संगमा राजवंश: संगमा आयु के दौरान प्रशासन, सामाजिक और आर्थिक जीवन | Sangama Dynasty: Administration, Social and Economic Life during Sangama Age in Hindi.

संगम संस्कृति के शासन व्यवस्था (Administration during Sangama Dynasty):

संगम साहित्य के अध्ययन से हम ईसा की आरम्भिक शताब्दियों के सुदूर दक्षिण की सभ्यता का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । जैसा कि उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इस युग के राज्य परस्पर संघर्ष में उलझे हुए थे । उनकी शासन-व्यवस्था का जो कुछ भी विवरण हमें प्राप्त होता है उसके आधार पर यह पता लगता है कि इस युग में वंशानुगत राजतन्त्र का ही प्रचलन था ।

इसमें राजा की शक्ति सर्वोच्च होती थी । उसके अधिकार तथा शक्तियाँ असीमित थीं । इस प्रकार सिद्धान्त रूप में वह निरंकुश था । किन्तु व्यावहारिक तौर पर उसकी निरंकुशता पर कुछ रोक लगायी गयी । उसे परम्परागत नियमों का पालन करना पड़ता था । उसके बुद्धिमान मन्त्री तथा दरवारी कविगण उसे निरंकुश होने से बचाते थे ।

मंत्रियों को अमाइच्चान अथवा अमाइच्चार कहा जाता था । संगमकालीन कवियों ने राजा के सदाचरण एवं नैतिकता पर बल दिया है । उसने नैतिक चरित्र का प्रजा अनुकरण करती थी । राजा प्रवाहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था । राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार करें तथा उसके सुख-दुख का सदा ध्यान रखे ।

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संगम साहित्य में उसे धर्म, साहित्य, कला आदि को सुरक्षण प्रदान करने की सलाह दी गयी है । संगम युग में उत्तराधिकार का नियम स्पष्ट नहीं था । अत: इसके लिये युद्ध हुआ करते थे । कभी-कभी एक साथ कई शासक शासन करते थे । शासन कार्यों में राजा ब्राह्मणों की सभा से सहायता प्राप्त करता था ।

चूँकि इस युग में शासक ब्राह्मण मतानुयायी थे अत: उन्होंने व्राह्मणों को प्रशासन में सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधायें प्रदान की थीं । इस काल के कवियों ने भी राजा को यह सलाह दी है कि वह बाह्मणों को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखे । राजधानी में एक राजसभा होती थी जिसे पालवे कहा जाता था ।

यह राजा के साथ न्याय का कार्य करता था । संगम युग में स्थानीय शासन को भी महत्व दिया गया । नगर तथा ग्राम में अलग-अलग सभायें होती थीं । नगर सभा का मुख्य कार्य शासक को न्याय के कार्य में सहायता देना तथा उसे परामर्श देना होता था । ग्राम सभा का कार्यक्षेत्र गांवों में था ।

गाँवों में पंचायतों का बड़ा महत्व होता था । राजा, पंचायतों के परामर्श से ही गाँवों के लिये कानून बनता । कालान्तर में हम देखते हैं कि चोल राज्य में स्थानीय शासन एक अत्यन्त विशिष्ट तत्व हो गया । चूँकि संगम युग में कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य दोनों ही अत्यन्त विकसित अवस्था में थे, अत: राज्य की आय का मुख्य साधन इन्हीं पर लगाये जाने वाले कर थे ।

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भूमिकर नकद तथा अनाज दोनों रूपों में अदा किया जाता था । संभवत: यह उपज का छठा भाग होता था किन्तु कभी-कभी इसे बढ़ाया भी जा सकता था ।  व्यापारियों से सीमा-शुल्क तथा चुंगी वसूल की जाती थी और इससे भी राज्य को प्रभूत आय होती थी । इस काल की रचना पत्तिनप्पालै में कावेरीपत्तन में कार्यरत सीमा-शुल्क अधिकारियों के कार्यों का विवरण दिया गया है ।

इस युग के शासक युद्धों में लूट का धन भी प्राप्त करते थे । यह भी राजकोष की वृद्धि का एक प्रमुख साधन बन गया था । संगम साहित्य से तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के विषय में भी कुछ बातें ज्ञात होती है । राजा देश का प्रधान न्यायाधीश तथा अभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अन्तिम अदालत होता था ।

