ब्रिटिश शासन के दौरान राष्ट्रवाद का उदय | Rise of Nationalism during British Rule.

किसानों के ऊपर उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध के विपरीत शीर्ष के संगठित स्तर पर भारत में राष्ट्रवाद का उदय उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में हुआ । अकसर तर्क दिया जाता है कि राष्ट्रवाद के उत्थान को उद्योगीकरण नगरीकरण और मुद्रण-पूंजीवाद से बढ़ावा मिला ।

जैसा कि बेनेडिक्ट एंडरसन (1983) का कथन है ऐसा माना जाता है कि एशिया और अफ्रीका के विकासशील जगत में राष्ट्रवाद का विकास पश्चिम में विकसित इस या उस मॉडल की तर्ज पर हुआ । अपने स्वयं के इतिहास को निर्धारित करने में एशिया की जनता को बौद्धिक शक्ति से वंचित माननेवाले इस सिद्धांत की हाल में अनेक वैचारिक दृष्टिकोणों से आलोचना हुई है ।

उदाहरण के लिए पार्थ चटर्जी का तर्क यह है कि अगर निमित्त कारण का निर्धारण और हमारे भाग्य का निश्चय पश्चिम ने किया और उपनिवेशी व्यवस्थाओं के विरुद्ध हमारे प्रतिरोध के रूप भी हमारी और से उसी ने सोचे तो फिर हमारे पास सोचने के लिए भला रहा क्या ?

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इसलिए उनका तर्क यह है कि सत्ता के लिए राजनीतिक संघर्ष के आरंभ से बहुत पहले ही भारतीय समाज एक निजी सांस्कृतिक क्षेत्र में अपने राष्ट्रत्व की कल्पना करने लगा था भले ही राज्य तब उपनिवेशकों के हाथों में था ।

इसी जगह आकर उसने प्रभुसत्ता के अपने स्वयं के क्षेत्र के बारे में सोचा और ऐसी भारतीय आधुनिकता का निर्माण किया जो आधुनिक तो थी पर पाश्चात्य नहीं थी । यहीं से अर्थात् उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में स्वतंत्रता के लिए एक क्षेत्र के इसी सांस्कृतिक निरूपण से भारतीय राष्ट्रवाद के कार्यकलापों का आरंभ हुआ ।

दूसरी ओर सी.ए. बेइली के अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद उपनिवेश-पूर्व काल में ही जड़ पकड़ने लगा था; इसका जन्म उनके शब्दों में ”पारंपरिक देशभक्ति” से हुआ जो ”भूमि भाषा और पंथ से लगाव की एक सामाजिक स्तर पर सक्रिय भावना थी” और उपमहाद्वीप में इस भावना का विकास पश्चिमीकरण (पढ़ें: आधुनिकीकरण) की प्रक्रिया के आरंभ से बहुत पहले हुआ ।

अठारहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के भारत में क्षेत्रीय आधार पर ऐसी भावनाओं का विकास होने लगा था जब जन्मभूमि की परिभाषा देश वतन या नाडु के रूप में की जाने लगी थी तथा क्षेत्रीय भाषाओं और धार्मिक संबद्धताओं के विकास के साथ धीरे-धीरे पहचानों का निर्माण होने लगा था ।

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लेकिन बंगाल, महाराष्ट्र, अवध या मैसूर में केंद्रित होकर भी संचार के विभिन्न साधनों के कारण उनका अलगाव भंग हुआ । मुगल साम्राज्य की राजनीतिक वैधता पूरे हिंदुस्तान में स्वीकार की जाती थी जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों का देश समझा जाता था तथा सांस्कृतिक बाधाएँ व्यापार और नियमित तीर्थयात्राओं के कारण हवा हो जाती थीं ।

बेइली का कथन यह है कि जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना वर्चस्व स्थापित किया तो यह पारंपरिक देशभक्ति सुशासन की सुस्थापित नैतिक परंपराओं से भटक चुके विदेशी राज की विभिन्न प्रकार की देसी समालोचनाओं में और ईसाई मिशनरियों के प्रचार के विरुद्ध कुद्ध प्रतिक्रियाओं में व्यक्त हुई ।

आखिरी बात यह कि वह प्रतिरोध की अनेक कार्रवाइयों में फूटकर सामने आई जिनमें राजाओं और साधारण जनता दोनों ने भाग लिया और जिनका चरम उत्कर्ष 1857 का विद्रोह था । विद्रोह के बाद भारत में शिक्षा के तीव्र प्रसार रेल और तार जैसी संचार व्यवस्थाओं के विकास तथा उपनिवेशी संस्थाओं के कारण उत्पन्न सार्वजनिक कर्मक्षेत्र के कारण धीरे-धीरे राजनीति का एक आधुनिक स्वरूप सामने आया ।

इस दौर में हालांकि ”पुराना देशप्रेम” पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ फिर भी अगर हम इस मुद्दे पर फिर से पार्थ चटर्जी की बात याद करें तो उसे नए सिरे से ढालकर एक ऐसी नई उपनिवेशी आधुनिकता पैदा की गई जो पश्चिम की आधुनिकता से भिन्न थी ।

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यहाँ हम बहुत संक्षेप में उस जटिल और निरंतर जारी रूपांतर की प्रक्रिया को सामने रखेंगे जिसने सभी क्षेत्रीय स्थानीय और विखंडित पहचानों को एक आधुनिक ‘राष्ट्र’ में गूँथने की कोशिश की हालाकिं यह गुँथाई हमेशा ही गाँठों से रहित नहीं रही । 1857 के बाद का भारतीय राजनीतिक इतिहास अर्थात् उस समय का इतिहास जब उपनिवेशी व्यवस्था के साथ राजनीतिक टकराव कुछ अधिक आधुनिक संस्थाबद्ध सार्वजनिक कर्मक्षेत्र में आरंभ हुआ बहुआयामी है ।

पहली बात तो यह है कि 1857 के बाद उपनिवेशवादी नीतियों में एक रूढ़िवादी प्रतिक्रिया का समावेश हुआ । भूस्वामी कुलीनों का पुनर्वास करने और उन्हें मजबूत बनाने के प्रयास किए गए क्योंकि वे जनता के ”स्वाभाविक” नेता समझे जाते थे ।

अकेले वही ”जनता की वफादारी पा सकते” थे और इसलिए वे ही एक कमजोर उपनिवेशी राजसत्ता के विश्वसनीय सहयोगी हो सकते थे । इस नई साम्राज्यिक समाज व्यवस्था में देशी राजाओं को 1877 के उस शाही दरबार में प्रमुखता का पद दिया गया था जिसमें महारानी विक्टोरिया ने भारत की साम्राज्ञी का पद धारण किया और जिसे तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड लिटन ने देश के कुछ भागों में अकाल के बावजूद बड़े तड़क-भड़क के साथ आयोजित किया था ।

