संगमा राजवंश: साहित्य और इतिहास | Sangama Dynasty: Literature and History in Hindi.

संगम युग के साहित्य (Meaning and Literature of Sangama Age):

ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में दक्षिण भारत का क्रमवद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे ‘संगम साहित्य’ कहा जाता है । इसके पहले का कोई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ हमें दक्षिण भारत से प्राप्त नहीं होता है । इस प्रकार सुदूर दक्षिण के प्रारम्भिक इतिहास का मुख्य साधन संगम साहित्य ही है ।

‘संगम’ शब्द का अर्थ परिषद् अथवा गोष्ठी होता हैं जिनमें तमिल कवि एवं विद्वान् एकत्र होते थे । प्रत्येक कवि अथवा अपनी रचनाओं को संगम के समक्ष प्रस्तुत करता था तथा इसकी स्वीकृति प्राप्त हो जाने के याद ही किसी भी रचना का प्रकाशन संभव था । परम्परा के अनुसार अति प्राचीन समय में पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में कुल तीन संगम आयोजित किये गये । इनमें संकलित साहित्य को ही जंगम-साहित्य की संज्ञा प्रदान की जाती है ।

इन संगमों का विवरण इस प्रकार है:

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i. प्रथम संगम:

इसका आयोजन पाण्डयों की प्राचीन राजधानी मदुरा (जो अब समुद्र में विलीन हो गयी है) में हुआ था । इसकी अध्यक्षता अगस्त्य ऋषि ने की । इन्हीं को दक्षिण में आर्य सभ्यता के प्रचार का श्रेय प्रदान किया जाता है । इस संगम में कुल 549 सदस्य सम्मिलित हुए । 4,499 लेखकों ने इसमें अपनी रचनायें प्रस्तुत करके उनके प्रकाशन की अनुमति प्राप्त किया ।

यह संगम, जिसे पाण्ड्य वंश के 89 राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया था, चार हजार चार सौ वर्षों तक चला । इस संगम द्वारा संकलित महत्वपूर्ण ग्रन्थ अकट्टियम् (अगस्त्यम्) परिपदाल, मुदुनारै, मुदुकुरुकु तथा कलरि आविरै थे । दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी सम्प्रति उपलब्ध नहीं है ।

ii. द्वितीय संगम:

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इसका आयोजन कपाटपुरम् (अलैवाई) में किया गया । इसकी अध्यक्षता का श्रेय भी अगस्थ्य को ही दिया गया है । इसमें कुल 49 सदस्य सम्मिलित हुए तथा 59 पाण्ड्य शासकों का इसे संरक्षण मिला । परम्परा के अनुसार 3700 कवियों ने यहाँ अपनी रचनाओं के प्रकाशन की अनुमति प्राप्त की तथा यह संगम इतनी ही अवधि तक अबाधगति से चलता रहा ।

इस संगम द्वारा संकलित ग्राम्यों में एकमात्र न्होल्काप्पियम् ही अवशिष्ट है । यह तमिल व्याकरण का ग्रन्ध है जिसकी रचना का श्रेय अगस्थ्य ऋषि के शिष्य तोल्काप्पियर को दिया जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्राचीन मदुरा के समान द्वितीय सगम का केन्द्र कपाटपुरम् भी समुद्र में विलीन हो गया । विद्वानों ने उपर्युक्त दोनों संगमों की ऐतिहासिकता में संदेह व्यक्त किया है ।

iii. तृतीय संगम:

प्राय: यह स्वीकार किया जाता है कि पाण्डय राजाओं की राजधानी मदुरा में एक संगम आयोजित किया गया था और यह तीसरा संगम था । इसमें संकलित कवितायें आज भी उपलब्ध हैं । इनकी संख्या 49 थी तथा इसने 449 कवियों को उनकी रचनाओं के प्रकाशन की अनुमति प्रदान किया ।

