उत्तर-वैदिक काल तथा उसकी संस्कृति | Read this article in Hindi to learn about the post-vedic period and its culture.

ऋग्वैदिक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर ही उत्तरवैदिककालीन संस्कृति का विकास हुआ । इस काल का इतिहास हमें ऋग्वेद के आधार पर ही विकसित संहिता ग्रंथ, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषदों से ज्ञात होता है जिनका समय लगभग ई. पू. 1000 से 6000 तक माना जाता है ।

संहिताओं में सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के नाम उल्लेखनीय है । संहिताओं के बाद ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषदों का विकास होता है । ब्राह्मण गद्य साहित्य से सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं जिनमें कर्मकाण्डों के महत्व को अनेक गाथाओं द्वारा स्पष्ट करने की चेष्टा की गयी है । ब्राह्मणों ग्रन्थों की रचना संहिताओं की व्याख्या करने के लिये सरल गद्य में की गयी है । ब्राह्मणों के अन्तिम भाग आरण्यक है जिनमें दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन किया गया है ।

संभवतः इनके अध्ययन के लिये ‘अरण्य’ (जंगल) जैसे एकान्त स्थानों की आवश्यकता होती थी, इसी कारण इन्हें आरण्यक कहा गया । आरण्यकों में ऐतरेय, कौषीतकी तथा तैत्तिरीय प्रमुख है । आरण्यकों के बाद के ग्रंथ उपनिषद् है जिनकी भाषा लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती है । उपनिषदों में हम वैदिक चिन्तन का चरम विकास पाते है । इसी कारण इन्हें ‘वेदान्त’ भी कहा गया है ।

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इनका प्रमुख विषय आत्मविद्या है । इन गुणों की रचना गंगा-घाटी में हुई थी । इसी समय तथा क्षेत्र में विभिन्न पुरास्थलों पर की गयी खुदाइयों से चित्रित तथा भूरे रग के मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए है । इन्हें “चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड” कहा जाता है । इस संस्कृति के लोग लोहे के अस्त्र-शस्त्र एवं उपकरणों का प्रयोग करते थे ।

हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, नोह आदि प्रमुख उत्खनित स्थल हैं । ये सभी कुरु पांचल क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं जहां उत्तर वैदिक आर्यों का मुख्य कार्यक्षेत्र रहा । यहां से लोहे के बने बाणाग्र, बरछे, फलक आदि मिलते है । युद्ध संबंधी अस्त्र-शस्त्रों की संख्या ही अधिक है । स्पष्ट है कि पहले लोहे का उपयोग युद्ध के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में ही किया गया ।

धीरे-धीरे इससे कृषि-उपकरण भी बनाये जाने लगे । ऋग्वैदिककालॅ में आर्य सभ्यता केवल पंजाब तथा सिन्ध क्षेत्र में ही सीमित थी जहाँ पन्चजनों का निवास था । किन्तु उत्तर-वैदिककाल के आयी वन प्रसार एक व्यापक क्षेत्र में हो गया ।

अनेक छोटे जन बड़े जनों में मिला लिये गये तथा बड़े-घड़े राज्यों की स्थापना हुई । उत्तर-वैदिक काल की समाप्ति के पूर्व ही आयी ने यमुना, गड्गा एवं सदानीरा (राप्ती या गण्डक) नदियों द्वारा सिंचित उपजाऊ मैदानों को पूर्णतया जीत लिया था । आर्य-सभ्यता का केन्द्र मध्य देश था जो सरस्वती से लेकर गश्त के दोआब तक विस्तृत था ।

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इसमें कुरु पांचल जैसे विशाल राज्य थे । यहीं से आर्य मध्यता पूर्व की ओर कोशल, काशी, विदेह (उत्तरी विहार) तक फैली । क्रमशः कोशल, काशी, विदेह, मगध, अंग आदि राज्यों का महत्व चढ़ता गया तथा कुरु, पन्चाल आदि महत्वहीन होते गये । मगध तथा अंग अभी आर्य संस्कृति के प्रभाव से बाहर थे ।