राजा के न्यायालय को ‘मन्रम’ कहा जाता था । इसमें राजा के अतिरिक्त अन्य सदस्य भी होते थे । न्यायाधीशों से निष्पक्ष होकर न्याय करने की आशा की जाती थी । इस काल का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था । मृत्युदण्ड, कारावास, आर्थिक जुर्माना आदि विविध रूपों में दण्ड प्रदान किये जाते थे ।

अपराधी को कभी-कभी भीषण यातनायें भी दी जाती थीं । चोरी तथा व्यभिचार के अपराध में मृत्युदण्ड दिया जाता था । झूठी गवाही देने पर जीभ काट ली जाती थी । संगम युग के शासक युद्ध प्रेमी थे । वे चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षा रखते थे । युद्ध में वीरगति पाना अत्यन्त शुभ का कार्य माना जाता था ।

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राजा की सेना में पेशेवर सैनिक ही होते थे । वह व्यक्तिगत रूप में युद्धों में जाता तथा जेना का संचालन करता था । सेना चतुरगिणी होती थी जिसमें अश्व, गज, रथ तथा पैदल सिपाही सम्मिलित थे । नगाड़ा तथा शख बजाकर सैनिकों को बुलाया जाता था । सैनिक शिविर लगाये जाते थे ।

युद्ध-भूमि में वीरगति पाने वाले सैनिकों के सम्मान में पत्थर की मूर्ति वनवाये जाने की प्रथा थी राजा अपने आवास की रक्षा के लिये सशस्त्र महिलाओं को तैनात करता था । समय जानने के लिये जलघड़ी का प्रयोग किया जाता था ।

विजेता शासक विजित प्रदेशों की प्रजा के साथ अत्यन्त कूरता का व्यवहार करते थे । विजित प्रदेशों को लूटने के पश्चात् वहां की फसलों को नप्ट कर दिया जाता था । इस प्रकार का कूर आचरण सभवत: भविष्य की विद्रोही प्रवृत्ति को दबाने के उद्देश्य से किया जाता होगा ।

संगम संस्कृति की सामाजिक दशा (Social Condition during Sangama Dynasty):

संगम साहित्य के अध्ययन से हम तमिल देश की सामाजिक दशा के विषय में अच्छा ज्ञान् प्राप्त कर लेते हैं । इस समय तक सुदूर दक्षिण का आर्यीकरण हो चुका था । यह साहित्य हमारे सामने आर्य तथा द्रविड़ संस्कृतियों के समन्वय का चित्र उपस्थित करना है । उत्तर भारतीय समाज की कई परम्पराओं को इस काल के तमिलवासियों ने अपना लिया ।

तमिल समाज उत्तर भारतीय समाज की भाँति वर्गभेद पर आधारित था । सर्वोपरि स्थान राजा का ही होता था जो अपने अधिकारियों एवं कर्मचारियों के साथ समस्त सुख सुविधाओं का उपभोग करता था । सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों का समाज में सवर्मधक प्रतिष्ठित स्थान था । वस्तुत: तमिल प्रदेश में ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगम काल में ही हुआ ।

समाज में वैदिक यज्ञों का प्रचलन था । बड़े राजा तथा अन्य कुलीन लोग यश कराते थे । इस कारण ब्राह्मणों, पुरोहितों को अत्यधिक सम्मानित स्थान मिला । ब्राह्मणों की हत्या को सबसे बड़ा अपराध माना जाता था । इस काल में अनेक ब्राह्मण कवि भी थे जिन्होंने राजाओं की प्रशंसा मैं कवितायें लिखीं । इनके बदले में उन्हें राज्य की ओर से अच्छे पुरस्कार प्राप्त होते थे ।

परम्परा के अनुसार चोल राजा करिकाल ने एक ब्राह्मण कवि को सोलह लाख मुद्रायें प्रदान किया था । धन के अतिरिक्त उन्हें भूमि, अश्व, रथ, हाथी आदि भी दान में दिये जाते थे । ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना इस युग के राजा का परम कर्त्तव्य था । अध्ययन-अध्यापन तथा यज्ञ-याजन बाह्मणों का प्रमुख कर्तव्य होता था ।

संगम साहित्य में उनकी दिनचर्या का विवरण दिया गया है । वे मृगचर्म धारण करते थे तथा वेदाध्ययन में लगे रहते थे । उनके रहने की अलग बस्ती होती थी । किन्तु संगम युग के ब्राह्मण मांस भक्षण करते थे तथा सुरा पीते थे तत्कालीन समाज इन कार्यों को निन्दनीय नहीं समझता था ।

