शुंगा साम्राज्य के दौरान सामाजिक और आर्थिक जीवन | Social and Economic Life during Shunga Empire in Hindi. Read this article in Hindi to learn about:- 1. शुंगकालीन सामाजिक जीवन (Sungian’s Social Life) 2. शुंगकालीन आर्थिक जीवन (Sungian’s Economic Life) 3. शुंग काल की धार्मिक दशा (Religious Condition) and Other Details.

Contents:

  1. शुंगकालीन सामाजिक जीवन (Sungian’s Social Life)
  2. शुंगकालीन आर्थिक जीवन (Sungian’s Economic Life)
  3. शुंग काल की धार्मिक दशा (Religious Condition during Sungian Period)
  4. शुंग काल की भाषा तथा साहित्य (Language and Literature during Sungian Period)
  5. शुंग काल की कला एवं स्थापत्य (Art and Architecture during Sungian Period)


1. शुंगकालीन सामाजिक जीवन (Sungian’s Social Life):

शुंग राजाओं का शासन-काल भारत के इतिहास में एक प्रमुख स्थान रखता है । उन्होंने मगध साम्राज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोक रखा । मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की इसी कारण उनका शासन-काल वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है ।

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शुंगकालीन समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था । इस समय समाज में परम्परागत चार वर्णों के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी जातियाँ पैदा हो गयी थीं । जाति-प्रथा की जटिलता बढ़ गयी । मौर्य युग में बौद्ध धर्म के प्रभाव से वर्णाश्रम व्यवस्था को ठेस पहुँची थी ।

अधिकांश लोग अपने सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर भिक्षु अथवा श्रमण जीवन व्यतीत करने लगे थे । परन्तु शुंग काल में पुन: वर्णाश्रम धर्म व्यवस्थित किया गया । मनुस्मृति, जो इस काल की रचना है, में वर्णाश्रम धर्म के नियमों का उल्लेख मिलता है ।

इस बात पर बल दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जातिगत पेशे का अनुसरण करें । मनुस्मृति में कहा गया है कि- ‘स्वधर्म निम्न होने पर भी श्रेष्ठ परधर्म की अपेक्षा उत्तम है । यदि निम्न जाति का व्यक्ति लोभवश उच्चजाति के पेशे को अपनाये तो राजा को चाहिये कि वह उसकी सम्पत्ति जब्त कर ले तथा उसे देश निकालाकर दे ।’

यह भी बताया गया है कि जिस देश में वर्ण संकरता पैदा होती है उसका शीघ्रता से पतन हो जाता है । चारों वर्षों के कर्तव्यों का भी अलग-अलग विवेचन हुआ है । ब्राह्मण के प्रमुख कर्तव्य अध्ययन- अध्यापन, यजन-याजन, दान एवं प्रतिग्रह बताये गये हैं ।

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वह मृत्यु दण्ड का अधिकारी नहीं था । यदि ब्राह्मण शास्त्रसंगत आचरण नहीं करता था तो वह अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खो देता था । मनु ने विपत्ति के समय ब्राह्मण को अपने वर्ण से भिन्न पेशा अपनाकर जीविका कमाने की छूट प्रदान किया है ।

क्षत्रिय का प्रधान कर्तव्य राज्य की रक्षा के लिए शस्त्र ग्रहण करना बताया गया है । वैश्य प्रमुखत: व्यापार-वाणिज्य करते थे तथा शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करते थे । वे संस्कार तथा धर्मग्रन्थों के श्रवण करने के अधिकारी नहीं थे ।

मनुस्मृति में शूद्र अध्यापकों तथा शूद्र शिष्यों का भी उल्लेख मिलता है जो इस बात का सूचक है कि उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं रखा गया था । कुछ सीमा तक उन्हें सम्पत्ति रखने का भी अधिकार दिया गया था ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय शूद्रों की दशा अत्यन्त हीन थी । मनस्मृति उन्हें दासों की कोटि में रखती है । उनके कर्तव्य तो बहुत थे किन्तु अधिकार अत्यल्प थे । अपराध करने पर उन्हें अन्य वर्षों से अधिक कठोर दण्ड दिया जाता था ।