मगध तथा अंग का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता । सर्वप्रथम अथर्ववेद में ही इनका उल्लेख हुआ है । अथर्ववेद में मगध के लोगों को ‘व्रात्य’ कहा गया है जो प्राकृत भाषा बोलते थे । उनके प्रति तिरस्कार पूर्ण भाव प्रकट किये गये है । यहाँ तक कि यह इच्छा व्यक्त की गयी है कि पूर्व दिशा में स्थित अड्ग तथा मगध के लोग ज्वर द्वारा ग्रसित किये जायँ ।

आर्य सभ्यता रब प्रसार अभी विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में नहीं हो पाया था । किसी भी वैदिक ग्रंथ में हम दक्षिण के राज्यों का नामोल्लेख नहीं पाते है । आर्यों के पूर्व दिशा की ओर प्रसार के विषय में शतपथ ब्राह्मण वर्णित विदेघ माधव की आख्यायिका भी उल्लेखनीय है । इसके अनुसार विदेघ माधव, जो सरस्वती नदी के तट पर निवास करते थे, ने वैश्वानर अग्नि को मुख में धारण किया था ।

घृत का नाम लेते ही वह अग्नि मुख से निकल कर पृथ्वी पर आ गया और नदियों को जलाता हुआ पूर्व की ओर बढ गया । विदेघ माधव तथा उनके पुरोहित गौतम रहूगण ने उसका अनुगमन किया । किन्तु उत्तरगिरि (हिमालय) से बहने वाली सदानीरा नदी को वह नहीं जला सका ।

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विदेध माधव द्वारा अपने निवास स्थान के विषय में पूछे जाने पर अग्नि ने उनसे सदानीरा के पूरब की ओर रहने का आदेश दिया । यह नदी ही कोशल तथा विदेह राज्यों की आज भी मर्यादा बनी हुई है । यह कथानक ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती नदी अर्थात् पश्चिम में ही वैदिक सभ्यता पूर्व की ओर प्रसरित हुई थी ।

उत्तर-वैदिक काल तक आते-आते अनु, द्रुह्मा, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत आदि जनों का लोप हो गया तथा उनके स्थान पर विशाल राज्यों की स्थापना हुई । इनमें कुरु और पंचाल सबसे अधिक प्रसिद्ध थे । शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है ।

यहाँ के निवासी शिष्टाचार में अग्रणी, विधिपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले तथा अच्छी संस्कृत बोलने वाले बताये गये है । इनके शासक सर्वश्रेष्ठ थे तथा इनकी परिषदें सर्वोत्तम थीं । ये संयुक्त राज्य थे जिनकी राजधानी आसदीवत् तथा काम्पिल्य थी ।

आसदीवत् के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृश्द्वती के बीच की भूमि) सम्मिलित था, जबकि काम्पिल्य के अन्तर्गत बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद के जिले थे । परीक्षित तथा जनमेजय के समय कुरु राज्य उन्नति की चरम सीमा पर था । अथर्ववेद में उसकी समृद्धि का चित्रण है । तदनुसार यहाँ के नागरिक सुखी तथा समृद्धिशाली थे ।

छान्दोग्योपनिषद् में एक स्थान पर बताया गया है कि कुरु जनपद में कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल ही पड़ा । पंचाल के राजाओं में प्रवाहन, जैबलि, अरुणि एवं श्वेतकेतु के नाम मिलते है ।

ये उच्चकोटि के चिंतक एवं दार्शनिक थे । उपनिषद् काल में विदेह ने पंचाल का स्थान ग्रहण कर लिया । विदेह के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे । इस प्रकार उत्तर-वैदिक काल में कुरु, पंचाल, कोशल, काशी, विदेह, मगध, अंग आदि प्रमुख राज्य थे ।

