गुप्त साम्राज्य के दौरान सामाजिक और आर्थिक जीवन | Social and Economic Life During Gupta Empire. Read this article in Hindi to learn about:- 1. गुप्तयुगीन सामाजिक जीवन (Social Life during Gupta Empire) 2. गुप्तयुगीन आर्थिक जीवन (Economic Life during Gupta Empire) 3. धार्मिक जीवन  (Religious Life during Gupta Empire).

गुप्तयुगीन सामाजिक जीवन (Social Life during Gupta Empire):

गुप्तयुगीन समाज में वर्ण-व्यवस्था पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित थी । भारतीय समाज के परम्परागत चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के अतिरिक्त कुछ अन्य जातियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थीं । चारों वर्णों की सामाजिक स्थिति में विभेद किया जाता था ।

वाराहमिहिर के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के घर क्रमशः पाँच, चार, तीन तथा दो कमरों वाले होने चाहिए । न्याय-व्यवस्था में भी विभिन्न वर्णों की स्थिति के अनुसार भेद-भाव बरते जाने का विधान मिलता है ।

परन्तु इस समय जाति-व्यवस्था उतनी अधिक जटिल नहीं हो पाई थी जितनी कि परवर्ती कालों में देखने को मिलती है । समाज के सभी वर्णों एवं जातियों में ब्राह्मणों का प्रतिष्ठित स्थान था । यद्यपि उनका मुख्य कर्म धार्मिक एवं साहित्यिक था तथापि कुछ ब्राह्मणों ने अपने जातिगत पेशों को छोड़कर अन्य जातियों की वृत्ति अपना लिया था ।

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मृच्छकटिक, जो गुप्तकालीन रचना है, में चारुदत्त नामक ब्राह्मण को ‘सार्थवाह’ (व्यापारी) कहा गया है । इस ग्रन्थ से पता चलता है कि उसका परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से व्यापार तथा वाणिज्य की वृत्ति अपनाये हुए था । बौद्ध साहित्य से भी पता चलता है कि बहुसंख्यक ब्राह्मण व्यापार-वाणिज्य का कार्य करते थे ।

स्मृति ग्रन्थों में भी इस वृत्ति को ब्राह्मण वर्ण का ‘आपद्धर्म’ कहा गया है । यह इस काल में व्यापार-वाणिज्य के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक है । कुछ ब्राह्मण शिल्पकार का काम करते थे जबकि कुछ युद्ध एवं सैनिक कार्यों में भी निपुण थे । इसी प्रकार क्षत्रिय जाति के लोगों ने भी व्यापार एवं औद्योगिक वृत्ति अपना ली थी ।

इस प्रकार सभी वर्गों की वृत्तियों में शिथिलता आती जा रही थी । कृषक, पशुपालक, धातुकार, तैलकार, जुलाहे, माली आदि की समाज में विशिष्ट जातियाँ गठित हो चुकी थीं । अनेक मिश्रित (संकर) जातियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थीं । स्मृतियों में मूर्धावसिक्त, अम्बष्ट, पारशव, उग्रकरण आदि मिश्रित जातियों का उल्लेख हुआ है । समकालीन अभिलेखों में ‘कायस्थ’ नामक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है जो पेशेवर लेखक थे तथा उनकी कोई विशिष्ट जाति नहीं बन पाई थी ।

गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को व्यापार, शिल्प एवं कृषि करने की अनुमति प्रदान करती हैं । बृहस्पति के अनुसार ‘प्रत्येक प्रकार की वस्तुओं की बिक्री करना शूद्र का सामान्य धर्म है’ । उनमें से कुछ सेना में भी भर्ती होते थे । मृच्छकटिक से पता चलता है कि उज्जयिनी में कुछ शूद्र अधिकारी थे । अब उन्हें महाकाव्यों तथा पुराणों के श्रवण का अधिकार भी मिल गया ।

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यह समाज में शूद्रों के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण का परिचायक है । स्मृति ग्रन्थों एवं फाहियान के विवरण से पता चलता है कि समाज में अस्पृश्यता प्रचलित थी । फाहियान अछूतों को ‘चाण्डाल’ कहता है जो गाँवों एवं नगरों के बाहर निवास करते थे ।

वे ही आखेट करते एवं मांस बेचते थे । गाँवों तथा नगरों में प्रवेश करते समय वे लकड़ी पीटते हुए चलते थे ताकि लोग मार्ग से हट जायँ और उनके स्पर्श से बच जायँ । ऐसा सम्भवत: उनके अपवित्र कार्यों जैसे मांस काटना व बेचना, मैला ढोना आदि के कारण किया जाना था ।