बाह्मणों के पश्चात् संगम युगीन समाज में ‘वेल्लार’ वर्ग का स्थान था । संगम साहित्य के अनुसार उनका मुख्य उद्यम कृषि-कर्म था । इनमें कुछ धनी किसान थे । वे युद्ध में भाग लेते थे तथा उन्हें ही महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया जाता था । इनका वैवाहिक सम्बन्ध राजघराने में स्थापित होता था ।

‘वेल्लार’ का दूसरा वर्ग निर्धन किसानों का था जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी और वे धनी किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे । संगम साहित्य में व्यापारी वर्ग का भी उल्लेख मिलता है जिसे चेनिगत् कहा गया है । किन्तु इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी । उन्हें शूद्रों की कोटि में रखा गया था ।

इसके अतिरिक्त समाज में कुछ अन्य वर्ग भी थे । ‘पूलैयन’ नामक दस्तकारों के एक वर्ग का उल्लेख मिलता है जो रस्सी तथा पशुचर्म की सहायता से चारपाई एवं चटाई बनाने का कार्य करने थे । चरवाहों तथा शिकारियों का अलग वर्ग होता था । चरवाहे सामान्य जन के उपभोग के लिये दही-मक्खन तैयार करते तथा उनकी बिक्री करते थे ।

शिकारियों की ‘एनियर’ नामक एक जाति का उल्लेख मिलता है । ये लोग अपने पास धनुष, बाण, ढाल आदि हथियार रखते थे । तमिल देश के उत्तर में ‘मलवर’ नामक जाति निवास करती थी । इस जाति के लोग अशिक्षित थे जिनका पेशा लूट-पाट करना था । इस समय बन्दरगाहों के पास ? विदेशी जातियाँ-हिन्द-यवन, अरब आदि भी बस गयीं थीं । विभिन्न वर्गों के जीवन स्तर में भारी विषमता

थी । कुछ लोग अत्यन्त निर्धन थे और किसी प्रकार अपना भरण-पोषण कर पाते थे । धनी लोगों के मकान पक्की ईटों के बनते थे जबकि निर्धन लोग मिट्टी तथा घास-फूस की झोपड़ियों में शरण लेते थे । नगरों में धनी व्यापारी बहुमंजिले मकान बनवाते थे । सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन समाज में ब्राह्मण तथा शासक वर्ग का ही बोलवाला था ।

इस युग की आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों को समान रूप से सुलभ नहीं हो सका था । किन्तु संगम साहित्य में दास-प्रथा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता है । विभिन्न सामाजिक वर्गों में समरसता मिलती है । सभी अपनी स्थिति के अनुसार कार्य करते थे तथा सामाजिक विषमता के विरुद्ध कहीं भी विरोध की भावना नहीं मिलती ।

‘तोल्काप्पियम्’ नामक तमिल रचना से ज्ञात होता है कि संगम काल में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी । इसमें हिन्दु धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों (ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच) का उल्लेख मिलता है । प्रणय विवाहों को मान्यता दी गयी थी जिसे ण्चीतणें कहा गया है । एकपक्षीय प्रणय को “कैकिणै” तथा अनुचित प्रणय को “पेरून्दिणै” कहा गया है ।

इस युग में स्त्रियों की दशा अच्छी थी । तमिल साहित्य में नच्चेलियर तथा ओवेयर जैसी कवियित्रियों की चर्चा हुई जिससे स्पष्ट है कि इस काल की स्त्रियों सुशिक्षिता होती थीं । किन्तु विधवाओं की दशा अच्छी नहीं थी । उनके लिये अनेक कड़े नियमों का विधान किया गया था । उनके बाल मुड़ा दिये जाते थे तथा उनके लिये विस्तर का प्रयोग, आभूषण पहनना, अच्छा भोजन करना आदि वर्जित था ।

इस कारण कई विधवाओं ने मर जाना ही अच्छा समझा और इस प्रकार समाज में सती-प्रथा का प्रचलन हुआ । कुछ महिलायें वेश्यावृत्ति तथा नृत्य-गान द्वारा अपना जीवन-यापन किया करती थीं । संगम साहित्य में वेश्याओं तथा नर्तकियों का उल्लेख मिलता है । समाज में व्यभिचार को अपराध माना जाता था । नर्तकियाँ नृत्य के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं कर सकती थीं ।