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यह संगम, जिसे 49 पाण्ड्य राजाओं का संरक्षण मिला, 1,850 वर्षों तक चलता रहा । इसकी अध्यक्षता नक्कीरर ने की थी । इस संगम द्वारा संकलित उत्कृष्ट रचनायें नेदुन्थोकै, कुरुन्धोकै, नत्रिनई, एन्कुरुन्नूरु, पदित्रुप्पट, मूत्रैम्बथु, परि-पादल, कूथु, वरि, पोरिसै तथा सित्रिसै हैं ।

यद्यपि इनमें झ अधिकांश साथ नष्ट हो गये है फिर भी आज जो भी तमिल साहित्य बचा हुआ है, वह इसी संगम से सम्बन्धित है । तोल्काप्पियम् सहित तीसरे संगम के अवशिष्ट सभी ग्राम्यों का सम्पादन तित्रेवेल्ली की ‘साउथ इण्डिया शैव सिद्धान्त पब्लिशिंग सोसायटी’ के द्वारा किया गया है ।

उपलब्ध संगम साहित्य का विभाजन तीन भागों में किया जा सकता है:

(1) पत्थुप्पातु,

(2) इत्थुथोकै तथा

(3) पदिनेन कीलकन्क्कु ।

‘पत्थुप्पातु’ दस संक्षिप्त पदों का संग्रह है । इनके नाम हैं तिरुमुरुगात्रुप्पदै, पोरुनर्रुप्पदै शिरुमानार्रुप्पदै, पेरुम्बानारूप्पदै, मुल्लैप्पाट्ट, मदुरैक्कांची, नेडुनलवाडै, कुरिंजिपाट्टु, पट्टिनपालै तथा मलैपडुहकादम । इनमें दो नक्कीर, दो रुद्रनकन्ननार तथा बाद के छ: पद क्रमश: मरुथनार, कन्नियार, नत्थप्यनार नप्पूथनार, कपिलर ओर कौसिकनार नामक कवियों द्वारा विरचित हैं ।

इन पदों में चोल शासक करिकाल तथा पाण्ड्य शासक नेदुञेजलियन के विवरण भी मिलते है । इन पदों का समय द्विताय शता इस्विं के लगभग का है । इत्थथोकै में आठ कवितायें है । नर्णिर (नत्रिणै), कुरुथाक, ऐगुरुनूरू, पदिर्रुप्पत्तु, परिपाडल, कीलतोगै, अहनापूर तथा पुरनानूरू ।

इनमें संगमयुगीन राजाओं की नामावली के साथ-साथ उस समय के जन-जीवन एवं आचार-विचार का विवरण भी प्राप्त होता है । ये प्राचीनतम तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट रचनायें है । इनमें कुल 2279 से भी अधिक कवितायें है जो 473 कवियों द्वारा विरचित हैं । ‘पदिनेनकीलककु’ में अठारह लघु कविताओं का संग्रह है जो सभी उपदेशात्मक है ।

नालउइ, नान्यणिक्कडिगे, इब्रार्नापदु, इनियनार्पदु, कारनार्पद, कलवलिनार्पटू ऐनिणैएम्पटु, ऐन्दिणैल्लदु, तिणैमालेएम्बदु तिणैमालैनीग्रैंम्बदु, कैप्रिलै, कुरल, तिरिकडुकम, आशारक्कीवै, पलमोलि, शिरुमचमूलम्, मुदुमोलिक्काजि तथा एलादि । इनमें तिरुवल्लुवर का सर्वोत्कृष्ट है ।

इसे तमिल साहित्य का एक आधारभूत ग्राम्य बताया जाता है । इसके विषय त्रिवर्ग, आचारशास्त्र, राजनीति, आर्थिक जीवन एवं प्रणय से संबंधित है । इसका रचयिता कौटिल्य, मनु, कात्यायन आदि के विचारों से प्रभावित लगता है । इसमें कुल 133 खण्ड है । नीलकण्ठ शास्त्री इसे ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी में रखते है ।

संगम युग में महाकाव्यों की भी रचना की गयी । यद्यपि ये ग्रन्थ संगम साहित्य के अन्तर्गत नहीं आते तथापि इनसे तत्कालीन जन-जीवन के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है । इस काल के पाँच प्रसिद्ध महाकाव्य हैं- शिल्प्पदिकारम्, मणिमेखलै, जीवकचिन्तामणि, वलयपति तथा कुण्डलकेशि । इनमें प्रथम तीन ही उपलब्ध हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

a. शिल्पादिकारम्:

यह एक अद्वितीय रचना है । दुर्भाग्यवश इसके लेखक तथा समय के विषय में कुछ निश्चित नहीं है । एक मान्यता के अनुसार इसकी रचना चेरवंश के राजा सेनगुटटुवन के भाई इलांगो ने की थी । किन्तु ए॰एल॰ बाशम जैसे विद्वान् इसे नहीं मानते ।

इस महाकाव्य की कहानी एक अत्यन्त लोकप्रिय कथा पर आधारित है जिसका संक्षेप इस प्रकार है- “पुहार (काबेरीपट्टन) नगर के एक समृद्ध व्यापारी का पुत्र कोवलन ने एक अन्य व्यापारी की पुत्री कण्णगि से विवाह किया । कुछ समय तक दोनों सुखपूर्वक रहे। एक दिन कोवलन् की भैंट राजदरवार में माधवी नामक नर्तकी से हुई जिसके प्रेम जाल में वह फंस गया ।

उसने नर्तकी के ऊपर अपना सारा धन व्यय कर दिया तथा अपनी पत्नी तथा घर को भूल गया । यहाँ तक कि उसने अपनी पत्नी के सारे आभूषण भी नष्ट कर दिये । किन्तु नर्तकी द्वारा ठुकराये जाने पर कंगाली की हालत में वह पुन पश्चाताप करते हुए अपनी पत्नी के पास वापस लौट आया ।

उस समय कण्णगि के पास केवल पायलों का एक जोड़ा ही शेष था । उसने खुशी से उन्हें अपने पति को साँप दिया । उनमें से एक को बेचकर जीविकोपार्जन करने के उद्देश्य से कोवलन् अपनी पत्नी के साथ मदुरा चला गया । वहाँ एक पायल को वेचने के लिये वह बाजार गया ।

इसी समय वहाँ के रानी का एक पायल राजवंश के सुनार के षड़यन्त्र से चोरी चला गया । राजा के नौकरों ने कोवलन् को संदेह में पकड़ कर बिना आभयोग चलाये ही मार डाला । कण्णगि दूसरा पायल लेकर राजा के पास गयी तथा अपने पति की निर्दोषता का प्रमाण दिया । आत्मग्लानि से राजा की मृत्यु हो गयी ।

तत्पश्चात् कण्णगि ने अपनी क्रोधाग्नि से मदुरा को जला डाला तथा चेर राज्य में चली गयी । वहीं पहाड़ी पर उसकी मृत्यु हुई । स्वर्ग में वह अपने पति से मिल गयी । मृत्यु के पश्चात् उसकी प्रतिष्ठा तमिल समाज में ग्रंतीत्व की देवी’ के रूप में हुई । उसके सम्मान में मन्दिर वनवाये गये तथा उसकी पूजा की जाने लगी ।

शिल्पादिकारम् एक उत्कृष्ट रचना है जो तमिल जनता में राष्ट्रीय काव्य के रूप में मानी जाती है । नीलकंठ शास्त्री के शब्दों में फ्यूँह अनेक अर्थों में तमिल साहित्य में अनुपम है । इसमें दृश्यों का जैसा सुस्पष्ट चित्रण है तथा छन्दों का जैसा दक्षतापूर्ण प्रभाव है वैसा अन्य किसी रचना में नहीं मिलता’ । वस्तुत: यह रक्त यथार्थवादी रचना है जिसमें लोकजीवन की सवेदनाओं को सुरक्षित किया गया है ।

b. मणिमेकलै:

शिल्पादिकारम् के कुछ समय बाद इस ग्रन्थ की रचना हुई तथा इस शिल्पादिकारम् का ही प्रभाव दिखाई देता है । इसकी रचना मदुरा के व्यापारी सीतलैसत्तनार ने की थी जो एक बौद्ध था । इस महाकाव्य की नायिका मणिमेकलै, कोवलन् (शिल्पादिकारम् के नायक) की प्रेमिका नर्तकी माधवी से उत्पन्न पुत्री है ।