समाज की सभी जातियों में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी । ब्राह्मणों के साथ-साथ क्षत्रियों को भी उपनयन संस्कार एवं वेदाध्ययन के अधिकार प्राप्त थे । कुछ वैश्य जाति के लोग भी इन अधिकारों का उपभोग करते थे । वे ब्राह्मणों एवं विहारों को मुक्तहस्त से दान देते, अस्पताल खुलवाते तथा उनके निर्वाह की व्यवस्था करते थे ।

वैश्यों की श्रेणियाँ थीं जो व्यापार-वाणिज्य का संचालन करती थी । समाज में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी । स्मृति ग्रन्थों से समाज में दास-प्रथा के प्रचलन का भी प्रमाण मिलता है । युद्ध में बन्दी बनाये गये तथा ऋण न चुका सकने वाले लोग प्रायः दास बनाये जाते थे । मृच्छकटिक से पता चलता है कि दास के शरीर पर उसके स्वामी का पूर्ण नियन्त्रण होता था ।

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किन्तु यहाँ दास-प्रथा पाश्चात्य देशों की दास-प्रथा के समान जटिल नहीं थी । एक निश्चित अवधि तक सेवा करने तथा ऋण चुका देने पर दास स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकने का अधिकारी था । उसके साथ व्यवहार में मानवीय आचरण किया जाता या यही कारण है कि यूनानी लेखकों ने इस प्रथा की ओर ध्यान नही दिया ।

गुप्तकालीन साहित्य में स्त्रियों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है । प्रायः सजातीय विवाह ही होते थे । यदा-कदा निम्न वर्ण की कन्या का विवाह उच्च वर्ण में हो जाता था । ऐसे विवाह को ‘अनुलोम’ कहा जाता था । स्मृति अच्छा इसकी मान्यता देते हैं ।

नारद एवं पाराशर की स्मृतियों से विधवा-विवाह का समर्थन मिलता है । किन्तु बृहस्पति इसे मान्यता नहीं देते । उन्होंने विधवा के लिये आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने तथा व्रत, उपवास, तप, दान आदि में लगे रहने का विधान प्रस्तुत किया है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में विधवाओं की दशा अच्छी नहीं थी तथा उन्हें कठोर साधना का जीवन बिताना पड़ता था । गुप्त युग में कन्याओं का विवाह सामान्यतः 12-13 वर्ष की अवस्था में होता था, अत: उनका उपनयन संस्कार बन्द हो गया ।

याज्ञवल्क्य-स्मृति कन्या के लिये उपनयन एवं वेदाध्ययन का निषेध करती है । सती प्रथा का उल्लेख केवल 510 ईस्वी के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है जिसके अनुसार उसके मित्र गोपराज की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी सती हो गयी थी ।

परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रथा न तो समाज में लोकप्रिय हो पाई थी और न ही इसे कोई शास्त्रीय मान्यता ही मिल सकी थी । समाज में वेश्याओं के अस्तित्व का भी प्रमाण मिलता है ।  कामसूत्र में गणिकाओं को दिये जाने वाले प्रशिक्षण का विवरण दिया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवसाय काफी प्रचलित था ।

मुद्राराक्षस से पता चलता है कि उत्सवों के समय बड़ी संख्या में वेश्यायें सड़कों पर निकलती थीं । मन्दिरों में कन्यायें देवदासी के रूप में नृत्यगान करती थीं । कालिदास ने उज्जयिनि के महाकाल मन्दिर में नृत्यगान करने वाली देवदासियों का विवरण दिया है । पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था तथा स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण कर सकती थीं ।

किन्तु कुलीनवर्ग की महिलायें बाहर निकलते समय अपने मुँह पर घूँघट डालती थीं । गुप्तकालीन स्मृतियों में स्त्री के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार को मान्यता प्रदान की गयी तथा स्त्रीधन का दायरा अत्यन्त विस्तृत कर दिया गया ।

पुत्र के अभाव में पति की सम्पत्ति पर पत्नी का अधिकार होता था । नारद तथा कात्यायन आदि स्मृतिकार कन्या को भी पिता की सम्पत्ति का अधिकारिणी मानते हैं । कात्यायन ने तो यह व्यवस्था दी है कि अचल सम्पत्ति में भी स्त्री का अधिकार होता है और वह स्त्रीधन के साथ इसे भी बेच सकती अथवा बन्धक रख सकती है । समाज के उच्च वर्गों का जीवन सुखी तथा आमोदपूर्ण था ।