उनके अलावा अब बड़े जमींदार भी उपनिवेशी प्रशासन के ढाँचे में एक प्रमुख भूमिका निभाने लगे । 1851 में कलकत्ता में स्थापित ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन भारत का वह पहला बड़ा स्वयंसेवी संगठन था जो स्थानीय जमींदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करता था ।

यह 1861 के उस इंडियन काउंसिल ऐक्ट के बाद एक बड़ी भूमिका निभाने लगा जिसमें विधायिकाओं (लेजिस्लेटिव काउंसिलों) में भारतीयों को सीमित प्रतिनिधित्व दिया गया था । अकसर लेजिस्लेटिव काउंसिलों में इस संगठन के सदस्य मनोनीत किए जाते थे और उनका प्रभुत्व तब तक जारी रहा जब तकृ 1892 के कानून ने सीमित चुनावों की एक प्रणाली का आरंभ नहीं किया ।

लेकिन भले ही इस संगठन पर ”पुराने” तत्त्वों का वर्चस्व जारी रहा यह अनेक अर्थों में नया भी था और इसने कुछ नई भूमिकाएँ भी निभाईं । उदाहरण के लिए अपने पूर्ववर्ती लैंडहोल्डर्स सोसायटी के विपरीत जिसके सदस्यों में अनेक गैर-सरकारी एंग्लो-इंडियन भी शामिल थे ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की सदस्यता शुद्ध रूप से भारतीय थी ।

इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर के नवीनीकरण से पहले भारतीय प्रजा की वैध माँगों को व्यक्त करने के उद्देश्य से ब्रिटिश संसद को प्रार्थनापत्र भेजने के लिए बनाया गया था । आरंभ में उसने बंबई और मद्रास में शाखाएँ खोलकर इस बारे में तीनों प्रेसिडेंसियों के प्रयासों को समन्वित करने की कोशिशें की । लेकिन अंतत: रास्ते में क्षेत्रीय बाधाएँ आ खड़ी हुईं क्योंकि इसी उद्देश्य से 1852 में मद्रास नेटिव एसोसिएशन और बॉम्बे एसोसिएशन की स्थापना हो गई ।

तीनों प्रेसिडेंसिया के एसोसिएशनों ने लंदन कं लिए तीन अलग-अलग प्रार्थनापत्र भेजे लेकिन दिलचस्प बात यह है कि तीनों ने लगभग मिलती-जुलती माँगे उठाई । वे चाहते थे अपने देश के प्रशासन मैं और अधिक भागीदारी और उन्होंने शासन की उलझन भरी ”दोहरी प्रणाली” महँगे और निकम्मे प्रशासन जनता की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील कानूनों भारी करों नमक और अफ़ीम के एकाधिकार तथा शिक्षा और लोकनिर्माण की उपेक्षा के विरुद्ध शिकायतें कीं ।

वे स्वयं में ब्रिटिश राज के विरुद्ध नहीं थे पर समझते थे कि जैसा कि कलकत्ता वाले ज्ञापन में स्पष्ट कर दिया गया था उनको ब्रिटेन के साथ अपने मंबंधों से उस सीमा तक लाभ नहीं मिला है जिस सीमा तक उन्हें पाने का अधिकार हें ।

इस तरह भूस्वामी कुलीन वर्ग के शिक्षित सदस्य जो इन संगठनों की अगुवाई करते थे भारतीय राजनीति के एक आधुनिक कर्मक्षेत्र के विकास में योगदान दे रहे थे । लेकिन लंदन में बैठे अधिकारियों ने उनके चार्टर संबंधी आंदोलन को ”लगभग अपमानजनक उपेक्षा” के साथ रह कर दिया; जैसा कि मेहरोत्रा का कथन है 1853 के नए भारत मरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ्र इंडिया ऐक्ट) ने उनकी किसी भी माँग को शामिल नहीं किया ।

कारण कि राज को अपने लिए सबसे गंभीर खतरा शिक्षित भारतवासियों से ही बल्कि अनपढों और गंवारों से लग रहा था जो कि एक विडंबना की बात थी । जमींदारों और शिक्षित भारतवासियों की ब्रिटिश राज में असंदिग्ध निष्ठा की इस सरकारी मान्यता का आधार यह था कि ये वर्ग ब्रिटिश राज की दैवी प्रकृति में आस्मग घोषणा करते थे और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के किसान विद्रोहों के प्रति अपमान का रवैया अपनाते थे जैसे, उन्होंने बाद में 1857 के दिद्रोह की निंदा की । लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह एक गलत धारणा थी । क्योंकि राज के प्रति वफ़ादारी के पीछे अपनी अधीनता की अवस्था से जुड़े तिरस्कार की चेतना भी बढ़ रही थी ।

1857 के विद्रोह के दौरान कलकत्ता के पढ़े-लिखे लोगों ने वफ़ादारी का जो बेशर्म प्रदर्शन किया था उसके साथ एक दुविधा का भाव भी जुड़ा हुआ था । अपने एक अंत दशा संपादकीय में हिर्दू पैट्रियट ने यही लिखा था, ”यह वफ्रादारी…दिल से अधिक दिमाग से उपजती है ।”

कलकत्ता के बुद्धिजीवियों ने उन्नीसर्वी सदी के आरंभिक वर्षो से ही जिनको वे उपनिवेशी राज के कुछ अवांछित पहलू मानते थे उनकी आलोचना करनी शुरू कर दी थी । शक्तियों के पृथक्करण प्रेस की स्वतंत्रता जूरी द्वारा मुकदमों की सुनवाई और सरकारी सेवाओं के भारतीय-करण जैसी माँगों पर एक हलका-सा संवैधानिक आंदोलन तो राजा राममोहन राय ने ही आरंभ कर दिया था इनमें से अनेक मुद्दों को बाद में यंग बंगाल के सदस्यों ने अपना लिया ।

1841 में अल्पजीवी देशहितैषिणी सभा की एक बैठक में शारदाप्रसाद घोष नाम के एक नवयुवक देरोजियन ने चिंता के साथ कहा था कि ”राजनीतिक स्वाधीनता के उपभोग से हमारा वंचित होना ही हमारी बदहाली और पतित अवस्था का कारण है ।”

द्वारकानाथ ठाकुर की पिछली पीढ़ी ने नस्लों की साझी भागीदारी पर आधारित एक साम्राज्य की जो अकाल-परिपक्व (Precocious) छवि मन में बनाई थी उसे तथाकथित ”काले कानूनों” से संबंधित विवाद निर्ममता से कुचल दिया जिनमें प्रस्ताव किया गया था कि ब्रिटेन में जन्मे नागरिकों को साधारण अदालतों की फ्रौजदारी न्याय व्यवस्था के अंतर्गत लाया जाए जिनसे वे अभी तक मुक्त थे ।