”माधवी अपने पूर्व प्रेमी की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध भिक्षुणी बन जाती है । राजकुमार उदयकुमारन् मणिमेकलै से प्रेम करता है तथा उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । किन्तु मणिमेकलै चमत्कारिक गा से अपने सतीत्व को बचा लेती है । अन्तत: वह भी अपनी माता के समान वौद्धधर्म का आलिंगन कर भिक्षुणी बन जाती है ।” इस ग्रन्थ की कहानी दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संवंधी बातों के लिये बनाई गयी है ।

इसका महत्व मुख्यत: धार्मिक है । इसमें तर्कशास्त्र की भ्रान्तियों की लम्बी व्याख्या है । शास्त्री के अनुसार यह बौद्ध लेखक दिडंनाथ (पाँचवीं शती) की कृति ‘न्यायप्रवेश’ पर आधारित है । इसकी अधिकांश कवितायें हिन्दू तथा अन्य धर्मविरुद्ध सम्प्रदाय वालों के बीच बाद-विवाद और दूसरे धर्मानुयायियों के मतों के खण्डन-मण्डन सम्बन्धी विचारों से परिपूर्ण है । इस प्रकार मणिमेकलै का महत्व शिल्पादिकारम् जैसा नहीं है ।

c. जीवकचिन्तामणि:

यह संगमकाल के बहुत बाद की रचना है । इसकी रचना का श्रेय जैन भिक्षु तिरुत्तक्कदेवर को दिया जाता है । “यह एक आदर्श नायक की जीवन कथा है जो युद्ध तथा शान्ति दोनों कलाओं में निपुण है । वह एक ही साथ सन्त तथा प्रेमी भी है । युवावस्था में वह अनेक साहसपूर्ण कार्य करता है तथा प्रारम्भ में ही एक विशाल साम्राज्य का स्वामी वन जाता है ।

प्रत्येक सैनिक अभियान में वह अपने लिये एका-एक रानी लाता है तथा इस प्रकार आठ पत्नियों के साथ आनन्द मनाता है । अन्ततोगत्वा उसे सांसारिक जीवन से विरक्ति हो जाती है और अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर वह वन में चला जाता है । वहीं उसे मुक्ति प्राप्त होती है ।”

वर्तमान रूप में इस काव्य में 3154 छन्द हैं जिनमें केवल 2700 मूल कवि द्वारा रचित हैं । दो छन्दों को उसके गुरु तथा शेष को बाद के किसी कवि ने लिखा था । तिरुत्तक्कदेवर की रचना में श्रेष्ठ काव्य के सभी गुण विद्यमान हैं । कहा जाता है कि वह पहले चोल राजकुमार था जो वाद में जैन भिक्षु बन गया ।

इनके अतिरिक्त कुछ अन्य काव्य-ग्रन्थ भी है । इन सभी से संगमयुग के इतिहास तथा उसकी संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है । इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इस समय उत्तर तथा दक्षिण की संस्कृतियों का समन्वय हो चुका था ।

संगम साहित्य की निश्चित तिथि के विषय में मतभेद है । सामान्यत: इसकी रचना पहली शताब्दी ईस्वी से लेकर तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य (100-250 ई॰) तक की गयी थी । श्रीनिवास आयंगर ने तीनों संगमों की अवधि एक हजार वर्ष के लगभग (ई॰ पू॰ 500 से 500 ई॰ तक) बताई है ।

संगम युग राजनैतिक इतिहास (Political History of Sangama Age):

संगम-साहित्य से हमें तमिल प्रदेश के तीन राज्यों-चोल, चेर तथा पाण्ड्य का विवरण प्राप्त होता है । उत्तर-पूर्व में चोल, दक्षिण-पश्चिम में चेर तथा दक्षिण-पूर्व में पाण्ड्यों का राज्य स्थित था । तीनों राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में हम संगम साहित्य से ही जानते है । तत्कालीन तमिल देश की राजनीति में इन्हीं तीन राज्यों का बोलबाला था ।

i. चोल-राज्य:

संगम युगीन राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली चोलों का राज्य था । यह पेन्नार तथा दक्षिणी वेल्लारु नदियों के बीच में स्थित था । इसके अन्तर्गत चित्तूर, उत्तरी अर्काट, मद्रास से चिंगलपुत्त तक का भाग, दक्षिणी अर्काट, तंजौर, त्रिचनापल्ली का क्षेत्र सम्मिलित था ।

संगम काल का सबसे प्रथम एवं महत्वपूर्ण शासक करिकाल है । उसके प्रारम्भिक जीवन के विषय में जो सूचना मिलती है उसके अनुसार उसका बचपन बड़ी कठिनाई से बीता । बचपन में उसका पैर जल गया तथा वाद में चलकर वह अपने शत्रुओं द्वारा बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया गया ।

इस प्रकार उसका पैतृक राज्य भी उससे छिन गया । किन्तु करिकाल बड़ा वीर तथा हिम्मती था । 190 ई॰ के लगभग उसने अपने समस्त शत्रुओं को हराकर अपने राज्य पर पुन अपना अधिकार जमा लिया । इसके पश्चात् करिकाल का समकालीन चेर तथा पाण्ड्य राजाओं के साथ युद्ध हुआ ।

वेणी (तंजोर) के समीप उसने चेर-पाण्ड्य राजाओं सहित उनके सहयोगी ग्यारह सामन्त राजाओं के एक संघ को भी पराजित किया । तत्पश्चात् चाहैप्परण्डले के युद्ध में उसने नौ शत्रु राजाओं के एक संघ को जीता । इन विजयों के फलस्वरूप कावेरी नदी-घाटी में करिकाल की स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो गयी ।

करिकाल की उपलब्धियों का अत्यन्त अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण हमें प्रान्त होता है । बताया गया है कि उसने हिमालय तक सैनिक अभियान किया तथा वज्र, मगध और अवन्ति राज्यों को जीत लिया । इसी प्रकार कुछ अनुश्रुतियों में उसकी सिंहल विजय का वृत्तान्त मिलता है ।

बताया गया है कि करिकाल ने सिंहल से 12000 युद्ध बन्दियों को लाकर पुहार के समुद्री बन्दरगाह के निर्माण में लगा दिया था । किन्तु इस प्रकार के विवरण काल्पनिक प्रतीत होते है तथा इन्हें पुष्ट करने के लिये हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है ।

करिकाल ब्राह्मण मतानुयायी था तथा उसने इस धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया । वह स्वयं एक विद्वान्, विद्वानों का आश्रयदाता तथा महान् निर्माता था । पुहारपत्तन का निर्माण इसी के समय में हुआ । इसके अतिरिक्त उसने कावेरी नदी के मुहाने पर बाँध बनवाया तथा उसके जल का उपयोग सिचाई के लिये करने के उद्देश्य से नहरों का निर्माण करवाया था ।

पेरुनानुन्नुपादे में उसे संगीत के सप्तस्वरों का विशेषज्ञ बताया गया है । इस प्रकार करिकाल एक महान् विजेता एवं प्रजावत्सल शासक था । प्रारम्भिक चोल शासकों में वह महानतम है । करिकाल के पश्चात् चोलों की शक्ति निर्बल पड़ने लगी । उसके तीन पुत्र थे-नलंगिल्ली, नेडुमुदुक्किलि तथा मावलत्तान ।

इनमें नलंगिल्ली के सम्बन्ध में हमें कुछ पता है । ऐसा लगता कि इस समय चोल वंश दो शाखाओं में विभक्त हो गया । नलंगिल्ली ने करिकाल के तमिल राज्य पर शासन किया । उसकी एक प्रतिद्वन्दी शाखा नेडुनगिल्ली के अधीन संगठित हो गयी ।

दोनों के बीच एक दीर्घकालीन गुहयुद्ध छिड़ा । अन्ततोगत्वा कारियारु के युद्ध में नेहुनगिल्ली पराजित हुआ तथा मार डाला गया । इस युद्ध का विवरण मणिमेकलै में प्राप्त होता है । इन दो राजाओं का एक अन्य समकालीन कलिवलवन् था जो उरैयूर में राज्य करता था । वह एक शक्तिशाली शासक था जिसने चेरों को हराकर उनकी राजधानी करूर के ऊपर अधिकार जमा लिया ।