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शूद्र की हत्या करने पर ब्राह्मण को वही दण्ड मिलता था जो कुत्ते, बिल्ली, मेढक, कौवे आदि की हत्या करने पर । जातक ग्रन्थों से भी पता लगता है कि चाण्डाल समाज से बहिष्कृत थे तथा उनका दर्शन अशुभ माना जाता था ।

परम्परागत चार वर्णों के अतिरिक्त समाज में कई जातियाँ भी थीं जो अन्तर्वर्ण विवाहों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थीं । नवयुवकों एवं युवतियों को भिक्षु अथवा सन्यासी बनने से रोकने के उद्देश्य से यह विधान किया गया कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास इन चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिये ।

आश्रमों में संस्कारों का भी विधान था । वर्णाश्रम धर्म तथा संस्कारों का पालन न करने वाले लोग ‘व्रात्य’, ‘वृषल’ अथवा ‘संकर’ कहे गये । शुंगकालीन समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी । समाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच ।

अन्तर्वर्ण विवाह भी होते थे । उच्चवर्ण का व्यक्ति निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता था । इसे अनुलोम विवाह कहा जाता था । मनुस्मृति में ब्राह्मण पुरुष का शूद्र कन्या के साथ विवाह की अनुमति प्रदान की गयी है ।

इसका उल्टा प्रतिलोम विवाह होता था । इसे शास्त्रों में निन्दनीय कहा गया है । सगोत्र तथा सपिन्ड विवाह वर्जित थे । तलाक की प्रथा नहीं थी क्योंकि मनु ने विवाह को आजीवन चलने वाली संस्था बताया है । मनुस्मृति में पत्नी का परित्याग करने वाले पति को दण्ड देने के लिये राजा को सलाह दी गयी है । नियोग प्रथा प्रचलित थी तथा विधवा विवाह भी होते थे । पतिसेवा तथा परायणता स्त्री का परम कर्तव्य था ।

मनुस्मृति में एक स्थान पर कहा गया है कि- ‘जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं तथा जहाँ उनकी पूजा नहीं होती वहाँ सभी क्रियायें निष्फल हो जाती है ।’ समाज में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं मिलता ।

मनुस्मृति के विवरण से पता चलता है कि इस समय समाज में बाल-विवाह का प्रचलन प्रो गया तथा कन्याओं का विवाह आठ से बारह वर्ष की आयु में किया जाने लगा । विवाह की आयु घट जाने से स्त्रियों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ।

अब उन्हें पति के पूर्णतया अधीन बना दिया गया । मनुस्मृति में एक स्थान पर बताया गया है कि स्त्री को अपने पति की देवता के समान पूजा करनी चाहिये तथा उसकी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं करना रखिये भले ही उसका पति दुश्चरित्र अथवा लम्पट ही क्यों न हो ।


2. शुंगकालीन आर्थिक जीवन (Sungian’s Economic Life):

कृषि तथा पशुपालन इस समय भी आर्थिक जीवन के प्रमुख आधार थे । वैश्य वर्ण के लोग ही प्रमुख रूप से कृषि तथा पशुपालन का कार्य करते थे । देश में नाना प्रकार के व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धे फैले हुये थे ।

बौद्ध ग्रन्थ ‘मिलिन्दपण्हो’ में अनेक व्यावसायिक का उल्लेख हुआ है, जैसे-मालाकार, सुवर्णकार, लौहकार, ताम्रकार, जौहरी, कुम्हार, चर्मकार, चित्रकार, रंगरेज, जुलाहे, दर्जी, रथकार आदि ।

श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रचलित था तथा व्यवसाय आनुवंशिक होते थे । प्रमुख नगरों में व्यापारियों तथा व्यवसायियों की श्रेणियाँ थी । जातक ग्रन्थों में 18 श्रेणियों का उल्लेख मिलता है । इनके अलग-अलग व्यावसायिक नियम होते थे ।

देश में व्यापार उन्नति पर था । पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, वैशाली, हस्तिनापुर, वाराणसी तथा तक्षशिला प्रमुख व्यापारिक नगर थे । भृगुकच्छ, सुप्पारक, ताम्रलिप्ति प्रमुख व्यापारिक बन्दरगाह थे ।