यह कानून 1850 में पारित हुआ था, मगर गोरों के विद्रोह के भय से स्थगित रखा गया था । लेकिन उस पर केंद्रित विवाद ने उपनिवेशी समाज के दोनों नस्ली तत्त्वों के बीच एक दरार डाल ही दी । उसी साल मद्रास नागपुर और कलकत्ता के हिंदुओं के एकजुट प्रतिरोध के बावजूद सरकार ने लेक्स लोकी कानून पारित कर ही दिया जिसमें ईसाई बननेवाले को अपनी पुश्तैनी संपत्ति पाने का अधिकार दिया गया था । बड़े पैमाने पर हिंदुओं का विश्वास था कि यह कानून ईसाईयत में धर्मातरण का रास्ता खोल देगा ।

बढ़ते नस्ली तनाव, धर्मातरण के डर और बेंथमवादी प्रशासकों के सुधारवादी उत्साह ने पढ़े-लिखे भारतवासियों को विवश कर दिया कि वे ठहरकर अपनी स्वयं की संस्कृति पर एक गहरी नजर डालें । इससे वह प्रक्रिया पैदा हुई जिसे बरनार्ड कोहन (1987) ने संस्कृति का ”विषयीकरण” (Objectification) कहा है, जिसमें शिक्षित भारतवासियों ने अपनी संस्कृति को ऐसी ठोस इकाई के रूप में निरूपित किया जिसका आसानी से उद्धरण दिया जा सके तुलना की तना सके उल्लेख दिया जा सके और विशेष उद्देश्यों से जिसका उपयोग किया जा सके ।

यह नई सांस्कृतिक परियोजना, जिसने अपने आपको अंशत: उन्नीसवीं सदी के सामाजिक और धार्मिक सुधारों के माध्यम से व्यक्त किया, उसका सूत्र शब्द ”पुनर्जागरण” (Renaissance) में निहित था । इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को ”शुद्ध” करना और इस तरह उसकी ”पुनर्खोज” करना था कि वह बुद्धिवाद अनुभववाद एकेश्वरवाद और व्यक्तिवाद के यूरोपीय आदर्शो से मेल खाए ।

इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि भारतीय सभ्यता किसी भी तरह पश्चिम की सभ्यता से हीन नहीं है बल्कि एक अर्थ में अपनी आध्यात्मिक सिद्धियों में उससे श्रेष्ठ भी है । एक श्रेष्ठतर राष्ट्रीय संस्कृति की इस खोज के साक्ष्य बंगला, मराठी, तमिल, तेलुगू और हिंदी के देशभक्तिपूर्ण क्षेत्रीय साहित्य के विकास मैं नए कला-रूपों के विकास में शास्त्रीय संगीत के शुद्धतर रूपों की तलाश में और स्त्रीत्व के नए आदर्शो की रचना में देखे जा सकते थे ।

इन सबको आधुनिक के रूप में पेश किया गया पर इनका आधार भारत के अतीत की आध्यात्मिक श्रेष्ठता को बनाया गया । दूसरे शब्दों में जैसा कि पहले कहा गया इस आंदोलन का उद्देश्य एक ऐसी ‘आधुनिक’ राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करना था जो फिर भी पाश्चात्य न हो ।

पश्चिम को भौतिकवादी संस्कृति के विपरीत भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक मूल में गर्व के इस भाव ने भारतवासियों को न केवल अपने निजी जीवन को पुनर्गठित और गरिमामय बनाने में मदद दी बल्कि इसकी वैचारिक प्रेरणा ने एक नए-नए पैदा हो रहे सार्वजनिक ऊर्मक्षेत्र में उपनिवेशी राजसत्ता का सामना करने के लिए उनको प्रेरित भी किया ।

दूसरे शब्दों में इसने उस आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को वैचारिक आधार भी प्रदान किया जा उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में विकसित हुआ । यह विचारधारा निश्चित ही अंतर्विरोधों से मुक्त नहीं थी क्योंकि आध्यात्मिक विरासत पर गर्व की यह भावना अकसर नीचे गिरकर अतीत के सभी रीति-रिवाजों का अनालोचनात्मक और पोंगापंथी समर्थक बन जाती थी ।

इससे भी अहम बात यह है कि जमा कि वसुधा डालमिया का तर्क है भारतीय परंपरा के इस उन्नीसवीं सदी वाले ने अब नए उपयोगों वाले प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में निहित भारतीय हिंदू परंपरा एक आदर्श रूप प्रस्तुत करने के लिए ”मुस्लिम शासन के लंबे दौर को उपेक्षित” देया ।

इसने एक ऐसी पहचान पैदा की जो एक ही समय में समावेशी (Inclusive) और असमावेशी (Exclusive) दोनों थी; उसने एक विदेशी शासन के विरोध में हिंदुओं को एकजुट किया मगर इस क्रम में मुसलमानों गैर-ब्राह्मणों और अछूतों को उनसे दूर दिया ।

हिंदू ”पुनरुत्थानवाद” कही जानेवाली, भारतीय राष्ट्रवाद की इस पहेली को, जिसे अकसर ”सांप्रदायिकता” की जन्मदाता समझा जाता है । भारतीय राष्ट्रवाद का विकास जैसा कि बेनेडिक्ट एंडरसन ने सोचा है उस  तरह से पश्चिमी प्रभावों का परिणाम न रहा हो लेकिन पश्चिमी शिक्षा की खेल्का फिर भी महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उसने उसके फलने-फूलने के लिए एक स्थ्यनात्मक लोक-संवाद को जन्म दिया ।

अगर इस शिक्षा का उद्देश्य पढ़े-लिखे के मन का उपनिवेशीकरण करना और उनमें वफादारी की एक भावना भरना ना इन भारतीयों ने भी उपनिवेशवाद के प्रति अपनी समालोचना तैयार करने के लिए च्च्त्र के इस ज्ञान का चयनित उपयोग और उसमें फेरबदल किया ।

लेकिन भारतवासियों मन्न समहों में इस आलोचनात्मक चेतना के स्तर अलग-अलग थे, क्योंकि स्वयं शिक्षा का प्रसार अत्यंत असमान था । भारत में उच्च शिक्षा का तेजी से प्रसार तब शुरू हुआ जब 1857 में तीनों प्रेसिडेंसियों में विश्वविद्यालय स्थापित किए गए और 1882 में शिक्षा एक मुक्त उद्यम (Free Enterprise) बन गई ।