संगम युग के तमिल शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे । चावल उनका मुख्य खाद्यान था । इसे दूध में मिलाकर सांभर नामक खाद्यात्न तैयार किया जाता था । मांसाहार का खुब प्रचलन था । यहाँ तक कि ब्राह्माण भी मास खाते थे । भेड़, सुअर आदि के मास खाये जाते थे । कहीं-कहीं मछलियाँ खाये जाने का भी उल्लेख मिलता है ।

मदिरा तथा ताड़ी उनके प्रिय पेय थे । लोग पान, सुपाड़ी के भी शौकीन थे । संगीत, नृत्य तथा विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा लोग मनोरंजन किया करते थे । नर्तक, नर्तकियों तथा गायकों के दल घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे । संगम साहित्य में इन्हें तथा विडैलियर कहा गया है । कवि लोग भी कविताओं के पाठ द्वारा लोगों का मन बहलाव किया करते थे । कवियों को पुरस्कार भी दिये जाते थे ।

इनके अतिरिक्त समय-समय पर अनेक खेल तथा समारोहों का भी आयोजन किया जाता था । पासा खेलना भी मनोरंजन का एक प्रिय साधन था । मुक्केबाजी, कुश्ती, कुत्तों, खरगोशों आदि के शिकार द्वारा लोग अपना मन बहलाव करते थे । लोग अतिथियों का सत्कार करते थे तथा उसके सम्मान में बड़ी-बड़ा दावतों का आयोजन किया जाता था । राजा लोग प्राय प्रत्येक अवसर पर बड़ी-बड़ी दावतों का आयोजन करते थे जिनमें कवियों को भी आमंत्रित किया जाता था । ऐसी दावतों में परोसे जाने वाले व्यंजनों तथा पेय पदार्थों का विवरण प्राप्त होता है ।

एक कवि अपने संरक्षक से कहता है- “मैं यहाँ इस लिये आया था ताकि हम लोग उबाले जाने के बाद ठंडे किये गये तथा साफ की गयी रुई के समान कोमल रसीले मांस खण्डों को खा सके और बड़े बर्तनों के साथ-साथ ताड़ी पी सके । इसी प्रकार करिकाल के दरबार में एक दावत के अवसर पर परोसे गये व्यंजनों का विवरण देते हुए एक अन्य कवि हमें बताता है कि यहाँ जवाहरात से सुसज्जित मुस्कराती माहिलायें स्वर्ण पात्रों में मदिरा उड़ेलती थीं तथा समूचे पकाये गये पशुओं के मांस, विशेषत: उस सुअर का मास जिसे अपनी मादा से कई दिनों तक अलग रखा गया था ।

खूब खिला-पिलाकर इस अवसर के लिये मोटा-ताजा दिया गया था, दूध में तर अभय (हलवा) कछुवे का मास एवं विशेष प्रकार की मछलियाँ स्वादिष्ट व्यंजन होती थीं । पेय पदार्थों म विशेष उल्लेख हरे बोतलों में रखी गयी विदेशी मदिरा, मुनीर-जो कच्चे नारियल, ताड़ के जूस तथा गन्ने के जूस को मिलाकर बनता था, तथा बीस के पीपे में भरकर जमीन के भीतर गाड़कर पकाई गयी साड़ी आदि का मिलता है ।

भूत-प्रेत, जादू-टोने, ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों आदि में लोगों का विश्वास था । ज्योतिषियों तथा शकुन-विचारकों का समाज में सम्मानित स्थान था तथा वे जनता से काफी धन ऐंठते थे । उच्चों को अशुभ शक्तियों से बचाने के लिये तावीजें पहनाई जाती थीं । इस काल के लोग कौवे को शुभ पक्षी मानते थे जो अतिथियों के आगमन की सूचना देता था ।

भोजन के पूर्व कौवे के खाने के लिये कुछ सामग्री घर के बाहर रख देने की प्रथा थी । कोने नाविकों को सही दिशा का वोध भी कराते थे । इस कारण सागर के मध्य चलने वाले जहाजों के साथ उन्हें ले जाया जाता था ।

संगम साहित्य से उस युग की मृतक संस्कार विधियों की भी कुछ जानकारी मिलती है । अग्निदाह तथा समाधिकरण टोनों ही विधियों द्वारा शवों को विसर्जित किया जाता था । शवदाह के वाद अस्थियों को कलश अथवा मंजूषा में रखकर समाधिस्थ भी करते थे । कभी-कभी शवों को खुले रूप में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था । एच॰डी॰ संकालिया का विचार है कि महापाषाणयुगीन संस्कृतियों में प्रचलित अनेक प्रथायें संगम काल में भी विद्यमान थीं ।

