ब्रिटिश शासन के दौरान गदर आंदोलन | Ghadar Movement during British Rule in Hindi.

Contents:

  1. गदर का प्रारम्भ (Emergence of Ghadar Movement)
  2. गदर के कारण (Reasons for Ghadar Movement)
  3. गदर की असफलता के कारण (Reasons of Ghadar’s Failure)
  4. गदर को प्रकृति (Nature of Ghadar Movement)
  5. गदर के परिणाम (Results of Ghadar)

1. गदर का प्रारम्भ (Emergence of Ghadar):

भारत में ब्रिटिश राज्य का तेजी से विस्तार हुआ । फलत: शासन-प्रणाली में परिवर्तन हुए । साथ ही, लोग जो लंबे अरसों से रहने के खास तरीकों में अभ्यस्त थे, उन तरीकों में भी हेरफेर होने लगे । इन बातों ने भारतीय जीवन की शांत धाराओं को आंदोलित किया तथा देश के विभिन्न भागों में हलचलें पैदा कीं ।

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इस सम्बन्ध में इनका जिक्र किया जा सकता है: सन् १८१६ ई॰ का बरेली विद्रोह; १८३१- १८३२ ई॰ का कोल विप्लव तथा छोटा नागपुर और पलामू में अन्य छोटे विद्रोह; मुसलिम आंदोलन, जैसे- फेराजी उपद्रव-१८३१ ई॰ में बरासत (बंगाल) में सैयद अहमद और उनके शिष्य मीर नीसर अली या टीटो मीर के नेतृत्व में, तथा पीछे १८४७ ई॰ में फरीदपुर (बंगाल) में दीदू मीर के पथ-प्रदर्शन में; १८४९ ई॰ १८५१ ई॰, १८५२ ई॰ और १८५५ ई॰ में मोपला विप्लव तथा १८५५-१८५७ ई॰ का संताल विद्रोह ।

ये विद्रोह सिद्ध करते हैं कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य में सामान्य विक्षोभ था । इनमें सब से अंतिम और सब से प्रचंड विद्रोह १८५७-१८५९ ई॰ का गदर था, जिसने इसकी मजबूत इमारत की जडों तक को झकझोर दिया ।


2. गदर के कारण (Reasons for Ghadar):

गदर युग की बदलती हुई हालतों का फल था । इसके कारण सुविधापूर्वक चार शीर्षकों के अंतर्गत रखे जा सकते हैं-राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक, धार्मिक, और सैनिक ।

डलहौजी की संयोजन की नीति, समाप्ति या जब्ती का सिद्धांत तथा महान् मुगल के वंशजों का उनके मौरूसी महल से दिल्ली के समीप कुत्ब में परियोजित स्पानांतरण इन्हीं में राजनीतिक कारणों के उद्‌गम थे । इन सब से स्वभावत: मुसलिम और हिन्दु दोनों तरह के पुराने राजाओं के मस्तिष्कों में काफी बेचैनी और संदेह पैदा हो गये ।

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अवध के संयोजन तथा मुगल बादशाह की धूंधली होती हुई चमक से छुट्टी पाने के विचार ने मुसलिम भावनाओं पर चोट पहुँचायी । भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय की पेंशन उसके पोष्य पुत्र नाना साहब को अस्वीकृत हो गयी, जिससे कुछ हिन्दु मस्तिष्क आंदोलित हुए ।

सच पूछिए, तो कुछ असंतुष्ट शासक और उनके मित्र गदर के पहले से ही कम्पनी की सरकार के विरुद्ध षड्‌यंत्र कर रहे थे । इनमें से अधिक महत्वपूर्ण थे-अवध के भुतपूर्व नवाब का एक सलाहकार अहमद उल्लाह; नाना साहब नाना साहब का भतीजा राव साहब तथा उसके आश्रित तात्या टोपे एवं अजीम उल्लाह खाँ; झाँसी की रानी; बिहार के जगदीशपुर का राजपूत सरदार कुँवर सिंह, जो बोर्ड ऑफ रेवेन्यू (राजस्व-मंडल) द्वारा अपनी जमींदारियों से वंचित कर दिया गया था; तथा मुगल बादशाह बहादुर शाह का एक सम्बन्धी फीरोज शाह ।

ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ जमींदारों के संपत्ति-हरण तथा अधिकारच्युत राजाओं के अनुचरों एवं आश्रितों में बढ़ती हुई बेकारी से देश के विभिन्न भागों में घोर आर्थिक शिकायतें और सामाजिक बेचैनी फैल गयी । बेंटिंक ने करविमुक्त भूमि का अपहरण कर लिया था । निस्संदेह इससे राज्य का आमदनी बढ़ गयी ।

किन्तु साथ ही इससे बहुत-से अधिकारच्युत जमींदार दरिद्र बन गये । लार्ड डलहौजी ने भूमिपतियों के हकों की जाँच करने के लिए बम्बई में इनाम कमीशन कायम किया था । रादर शुरू होने के पाँच वर्षों के भीतर उक्त कमीशन ने दक्कन में करीब बीस हजार जमीदारियों को जब्त कर लिया ।

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ऐसा करने में उसने एक क्षण के लिए भी यह न सोचा कि इस तरह का कड़ा काम अवश्य ही देश की आर्थिक हालत में उलझने पैदा करेगा । खासकर अवध में भावना की भयंकर कटुता फैली हुई थी । यह बात विशेषकर कौवर्ली जैकसन के समय में हुई । वह सर जेम्स आउट्रम के बाद अवध के चीफ कमिश्नर के रूप में आया था तथा सहानुभूतिशून्य रुख एवं उद्धत स्वभाव का आदमी था । नवाब के वैतनिक पुलिस मैजिस्टेरटों और अफसरों का भत्ते एवं पेशने पाना बंद हो गया ।

उसकी राजधानी पर नये चीफ कमिश्नर ने कब्जा कर लिया । उसकी सेना के तोड़ दिये जाने से पेशेवर सैनिक अपनी जीविका के साधन से वंचित हो गये । इन सब ने अवध को, “जिसके निवासियों की अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति लोकप्रसिद्ध हो चली थी, असंतोष और षड्‌यंत्र का वृद्धिकारक स्थान” बना डाला । जैकसन के बुला लिये जाने तथा हेनरी लारेंस की नियुक्ति से बातें कुछ हद तक सुधरी । किन्तु असंतोष पूर्णतया दबाया न जा सका ।

अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों और उन्नीसवीं के पूर्वार्ध में पश्चिमी सम्यता भारत में तेजी से फैल रही थी । जनता का काफी हिस्सा इससे चिंतित हो उठा । रेलवे और टेलीग्राफ (तार) के आविष्कार, पश्चिमी शिक्षा का विस्तार, सती और शिशु-हत्या-जैसी प्रथाओं का हटाया जाना, १८५६ ई॰ के ‘धार्मिक अक्षमताएँ कानून’ (रेलिजस डिजे- बिलिटीज ऐक्ट) द्वारा हिन्दुत्व से धर्मांतरित व्यक्तियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा, १८५६ ई॰ के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून (हिन्दू विडोज रिमैरेज ऐक्ट) द्वारा विधवा के पुनर्विवाह का कानूनसंगत बनाया जाना तथा कुछ ईसाई मिशनरियों की अनुचित छेड़छाड़ की भावना ।

इन बातों से भारतीय जनता के कट्टरपंथी दलों ने समझा कि सरकार उनकी सामाजिक शासन-प्रणाली के नष्ट करने, उनकी युग-प्रतिष्ठित प्रथाओं एवं रीतियों को समाप्त कर उनके देश को पश्चिमाभिमुखगामी बनाने और भारत को ईसाई धर्म में दीक्षित करने की चेष्टाएँ कर रही है । वहाबी सम्प्रदाय के कामों ने अवश्य ही मुसलमानो की भावनाओं के प्रज्वलित करने में भाग लिया होगा ।

इस प्रकार बहुत-सी बातों ने दश के विभिन्न भागों में असंतोष का धुआँ पैदा कर दिया । फिर भी, यदि “सिपाहियों” की सेना पूर्ववत् कम्पनी के प्रति स्वामिभक्त बनी रहती तो इम धुएँ का निगल जानेवाली ज्वाला के रूप में फूट पड़ना संभव न होता । इंस कहता है कि “सिपाहियों की सेना के नियंत्रण में परिस्थिति का गूढ़ विषय संनिहित था” । किन्तु कई कारणों से कम्पनी के प्रति सिपाहियों का रुख अब तक मित्रतापूर्ण न रह गया था ।