कला और व्यावसायिक शिक्षा के महाविद्यालयों में छात्रों की संख्या 1874 में 4499 थी जो चारगुनी बढ़कर 1894 में 18,571 हो गई । शिक्षारत छात्रों की कुल संख्या 1896-97 में 40 लाख से थोड़ी-सी अधिक थी; 1920 तक यह संख्या दोगुनी से अधिक हो गई ।

लेकिन यह प्रसार अत्यंत असमान था और स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में राजनीतिक चेतना के असमान विकास से इसका संबंध था । जैसा कि उपलब्ध आकड़ों से संकेत मिलता है तीनों तटीय प्रेसिडेंसियों अर्थात बंगाल बंबई और मद्रास में शिक्षा का प्रसार उत्तर भारत के केंद्रीय क्षेत्रों से अधिक व्यापक था; ये क्षेत्र तीन प्रांतों अर्थात पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध पंजाब और मध्य प्रांत के रूप में गठित थे ।

प्रेसिडेंसियों में भी कुछ समुदाय दूसरों से अधिक उन्नत थे । बंगाल में उच्च शिक्षा पर भद्रलोक का एकाधिकार था जो मुख्यत: तीन ऊँची जातियों (ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्य) के लोग थे; बंबई में यह अधिकतर चितपावन ब्राह्मणों और पारसियों तक सीमित रही और मद्रास में तमिल ब्राह्मणों और आयंगरों तक ।

बंगाल में भी बंगाली लोग उडियाओं बिहारियों और असमियों से बहुत आगे थे; बंबई में मराठीभाषी क्षेत्र गुजरातीभाषी क्षेत्रों से आगे थे और मद्रास में तमिलभाषी क्षेत्र तेलुगु और मलयालम के क्षेत्रों से आगे बढ़ गए । हिंदू मुसलमानों से बहुत आगे थे और हिंदुओं में निचली जातियों और अछूतों का एक बड़ा भाग शिक्षा से वंचित रहा ।

जो लोग उच्च शिक्षा पाने गए वे मझोले दर्जे के या ह्रासमान कुलीनों में से थे जिनकी जमीन से आय कम होती जा रही थी और जो उन्हें आय के गौण स्रोतों की तलाश के लिए विवश कर रही थी । उनके लिए सुस्पष्ट विकल्प सरकारी नौकरी का था लेकिन इस क्षेत्र में जहाँ यूरोप और यूरेशिया वालों का प्रभुत्व एकदम स्पष्ट था भारतवासी निचले पदों तक ही सीमित रखे गए और कम वेतन पाते रहे । अध्यापन इंजीनियरिंग चिकित्सा और सबसे बढ़कर वकालत जैसे स्वतंत्र व्यवसाय उनके दूसरे वांछित विकल्प थे लेकिन यहाँ भी आपूर्ति जल्द ही माँग से आगे निकल गई ।

ऊपर बताई गई स्थिति ने निश्चित ही कुंठा को जन्म दिया और जैसा कि अनिल सील का तर्क है इसने विभिन्न समूहों और क्षेत्रों के बीच ”बढ़ती प्रतिस्पर्धा” की भावना पैदा की । लेकिन राष्ट्रवाद का जन्म केवल भौतिक कुंठा से नहीं हुआ और यह कहना कि प्रतिस्पर्धा एकता में बाधक बनी एक कहीं बहुत अधिक जटिल स्थिति को आसान बनाकर पेश करना है ।

शिक्षा के प्रसार की भिन्नता ने स्पष्ट है कि विभिन्न क्षेत्रों में राजनीतिक कार्यकलापों के स्तर पर प्रभाव डाला अर्थात् शिक्षा के उच्चतर स्तरों वाली प्रेसिडेंसियाँ प्रांतों के मुकाबले राजनीतिक दृष्टि से अधिक मुखर थीं । लेकिन ऐसा हुआ इस कारण से कि यहाँ पश्चिमी शिक्षा ने और भी बहुत-से छात्रों का संपर्क अनेक प्रकार के वैचारिक प्रभावों सै कराया ।

इस बात ने ऐसे आलोचनात्मक संवाद के। जान दिया जिसने उपनिवेशी राजसत्ता को कडी परीक्षा का निशाना बनाया । अगर अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ निष्ठा कपई भावना पैदा करने के लिए किया गया था तो ए.आर. देसाई के शब्दों में उसने भारत-वासियों का संपर्क ”आधुनिक पश्चिम के बुद्धिवादी और लोकतांत्रिक विचारों” से भी कराया ।”

ये विचार एक ऐसी वैचारिक समष्टि पैकेज के अंग बन गए जिसे दीपेश चक्रवर्ती ने ”राजनीतिक आधुनिकता” कहा है और इसमें ”नागरिकता राज्य नागरिक समाज सार्वजनिक कर्मक्षेत्र मानवाधिकार कानून के समक्ष समानता व्यक्ति सार्वजनिक और निजी का भेद प्रजा की अवधारणा लोकतंत्र जनता की प्रभुसत्ता सामाजिक न्याय वैज्ञानिक बौद्धिकता आदि” धारणाएँ शामिल थीं ।”

ऐसा नहीं था कि उपनिवेशी शासन ने अपनी प्रजा को ये सभी धारणाएँ सौंपी हों लेकिन उनको प्रगति के रास्ते के आदर्श मार्गसूचक चिह्नों के रूप में जरूर पेश किया गया । पढ़े-लिखे भारतवासियों ने अब इन्हीं विचारों का उपयोग एक निर्मम और दंभी उपनिवेशी राजसत्ता की समालोचना करने के लिए किया तथा भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में एक देशभक्तिपूर्ण भावात्मक आस्था के साथ मिलकर इस समालोचना ने उन्हें राष्ट्रवाद के सचेतन सिद्धांत तैयार करने में मदद दी ।

जून 1857 में हिदूं पैट्रियट ने भारतवासी को ”मन और ज्ञान के मामले में…इतना शक्तिशाली” करार दिया कि वह ”अपनी नागरिकता के अधिकार का दावा पेश कर सके ।” 5 जुलाई, 1878 में इंडियन मिरर ने और भी जोरदार घोषणा की कि ”हम भारत में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं ।”

उसी साल सितंबर में कलकत्ता की एक आम सभा और भी स्पष्टवादी साबित हुई; उसके प्रस्ताव ने दोटूक शब्दों में ”ब्रिटिश नागरिकता के अधिकारों के बारे में इस देश की जनता के दावों को सामने रखा ।” उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में भारतीय देशभक्त साम्राज्य से अपने संबंध को चुनौती नहीं देते थे ।