उत्तर-वैदिक कालीन संस्कृति:

i. राजनीतिक संगठन:

विशाल राज्यों की स्थापना के साथ ही साथ इस युग में राजा के अधिकारों में भी वृद्धि हुई । अब वह जन या कबीले का नेता न होकर एक विस्तृत भूभाग का एकछत्र शासक होता था । ऐतरेय ब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति सम्बन्धी एक विवरण इस प्रकार मिलता है- ‘देवताओं तथा असुरों में परस्पर युद्ध हुआ जिसमें देवता पराजित हो गये । देवताओं ने विचार किया कि उनकी पराजय का कारण राजा का अभाव है । अतः उन्होंने राजा चुना तथा उसके नेतृत्व में युद्ध करते हुए असुरों पर विजय प्राप्त किया ।’

इस विवरण से स्पष्ट है कि राजा का उदय सैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुआ तथा सभी ने सहमति द्वारा उसका चुनाव किया । अब राजा सामान्य उपाधियों के स्थान पर राजाधिराज, सम्राट, एकराट् जैसी विशाल उपाधियों धारण करता था । ऐतरेय ब्राह्मण गे कहा गया है कि ‘समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट होता है’ ।

अथर्ववेद में एकराट् सर्वोच्च शासक को कहा गया है । राजसूय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान कर सम्राट अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे । ऐतरेय तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसे सम्राटों की लम्बी सूची मिलती है । राजा देवता का प्रतीक समझा जाने लगा ।

अथर्ववेद में परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता’ बताया गया है । सिद्धान्तत: वह निरंकुश शासक होता था । ब्राह्मणों तक को वह अपनी इच्छानुसार देश से निकलवा सकता था । सम्राट दण्डधर होने के कारण स्वयं दण्ड से मुक्त था । परन्तु व्यवहार में उसके अधिकारों पर कुछ अंकुश लगे होते थे । अभिषेक के समय वह धर्मानुकूल आचरण करने की प्रतिज्ञा करता था । सभा और समिति नामक संस्थायें इस समय भी राजा की निरंकुशता पर रोक लगाती थीं ।

राजा के निर्वाचन में भी जनता का हाथ होता था । अथर्ववेद के कुछ सूक्तों से पता चलता है कि राजा जनता की भक्ति और समर्थन प्राप्त करने के लिये सदा लालायित रहते थे । कुछ मन्त्रों से पता चलता है कि अन्यायी राजाओं को प्रजा दण्ड दे सकती थी तथा उन्हें राज्य से बहिष्कृत करने का अधिकार उसे था । पदच्युत् राजाओं द्वारा पुन अपना राज्य एवं ऐश्वर्य प्राप्त किये जाने के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं ।

इस अवसर पर होने वाले विशेष संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है । राजा को सैनिक तथा न्याय सम्बन्धी कार्य मुख्य रूप से करने होते थे । युद्धों में वह सेना का संचालन करता तथा शान्ति के समय प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करता था । वह प्रधान दण्डधर था जिसके हाथ में दण्ड देने की सर्वोच्च शक्ति निहित थी ।

यजुर्वेद की संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में राज्य के कुछ उच्च पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है जिन्हें ‘रत्नी’ कहा जाता था तथा ये राजपरिषद् के सदस्य थे । रत्नियों की सूची में राजा के सम्बन्धी, मन्त्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारीगण आते थे । इनकी प्रथम श्रेणी में राजा की पट्टरानी और प्रिय रानी भी थीं क्योंकि इनका नाम संहिताओं में मिलता है ।