उल्लेखनीय है कि दक्षिण की महापाषाणिक समाधियों की खुदाई में शवों के साथ-साथ दैनिक उपयोग की कई वस्तुयें, जैसे- वर्तन, आभूषण, औजार, हथियार आदि-गड़ी हुई मिलती है । यह लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक है । अत: कहा जा सकता है कि संगम काल में भी यह प्रथा प्रचलित रही होगी । इस युग में समाधियों के स्थान पर पत्थर गाड़ने की प्रथा थी । इन्हें ‘वीरगल’ अथवा ‘वीरप्रस्तर’ कहा जाता था ।

इनकी पूजा भी होती थी । ये प्राय युद्ध में वीरगति प्राप्त सैनिकों के सम्मान में खड़े किये जाते थे । वीरों की पाषाण प्रतिमायें बनाने और उनके समक्ष नियमित पूजा करने की प्रथा पूरे संगम युग तथा उसके वाद भी कई सदियों तक चलती रही । स्त्रियां अपने मृत पतियों की आत्मा की शान्ति के लिये चावल के पिण्ड का दान देती थीं ।

संगम संस्कृति की आर्थिक दशा (Economic Condition during Sangama Dynasty):

संगम साहित्य से तत्कालीन आर्थिक दशा के विषय में अपेक्षाकृत अधिक जानकारी होती है । इस युग का तमिल देश आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था । इसकी समृद्धि के प्रमुख आधार कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य थे । संगम साहित्य से विदित होता है कि दक्षिण भारत की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी जिसमें अनाज की बड़ी अच्छी पैदावार होती थी ।

कावेरी नदी का डेल्टा वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिये इतना अधिक प्रसिद्ध था कि इसके विषय में एक कहावत प्रचलित थी कि ‘जितनी भूमि एक हाथी बैठने पर घेरता है उतने में सात व्यक्तियों के खाने के लिये अनाज उत्पन्न किया जा सकता है ।’

संगम साहित्य में धान, रागी तथा गन्ने की पैदावार का वर्णन मिलता है जिनकी इस प्रदेश में प्रचुरता थी । इसके अतिरिक्त कटहल, गोलमिर्च, हल्दी सहित विविध प्रकार के फलों का भी खूब उत्पादन होता था । साहित्य में फसल काटने, अनाजों को सुखाने, गन्ने से शकर तैयार करने आदि का रोचक वर्णन किया गया है ।

किसानों को खेल्लास् तथा उनके प्रमुखों को चेलिस् कहा जाता था । काले तथा लाल मिट्टी के वर्तनों एवं लोहे के आविष्कार का श्रेय वेलिर लोगों को ही दिया जाता है । वेल्लार दो वर्गों में विभजित थे । पहले वर्ग में भू-सम्पव्र किसान तथा दूसरे में निर्धन कृषि मजदूर आते थे । सम्पन्न लोग मजदूरों की सहायता से कृषि करते थे ।

संगम साहित्य से पता चलता है कि समाज के निम्न वर्ग की महिलायें ही मुख्यत: खेती का कार्य किया करती थीं । इन्हें “कडैसिवर” कहा गया है । इनकी स्थिति दासों के समान रही होगी । कृषि के लिये सिचाई की उत्तम व्यवस्था थी । उस काल के राजाओं ने कुँओं, तालाबों तथा नहरों का निर्माण करवाया था ।

सिंचाई तथा लौह उपकरणों के प्रयोग के कारण उत्पादन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो गया था । कृषि से राज्य को प्रभूत आय प्राप्त होती थी । इसी के द्वारा प्रशासनिक एवं सैनिक व्यय की पूर्ति की जाती थी । इस प्रकार कृषि, संगमयुगीन आर्थिक जीवन का आधार-स्तम्भ थी ।

कृषि के साथ-साथ इस युग में उद्योग-धन्धों का भी विकास हुआ । वस्त्र-उद्योग इस काल का एक मुख्य उद्यम था । सूत, रेशम आदि से वस्त्रों का निर्माण होता था । चोल राज्य की राजधानी उरैयूर सूती वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध था । सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थीं ।

संगम साहित्य से विदित होता है कि इस समय बेलबूटेदार रेशमी कपड़ों का निर्माण किया जाता था । सूती कपड़ों के विषय में कहा गया है कि वे सांप के केचुल या भाप के बादल के समान महीन होते थे और उनकी कताई इतनी अच्छी होती थी कि आंखों से धागे दिखाई नहीं देते थे । वस्तुत: चोलों की समृद्धि का मुख्य कारण उनका सुविकसित वस्त्रोद्योग ही था ।