लेकिन महारानी की वफादार प्रजा धीरे-धीरे सजग नागरिक बनते हुए एक निरंकुश उपनिवेशी राज्य से अपने अधिकारों की माँग जरूर कर रही थी । तेजी से फैल रही मुद्रण संस्कृति ने ऐसे विचारों को पूरे उपमहाद्वीप में फैलाया; 1875 में भारतीय स्वामित्व वाले नगभग 400 समाचारपत्र थे जो अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं दोनों में छपते थे और उनका अनुमानित पाठकवर्ग 1,50,000 का था ।

जैसा कि एस.आर. मेहरोत्रा ने लिखा इन समाचारपत्रों ने ”अंदरूनी बाधाओं को दूर किया और अंतर्क्षेत्रीय एकजुटता को बढ़ावा दिया ।” उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में शिक्षित भारतवासियों के पास उपनिवेशी राज्य द्वारा झपने अधिकारों के हनन के प्रति चिंता करने के अनेक कारण थे ।

इसका आरंभ ईसाई-धर्मांतरण के आसन्न खतरों के साथ हुआ जिनको 1850 में पारित लेक्स लोकी ऐक्ट (Lex Loki Act) ने और बढ़ावा दिया; इस ऐक्ट ने धर्म बदलनेवाले के इस अधिकार को सुरक्षा दी कि वह अपनी पुश्तैनी संपत्ति पा सके लेकिन इससे भी अहम ज्ञान यह है कि 1860 और 1870 के दशकों में जब भारत के विभिन्न भाग एक के बाद एक प्राकृतिक विपदाओं और अकालों से जूझ रहे थे तब सरकार ने 1860 में एक त्रायकर भारतवासियों को इस राजस्व-आय के व्यय पर कोई नियंत्रण दिए बिना थोप दिया ।

1861 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट ने गवर्नर जनरल की काउंसिल में गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों की एक बहुत सीमित संख्या के शामिल किए जाने की व्यवस्था की लेकिन गवर्नर जनरल की पूर्व-अनुमति के बिना वे कोई विधेयक पेश नहीं कर सकते थे और सबसे बड़ी बात यह कि उसे वीटो का महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त था ।

भारी सष्ट्रव्यापी प्रतिरोधों के बाद इस आयकर को 1865 में वापस ले लिया गया लेकिन सभी व्यापारों और धंधों पर एक प्रतिशत के एक ”प्रमाणपत्र कर” (Certificate tax) के आवरण में उसे 1867 में चुपके से फिर थोपा गया ।

अगले साल इसे पूर्णरूपेण आयकर में फिर बदल दिया गया और इसकी दरें बढ़ते-बढ़ते 1870 में 3 1/8 (3.125) प्रतिशत हो गई । उसी साल एक और उपनिवेशी नीति ने शिक्षित भारतवासियों को आगबबूला कर दिया खासकर बंगाल में ।

जब आंग्ल-भारतीय प्रेस ने यह प्रचार शुरू किया कि उच्च शिक्षा केवल असंतोष और बैचैनी को जन्म दे रही है तब 31 मार्च, 1870 को एक प्रस्ताव के द्वारा सरकार ने बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के आवंटन में कटौती की बात कही जिसका कथित उद्देश्य देशी भाषाओं के माध्यम से जन-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए धन का पुनरावंटन करना था ।

पढ़े-लिखे भारतीयों को यह जानकर निराशा हुई कि कर में वृद्धि और उच्च शिक्षा के लिए आवंटन में कमी एक ऐसे समय में की गई थी जब सरकार सेना पर ”होम चार्जेज” पर और साम्राज्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे लोक-निर्माण कार्यो पर अत्यधिक खर्च कर रही थी ।

1870 के दशक के नगरपालिका सुधार जिनमें सीमित चुनाव के सिद्धांत को जगह दी गई थी पढ़े-लिखे भारतवासियों को दी गई रियायत थे । लेकिन शीघ्र ही 1876 में इसकी काट भी कर दी गई जब इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अधिकतम आयु 21 साल से घटाकर 19 साल कर दी गई जो भारतवासियों के हित में नहीं था ।

उनकी पुरानी माँग कि ये परीक्षाएँ लंदन और भारत में साथ-साथ हों अभी भी पूरी नहीं हुई थी । शिक्षित भारतवासियों पर अभी तक का सबसे घृणित हमला लॉर्ड लिटन ने किया था जो 1876 में वायसरॉय बनकर भारत आया ।

अपने ही विधि सदस्य की सलाह को ठुकराकर उसने 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट बनाया इसका मूल उद्देश्य भारतीय प्रेस का गला घोंटना था जो उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करने लगा था । इस कानून के अंतर्गत देशी भाषाओं के समाचारपत्रों के मुद्रकों और प्रकाशकों से जमानतें माँगी जाती थीं और अगर वे कुछ भी आपत्तिजनक प्रकाशित करते थे तो ये जमानतें और उनकी मशीनें जब्त कर ली जाती थीं ।

यह कानून तुरंत ही शिक्षित भारतीयों और उनके विभिन्न संगठनों के एक देशव्यापी आंदोलन का निशाना बन गया और उनको एक अप्रत्याशित संरक्षक ग्लैडस्टोन के रूप में मिला जिसने ब्रिटिश संसद में हंगामा खड़ा कर दिया ।

उसी सरल 1878 में ही लिटन ने एक नया हथियार कानून (आर्म्स ऐक्ट) भी जारी किया जिसने आग्नेय अस्त्रों के लिए पूरे भारत में एक लाइसेंस की व्यवस्था शुरू की लेकिन उसके दायरे से यूरोपीय और यूरेशियाई लोगों को मुक्त रखा ।

इस तरह के वातावरण में ब्रिटेन में 1880 में लिबरल पार्टी की विजय ने भारतवासियों के मन में भारी प्रसन्नता और आशा जगाई । लिटन ने त्यागपत्र दिया और उदारवादी लॉर्ड रिपन नया वायसरॉय बनकर आया । लेकिन उपनिवेशवादी नौकरशाही की रूढ़िवादी मानसिकता नहीं बदली ।

हालांकि रिपन ने फूँक-फूँककर कदम रखा लेकिन उसके कुछ आरंभिक कदमों ने इंग्लैंड की उदारवादी परंपरा में भारतवासियों की आस्था फिर जगाई । 1882 में वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट रह कर दिया गया और अवांछित नस्लवादी रियायतों को खत्म करने के लिए आर्म्स ऐक्ट को संशोधित किया गया ।

मई 1882 के एक प्रस्ताव के द्वारा उदारवादी वायसरॉय ने भारत में स्थानीय स्वशासन के आरंभ की पेशकश की; जैसा कि सर्वपल्ली गोपाल ने दिखाया है 1884 के अंत तक ”स्थानीय स्वशासन का ताना-बाना लगभग पूरे भारत को समेट चुका था ।”