संगीत, नृत्य, नाटक आदि के द्वारा लोग आनन्द लेते थे । युवकों को प्रणयकला की शिक्षा की जाती थी । कामसूत्र में इस प्रकार के सुख-सम्पन्न नागरिकों की दिनचर्या का वर्णन मिलता है । किन्तु यही स्थिति समाज के निम्नवर्गों की नहीं थी ।

गुप्तयुगीन आर्थिक जीवन (Economic Life during Gupta Empire):

गुप्त राजाओं का शासन-काल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल माना जा सकता है । कृषि की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया गया । अमरकोश में लोहे से बने हलके फाल के लिये पांच नाम दिये गये हैं जिससे सूचित होता है कि यह महत्वपूर्ण कृषि उपकरण सर्वसुलभ था तथा इसका उपयोग भूमि जोतने के लिये किया जाता था ।

कालिदास ने कृषि तथा पशुपालन को राष्ट्रीय सम्पत्ति का एक बड़ा साधन निरूपित किया है । धान, गेहूँ, गन्ना, जूट, तिलहन, कपास, ज्वार-बाजरा, मसाले, धूप, नील आदि प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होते थे । सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी । उद्योग-धन्धे उन्नति पर थे । कपड़े का निर्माण करना इस काल का सर्वप्रमुख उद्योग था जिससे बहुसंख्यक लोगों को जीविका मिलती थी ।

इसके अतिरिक्त हाथी-दाँत की वस्तुएँ बनाना, मूर्तिकारी, चित्रकारी, शिल्प-कार्य, मिट्टी के बर्तन बनाना, जहाजों का निर्माण आदि इस समय के कुछ अन्य उद्योग-धन्धे थे । गुप्त युग में व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई ।

व्यवसाय एवं उद्योग का संचालन श्रेणियाँ करती थीं । ‘श्रेणी’ एक ही प्रकार के व्यवसाय अथवा शिल्प का अनुसरण करने वाले लोगों की समिति होती थी । मन्दसोर के लेख में ‘पट्टवायश्रेणी’ (रेशमी सूत बनने वालों की समिति) तथा इन्दौर लेख में तैलिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है ।

श्रेणियाँ बैंकों का भी कार्य करती थीं और इस रूप में अपने सदस्यों को सूद पर धन देती थीं । प्रत्येक श्रेणी का एक प्रधान तथा चार या पाँच व्यक्तियों की एक कार्यकारिणी होती थी । बृहस्पति स्मृति से ज्ञात होता है कि ईमानदार, वेदों तथा अपने कर्त्तव्यों के ज्ञाता योग्य, आत्मसंयमी और कुलीन व्यक्ति ही श्रेणियों के प्रबन्ध अधिकारी नियुक्त किये जाते थे ।

श्रेणियां स्वायत्तशासी संस्थायें थीं जिनके अपर नियम और कानून होते थे । राज्य सामान्य तौर से उनका सम्मान करता था । स्मृतियों में राजा को निर्देश दिया गया है कि वह श्रेणियों के रीति-रिवाजों का पालन करवाये । अपने सदस्यों के झगड़ों का निपटारा वे स्वतः करती थी ।

प्रत्येक श्रेणी के पास अपनी अलग मुहर होती थी । वैशाली से एक संयुक्त श्रेणी की 274 मुदायें प्राप्त हुई हैं । इसमें साहूकार, व्यापारी तथा सौदागर सम्मिलित हैं । व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हुआ । गुप्त राजाओं ने सोने, चाँदी तथा ताँबे के बहुसंख्यत सिक्के चलवाया । इस समय सोने तथा चांदी के सिक्कों का अनुपात 1:16 था । सामान्य लेन-देन कौड़ियों में होना था ।

गुप्त युग में व्यापारिक प्रगति हुई । लम्बी एवं चौड़ी सड़कों द्वारा प्रमुख नगर जुड़े हुए थे । भडौंच, उज्जयिनी, प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी द्वितीय राजधानी के रूप में विकसित किया था । इसने शीघ्र ही वैभव तथा समृद्धि में पाटलिपुत्र का स्थान ले लिया । मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि यहाँ अनेक धनाढ्‌य श्रेष्ठि तथा सौदागर निवास करते थे ।