पुरोहित का भी नाम सर्वत्र रत्नियों की सूची में मिलता है । विभागाध्यक्षों में सेनानी (सेनापति), सूत (रथ सेना का नायक) ग्रामणी (गाँव का मुखिया), संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) तथा भागधुक (अर्थ मन्त्री) के नाम मिलते हैं । दरबारी श्रेणी में क्षता (दौवारिक), अक्षावाप (आय-व्यय गणनाध्यक्ष अथवा द्यूत क्रीड़ा में राजा के साथी), पालागल (विदूषक) आदि सम्मिलित थे । शतपथ बाह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा (बढई) तथा रथकार (रथ बनाने वाला) के नाम भी रत्नियों की सूची में ही मिलते है ।

रत्नियों का प्रशासन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । ज्ञात होता है कि राजसूय यज्ञ के समय राजा स्वयं रत्नियों के घर जाता था तथा उन्हें ‘रत्न बलि’ प्रदान करता था । तैत्तिरीय ब्राह्मण में तो यहां तक उल्लेख है कि राजा को राज्य प्रदान करने वाले रत्नी ही होते है (एते वै राष्ट्रस्य प्रदातार:) ।

इसके अतिरिक्त स्थापति एवं शतपति नामक दो प्रान्तीय पदाधिकारियों के नाम मिलते है जो ‘रत्नी’ नहीं थे । स्थापति सीमान्त प्रदेश का प्रशासक अथवा न्यायाधिकारी था । शतपति संभवतः 100 ग्रामों के समूह का अधिकारी होता था ।

उत्तरवैदिक युग में सभा और समिति के अधिकारों में भी पर्याप्त वृद्धि हो गयी। अथर्ववेद में सभा और समिति को “प्रजापति की दो पुत्रियाँ” कहा गया है । इन दोनों संस्थाओं के स्वरुप के विषय में विवाद है । लुडविग का विचार है कि सभा उच्च सदन (Upper House) थी जिसमें पुरोहित तथा कुलीन लोग भाग लेते थे ।

इसके विपरीत समिति निम्न सदन (Lower House) थी जिसमें सामान्यजन के प्रतिनिधि बैठते थे । जिमर का मत है कि सभा, ग्राम की संस्था था तथा समिति सम्पूर्ण जन की केन्द्रीय समिति होती थी । हिलब्रान्ट के मतानुसार समिति संस्था थी जबकि सभा उसकी बैठक स्थल थी । के॰ पी॰ जायसवाल का विचार है कि समिति राष्ट्रीय संस्था थी जबकि सभा उसकी स्थायी समिति होती थी ।

अल्तेकर के अनुसार सभा प्रायः ग्राम संस्था थी और उसमें सामाजिक तथा राजनीतिक दोनों विषयों पर विचार किया जाता था । यह सभा में बहुमत से निर्णय लिये जाते थे । यह न्यायालय का भी कार्य करती थी । समिति का स्वरूप केन्द्रीय शासन की व्यवस्थापिका सभा के समान था । यह सभा से बड़ी जनता की संसद होती थी । केन्द्रीय शासन और सेना पर समिति का बहुत अधिक प्रभाव था । समिति के समर्थन पर ही राजा का भविष्य निर्भर करता था । समिति के विरुद्ध हो जाने पर राजा की स्थिति संकटपूर्ण हो जाती थी ।

किन्तु इसकी रचना एवं कार्य-पद्धति के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । सम्भव है इसका स्वरूप एवं कार्य-पद्धति गणराज्यों की केन्द्रीय समितियों जैसा ही रहा हो जिसमें सैनिक एवं कुलीन वर्ग के प्रमुख व्यक्ति भाग लेते हों । संहिता और ब्राह्मण काल तक आते-आते समिति का प्रभाव कम हो गया और यह केवल परामर्शदायिनी परिषद् ही रह गयी ।

सभा और समिति के साथ-साथ हमें १इवदष नामक एक अन्य संस्था का भी उल्लेख मिलता है । अल्तेकर महोदय इसकी उत्पत्ति ‘विद’ (जानना) से लगाते हुए इसे विद्वानों की परिषद् बताते हैं जहाँ धार्मिक एवं दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श होता था । प्रशासन में यह भाग नहीं लेती थी ।