यह सब इंडियन सिविल सर्विस और लंदन स्थित इंडिया काउंसिल के निरंतर विरोध के बावजूद हुआ । लेकिन उस समय तूफ़ान टूट पड़ा जब उसकी काउंसिल के विधि सदस्य सी.पी. इल्वर्ट ने 2 फरवरी, 1883 को एक विधेयक पेश किया जिसे कुख्यात इल्वर्ट बिल के नाम से जाना जाता है ।

उसमें मुफस्सिलों (छोटे कस्बों) के भारतीय जिला मजिस्ट्रेटो और सत्र न्यायाधीशों को दोषी यूरोपवासियों पर मुकदमे की सुनवाई का अधिकार देने का प्रस्ताव किया गया था जो प्रसिडेंसी नगरों में पहले से मौजूद था । अब आंग्ल-भारतीय नस्लवाद का घृणित चेहरा इसके बाद के “गोरे विद्रोह (white mutiny)” के रूप में सामने आया क्योंकि ब्रिटेन में जन्मे नागरिक एक देशी हिंदुस्तानी द्वारा मुकदमे की सुनवाई के विचार से काँप उठे ।

डस विधेयक का भयानक विरोध केवल गैर-सरकारी आंग्ल-भारतीय लोगों ने ही नहीं बल्कि ब्रिटिश अफसरों के एक बड़े भाग ने भी किया । इनमें बंगाल का लेफ्टिनेंट गवर्नर रीवर्स टॉम्सन भी शामिल था जिसने कथित रूप से विधेयक की निंदा की कि ”कलम की एक जुंबिश” से ”समता स्थापित करने” के लिए इसमें ”नस्ली भेदों को अनदेखा किया गया था ।”

नस्ली समानता के उदारवादी वादे को इतनी आसानी से तो ठुकराया नहीं जा सकता था क्योंकि वह तो महारानी विक्टोरिया के 1858 की घोषणा में ही निहित था । इसलिए नस्ली विशेषाधिकारों के संरक्षण की पैरवी एक लिंगबद्ध (gendered) भाषा में की गई ।

कहा गया कि ”स्त्रैण बाबू” तो ”मर्द अंग्रेज” पर मुकदमा चलाने के योग्य ही नहीं है और न ही उससे गोरी स्त्रियों के सम्मान का ध्यान रखने की आशा की जा सकती है क्योंकि वह तो अपने ही घर में स्त्री का सम्मान नहीं करता । इस विवाद न शिक्षित भारतवासियों के सामने एकदम स्पष्ट कर दिया कि नस्ली समानता एक ऐसी चीज है जिसे वे वर्तमान शासन से पाने की आशा नहीं कर सकते ।

यह बात जनवरी 1884 में और भी स्पष्ट हो गई जब रिपन अंतत: दबाव के आगे झुक गया और उसने श्वधैयक को वापस ले किया । उसकी जगह उसने एक अधिक नरम और समझौतावादी फार्मूला पेश किया जिसमें इस सिद्धांत को किसी तरह सुरक्षित रखने की कोशिश की गई थी: उसमें यूरोपवालों के दोषी होने पर एक मिली-जुली जूरी के द्वारा मुकदमे की मुनवाई का प्रावधान किया गया था ।

इल्वर्ट बिल विवाद ने राजनीतिक चेतना से संपन्न शिक्षित भारतवासियों को साम्राज्य की शक्ति-संरचना में कष्टदायक ढगै से अपनी अधीनता की स्थिति का अनुभव कराया । उन्होंने जो जवाबी प्रदर्शन किए और इस अवसर पर प्रेस में जो प्रचार युद्ध चला वे भारत में आधुनिक राजनीतिक गतिविधियों के विकास के इतिहास का एक मोड़ है ।

लेकिन इस बीच भारत के संगठित राजनीतिक जीवन में एक और बड़ा परिवर्तन आने लगा था; भूस्वामी कुलीनों के नियंत्रण वाले पुराने संगठनों का स्थान धीरे-धीरे वे नए संगठन लेने लगे थे जिन पर मध्य वर्ग के पेशेवर लोगों का वर्चस्व था ।

कलकत्ता में जमींदार तत्त्वों द्वारा नियंत्रित ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन को अंतहीन कलह से ग्रस्त एक बंद संगठन समझा जाने लगा था । उसे अधिकाधिक चुनौती नए शिक्षित पेशेवर वर्गों ने दी जिन्होंने 26 जुलाई, 1876 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में ”जनता का प्रतिनिधित्व करने” की घोषित आकांक्षा के साथ इंडियन एसोसिएशन नाम से एक नया संगठन बनाया । बंबई में बॉम्बे एसोसिएशन को 1876 में तब एक नया जीवन मिला जब नौरोजी फरदूनजी और दादाभाई नौरोजी लंदन से लौटे और उन्होंने इस संगठन में एक नया प्राण फेंका ।

लेकिन महादेव गोविंद रानाडे पी.एम. मेहता और के.टी. तैलंग जैसे पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त नेताओं की नई पीढ़ी से और अल्पजीवी वेस्टर्न इंडियन एसोसिएशन जैसे प्रतियोगी संगठनों की स्थापना से उनको भी चुनौती मिली । लेकिन उसे बड़ी चुनौती मराठा संस्कृति की पुरानी राजधानी और देशभक्ति के पुराने केंद्र पूना से मिली ।

2 अप्रैल, 1870 को यहीं पूना सार्वजनिक सभा नाम का एक नया संगठन जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए शुरू हुआ था और सालभर के अंदर उसके सदस्यों ने 17,000 लोगों से मुख्तारनामों पर हस्ताक्षर करा लिए थे जिससे उसे सचमुच एक प्रातिनिधिक चरित्र मिल गया ।

इसके विपरीत मद्रास में 1862 में मद्रास नेटिव एसोसिएशन की समाप्ति के बाद राजनीतिक गतिविधियाँ धीमी पड़ी रहीं । इस प्रेसिडेंसी के राजनीतिक जीवन में हलचल दो दशक से अधिक समय बाद 1884 में मद्रास महाजन सभा की स्थापना के बाद ही शुरू हुई ।

प्रेसिडेंसियों से बाहर भी संगठित राजनीतिक जीवन पंजाब में लाहौर इंडियन एसोसिएशन या संयुक्त प्रति में इलाहाबाद पीपुल्स एसोसिएशन जैसे नए संगठनों के आस-पास ही घूमता रहा । फिर भी याद रहे कि नए संगठनों के पनपने का अर्थ अपने आप में राजनीति के पुराने रूपों की समाप्ति नहीं था; राजनीति के आधुनिक और परंपरागत दोनों मुहावरे बहुत लंबे समय तक साथ-साथ प्रचलन में रहे । पुराने तरीके अनेक रूपों में जीवित रहे ।