समुद्री व्यापार के लिये बड़े-बड़े जहाजों का निर्माण होने लगा जिससे पोत-निर्माण इस काल का एक प्रमुख व्यवसाय बन गया । रेशमी वस्त्र, हीरे-जवाहरात, हाथी-दाँत की वस्तुएँ तथा गरम मसाले आदि बाहर भेजे जाते थे ।

व्यापार-विनिमय में नियमित सिक्कों का प्रयोग होता था । स्वर्ण मुद्रा को निष्क, दीनार, सुवर्ण, सुवर्णमासिक कहा जाता था । ताँबे के सिक्के ‘कार्षापण’ कहलाते थे । चाँदी के सिक्के के लिये ‘पुराण’ अथवा ‘धारण’ शब्द आया है ।


3. शुंग काल की धार्मिक दशा (Religious Condition during Sungian Period):

शुंग राजाओं का शासन-काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म के पुनर्जागरण का काल माना जाता है । इस काल की रचनाओं में श्रमण विचारधारा तथा अतिशय अहिंसा का विरोध मिलता है । वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान पुन: प्रारम्भ हुआ ।

स्वयं पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे । यज्ञों में पशुबलि की प्रथा पुन: प्रचलित हुई । ब्राह्मण धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया गया तथा वैदिक कर्मकाण्डों के अनुष्ठान पर बल दिया जाने लगा ।

इसी समय यह सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ कि- ‘जीव ही जीव का आहार है’ (जीवो जीवस्य भोजनम्) तथा यज्ञों में की गयी हिंसा, हिंसा नहीं होती है (वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति) आदि । मनु ने स्पष्टतः ब्राह्मणों को यह में मृगों तथा पक्षियों को मारने की अनुमति दी है । इसी समय समाज में भागवत धर्म का उदय हुआ तथा वासुदेव-विष्णु की उपासना प्रारम्भ हुई ।

तक्षशिला के एक यवन होलियोडोरस ने वासुदेव के सम्मान में विदिशा के पास बेसनगर (भिलसा) में गरुड़-स्तम्भ का निर्माण करवाया था । वह यवन नरेश एन्टियालकीड्स का राजदूत था जो शुंग शासक भागभद्र के विदिशा के दरबार में आया था ।

वह स्वयं भागवत हो गया । इस स्तम्भलेख पर ब्राह्मीलिपि में उत्कीर्ण है कि- ‘तीन अमर साधनों द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया जा सकता है- दम (आत्म-संयम), त्याग तथा अप्रमदा (सतकर्ता) ।’ इसी प्रकार मथुरा के समीप ‘मोरा’ नामक स्थान से प्राप्त प्रथम शताब्दी ईस्वी के एक लेख से ज्ञात होता है कि ‘तोस’ नामक किसी विदेशी स्त्री ने संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, शास्त्र तथा अनिरुद्ध की मूर्तियों की स्थापना की थी ।

भागवत धर्म के साथ-साथ माहेश्वर तथा पाशुपत संप्रदायों का भी इस समय देश में प्रचार था । इस समय अनेक विदेशी भी हिन्दू धर्म को ग्रहण करने लगे थे । परन्तु स्वयं ब्राह्मण धर्म के पोषक होते हुए भी शुंग नरेश अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं थे ।

उन्होंने बौद्ध मतावलम्बियों को भी पर्याप्त सुविधा प्रदान किया था । स्वयं दिव्यावदान का ही कथन है कि उन्होंने कुछ बौद्धों को अमात्य के पद पर नियुक्त किया था । बौद्ध भिक्षुओं के ऊपर अत्याचार अपवादस्वरूप ही किया गया अन्यथा यह काल धार्मिक सहिष्णुता का ही काल था ।


4. शुंग काल की भाषा तथा साहित्य (Language and Literature during Sungian Period):

शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ । इस वंश के राजाओं ने संस्कृत को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया और अब संस्कृत काव्य की भाषा न रहकर लोकभाषा के रूप में परिणत हो गयी ।