उन्हें बहुधा दुर देशों में दीर्घकालीन चढ़ाइयों में जाना पड़ता था, जिसे सिपाही नापसंद करते थे । फलत: उनकी स्वामिभक्ति को कड़ी चोट पहुँचती थी । कम्पनी की सरकार ने दूर के क्षेत्रों में लड़ने के लिए सिपाही भेजे थे, जिसके लिए सिपाहियों ने अतिरिक्त भत्तों की माँग की थी । सरकार ने यह माँग स्वीकार नहीं की ।

परिणाम यह हुआ कि १८५७ ई॰ के विप्लव के पूर्व तेरह वर्षों के भीतर चार मौकों पर सिपाहियों के कुछ रेजिमेंटों (दलों) ने विद्रोह कर दिया १८४४ ई॰ में चौंतीसवीं नेटिव इंफैंट्री, १८४९ ई॰ में बाईसवीं नेटिव इंफैट्री, १८५० ई॰ में छियासठवीं नेटिव इंफैंट्री तथा १८५२ ई॰ में अड़तीसवीं नेटिव इंफैट्री (देशी पलटन) । और भी, सिपाहियों की सेना का, विशेषकर बंगाल डिवीजन का, अनुशासन तेजी से बिगड़ रहा था ।

इसका खास कारण था सरकार की त्रुटिपूर्ण नीति । सरकार बिना सोचे-समझे योग्य सैनिक अफसरों को मैदान से राजनीतिक कामों में बदल रही थी । वह बड़ापन के अनुसार प्रोन्नति के नियम को कायम रख रही थी तथा इस बात में उम्र या क्षमता का कोई विचार नहीं कर रही थी ।

उदाहरण के लिए, जनरल गौडविन ने सत्तर की उम्र में द्वितीय बर्मी युद्ध में सेनापतित्व किया । तथा-कथित “बंगाल सेना” के लिए रँगरूट ठेठ बंगाल में भर्ती नहीं किये जाते थे, बल्कि वे अवध और उत्तर-पश्चिम प्रांतों की ऊँची जातियों के लोगों से लिये जाते थे । वे अपने जाति-सम्बन्धी विशेषाधिकारों के बारे में अत्यंत संवेंदनशील होते थे । फलत: वे आसानी से अनुशासन के वशवर्ती नहीं होते थे ।

साथ ही, वे सरकार की पश्चिमाभिमुखगामी एवं ईसाई बनाने की नीति के सम्बन्ध में सामान्य संदेह में भी भाग लेते थे । असंतोष की भावना और भी बढ़ गयी, जब लार्ड कैनिंग के समय में ‘जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट ऐक्ट’ पास हुआ । इसके अनुसार बंगाल सेना के सभी रंगरूटों को आदेश मिला की वे भारत के भीतर और बाहर दोनों जगहों में सेवा करने के लिए तैयार रहें ।

यूरोपियन और भारतीय सैनिकों की संख्या में जो असमानता थी, वह हाल के वर्षों में स्पष्ट हो गयी थी । इस प्रकार, लार्ड डलहौजी के भारत से प्रस्थान करने के समय य रोपियन सिपाहियों की संख्या ४५३२२ थी तथा भारतीय सिपाही २३३०० थे । सैनिकों का बँटवारा भी त्रुटिपूर्ण था ।

दिल्ली और इलाहाबाद-जैसे सामरिक महत्व के स्थान पूर्णतया “सिपाहियों” (देशी सैनिकों) के अधिकार में थे । कलकत्ता और इलाहाबाद के बीच केवल एक ब्रिटिश रेजिमेंट पटने के समीप दानापुर में था । पुन: इंगलैंड उस समय भारत के बाहर के कई युद्धों में फँसा था, जैसे-क्रीमिया का युद्ध, फारस का युद्ध और चीनी युद्ध । इससे उसके साधनों पर बहुत बोझ पड़ रहा था ।