उदाहरण के लिए बंगाल में जैसा कि एस.एन. मुखर्जी (1971) ने दिखाया है ये दलों के रूप में जीवित रहे जिन पर अनुपस्थित जमींदारों या दलपतियों का वर्चस्व था । ये लोग कलकत्ता से लेकर गाँवों तक फैले हुए उन अनौपचारिक मगर प्रभावी सामाजिक संबंधसूत्रों को संचालित करते थे जो सामाजिक नियंत्रण के साधन थे ।

ये दल विभिन्न सार्वजनिक प्रश्नों के समर्थन या विरोध में खड़े होते थे रूढ़िवादियों और प्रगतिशीमों या आधुनिक और पारंपरिक के बीच कोई स्पष्ट रेखा खींचना कठिन हो जाता था । जिन राजा राधाकांत देव और उनकी धर्मसभा ने सतीप्रथा के उन्मूलन का जमकर विरोध किया था उन्होंने ही स्त्री-शिक्षा के प्रसार का उत्साह के साथ समर्थन किया । दलों की यह व्यवस्था कम या अधिक प्रभावी ढंग से उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो तक जारी रही ।

फिर, जैसा कि जॉन मैकग्वायर ने लिखा है उसके सामाजिक बंधनों और नियंत्रण की व्यवस्था को पूँजीवादी विकास ने धीरे-धीरे कमजोर कर दिया । विघटन की यह प्रक्रिया फिर भी लंबी और जटिल रही । और इस द्विभाजन के बारे में बंगाल कोई अपवाद नहीं था सयुक्त प्रांत में भी सामाजिक गतिविधियाँ पहले के ”जातिगत और सांप्रदायिक संगठनों” के माध्यम से होती थीं जो अनेक प्रकार के लोगों की शिकायतों को उठाने के मंच बन गए ।

एक नए उपनिवेशी संदर्भ में पुराने संगठनों को एक नया महत्त्व प्राप्त हुआ क्योंकि उनका सामना एक अधिक अतिक्रामक और कथित रूप से प्रातिनिधिक सरकार” से था । इसलिए नगरों में जैसा कि सी.ए. बेइली ने पाया ”पुराने संबंधसूत्र और नए संगठन आपस में और भी घनिष्ठता से जुड़ गए ।”

फिर भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इस राजनीति का नयापन उन नई माँगों में था जो उठाई जा रही थीं । इनका चरित्र कभी-कभी स्थानीय या क्षेत्रीय होता था लेकिन प्राय: उनका महत्त्व राष्ट्रीय होता था ।

इन नए संगठनों ने अन्य बातों के अलावा विधायिका में भारतीय प्रतिनिधित्व सरकार के कार्यकारी और न्यायिक कार्यो के पृथक्करण सिविल सेवा के भारतीयकरण और इसके लिए भारत और इंग्लैंड में भारतीय सिविल सेवा (ICS) की एक साथ परीक्षा कराने सूती कपड़ों पर आयात शुल्क लगाए जाने की ‘घरेलू खर्चो’ (Home Charges) पर और महंगे विदेशी युद्धों पर जैसे 1878-79 के अफगान युद्धों पर खर्च में कमी की भारत और इंग्लैंड के वित्तीय संबंधों को युक्तिसंगत बनाए जाने की और ब्रिटिश भारत के दूसरे भागों तक स्थायी बंदोबस्त के विस्तार की माँग की ।

उन्होंने आयकर लगाए जाने का अत्याचारी वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट और नस्लवादी आर्म्स ऐक्ट का विरोध किया । सभी क्षेत्रों के सभी हिंदुस्तानियों से संबंधित सार्वजनिक प्रश्नों को उठाने के अलावा इन संगठनों ने किसानों के मामलों में भी रुचि ली ।

बंगाल के नील विद्रोह पूना (दकन) के दंगों और चिनाब नहरी बस्ती (पंजाब) में जल-कर के प्रतिरोधों में उनकी भागीदारी का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है । इनमें से पूना सार्वजनिक सभा जैसे कुछ संगठन किसानों के बीच अनेक प्रकार के सामाजिक कार्यों में संलग्न थे जैसे अकाल राहत जुटाने या मध्यस्थता की अदालतों का आयोजन करने में ।

ऐसी मध्यस्थता के कारण भारतीय किसान जो अभी तक अपने स्थानबद्ध अस्तित्व में ही उलझे हुए थे धीरे-धीरे उपनिवेशी शासन के साथ एक व्यापकतर राष्ट्रीय टकराव मैं जुड़ने लगे । ये संगठन निश्चित ही खुले तौर पर अंग्रेज विरोधी नहीं थे और दिल्ली दरबार के अवसर पर उनमें से अनेकों ने महारानी विक्टोरिया को वफ़ादारी के संदेश भेजे । वे सीमित सुधारों के लिए लड़ते थे पर फिर भी उन्होंने एक नई सार्वजनिक चेतना का प्रदर्शन किया ।

उन्होंने समता और प्रातिनिधिक सरकार की, और सबसे बढ़कर अपने ही देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की माँग की और नई राजनीति पिछले चरण की जमींदारों के वर्चस्व वाली राजनीति से यहीं आकर अलग हो जाती थी ।

इस नई राजनीति का शिक्षित पेशेवर नेतृत्व भी कुछ दुविधाओं में ग्रस्त था जो दुविधाएं ! इस वर्ग की सामाजिक संरचना की पैदावार थीं । जैसा कि पहले कहा गया ये लोग अधिकतर पुरोहित और पढ़े-लिखे वर्गो के थे जिनका पहले भूमि पर मालिकाना एकाधिकार था ।

अंग्रेजी शिक्षा और नए व्यवसायों ने एक तरह से इन्हीं प्रभुत्वशाली वर्गो के प्रभुत्व का विस्तार किया: एक नए औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का विकास होते हम केवल बंबई में देखते हैं । इसलिए देश के अधिकांश भागों में पेशेवर लोगों ने जमीन से अपना संबंध बनाए रखा और इसलिए वे जमींदारों के हितों के लिए भी लड़ते रहे ।

यह बात 1885 में बंगाल काश्तकारी विधेयक (बंगाल टेनेन्सी बिल) पर एकजुट भारतीय विरोध के रूप में सामने आई; इस विधेयक ने किसानों के काश्तकारी अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने और जमींदारों के मनमाने ढंग से लगान बढ़ाने के अधिकार पर सीमा लगाने का प्रस्ताव किया और आधिकारिक बहुमत के कारण यह पारित भी हो गया ।