संगमकाल व्यापार-वाणिज्य की उन्नति के लिए अत्यधिक विख्यात है । वाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही व्यापार इस समय खूब प्रगति पर थे । इस समय तमिल देश का व्यापार पश्चिम में मिस तथा अरब के यूनानी राज्य से तथा पूर्व में मलय द्वीप-समूह तथा चीन के साथ होता था । तमिल राज्य में कई प्रसिद्ध वन्दरगाह थे ।

कालीमिर्च, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशम आदि की तमिल प्रदेश में प्रचुरता थी और इन वस्तुओं की पश्चिमी देशों में बड़ी माँग थी । प्रथम शती में मिस्र, रोम का एक प्रान्त बन गया । इसी समय मिस के एक नाविक हिप्पोलस ने मानसूनी हवाओं के सहारे बड़े जहाजों से सीधे समुद्र पार कर सकने की विधि खोज निकाली ।

यह एक महत्वपूर्ण खोज थी जिससे दक्षिणी भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार प्रारम्भ हो गया जो ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य तक चलता रहा । फलस्वरूप भारत का व्यापार रोम के साथ अत्यधिक विकसित हो गया । विदेशी व्यापार के माध्यम से तमिल लोगों को भारी मात्रा में सोना प्राप्त होता था जो उनकी अप्रत्याशित समृद्धि का कारण बना ।

पुहार (कावेरीपत्तनम्) इस काल का एक समृद्ध बन्दरगाह था जहाँ से बड़े-बड़े जहाज माल लाद कर विदेशों से आते-जाते थे । संगम साहित्य में माल से लदे हुए यवन जहाजों का यही पहुँचने का चित्रण है । यहाँ व्यापारियों के गोदाम और कार्यालय थे ।

व्यापार के द्वारा प्राप्त धन से यही के निवासियों का जीवन अत्यन्त विलासपूर्ण हो गया था । उनके भवन भव्य, अलंकृत एवं बहुमंजिले बन गये थे । हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ यहां बौद्ध तथा जैन स्मारक भी स्थित थे । उत्खनन में यहां तीसरी शताब्दी ईसापूर्व से पाचवीं शताब्दी ईस्वी तक आवासीय स्थल होने के साक्ष्य मिलते है । पाण्डय राज्य में “कोर्कई” भी प्रसिद्ध बन्दरगाह था ।

पाण्ड्य तथा अन्य राज्यों में विदेशों से घोड़ों का आयात किया जाता था । संगम साहित्य से पता चलता है कि पाण्ड्य राज्य में ‘शालियूर’ तथा चेर राज्य में ‘बन्दर’ नामक प्रसिद्ध वन्दरगाह थे । पापर काल का एक अन्य प्रसिद्ध वन्दरगाह ‘कोरकई’ था । यह मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था ।

बन्दरगाहों में कई देशों के व्यापारी बस गये थे । गुशीरी, पुहार तथा तोण्डी में यवन व्यापारियों की बस्तियों थीं । संगम साहित्य में शांत होता है कि यवन व्यापारी अपने जहाजों में मोना भरकर मुशिरी वन्दरगाह पर उतरते थे तथा उसके वटले मँ काली मिर्च तथा समुद्री रत्न ले जाते थे ।

संगम साहित्य में तमिल प्रदेश की व्यापारिक समृद्धि का जो चित्रण मिलता है उसकी पुष्टि क्लासिकल विवरणों एवं उत्खनन में प्राप्त सामग्रियों से भी हो जाती है । ‘पेरीप्लस’ का अज्ञातनामा लेखक (प्रथम शताब्दी ईस्वी) भारत तथा रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों का विवरण प्रस्तुत करता है ।

वह नौरा, मुशिरी, तोण्डी, नेल्सिन्डा, मुजिरिस, बकरे, बलीता, कौमारी जैसे पश्चिमी तट के समृद्ध चन्दरगाहों का उल्लेख करता है । यहाँ से कालीमिर्च, हाथीदाँत, रेशम, मोती, मलमल, कीमती रत्न, नीलम, शख आदि जहाजों में भरकर पश्चिमी देशों को पेजे जाते थे । पूर्वी तट के प्रमुख पत्तन कोलची, कमरा, पोदुका, मशलिया आदि थे ।