उपर्युक्त शासकों के अतिरिक्त संगम साहित्य में चोल वंश के कुछ अन्य राजाओं के नाम भी प्राप्त होते हैं- कोप्परुन्जोलन, पेरुनरकिल्लि, कोञ्चेगणान् आदि । इनके संबन्ध में जो विवरण सुरक्षित है, उनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है ।

उनकी उपलब्धियों काव्य का विषय हैं, इतिहास की नहीं । संगम युगीन चोल शासकों ने तीसरी-चौथी शती तक शासन किया । तत्पश्चात् उरैयूर के चोलवंश का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो जाता है । नवीं शताब्दी के मध्य विजयालय के नेतृत्व में पुन: चोल सत्ता का उत्थान हुआ ।

ii. चेर-राज्य:

संगम युगीन का दूसरा राज्य चेरों का था जो आधुनिक केरल प्रान्त में स्थित था । इसके अन्तर्गत कोयम्बटूर का कुछ भाग तथा सलेम (प्राचीन कोंगू जनपद) भी सम्मिलित थे । संगम कवियों ने चेरों की प्राचीनता महाभारत के युद्ध से जोड़ने का प्रयास किया है जो मात्र काल्पनिक है ।

संगम युग का प्रथम ऐतिहासिक चेर शासक उदियंजीरल (लग॰ 130 ई॰) हुआ । उसके विषय में यह कहा गया है कि उसने महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन कराया था । इसकी किसी भी उपलब्धि की जानकारी हमें नहीं मिलती । उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी नेदुंजीरल आदन (लग॰ 155 ई॰) हुआ ।

उसके विषय में यह सूचना मिलती है कि उसने मालावार-तट पर किसी शत्रु को पराजित किया तथा कुछ यवन-व्यापारियों को बन्दी बना लिया । यहाँ यवनों से तात्पर्य सम्भवत: रोम तथा अरव के व्यापारियों से है । एक अनुश्रुति में बताया गया है कि उसने सात राजाओं को हराकर अधिराज की उपाधि धारण की थी ।

यह भी विवरण आया है कि हिमालय तक अपने राज्य का विस्तार करके आदन ने ‘इमयवरम्बन्’ की उपाधि ग्रहण किया था, किन्तु यह पूर्णतया काल्पनिक है । नेदुंजीरल आदन किसी चोल शासक के विरुद्ध लड़ते हुए मारा गया । आदान के दो पुत्र थे- कलंगायक्कणि नारमुडिच्छच्छीरल तथा सेनगुट्टवन । इनमें सेनगुट्टवन ही अधिक महत्वपूर्ण है ।

वह 180 ई॰ के लगभग राजा बना । उसके यश का गान संगम युग के सुँप्रसिद्ध कवि परणर ने किया है । वह एक वीर योद्धा तथा कुशल सेनानायक था । उसके पास घोड़े, हाथी तथा नौसैनिक बेड़ा भी था । उसने ‘अधिराज’ की उपाधि ग्रहण की थी । उसने पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र के बीच अपना राज्य विस्तृत किया ।

वह साहित्य और कला का उदार संरक्षक था । उसने ‘पत्तिनी’ नामक धार्मिक सम्प्रदाय को समाज में प्रतिष्ठित किया । इसमें पवित्र पत्तिनी की देवी के रूप में मूर्ति बनाकर पूजा जाता था । बताया गया है कि सेनगुट्टवन ने इस मूर्ति का पत्थर किसी आर्य राजा को युद्ध में हराकर प्राप्त किया तथा गंगा नदी में स्नान कराने के बाद उसे अपनी राजधानी ले आया था ।

ऐसा प्रतीत होता है कि सेनगुट्टवन के बाद चेरवंश कई उप-शाखाओं में बँट गया । उसके बाद के महत्वपूर्ण चेर शासक अन्दुवन् तथा उसका पुत्र वाली आदन थे । तत्पश्चात् आय और पारि राजा बने । इन सभी ने अल्पकाल तक शासन किया । व ब्राह्मण धर्म तथा साहित्य के संरक्षक थे । ये सभी उपशाखा के शासक प्रतीत होते है ।