मुश्किल से छिपनेवाली इन दुविधाओं पर अंग्रेजों की प्रतिक्रियाएँ मिली-जुली रहीं । उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में उपनिवेशी सरकार ने नए शिक्षित वर्ग के राजनीतिक महत्त्व को स्वीकार किया । खास तौर पर लॉर्ड रिपन जैसे उदारवादी वायसरॉयों ने अनुभव किया कि इस वर्ग की वैध आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के लिए एक सही वातावरण देना और उनको राज के दोस्त बनाना आवश्यक है ।

लेकिन उसके अधिक रूढ़िवादी उत्तराधिकारी लॉर्ड डफरिन ने एक अलग रुख अपनाया और अपमानजनक भाव से उन्हें केवल एक ”अतिलघु अल्पमत” का प्रतिनिधित्व करनेवाले ”बाबू” राजनीतिज्ञ कहा । 1892 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट के बाद जिसने लेजिस्लेटिव काउंसिलों के गठन के लिए सीमित ढंग से चुनाव के सिद्धांत का आरंभ किया इस नए पेशेवर वर्ग ने राजनीतिक प्रधानता में भूस्वामी कुलीन वर्ग को पीछे छोड़ दिया पर वे बड़े भूस्वामियों को कभी पूरी तरह अनदेखा भी नहीं कर सके इसीलिए उपनिवेशी राजसत्ता भरोसे के साथ जनता के हितों का सच्चा समर्थक होने का दावा कर सकी ।

आरंभिक राष्ट्रवाद की सीमाओं और अंतर्विरोधों को दूसरे क्षेत्रों में भी देखा जा सकता था क्योंकि सवर्ण हिंदू नेताओं में से अनेक अपने सामाजिक रूढ़िवाद से पूरी तरह ऊपर न उठ सके । हिंदू स्वर्णकाल की धारणा पर आधारित एक राष्ट्रवादी विचारधारा तैयार करने की उनकी कोशिशों ने जनता के एक बड़े भाग को तुरंत प्रेरित किया पर इन्हीं कोशिशों ने कुछ दूसरे लोगों को दूर भी धकेला ।

इन सामाजिक बहसों ने पूना सार्वजनिक सभा को दो नेताओं और उनके अनुयायियों के बीच बाँटकर रख दिया-एक ओर अधिक रूढ़िवादी बाल गंगाधर तिलक थे तो दूसरी ओर उदारवादी सुधारक गोपाल कृष्ण गोखले थे ।

1891 के विवाह-आयु संबंधी कानून (एज ऑफ कंसेंट ऐक्ट) ने स्त्रियों के लिए विवाह की परिणति (Consummation) की आयु को दस से बढ़ाकर बारह साल करने का प्रस्ताव किया था; इससे संबंधित विवाद इस तर्क पर केंद्रित था कि अंग्रेजों को हिंदुओं के सामाजिक और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है ।

इस तरह भारतीय राष्ट्रवाद का संबंध विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध हिंदू धर्म की रक्षा से जुड़ गया तथा बंगला और मराठी दोनों भाषाओं के देशभक्ति संबंधी साहित्य ने भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू बिंबों में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया ।

इन विकासक्रमों ने राष्ट्रवाद की इस धारा से मुसलमानों को निश्चित ही विमुख किया क्योंकि उनमें भी एक नई चेतना का विकास हो रहा था । वे भी अपने हितों को हिंदुओं के हितों के मुकाबले में निरूपित करने लगे और इस हिंदू-मुस्लिम विभाजन को उपनिवेशी नीतियों ने और बढ़ावा दिया ।

आर्यसमाज ने जब गोरक्षा आदोलन का आरंभ किया तो यह सांप्रदायिक टकराव एक जन चरित्र ग्रहण करने लगा । 1870 के दशक के बाद से बड़े पैमाने के सांप्रदायिक दंगों ने उत्तर भारत को हिलाकर रख दिया और ये निश्चित ही भारतीय इतिहास की एक नई संवृत्ति थे ।

हिंदुस्तान की अठारहवीं सदी वाली धारणा में हिंदुओं और मुसलमानों की एकसमान भागीदारी थी पर उन्नीसवीं सदी में उदीयमान सांप्रदायिक अलगाव के सामने वह धारणा अब धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी । बीसवीं सदी में इलाके पर अधिकार के लिए एक हिंसक टकराव का रास्ता इसी तरह तैयार हुआ ।

उत्तर भारत के समाज में इस सांप्रदायिक अलगाव का एक और महत्त्वपूर्ण आयाम था । निचली जातियों और अछूतों का समर्थन पाने के लिए ब्राह्मणों और दूसरे सवर्ण हिंदुओं ने जिनका नई शिक्षा नए पेशों और नए संगठनों पर वर्चस्व था कुछ भी नहीं किया ।

फिर भी इस उदासीनता और लापरवाही के बावजूद इन निचले वर्गो में जागरूकता और सामाजिक चेतना के असंदिग्ध संकेत दिखाई दे रहे थे; यह सब उपनिवेशी शैक्षिक नीतियों ईसाई मिशनरियों के सेवा-भाव और साथ ही उनकी अपनी नहल का परिणाम था ।

इसने उन्हें ब्राह्मण-विरोधी भावनाओं के आधार पर वैकल्पिक नजनीतिक विचारधाराओं की रचना के लिए प्रेरित किया जिनके बल पर महाराष्ट्र और मद्रास में अछूतों और गैर-ब्राह्मण जातियों ने शक्तिशाली आंदोलन संगठित किए जो मुख्यत: उनके अपने उत्थान के लिए थे । वे लोग उदीयमान राष्ट्रवादी आंदोलन को नई उपनिवेशी संस्थाओं पर ब्राह्मणों के वर्चस्व की स्थापना का षड्‌यंत्र समझते थे तथा उपनिवेशी सरकार को अपने संरक्षक और मुक्तिदाता के रूप में देखते थे ।

इस तरह शीर्ष से भारतीय राष्ट्र की कल्पना की राजनीतिक यरयोजना को आरंभ से ही विविधता और विभिन्नता के कठिन मुद्दे का सामना करना पड़ा । स्पष्ट है कि प्रशासन ने उपनिवेशी समाज के ऐसे अंतर्विरोधों का लाभ उठाया और उभरते हुए भारतीय राष्ट्रवादियों की राह में और भी रोड़े अटकाने के लिए प्रोत्साहित कया: ये राष्ट्रवादी अपनी सभी कमजोरियों और सीमाओं के बावजूद राज के लिए कुछ नीतिकर प्रश्न उठा रहे थे ।

यही संदर्भ है जिसमें 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ । बाद के वर्षो में भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति पर उसी का वर्चस्व रहा और इन अतर्विरोधों को हल करने के लिए वह सफल-असफल प्रयास करता रहा ।

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