी सदी के आरंभ में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी । खगोलशास्त्र में रोमकसिद्धान्त नामक पुस्तक रची गई । इसके नाम से ही अनुमान किया जा सकता है कि इस पर यूनानी चिंतन का प्रभाव था ।

गुप्तकालीन शिल्पकारों ने अपना चमत्कार लौह और कांस्य कृतियों में दिखाया है । बुद्ध की नाना प्रकार की कांस्यमूर्तियों का निर्माण बड़े पैमाने पर शुरू हो गया था, क्योंकि तब तक धातु के बारे में तकनीकी जानकारी उन्नत अवस्था में पहुँच गई थी ।

लौह शिल्पकारी का सबसे अच्छा उदाहरण दिल्ली में मेहरौली में स्थित लौहस्तंभ है । इसका निर्माण ईसा की चौथी सदी में हुआ और तब से सोलह सौ वर्षों के बीत जाने पर भी इसमें जंग नहीं के बराबर है ।

यह स्तंभ शिल्पकारी के महान तकनीकी कौशल का प्रमाण है, यद्यपि शुष्क क्षेत्र में रहने के कारण भी इसका जीवन लंबा हुआ है । इस प्रकार का लौहस्तंभ सौ बरस पहले पश्चिम के किसी भी ढलाई-घर में बनाना असंभव था । दुख की बात है कि बाद के शिल्पकार इस ज्ञान को और आगे नहीं बढ़ा सके ।


Home››History››Gupta Empire››