संस्कृत के पुनरुत्थान में महर्षि पतंजलि का प्रमुख योगदान था । उन्होंने संस्कृत भाषा का स्वरूप स्थिर करने के लिए पाणिनि के सूत्रों पर एक “महाभाष्य” लिखा । पतंजलि ने ऐसे लोगों को शिष्ट बताया है जो बिना किसी अध्ययन के ही संस्कृत बोल लेते हैं ।

महाभाष्य में एक स्थान पर एक वैयाकरण (व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता) तथा सारथि के बीच वाद-विवाद का बड़ा ही रोचक प्रसंग आया है जो ‘सूत’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विवाद करते हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उस समय सारथि भी अच्छी संस्कृत बोल लेता था ।

महाभाष्य के अतिरिक्त मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप संभवतः इसी युग में रचा गया था । कुछ विद्वानों के अनुसार शुंगों के समय में ही महाभारत के शान्तिपर्व तथा अश्वमेधपर्व का भी परिवर्द्धन हुआ ।


5. शुंग काल की कला एवं स्थापत्य (Art and Architecture during Sungian Period):

शुंग नरेशों का शासन-काल, कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये भी विख्यात है । जैसा कि हम मौर्य-कला के प्रसंग में देख चुके हैं कि वह एक दरबारी-कला थी जिसका प्रधान विषय धर्म था । परन्तु शुंग कला के विषय धार्मिक जीवन की अपेक्षा लौकिक जीवन से अधिक सम्बन्धित हैं ।

इस समय की कलाकृतियों में जो विविध चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं उनसे तत्कालीन मध्य-भारत के जन-जीवन को समझने में काफी मदद मिलती है । शुंग कला मौर्य कला की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के मनुष्यों के मस्तिष्क, परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर सकने में अधिक समर्थ है ।

इसका प्रधान विषय आध्यात्मिक अथवा नैतिक न होकर पूर्णतया मानव जीवन से सम्बन्धित है । शुंग कला के उत्कृष्ट नमूने मध्य-प्रदेश के भरहुत, साँची, बेसनगर तथा बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं ।

i. भरहुत स्तूप:

शुंग कला के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं । स्तूप वास्तु का वर्णन मौर्यकालीन कला के प्रसंग में किया जा चुका है । भरहुत (सतना के समीप) में इस समय एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था ।

इसके अवशेष अपने मूल स्थान पर आज नहीं है, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तथा एक तोरण भारतीय संग्रहालय कलकत्ता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है । इसके कुछ अवशेष भारतीय कला भवन वाराणसी तथा सतना जिले के रामवन संग्रहालय में भी रखे गये हैं ।

स्तूप के दो खण्ड प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय बम्बई में भी विद्यमान हैं । 1873 ई. में कनिंघम महोदर ने इस स्तूप को खोज निकाला था । उस समय यह पूर्णतया नष्ट हो चुका था तथा केवल इसका एक भाग (10 फुट लम्बा तथा 6 फुट ऊंचा) ही अवशिष्ट रह गया था ।

भरहुत स्तूप का निर्माण पक्की ईंटों से हुआ था तथा नींव पत्थर की सुदृढ़ बनी थी । स्तूप को चारों ओर से घेरने वाली गोलाकार वेदिका पूर्णतया पाषाण-निर्मित थी जिसमें संभवतः चार तोरणद्वार लगे थे ।

इस वेदिका में लगभग 80 स्तम्भ थे जिनके ऊपर उष्णीश बैठाये गये थे । दो स्तम्भों के बीच में तीन-तीन पड़े पत्थर लगे हुए थे जिन्हें ‘सूची’ कहा गया है । वेदिका का सम्पूर्ण गोल घेरा 330 फुट के आकार में बना था ।

स्तूप तथा वेदिका के बीच की भूमि में प्रदक्षिणापथ बना हुआ था । स्तम्भों के बीच में चक्र तथा ऊपर-नीचे अर्धचक्र बनाये गये थे । इन्हें विविध फूलपत्तियों विशेषकर कमलदल से सुसज्जित किया गया था । भरहुत स्तूप मूलतः ईंट-गारे की सहायता से अशोक के समय में बनवाया गया लेकिन इसकी पाषाण वेदिका तथा तोरणों का निर्माण शुंगों के काल (दूसरी शती के पूर्वार्ध) में हुआ ।