माल ढोने के लिए गाड़ियों तथा जानवरों का प्रयोग किया जाता था । गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों द्वारा भी व्यापार होता था । भारतीयों ने मालवाहक जहाजों का निर्माण किया था ।

कुछ जहाजों में एक साथ 500 तक व्यक्ति बैठ सकते थे । विविध प्रकार के कपड़े, मसाले, खाद्यान्न, नमक, बहुमूल्य पत्थर आदि सामग्रियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाई जाती थीं ।

इस समय बंगाल में ताम्रलिप्ति प्रमुख बन्दरगाह था जहाँ से चीन, लंका, जावा, सुमात्रा आदि देशों के साथ व्यापार होता था । पश्चिमी भारत का प्रमुख बन्दरगाह भृगुकच्छ (भड़ौच) था जहाँ से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होता था ।

स्थल मार्ग द्वारा भी यूरोप के साथ भारत का व्यापार होता था । दक्षिणी-पूर्वी एशिया एवं पश्चिमी एशिया के विभिन्न देशों के साथ भी भारत का व्यापार उन्नति पर था । कपड़े, बहुमूल्य पत्थर, हाथी-दाँत की वस्तुएं, गरम मसाले, नारियल, सुगन्धित द्रव्य, नील, दवायें आदि निर्यात की प्रमुख वस्तुएँ थीं ।

व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान को माल लेकर जाते समय समूह में चलते थे । इसे ‘सार्थ’ तथा इसके नेता को ‘सार्थवाह’ कहा जाता था । व्यापारियों की समिति भी होती थी जिसे ‘निगम’ कहा जाता था । निगम का प्रधान ‘श्रेष्ठि’ कहलाता था ।

एस. के. मैती का विचार है कि गुप्तकाल में भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच व्यापारिक सम्बन्धों में गिरावट आ गयी थी । इसका प्रमाण हमें कुमारगुप्तकालीन मन्दसोर लेख से मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि ‘पट्टवायश्रेणी’ लाट प्रदेश को छोड़कर दशपुर में जाकर बस गयी थी ।

इस प्रवजन का मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि इस समय पश्चिमी देशों के साथ व्यापार लाभकारी नहीं रह गया था । आर. एस. शर्मा भी आर्थिक दृष्टि से गुप्तकाल को पतन का काल मानते हैं । किन्तु यह विचार सही नहीं है । मन्दसोर लेख से यह सूचित नहीं होता है कि बुनकरों की श्रेणी ने अपना परम्परागत पेशा छोड़कर अन्य पेशों को अपना लिया था ।

इसी लेख में एक स्थान पर कहा गया है कि उन्होंने शिल्प द्वारा अर्जित धन से सूर्य के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया तथा बाद में क्षतिग्रस्त होने पर उसका जीर्णोद्धार भी करवाया था । यदि बुनकर आपत्तिग्रस्त होते तो अपनी गाढ़ी कमाई का उपयोग मन्दिर-निर्माण में कदापि नहीं करते । बुनकरों का प्रवजन सुरक्षा संबन्धी कारणों से भी हो सकता है ।

इस सम्बन्ध में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि रोम के साथ स्थल मार्ग से व्यापार भी होता था तथा यह चौथी शती में इतना अधिक विकसित हुआ कि- ‘सिल्क जो आर्लियन के काल (161-80 ई.) में सोने से तौल कर बिकता था तथा धनी एवं कुलीन वर्ग की विलासिता की वस्तु था, वह जूलियन के काल (361-63 ई.) में इतना सस्ता हो गया कि सामान्य मनुष्य भी उसे खरीद सकता था ।’

अत: यह नहीं कहा जा सकता कि गुप्त युग में भारत का रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्ध पतनोन्मुख रहा । रोम इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि 408 ईस्वी में हूण आक्रान्ता एलरिक ने रोम का घेरा डाला तथा फिरौती के रूप में तीन हजार पौण्ड गोलमिर्च तथा चार हजार थान रेशमी वस्त्र प्राप्त करने के बाद ही अपना घेरा उठाया था । यह इस बात का सूचक है कि पाँचवीं शती में भी रोम में भारतीय माल प्रचुर मात्रा में था ।