“सिपाहियों” के मन में एक विश्वास पैदा हो चला कि इंगलैंड संकटपूर्ण परिस्थिति में था तथा भारत में ब्रिटिश सेना के अल्प-संख्यक होने से उसके भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा “सिपाहियों” पर ही निर्भर थी । मेरठ के कमिश्नर ने लिखा- “शक्ति का ज्ञान सेना में बढ़ गया था । गदर के द्वारा ही उसका भूत उतारा जा सकता था । कारतूस की चिल्लाहट ने विद्रोह की सुप्त भावना को प्रकट कर दिया ।”

इस समय ‘एनफील्ड राइफल’ नामक एक विशेष तरह की बंदूक का व्यवहार चालू किया गया । इसके लिए कारतूसों में चर्बी लगायी जाती थी । यह वस्तुत: एक कुविचारित कर्म था । नाना साहब, अवध के नवाब के पक्षावलंबियों, झाँसी की रानी और कुछ अन्यों द्वारा पहले से ही सेना में परिश्रमपूर्वक असंतोष फैलाया जा रहा था ।

अब इसने चिनगारी लगा दी, जिसने असंतोष के तप्त भस्म को प्रज्वलित कर दिया । “सिपाहियों” की सेना इस विश्वास के कुछ आधार थे कि उक्त चर्बी में गाय या सूअर की चर्बी मिली हुई है ।

यह बात हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए आपत्तिजनक थी । एट्‌चिसन लिखता है कि “जिस तरह चिनगारी सूखी लकड़ी पर गिरती है, उसी तरह कारतूसों की सच न लगनेवाली कहानी इस जलनेवाली सामग्री पर गिर पड़ी” तथा सतलज से नर्मदा तक समस्त देश जलने लगा ।


3. गदर की असफलता के कारण (Reasons of Ghadar’s Failure):

गदर एक भयंकर किस्म का बलवा था । फिर भी विद्रोहियों के त्रुटिपूर्ण साज-सामान और संगठन के कारण उसका असफल होना निश्चित था । प्रथमत: विद्रोहियों का सैनिक साज-सामान अंग्रेजों के सैनिक साज-सामान की अपेक्षा निम्नतर कोटि का

था । उदाहरण के लिए, उनके पास पुरानी, मुँह की ओर से भरी जानेवाली बंदूकें थी; जब कि अंग्रेज सैनिकों के पास नवाविष्कृत, पीछे की ओर से भरी जानेवाले बंदूकें थी, जिनसे छोड़ी गयी गोलियाँ अधिक दूरी तक जाती थीं ।

दूसरे, सिपाही तत्कालीन वैज्ञानिक प्रगतियों के महत्व के समझने में असफल रहे तथा उनसे डरते भी रहे; जब कि अंग्रेजों ने अपने खास फायदे के लिए, इन लाभों का पूरा उपयोग किया । इस प्रकार, अंग्रेजों का व्यापक तार प्रणाली एवं डाक परिवहनों पर नियंत्रण था, जिस कारण वे इस योग्य थे कि देश के विभिन्न भागों से सूचना पा सकें एवं उसका विनिमय कर सकें तथा परिस्थिति की आवश्यकताओं के अनुसार अपनी कार्य-पद्धति में परिवर्तन कर सकें ।

तीसरे, अंग्रेजों का यह सौभाग्य था कि उन्हें झाँसी की रानी, अवध की बेगम और कुछ छोटे सरदारों को छोड़ बाकी अधिकांश अधीन सरदारों की स्वामिभक्ति प्राप्त थी । साथ ही, जैसा पहले कहा जा चुका है, उन्हें ग्वालियर के सर दिनकर राव, हैदराबाद के सर सालार जंग एवं नेपाल के जंग बहादुर-जैसे व्यक्तियों और सिखों से अमूल्य सहायता मिली । उत्तर-पश्चिम में दोस्त मुहम्मद दोस्त बना रहा ।

चौथे, विप्लवियों को असैनिक जनता का देश के सभी भागों में अबाधित एवं सार्वजनीन समर्थन प्राप्त नहीं हो सका, क्योंकि उपद्रवों के बाद होनेवाली गड़बड़ी और अव्यवस्था के कारण लोगों को काफी तकलीफ एवं हानि हुई और वे विद्रोहियों से विमुख हो गये ।

पाँचवें, सावधानी से बनायी गयी सामान्य योजना अथवा विद्रोह के निर्देश के लिए मजबूत केन्द्रीय संगठन का अभाव था ।