स्तूप के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण लेख में शुंग शासक धनभूति का उल्लेख मिलता है । भरहुत स्तूप की वेदिका, स्तम्भ तथा तोरणपट्टों पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ एवं चित्र महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं तथा मनोरंजक दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

एक चित्र मायादेवी के स्वप्न से संबंधित है जिसमें श्वेत हाथी आकाश मार्ग से उतर कर उनके गर्भ में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है । इसे अवक्रान्ति कहा गया है । साथ ही साथ इन पर यक्ष, नाग, लक्ष्मी, राजा, सामान्य पुरुष, सैनिक, वृक्ष, बेल आदि अलंकारिक प्रतीक भी उत्कीर्ण मिलते हैं ।

इन चित्रों के नीचे लेख खुदे हुये हैं जिनसे उनका समीकरण स्थापित करने में पर्याप्त मदद मिलती है । यक्ष-यक्षिणियों में कुपिरो (कुबेर), वरुढक, सुपवश, सुचिलोम, अजकालक, सुदर्शनायक्षी, चूतकोका यक्षी, चन्द्रा यक्षी, सिरिमा (श्री माँ) देवता आदि की आकृतियाँ खुदी हुई हैं ।

एक चित्र में जल से निकलते हुए एरापत नागराज को परिवार सहित बोधिवृक्ष की पूजा करते हुए दिखाया गया है । इसी प्रकार अलम्बुसा, मिश्रकेशी, सुदर्शना तथा सुभद्रा, इन चार अप्सराओं की प्रतिमायें उनके नाम सहित उत्कीर्ण हैं ।

भरहुत के तोरणों की एक विशेषता यह है कि उनकी बड़ेरियों के दोनों गोल सिरों पर मगरमच्छ की आकृतियाँ बनी हुई हैं जिनके मुँह खुले हुये हैं तथा पूंछ गोलाकार है । सबसे ऊपर की बड़ेरी के बीच में एक बड़ा धर्मचक्र स्थापित था तथा उनके दोनों ओर दो त्रिरत्न चिह्न लगाये गये थे । तोरण वेदिका के ऊपर कुछ ऐतिहासिक चित्र भी अंकित हैं ।

जैसे एक दृश्य में कोशलनरेश प्रसेनजित को रथ में बैठे हुए तथा दूसरे दृश्य में मगधनरेश अजातशत्रु को भगवान बुद्ध की वन्दना करते हुये दिखाया गया है । इसमें बुद्ध की मूर्ति कहीं नहीं मिलती, अपितु उनका अंकन स्तूप, धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, चरणपादुका, त्रिरत्न आदि प्रतीक चिह्नों के रूप में मिलता है ।

समग्र रूप से ये विविध चित्र धार्मिक विचारों एवं विश्वासों, वेष-भूषा, आचार-व्यवहार आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उनका अंकन अत्यन्त सरल एवं प्रभावपूर्ण है । इन सभी दृश्यों में मानव जीवन की प्रफुल्लता एवं खुशहाली के दर्शन होते हैं ।

बोधगया:

बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों ओर एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है । इसका निर्माण भी शुंग काल में हुआ था । इस पर भी भरहुत के चित्रों के प्रकार के चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं ।

इन उत्कीर्ण चित्रों में कमल, राजा-रानी, पुरुष, पशु, बोधिवृक्ष, छत्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष आदि प्रमुख हैं । मानव आकृतियों के अंकन में कुछ अधिक कुशलता दिखाई गयी है । एक स्तम्भ पर शालभंजिका तथा दूसरे पर इन्द्र का चित्र उत्कीर्ण है । इसी प्रकार रथारूढ़ सूर्य तथा श्रीलक्ष्मी का अंकन भी मिलता है । छछन्त, पदकुसलमाणव, वेस्सन्तर, किन्नर आदि जातक ग्रन्थों से ली गयी कथाओं को भी उत्कीर्ण किया गया है ।