रोम के पतन के बाद उसका स्थान कान्स्टैनटिनोपुल अथवा बैजेन्टियम ने ग्रहण किया तथा कान्स्टैन्टाइन महान् ने 330 ई. में उसे अपने शासन का केन्द्र बनाया । इस समय से भारत तथा रोम का व्यापारिक सम्बन्ध और घनिष्ठ हो गया । बैजेन्टियम के अभिजात लोग अत्यन्त धनी एवं विलासप्रिय थे जिनकी आवश्यकताएँ केवल पूर्वी देश ही पूरी कर सकते थे ।

बजेन्टियम चिकित्सा-प्रबन्धों से पता चलता है कि वहाँ के बाजारों में सभी प्रकार के भारतीय मसाले बहुतायत से प्राप्त थे । जस्टिनियन ‘ला डाइजेस्ट’ में आयातित वस्तुओं की जो सूची मिलती है, उनमें अधिकांश भारतीय हैं । भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त बैजेन्टियम सिक्कों से भी दोनों देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों की सूचना मिलती है ।

अत: हमारे पास यह सिद्ध करने के लिये कोई भी प्रमाण नहीं है कि गुप्तयुग में व्यापार-वाणिज्य का ह्रास हुआ । रोमिला थापर के शब्दों में- ‘गुप्तकाल की व्यापारिक समृद्धि उस आर्थिक प्रगति का अन्तिम चरण थी जो पिछले काल में प्रारम्भ हुई थी ।’

गुप्तयुगीन धार्मिक जीवन (Religious Life during Gupta Empire):

गुप्त राजाओं का शासन-काल ब्राह्मण (हिंदू) धर्म की उन्नति के लिये प्रख्यात है । गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे तथा उनकी उपाधि ‘परमभागवत’ की थी । उन्होंने वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया ।

परन्तु स्वयं नैष्ठिक वैष्णव होते हुये भी उनका दृष्टिकोण पूर्णतया धर्म-सहिष्णु था तथा वे किसी भी अर्थ में प्रतिक्रियावादी नहीं थे । उनकी धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता की नीति ने इस काल में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों को फलने-फूलने का समुचित अवसर प्रदान किया था ।

वे बिना किसी भेद-भाव के उच्च प्रशासनिक पदों पर सभी धर्मानुयायियों की नियुक्तियाँ करते थे । सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा के लिये प्रख्यात बौद्ध विद्वान् वसु-बन्धु को नियुक्त किया था । चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ ने शैव वीरसेन तथा बौद्ध आम्रकार्द्दव को क्रमशः अपने प्रधान मंत्री एवं प्रधान सेनापति के रूप में नियुक्त किया था ।

फाहियान जो स्वयं बौद्ध था, उसकी धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करता है । कुमारगुप्त प्रथम के काल में बुद्ध, सूर्य, शिव आदि की उपासना को समान रूप से राज्य की ओर से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । नालन्दा में विख्यात बौद्ध-विहार उसी के समय में स्थापित किया गया जिसे राज्य की ओर से प्रभूत धन दान में दिया जाता था ।

स्कन्दगुप्त के शासन-काल में पाँच जैन तीर्थकंरों की पाषाण प्रतिमाओं का निर्माण करवाया गया था । वैन्यगुप्त नामक एक परवर्ती गुप्त शासक ने, जो शैव था, ‘वैवर्त्तिक संघ’ नामक महायान बौद्ध संस्थान को दान दिया था ।

यद्यपि गुप्तयुगीन प्रजा को अपनी इच्छानुसार धर्माचरण की स्वतन्त्रता प्राप्त थी तथापि उत्तर भारत में वैष्णव धर्म अत्यधिक लोकप्रिय था । गुप्तकाल के बहुसंख्यक अभिलेखों में भगवान विष्णु के मन्दिरों का उल्लेख मिलता है ।

विष्णु के अतिरिक्त शिव, सूर्य, नाग, यक्ष, दुर्गा, गंगा-यमुना आदि की उपासना होती थी । मन्दिर इस समय उपासना के प्रमुख केन्द्र थे । गुप्तकाल के अनेक मन्दिर एवं उनके अवशेष आज भी प्राप्त हैं । हिन्दू देवी-देवताओं के अतिरिक्त जैन एवं बौद्ध मतानुयायी भी देश में बड़ी संख्या में विद्यमान थे ।

इस प्रकार गुप्तयुग में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों में सामंजस्य एवं मेल-मिलाप का वातावरण व्याप्त था । इस काल में अनेक विदेशियों ने हिन्दू धर्म एवं संस्कारों को अपना लिया था । जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न द्वीपों में हिन्दू-धर्म का व्यापक-प्रचार हो चुका था ।

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