अन्तत: विल्पवियों में योग्य नेतृत्व का अपेक्षाकृत अभाव था, जबकि लॉरेंस, आउट्रम, हॅवलॉक, निकोल्‌सन, नील और एडवर्ड्स जैसे कुछ बुद्धिमान एवं वीर नेताओं से अंग्रेजों का पक्ष-समर्थन अच्छी तरह हुआ । यह भी ध्यान देने की बात है कि चतुर कूटनीति के द्वारा अंग्रेज सिखों और पठानों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सके जो हालतक उनके शत्रु थे ।


4. गदर को प्रकृति (Nature of Ghadar):

जैसा कि एक समकालीन जेम्स अवश्यम का विश्वास था अथवा जैसा कि कुछ आधुनिक लेखकों ने इसे चित्रित किया है-यह विद्रोह (विप्लव) न तो कोई पूर्णत: संगठित राष्ट्रीय आन्दोलन था और न “स्वातंत्र्य संग्राम” ही । यह मात्र सैनिक विद्रोह भी नहीं था ।

यह सैनिक उपद्रव के रूप में हुआ जिससे कुछ ऐसे असंतुष्ट नरेशों और जमींदारों ने लाभ उठाया जिनके हित पर नयी राजनीतिक व्यवस्था का (बुरा) असर पड़ा था । अन्त में कहे गये कारण ने कुछ इलाकों में इसे जनविद्रोह का स्वरूप प्रदान किया जो कई महीनों तक ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा बन गया विशेषकर बिहार, अवध और रोहिलखण्ड में ।

वास्तव में, इन इलाकों में यह क्रमश: “सामान्य विद्रोह” के रूप में फैल गया जिसमें कतिपय कारणों से असंतुष्ट “सभी प्रकार और वर्गों के असैनिक लोगों के” विभिन्न दलों ने भाग लिया, और जो “भारत में ब्रिटश-शासन के प्रति विस्तृत पैमाने पर पहली भारी और प्रत्यक्ष चुनौती था ।”

इसका स्वरूप अखिल भारतीय कभी नहीं था बल्कि स्थानीय था । कुछ अंशों में यह प्रतिबद्ध (सीमित) था और संगठन कमजोर था । तीन प्रान्तीय सेनाओं में से केवल एक ने विद्रोह किया और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सभी भारतीय सिपाहियों ने विप्लव नहीं किया । जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, प्रमुख भारतीय नरेशों और सरदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया ।

हजारों जमींदारों में से, जिनकी सम्पत्ति हाल ही में छीन ली गयी थी, केवल अवध के तालुकदारों ने विद्रोहियों की सक्रिय सहायता की । झाँसी की रानी को छोड्‌कर जिसे हाफ ने “विद्रोहियों की सर्वश्रेष्ठ और सबसे वीर सैनिक नेता” के रूप में सम्मानित किया, विप्लवियों में कोई उच्च कोटि की योग्यता रखनेवाला नेता नहीं था ।

और भी, विद्रोह की एक विशेष बात यह थी कि विद्रोहियों के विभिन्न दलों में संगठन और उद्देश्य की समानता का अभाव था । दुर्भाग्यवश, इसकी एक प्रमुख विशेषता यह रही कि दोनों पक्षों की ओर से धर्मयुद्ध के नियमों की उपेक्षा की गयी तथा यह “अजीब जंगलीपन के साथ लड़ा गया” ।

यदि सदर करनेवाले घोर दुष्कर्मों के दोषी थे, तो ब्रिटिश सैनिकों ने भी कई अवसरों पर वैसी सस्ती का बर्ताव कर अपने देश के सुंदर नाम को कलंकित किया, जिसे (जिस सख्ती को) विवेकशीलता या संयम ने नरम नहीं किया था ।


 5. गदर के परिणाम (Results of Ghadar): 