अनेक काल्पनिक पशुओं (ईहा, मृगों), जैसे सपक्ष सिंह, अश्व तथा हाथी, नरमच्छ, वृषभ, बकरे, भेड़ मगरमच्छ आदि का अंकन है । एक स्तम्भ पर गजमच्छ पर सवार पुरुष तथा सिंहमुख मगरमच्छ की मूर्ति बनी है । सभी रचनायें अत्यन्त कलापूर्ण हैं ।

ii. साँची का स्तूप:

साँची की पहाड़ी रायसेन (म. प्र.) जिला मुख्यालय से 25 कि. मी. की दूरी पर ऐतिहासिक नगरी विदिशा के समीप स्थित है । यहाँ पर तीन रूपों का निर्माण हुआ है । एक विशाल तथा दो छोटे स्तूप हैं ।

महास्तूप में भगवान बुद्ध के, द्वितीय में अशोककालीन धर्मप्रचारकों के तथा तृतीय स्तूप में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों-सारिपुत्र तथा महामोद्ग्ल्यायन के धातु अवशेष सुरक्षित हैं ।

महास्तूप का निर्माण अशोक के समय में ईंटों की सहायता से हुआ था तथा उनके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी । परन्तु शुंग काल में उसे पाषाण पटियाओं से जड़ा गया तथा वेदिका भी पत्थर की ही बनाई गयी ।

स्तूप का व्यास 126 फुट तथा उसकी ऊंचाई 54 फुट कर दी गयी जिससे इसका आकार पहले से दुगुना हो गया । सातवाहन युग में वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण लगा दिये गये । महास्तूप में तीन मेधियां थीं जो भूमितल, मध्य भाग तथा हर्मिका पर थीं । इसका अण्ड उल्टे कटोरे की आकृति का है । मध्य की मेधि भूमि से 16 फीट ऊंची है । इस पर बीच का प्रदक्षिणापथ बना हुआ था ।

भूमितल पर स्तूप के चतुर्दिक् पत्थर का फर्श है जिस पर गोल वेदिका है । वेदिका सादी तथा अलंकरणरहित है । इस प्रकार यह भरहुत की वेदिका से भिन्न है । इसके स्तम्भ, सूची तथा उष्णीशों पर भी किसी प्रकार का अलंकरण नहीं है ।

वस्तुतः यहाँ के तोरण अत्यन्त सुन्दर, कलापूर्ण एवं आकर्षक हैं और वे कला के इतिहास में अपनी सानी नहीं रखते । तोरण महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों से परिपूर्ण हैं तथा उन्हें नीचे से ऊपर तक अलंकरणों से सजाया गया है ।

‘वे अपनी वास्तु से अधिक उत्कीर्ण अलंकरणों के लिये ही प्रसिद्ध हैं ।’ लगभग 34 फुट ऊँचे इन तोरण में दो सीधे स्तम्भ लगे हैं । उन पर तीन मेहराबदार बड़ेरियाँ लगाई गयी हैं जो एक दूसरे के ऊपर समतलीय रूप से रखी हुई हैं ।

स्तम्भों के ऊपर चौकोर चौकियाँ हैं जिन पर बौने, हाथी, बैल या सिंह की प्रतिमायें उत्कीर्ण मिलती हैं । स्तूप के तोरणों पर विविध प्रकार की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । बड़ेरियों पर अलग से सिंह, हाथी, धर्मचक्र, यक्ष तथा त्रिरत्न के चित्र खुदे हुये हैं ।

स्तम्भों के निचले भाग में दोनों ओर द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ हैं । स्तम्भ तथा नीचे की बड़ेरी के बाहरी कोनों में सघन वृक्षों के नीचे शाखाओं का सहारा लेकर भंगिमापूर्ण मुद्रा में खड़ी हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ हैं जिन्हें ‘शालभंजिका’ कहा गया है । ये अत्यन्त आकर्षक हैं ।