इसके विपरीत आर॰ एस॰ शर्मा इसे आयी की प्राचीनतम जनसभा (Folk-Assembly) मानते है । उनके अनुसार इसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही भाग लेते थे तथा यह सभी प्रकार के कार्यों- आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सैनिक आदि को सम्पन्न करती थीं । अपनी सेवाओं के बदले राजा को अपनी प्रजा से कर तथा सेवा प्राप्त करने का अधिकार था ।

प्रारम्भ में यह भेंट उपहारादि के रूप में ऐच्छिक था किन्तु धीरे-धीरे इसने नियमित कर (बलि) का रूप प्राप्त कर लिया । करों का बोझ मुख्यत कृषकों, व्यापारियों, कलाकारों, शिल्पियों आदि पर ही पड़ता था । ब्राह्मण तथा राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के लोग अधिकांशतः राजकीय करों से मुक्त थे ।

ii. सामाजिक जीवन:

ऋग्वैदिक काल के समान इस समय भी संयुक्त परिवार की प्रथा थी जो पितृसत्तात्मक ही होते थे । पिता के अधिकार विस्तृत एवं उसकी शक्ति असीमित थी । वह अपने पुत्रों को बेच सकने, गृह निकाला करने आदि विषयों में स्वतन्त्र अधिकार रखता था । ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीगर्त ने अपने पुत्र शुन:शेप को 100 गौवे लेकर बलि के निमित्त बेच दिया था ।

इसी प्रकार विश्वामित्र ने अपने 50 पुत्रों को आज्ञा न मानने के अपराध में घर से निकाल दिया था । किन्तु इस प्रकार के निर्णय विशेष परिस्थितियों में ही लिये जाते थे । सामान्यतः पिता का पुत्र एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ सम्बन्ध मृदुतापूर्ण था ।

वर्णों में क्रमशः कठोरता आने लगी थी और अब वे जाति के रूप में परिणत होने लगे थे । परन्तु इस समय भी जाति प्रथा उतनी अधिक कठोर नहा बनी जितनी सूत्रों के काल में देखने को मिलती है । व्यवसाय-परिवर्तन कुछ कठिन सा हो गया था । धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के कर्त्तव्यों, अधिकारी और स्थिति में विभेद किया जाने लगा ।

शतपथ ब्राह्मण में चारों वर्णों की अंत्येष्टि के लिये चार प्रकार के टीलों का उल्लेख है । संबोधन के ढड्ग भी अलग-अलग मिलते है । प्रत्येक वर्ण के उपयोग के लिये अलग- अलग रंग के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है ।

ब्राह्मण को ‘एहि’ (आइये) क्षत्रिय के ‘आगहि’ (आओ) वैश्य के ‘आद्रव’ (जल्दी आओ) तथा शूद्र को ‘आधाव’ (दौड़कर आओ) कहकर संबोधित किये जाने का विधान मिलता है । इन सबसे स्पष्ट है कि वर्ण-भेद उत्तरोत्तर बढते जा रहे थे । समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों (Guilds), का उदय हुआ जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगीं । व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे । चर्मकारों, रथकारों, धातुकारों आदि की अलग जातियों बन गयी । कुछ सीमा तक अन्तर्वर्ण विवाह होते थे ।

ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्षों के कर्त्तव्यों का वर्णन मिलता है । ब्राह्मणों को दान लेने वाला (आदायी) सोमपायी कार्यशील तथा इच्छानुसार भ्रमण करने वाला यथाकाम (प्रयाप्य) कहा गया है । कुछ उल्लेखों में ब्राह्मण को राजा से भी बड़ा बताया गया है । शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि राजा अपनी शक्ति ब्राह्मण से ही प्राप्त करता है । क्षत्रिय या राजा भूमि के स्वामी होते थे ।