इस काल में सबसे अधिक सोन तथा ज्गॅटी का आयात होता था । सुदूर दक्षिण के कई स्थानों में रोमन सम्राटों- आगस्ट्स, नीरो, टायवरियस आटि-क स्वर्ण सिद्वे मिलते है जो ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत तथा रोम के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों की सूचना प्रदान करते है ।

चेरों की प्राचीन राजधानी करूर से रोमन सुराहियों के टुकड़े तथा सिखे मिलते है । कोरोमण्डल समुद्रतट पर पाण्डिचेरी से तीन किलोमीटर दक्षिण में स्थित अरिकमेडु भारत-रोमन व्यापार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल है । 1945 ई॰ में हुई यहाँ की खुदाई से एक ऐसी विशाल रोमन वस्ती का पता चला है जो व्यापारिक केन्द्र थी और इसी के समीप एक बन्दरगाह भी था ।

ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ तक इसका उपयोग होता रहा । यहाँ में एक बड़ा मालगोदाम, दो छोटे-छोटे जलकुण्ड (रंगाई के हौज) रोमन टीप के टुकड़े, काँच के कटोरे, रत्न, मनके तथा वर्तन प्राप्त किये गये है । एक मनक के ऊपर रोमन सम्राट आगस्टस का चित्र बना हुआ है । इनसे पता चलता है कि ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में भारत तथा रोम के बीच गहरा व्यापारिक सम्बन्ध था ।

अरिकमेडु एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था जहाँ देश के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तु ने एकत्र की जातीं तथा फिर यहाँ से रोम को जाती थीं । मनकों के निर्माण का यहां कारखाना भी था । यहां मलमल तथा अन्य वस्तुओं का निर्माण संभवत: रोमन लोगों की पसन्द के अनुसार किया जाता था जो जहाजों द्वारा रोम भेजा जाता था ।

रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्धों में भारत को ही लाभ होता था । रोम के साथ जब तक व्यापारिक सम्बन्ध चलता रहा दक्षिण के तमिल राज्य समृद्धिशाली बने रहे, किन्तु जब व्यापार का पतन हुआ तो इन राज्यों का भी पतन प्रारम्भ हो गया ।

वाह्य व्यापार के साथ-साथ संगम युग में आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था । दक्षिण भारत के कई स्थानों से व्यापारी उत्तर भारत के बाजारों में माल लेकर आते-जाते थे । संगम साहित्य में नमक के व्यापारियों का विशेष रूप में उल्लेख किया गया है । आन्तरिक व्यापार वस्तु-विनिमय द्वारा होता था ।

विविध प्रकार की जड़ी-बूटियों, पशुओं, गन्ना, ताड़ी, मछली का तेल, मांस आदि का उल्लेख साहित्य में प्राप्त होता है जिनकी अदला-बदली की जाती थी । देरसे के समय में रजत प्रव ताम्र धातुओं के आरत सिक्के प्रचलित किये गये । इनका प्रमार दकन से सुदूर दक्षिण तक मिलता है । चेर शासक नक्कोट्टै ने लध ताम्र सिक्के प्रचलित करवाये ।

इनका समय प्रथम शती ईसा पूर्व से नेकर इंस्त्री प्रथम शती के वीर का है । इन सच । पर रोमन प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । देश के विभिन्न भागों में बड़े-बड़े बाजार लगते थे । संगम साहित्य से पता चलता है कि इस समय के व्यापारी सदाचारी तथा ईमानदार हुआ करते थे ।

वे कभी भी अनुचित रूप से ग्राहकों का उत्पीड़न नहीं करते थे । व्यापारियों को माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए दूंगी अदा करनी होती थी । भार ढोने के लिये गाड़ियों तथा टट्टुओं का उपयोग होता था । इस प्रकार संगमकालीन तमिल देश आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न था ।

संगम संस्कृति की धर्म तथा धार्मिक विश्वास (Religion and Religious Beliefs during Sangama Dynasty):

संगमकालीन दक्षिण भारत में व्राह्मण अथवा वैदिक धर्म का प्रचलन दिखाई देता है । दक्षिण में वैदिक संस्कृति को ले जाने का श्रेय अनुश्रुतियों में अगफ्य ऋषि को दिया गया है । आज भी सुदूर दक्षिण में अगम्य पूजा का व्यापक रूप से प्रचलन है ।