शालभंजिका मूर्तियाँ तीनों बड़ेरियों के चौकोर किनारों पर बनी हुई गजलक्ष्मी मूर्तियों के पार्श्व भाग में भी बनाई गयी हैं । अन्तिम सिरों पर स्तूप-पूजा, वृक्ष-पूजा, चक्र-पूजा के दृश्यों के साथ ही साथ हाथी, मृग, कमलवेलि, पीपल आदि अनेक आकृतियाँ खुदी हुई हैं ।

बुद्ध के जीवन से संबंधित विविध दृश्यों का अंकन साँची शिल्प में भरहुत की अपेक्षा अधिक मिलता है । शिल्पी ने उनके अलौकिक कमी, जैसे- आकाश गमन, जल संतरण, काश्यप आश्रम में जल और अग्नि में प्रवेश आदि की उकेरी में अधिक रुचि दिखाई है ।

ऐतिहासिक दृश्यों में मगध नरेश अजातशत्रु अथवा कोशल नरेश प्रसेनजित का बुद्ध के दर्शन हेतु आना, शुद्धोधन का नगर के बाहर निकलकर बुद्ध का स्वागत करना, अशोक का वोधिवृक्ष के पास जाना आदि का अंकन मिलता है । बुद्ध के जीवन की घटनाओं को विविध प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया गया है ।

बोधिवृक्ष, धर्मचक्र तथा स्तूप पूजा के दृश्यों को बारम्बार उत्कीर्ण किया गया है । ये क्रमशः ज्ञानप्राप्ति, प्रथमोपदेश तथा महापरिनिर्वाण के प्रतीक हैं । आसन, त्रिरत्न, पदचिह्न आदि का भी अंकन मिलता है । ये सभी अंकन अत्यन्त उत्कृष्ट एवं कलापूर्ण हैं ।

iii. साँची का द्वितीय स्तूप:

साँची के द्वितीय स्तूप का वास्तु भी महास्तूप के ही समान है । इसमें कोई तोरण-द्वार नहीं है । इसकी वेदिका पर बहुसंख्यक उत्कीर्ण चित्र मिलते हैं । इसमें तीन वेदिकायें थी- एक भूमितल पर, दूसरी मध्य में तथा तीसरी हर्मिका पर ।

भूमितल की वेदिका उत्कीर्ण चित्रों से भरपूर है जबकि महास्तूप के भूमितल की वेदिका पर कोई अलंकरण नहीं मिलता यह बिल्कुल सादी है । इस पर प्रायः वे सभी दृश्य उत्कीर्ण हैं जो महास्तूप के तोरणों पर मिलते हैं ।

इसमें बुद्ध के जीवन से संबंधित चार दृश्यों- जन्म, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्त्तन तथा महापरिनिर्वाण का अंकन प्रमुख है जिन्हें चार प्रतीकों- पद्‌म, पीपल वृक्ष, चक्र तथा स्तूप के माध्यम से उत्कीर्ण किया गया है । साथ ही साथ त्रिरत्न, श्रीवत्स, सिंहध्वज, गजस्तम्भ आदि का अंकन भी मिलता है । इन अलंकरणों के कारण यह स्तूप सम्पूर्ण भारतीय कला के इतिहास में महत्वपूर्ण हो जाता है ।

iv. साँची का तृतीय स्तूप:

तृतीय स्तूप में केवल एक ही तोरणद्वार बना है । यह अपेक्षाकृत बाद की रचना है तथा उत्कीर्ण अलंकरणों से युक्त है । इसकी वेदिका पर भी सुन्दर उकेरी की गई है । मालाधारी यक्ष-मूर्तियों के साथ-साथ यहाँ स्तूप-पूजा, बोधिवृक्ष-पूजा, चक्र, स्तम्भ, गजलक्ष्मी, नाग, अश्व, हाथी आदि के दृश्यों का अंकन अत्यन्त आकर्षक एवं कलात्मक ढंग से किया गया है ।

इस प्रकार साँची के तीनों स्तूप सुरक्षित अवस्था में हैं तथा भारत के बौद्ध स्मारकों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं । उन पर की गयी नक्काशी भारतीय मूर्तिकार की नवीनतम एवं महानतम रचना है ।