वे दश की रक्षा के लिये युद्ध करते तथा प्रजा से कर लेते थे । ऐसा लगता है कि इस समय बाह्मणों तथा क्षत्रियों में सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गयी थी । शतपथ ब्राह्मण एक-दूसरे स्थान पर क्षत्रिय को ब्राह्मण की अपेक्षा श्रेष्ठ बताता है । इस काल के कुछ क्षत्रिय शासक अपने ज्ञान के लिये विख्यात थे तथा वे ब्राह्मणों के भी शिक्षक थे ।

वैश्य दूसरे को कर देते थे (अन्यस्यवीलकृत) तथा कृषि व्यापार और उद्योग धन्धों में लगे रहते थे । उन्हें ‘आदय’ (भक्षणीय) कहा गया है जिससे तात्पर्य है कि वैश्य सामाजिक पुष्टि (पोषण) के आधार थे । शूद्र को तीनों वर्णों का सेवक (अन्यस्य प्रेष्य:) कहा गया है । लोग उसे मनमाने ढंग से उखाड़ फेंकते थे (कामोत्थाप्य:) और इच्छानुसार उसका वध कर सकते थे (यथाकामबध्य:) ।

किन्तु जी॰ सी॰ पाण्डे ‘वध्य’ का अर्थ दण्डनीय करते है । शतपथ ब्राह्मण में भी शूद्रों की हीन स्थिति का उल्लेख हुआ है तथा बताया गया है कि शूद्र अभिषिक्त पुरुष द्वारा सम्बोधन-योग्य नहीं होता था । परन्तु इस समय तक समाज में अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था ।

उपनिषदों में उल्लिखित सत्यकाम जाबालि तथा जानश्रुति की कथाओं से स्पष्ट है कि शूद्र दर्शन के अध्ययन से वंचित नहीं किया गया था । शतपथ ब्राह्मण सोमयज्ञ में शूद्र को स्थान देता है । वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में कहा गया है कि ब्राह्मलोक में सभी समान माने जाते है । अतः चाण्डाल भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी है ।

समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी । बालविवाह नहीं होते थे । बहुविवाह तथा विधवा विवाह प्रचलित थे । मैत्रायणी संहिता में मनु की 10 पत्नियों का उल्लेख हुआ है । स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी । वे उत्सवों तथा धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थीं । परन्तु उन्हें अब भी राजनीतिक तथा धन-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे ।

ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम हो गई थीं । ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्टतः कन्या के चिन्ता का कारण बताता है । अथर्ववेद भी कन्याओं के जन्म की निन्दा करता है । मैत्रायणी संहिता में तो स्त्री को द्यूत तथा मदिरा की श्रेणी में रखा गया है । समाज का शेष जीवन, जैसे-खान-पान, मनोरंजन, वस्त्राभूषण आदि ऋग्वैदिक काल के ही समान था ।

iii. आर्थिक जीवन:

कृषि और पशुपालन अब भी आर्थिक जीवन के मुख्य आधार थे । शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं- जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई (कृषन्त: वपन्त: लुनन्त: मृणन्त:) का उल्लेख हुआ है । खेत हलों द्वारा जोते जाते थे । काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उल्लेख मिलता है ।

वाजसनेयी संहिता में कई प्रकार के धान्यों का उल्लेख है । जौ, चावल, मूंग, उड़द, तिल और गेहूँ आदि प्रमुख अन्न थे । लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे । अथर्ववेद में पशुओं की प्राकृतिक खाद को मूल्यवान बताया गया है । कृषि सम्बन्धी आपदाओं, जैसे- अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि को दूर करने के लिये अनेक प्रकार के मन्त्रों एवं आचारों का विधान मिलता है ।

वाजसनेयी संहिता में विभिन्न अन्नों को बोने तथा पकने का समय दिया गया है। पशुओं मे गाय, बैल, भेड़, बकरी, गधे, सुअर आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे। गाय की पवित्रता बढती हुई दिखाई देती है । अथर्ववेद में गाय के प्रति सम्मान का उल्लेख मिलता है ।