संगमकाल के धर्म में ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण स्थान था । कौण्डिन्य गोत्रीय ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लोकप्रिय बनाया । वे पुरोहित का कार्य करते थे । राजा तथा कुलीन लोग वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और इनमें ब्राह्मणों की प्रमुख भूमिका होती थी । ब्राह्मण लोग अपना समय अध्ययन-अध्यापन में व्यतीत करते थे ।

संगम साहित्य से पता चलता है कि उनका अन्य धर्मों के अनयायियों के साथ वाद-विवाद होता रहता था । ऐसे धर्मों मैं तात्पर्य बौद्ध तथा जैन धर्मों से है । जिनका संगमकाल में सुदूर दक्षिण तक प्रचार हो चुका था । ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक देवताओं जैसे-विष्णु, शिव बलराम, कृष्ण, इन्द्र आदि की उपासना दक्षिण भारत में की जाती थी ।

तमिल देश का प्राचीन देवता मुरुगन था । कालान्तर में उसका नाम सुव्रह्मण्य हो गया और स्कन्द-कार्तिकेय के साथ उसका तादास्थ्य स्थापित कर दिया गया । हिन्दू धर्म में स्कन्द-कार्त्तिकेय को शिव-पार्वती का पुत्र माना गया है तथा उसके जन्म से सम्बन्धित कई कथायें मिलंती है । विभिन्न कथाओं में उसे कृत्तिका, अग्नि, गबन अथवा शिव के पुत्र के रूप में निरूपित किया गया है ।

दक्षिण के लोगों ने मुरुगन के पक्ष में इन सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया । स्कन्द का एक नाम कुमार भी है और तमिल भाषा में मुरुगन शब्द का यही अर्थ होता है । मुरुगन का प्रतीक मुर्गा माना जाता था तथा उसके विषय में यह मान्यता थी कि उसे पर्वत पर क्रीड़ा करना अत्यधिक प्रिय है । उसका अस्त्र बर्छा था ।

कुरवस नामक एक पर्वतीय जनजाति की स्त्री को मुरुगन की पत्नियों में माना गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस देवता की उपासना दक्षिण में प्रागैतिहासिक काल से की जाती थी । देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं । पदित्रुपत्तु से पता चलता है कि विष्णु की पूजा-उपासना में तुलसी-पत्र चढ़ाकर घण्टा वजाया जाता था ।

कावेरीपत्तन में इन्द्र की पूजा होती थी तथा इसके लिये एक विशेष प्रकार का समारोह आयोजित किया जाता था । ग्रामों में स्थानीय देवताओं की पुरजा का प्रचलन था । देवता को प्रसब्र करने के लिये भेड़, भैंस आदि की बलि भी चढ़ाई जाती थी ।

तमिल प्रदेश में महाभारत तथा पौराणिक आख्यानों का भी प्रचलन था । शिव द्वारा त्रिपुर राक्षस का वध, विष्णु द्वारा वलि दमन के लिए वामन अवतार धारण करने, परशुराम द्वारा माता का सिर काटने, गौतम ऋषि द्वारा इन्द्र को शाप देने जैसी पौराणिक कथाओं का दक्षिण में व्यापक रूप स प्रचलन था । कृष्ण की विविध रासलीलाओं से भी लोग परिचित थे ।

कर्म तथा पुर्नजन्म के सिद्धान्तों तथा भाग्यवाद में लोगों की आस्था थी । सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन दक्षिण भारत में टिन्द्व धर्म से सम्बन्धित प्राय: सभी प्रमुख आचार-विचारों को मान्यता प्रदान कर दी गयी थी । ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ सुदूर दक्षिण में बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रचलन हुआ । तमिल प्रदेशों से इन दोनों धर्मों से सम्बन्धित कई मन्दिर तथा विहार प्राप्त हुए है ।

वस्तुत: सुदूर दक्षिण में वौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रवेश संगम युग के बहुत पहले ही हो गया था । अशोक के लेखों से पता चलता है कि उसने तमिल देश में अपने धम प्रचारक भेजे थे । इसी प्रकार जैन परम्परा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व चौथी शती में ही जैन धर्म का प्रवेश दक्षिण भारत में हो चुका था ।

इस प्रकार संगम साहित्य के अध्ययन से हम प्राचीन तमिल देश के समाज तथा संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त कर लेते है । इसमें सामान्य मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण दिया गया है वह बहुत कम ग्रन्थों में प्राप्त होता है ।

नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार यह साहित्य तमिल देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों जनता के विचारों और आदर्शों तथा उनको जीवित रखने वाली संस्थाओं और कार्यों का पूर्ण तथा वास्तविक विवरण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है ।

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