तत्कालीन समाज की बहुरंगी झांकी इनमें सुरक्षित है । प्राचीन भारतीय वेशभूषा के ज्ञान के लिये भी साँची की कलाकृतियों बड़ी उपयोगी हैं । ईस्वी सन् के प्रारम्भ एवं उसके पूर्ववर्ती समाज के भारतीय जन-जीवन का ये दर्पण है ।

v. स्तम्भ:

इसके अन्तर्गत बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त हेलियोडोरस के गरुड़स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है जिसे जनरल कनिंघम ने 1877 ई. में खोज निकाला था । इसके पूर्व समीपवर्ती गाँवों के निवासी इसकी पूजा किया करते थे ।

शिल्प कला की दृष्टि से यह स्तम्भ अत्यन्त सुन्दर तथा हिन्दू धर्म से संबंधित प्रथम प्रस्तर स्तम्भ है । इसका घुरा आधार पर अठपहला है तथा यह एकाश्मक रचना है ।

इसके मध्य भाग तथा ऊपरी भाग में क्रमशः उन्नीस और बत्तीस किनारे हैं । शीर्ष भाग घण्टे के आकार का है । सबसे ऊपर मुकुट के समान ताड़ के पत्तों का अलंकरण है । सम्पूर्ण निर्माण कलापूर्ण एवं आकर्षक है ।

शुंगकाल में ही शोडास के शासनकाल में मथुरा में शैल देवगृह तथा चतु:शाल तोरण बनाये गये । इस काल का एक दूसरा केन्द्र नगरी (चित्तौड़ के पास) नामक स्थान पर है जहाँ नारायणवाटक अथवा संकर्षणवासुदेव का खुला देवस्थल निर्मित कर उसके चारों ओर शिलाप्राकार (पत्थर की वेदिका) बनाई गयी ।

यह 9.6 फीट ऊंचा था । इसका निर्माता ‘सर्वतात’ नामक प्रतापी राजा था । भण्डारकर की मान्यता है कि यह संभवतः कण्ववंश से संबंधित था जो शुंगों के उत्तराधिकारी थे । हिन्दू मन्दिर का आदि रूप इस ‘पूजा शिलाप्राकार’ में दिखाई देता है ।

vi. मृण्मूर्तियाँ:

उपर्युक्त कलाकृतियों के अतिरिक्त शुंग काल की बहुसंख्यक मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने विभिन्न स्थलों से प्राप्त होते हैं । सबसे अधिक संख्या में मूर्तियाँ कौशाम्बी से प्राप्त हुई है । पत्थर की मूर्तियाँ काफी कम मिलती है ।

उन्हें साँचे में ढालकर तैयार किया गया है । वस्तुतः कुम्भकारों ने मूर्ति बनाने के लिये सोचे का प्रयोग सर्वप्रथम शुंगकाल में ही किया । कौशाम्बी से प्राप्त सैकड़ों मूर्तियों इलाहाबाद संग्रहालय तथा विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित हैं ।

कलाविद् डॉ. एस. सी. काला ने इनका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है । यहाँ की मृण्मूर्तियों में सर्वाधिक सुन्दर एवं कलात्मक मिथुन (दम्पति) मूर्तियाँ हैं । एक ठीकरे पर बना हुआ आपान गोष्ठी का दृश्य उल्लेखनीय है जिसमें स्त्री-पुरुष आमने-सामने बेंत की कुर्सी पर बैठे हुए हैं ।

इसके अतिरिक्त विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां मिलती हैं । लीला कमल हाथ में लिये स्त्री, हंसती हुई नर्तकी तथा श्रीलक्ष्मी की मूर्तियाँ काफी प्रसिद्ध हैं । कौशाम्बी से श्रीलक्ष्मी की कई मृण्मूर्तियाँ मिली हैं । एक मूर्ति, जो ऑक्सफोर्ड के भारतीय संग्रहालय में रखी गयी है, के सिर पर कमल पुष्प का गुच्छा है तथा दोनों ओर मांगलिक चिह्न बनाये गये हैं । इनसे उसका देवी होना सूचित होता है । इसे ‘सौन्दर्य की देवी श्रीलक्ष्मी’ कहा गया है ।


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