चेरवंश की मुख्य शाखा में सेनगुट्टवन का पुत्र पेरुञ्जीरल इरुमपौरै (लग 190 ई॰) शासक बना । वह महान् विजेता था । उसके विरुद्ध सामन्त अडिगैमान ने चोल तथा पाण्यय राजाओं को मिलाकर एक मोर्चा तैयार किया किन्तु इरुमपौरे ने अकेले ही तीनों को पराजित कर दिया तथा तगदूर नामक किले पर अपना अधिकार जमा लिया ।

बाद में अडिगैमान उसका मित्र बन गया । चेरवंश का अगला राजा कडक्को इलंजीराल इरुमपोरै हुआ । उसने भी चोल तथा पाण्ड्य राजाओं के विरुद्ध सफलता प्राप्त की । संगम काल का अन्तिम चेर शासक सेईयै (लगभग 210 ई॰) हुआ । उसके समकालीन पाण्ड्य शासक नेडुंजेलियन ने उसे पराजित कर चेर राज्य की स्वाधीनता का अन्त कर दिया ।

iii. पाण्ड्य-राज्य:

संगम युग का तीसरा राज्य पाण्ड्यों का था जो कावेरी के दक्षिण में स्थित था । इसमें आधुनिक मदुरा जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल धा । इसकी राजधानी मदुरा में थी । संगम साहित्य में पाण्ड्य राजाओं का जो विवरण प्राप्त होता है वह अत्यन्त भ्रामक है तथा उसके आधार पर हम उनके इतिहास का क्रमबद्ध विवरण नहीं जान सकते ।

इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली राजा (लगभग 210 ई॰) हुआ । पूर्ववर्ती तीन राजाओं के नाम संगम-साहित्य से ज्ञात होते हैं- नौडियोन पलशालै, मुदूकडमै तथा नेडुंजेलियन् । किन्तु इनके शासन काल की घटनाओं के विषय में कुछ भी पता नहीं है । उनका काल भी ठीक ढंग से निर्धारित कर पाना कठिन है ।

राजगद्दी प्राप्त करने के समय नेडुन्जोलियन् अल्पायु था । उसके सम्मुख एक भारी विपत्ति आई । चेर, चोल तथा पाँच अन्य राजाओं ने मिलकर उसके राज्य को जीता तथा राजधानी मदुरा को घेर लिया । किन्तु नेडुन्जोलियन् अत्यन्त वीर तथा साहसी था । उसने अपने शत्रुओं को राजधानी से खदेड़ दिया ।

वह उनका पीछा करते हुए चोल राज्य की सीमा में घुस गया जहाँ तलैयालनगानमे (तंजोर जिला) के युद्ध में सभी को बुरी तरह परास्त किया । चेर शासक शेय को उसने बन्दी बनाकर अपने कारागार में डाल दिया । इसके अतिरिक्त मिल्लै तथा मुतुरु नामक दो प्रदेशों पर भी उसने अधिकार कर लिया ।

इस प्रकार अल्पकाल में ही उसने न केवल अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित किया, अपितु उसका विस्तार भी कर दिया । महान् विजेता होने के साथ-साथ नेहुन्नेलियन विद्वान् तथा विद्वानों का आश्रयदाता, उदार प्रशासक एवं धर्मनिष्ठ व्यक्ति था ।

संगम युगीन कवियों ने उसकी उदारता एवं दानशीलता की प्रशंसा की है । वह वैदिक धर्म का पोषक था तथा उसने अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करवाया था । उसकी राजधानी मदुरा तत्कालीन भारत की अत्यन्त प्रसिद्ध व्यापारिक एवं सांस्कृतिक नगरी बन गयी थी । नेडुन्जेलियन् के पश्चात् कुछ समय के लिये पाण्ड्य राज्य का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया । सातवीं शताब्दी में पाण्ड्य सत्ता का पुन उत्कर्ष हुआ ।

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