जो यज्ञों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर गोबध करते थे उनके लिये मृत्युदण्ड का विधान मिलता है । इस समय लोग हाथी को भी पालना प्रारम्भ कर दिये थे । इस काल के साहित्य में कई स्थलों पर पशुधन की वृद्धि के निमित्त प्रार्थनायें की गयी है । उत्तर-वैदिक काल में ही उत्तर भारत में लोहे का प्रचार हुआ ।

प्रारम्भ में इसका उपयोग अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में किया गया किन्तु बाद में इसकी सहायता से कृषि यन्त्रों का भी निर्माण किया गया । लौह तकनीक ने कृषि-उत्पादन के क्षेत्र में एक महान् परिवर्तन उत्पन्न कर दिया । उत्तर-वैदिक काल में व्यापार च्य वाणिज्य उन्नति पर थे ।

इस काल के ग्रन्थों में व्यापारियों की अनेक श्रेणियों का उल्लेख मिलता है । ‘श्रष्ठिन्’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था । ब्याज पर धन देने का पेशा काफी प्रचलित था । तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिये ‘कुसीद’ शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिये ‘कुसीदिन्’ शब्द मिलता है ।

निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयों थी । बाट की कृष्णल था । रत्तिका तथा गुंजा भी उसी के समान थे । प्राचीन भारत की बाट पद्धति में रत्तिका का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है । साहित्य में इसे भुलाबीत्र कहा गया है । सिक्के का नियमित प्रचलन नहीं था ।

जल तथा थल दोनों मार्गों से व्यापार होते थे । शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्री का उल्लेख हुआ है । वाजसनेयी सहिता में 100 डाड़ों वाले जलपोतों का उल्लेख हुआ है । व्यवसाय क्रमश वशानुगत होते जा रहे थे । वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय बाह्मण में इस समय के विभिन्न व्यवसायियों की एक लम्बी सूची मिलती है ।

इनमें स्वर्णकार, रथकार, चर्मकार, जुलाहे, रन्द्रकार, रजक, मछुए लुहार, नायक, नर्तक, सूत, व्याध, गोप, कुम्भकार, वैद्य, ज्योतिषी, नाई, इत्यादि प्रमुख हैं । स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, ताँबा, चाँदी, शीशा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे ।

लोहे के गन से इनके भौतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ । पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है कि गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ई॰ पू॰ 1000 के लगभग लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था । ईसा-पूर्व सातवीं शती तक लोहे का प्रसार पूर्वी उत्तर प्रदेश तक हो गया ।

अंतरजीखेड़ा के उत्खनन से हंसिए (दात्र) के अवशेष तथा जी, चावल और गेहूँ के प्रमाण मिलते है । उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे को ‘कृष्ण अयस्’ कहा गया है । इन धातुओं से विविध प्रकार के औजार, हथियार एवं आभूषण बनाये जाते थे । अनेक व्यक्ति अपने पेशों में निपुणता भी प्राप्त कर चुके थे ।

स्त्रियां रंगाई, सूईकारी आदि में निपुण थीं । सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक कालीन आर्यों का भौतिक जीवन पहले की अपेक्षा विकसित था । उत्तरी गंगा घाटी में आर्य स्थायी रूप से बस गये तथा पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन होने लगा ।

iv. धर्म तथा दर्शन:

उत्तर-वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । अनेक ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व घट गया तथा उनके स्थान पर नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई । ऋग्वैदिक काल के वरुण, इन्द्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव ने ले लिया । यज्ञीय विधि-विधान अत्यन्त विस्तृत एवं जटिल हो गये । यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गयी तथा अन्य आहुतियाँ गौंड़ होने लगीं ।

राजसूय, वाजपेय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा । अग्निष्टोम, दर्श और पूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयण, निरुढ़-पशुबन्ध, सौत्रामणि, पिण्डपितृ, षोडसी, अतिरात्र, पुरुषमेध आदि विविध प्रकार के यज्ञों का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।

अग्निष्टोम पाँच दिनों तक चलता था । इसमें ग्यारह पशुओं की बलि दी जाती थीं । इसमें बारह शस्त्रों का प्रयोग होता था । सोमयज्ञ के अर्न्तगत उल्लिखित सात प्रकारों में यह प्रकृतियाग होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण था । मोम का अत्यन्त घृणित एवं निन्दनीय स्वरूप ‘पुरुषमेध’ में दिखाई देता है ।

यह पाँच दिन तक चलता था तथा इसमें ग्यारह अथवा पचीस यूप निर्मित किये जाते थे । इसमें पुरुष बलि का विधान थार जो ब्राह्मण या क्षत्रिय जाति का होता था । ‘राजसूय’ क्षत्रिय शासक अपने अभिषेक की समाप्ति पर करते थे । अश्वमेध सार्वभौम सत्ता का प्रतीक होता था’। यज्ञ क्रमश: पशु हत्या के साधन बन गये ।

अश्वमेध यज्ञ में 600 पशुओं की हत्या कर दी जाती थी । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण पुरोहितों को बहुत अधिक गायें, सोना, वस्त्र, भूमि आदि दान में दी जाती थीं । प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण आदि में लोगों का विश्वास दृढ़ हो गया । इन अन्धविश्वासों को धर्म में स्थान मिला । आर्य एवं अनार्य विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरुप धर्म में अनेक नवीन तत्व प्रविष्ट कर गये । अप्सरा, गन्धर्व, नाग आदि की भी दैव रूप में कल्पना की जाने लगी ।

ऋग्वैदिक काल के अन्त तक जिस एकेश्वरवादी विचारधारा का उदय हुआ वह इस युग के अन्त तक पूर्णता को प्राप्त हुई । इसी समय (लगभग 600 ई॰ पू॰) उपनिषदों की रचना हुई तथा पुरोहितों के बढ़ते हुए प्रभाव, यज्ञीय कर्मकाण्ड तथा अनुष्ठानों के विरुद्ध सबल प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई ।

उपनिषदों के समय तक तप, त्याग, सन्यास आदि पर विशेष बल दिया जाने लगा । इस पर भी कुछ विद्वान् अवैदिक विचारधारा का ही प्रभाव देखते हैं । उपनिषदों में स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निन्दा की गयी है तथा ‘ब्रह्मा’ को एकमात्र सत्ता स्वीकार किया गया है ।

उसे निर्विकार, अद्वैत एवं निरपेक्ष बताया गया है, जो जगत् से परे भी है, तथा उसमें व्याप्त भी है । ब्रह्म का व्यक्ति के सारभूत तत्व ‘आत्मा’ से समीकरण स्थापित किया गया है । उपनिषदों के अनुसार आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष है जो अज्ञान के नाश से संभव है । जगत् का माया के रूप में चित्रण मिलता है ।

वैदिक एवं अवैदिक विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरुप लोग निवृत्तिमार्गी होने लगे । अब कायाक्लेश एवं सन्यास मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्यक समझे गये । संन्यास की अवधारणा निश्चयत: आर्येतर संस्कृति के प्रभाव का फल थी । ब्राह्मण चिन्तकों ने इसे अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिये मानव जीवन में चार आश्रमों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया ।

प्रारम्भिक उपनिषदों में केवल तीन आश्रमों का विधान मिलता है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ । परन्तु कालान्तर में ‘सन्यास’ नाम से एक चौथा आश्रम इस व्यवस्था का अंग बन गया । प्रत्येक ‘द्विज’ को इन चारों आश्रमों से होकर जीवन-यापन करना आवश्यक बताया गया ।

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