एक से अधिक कारणों से गदर भारतीय इतिहास में एक युगांतर-कारिणी घटना है । एक अर्थ में इसने दिखा दिया कि भारत पर कम्पनी की पकड़, अभी भी कमजोर-जैसी थी । इसकी शिक्षाएं अनेक पीढ़ियों तक भारत में ब्रिटिश शासन को प्रभावित करती रहीं । स्वर्गीय लार्ड क्रोमर ने लिखा “मैं चाहता हूँ कि अंग्रेजों की नवयुवक पीढ़ी भारतीय सदर के इतिहास को पड़े ध्यान से देखे सीखे और मन में पचाए यह शिक्षाओं और चेतावनियों से भरा है ।”

इसने शासन-प्रणाली और सरकारी नीति में प्रत्यक्ष रूप से तीन महत्वपूर्ण पारवर्तन उपस्थित किये । प्रथमत: कम्पनी के प्रतिवादों के बावजूद भारतीय सरकार का नियंत्रण अंतिम रूप से क्राउन ( ब्रिटिश राजमुकुट) के हाथों में चला गया । २ अगस्त, १८५८ ई॰ को ‘भारत के बे हतर शासन के लिए एक कानून’ (एन ऐक्ट फॉर द’ बेटर गवर्मेट ऑफ इंडिया) पास हुआ ।

इसके अनुसार “भारत सर्वोच्च सत्ता द्वारा तथा सर्वोच्च सत्ता के नाम पर शासित होगा । यह शासन एक प्रमुख राज्य-सचिव द्वारा होगा, जिसकी सहायता पंद्रह सदस्यों की एक परिषद् करेगी ।”

साथ ही, गवर्नर-जनरल को वाइसराय (राजप्रतिनिधि) की नवीन उपाधि मिली । यह “एक तौर से औपचारिक परिवर्तन ही अधिक था, वास्तविक नहीं”; क्योंकि जब से कम्पनी भारत में राज्य करनेवाली शक्ति बन गयी थी, तभी से क्राउन (ब्रिटिश राजमुकुट) कम्पनी के मामलों पर अपना नियंत्रण स्थिरतापूर्वक बढाता आ रहा था, तथा अब तक असली नियंत्रण बोर्ड ऑफ कंट्रोल का प्रसिडेंट ( अध्यक्ष) करता था, जो क्राउन का मंत्री भी होता था । डाइरेक्टर केवल परामर्शदात्री परिषद् के रूप में काम करते आ रहे थे ।

ग्रेट ब्रिटेन की सर्वोच्च सत्ता द्वारा भारत की सरकार के धारण की घोषणा लार्ड कैनिंग ने इलाहाबाद के दरबार में की । यह घोषणा-पत्र १ नवम्बर, १८५८ ई॰ को रानी के नाम पर निकाला गया था । रानी का घोषणा-पत्र ( द’ क्वीन्स प्रोक्लामेशन) भारतीय जनता का महान् अधिकार-पत्र (मैग्ना कार्टा) माना गया है ।

इसने भारतीय राजाओं के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा की गयी संधियों एवं पाबंदियों को संपुष्ट किया; देशी राजाओं के अधिकारों, प्रतिष्ठा एवं सम्मान का आदर करने का वचन दिया भारत की प्राचीन धार्मिक क्रियाओं, रस्मों और प्रथाओं के प्रति उचित ध्यान देने का वादा किया; “दूसरों के राज्यों में अनाघिकार हस्तक्षेप” द्वारा भारत में ब्रिटिश राज्य के विस्तार की सारी इच्छा को अस्वीकार किया; “ब्रिटिश प्रजाजनों की हत्या में सीधा भाग लेने के कारण दंडित हुए और होनेवाले अपराधियों को छोड़ कर बाकी सभी अपराधियों” को सामान्य राजकीय क्षमा प्रदान की; न्याय, उदारता और धार्मिक सहिष्णुता की नीति की घोषणा की तथा सरकार को आदेश दिया कि वह प्रजाजनों के “धार्मिक विश्वास या पूजा में सभी हस्तक्षेप से बचे”; और एलान किया कि सभी, “चाहे वे किसी भी नस्ल या धार्मिक विश्वास के हों, धड़ल्ले से एवं निष्पक्षता के साथ हमारी नौकरी के पदों पर नियुक्त हो सकते हैं, बशर्ते वे अपनी शिक्षा, क्षमता और ईमानदारी के द्वारा उन पदों के कर्तव्यों को उचित रूप से निभाने के योग्य हों” ।

दूसरे, सेना का पूर्ण रूप से पुनस्संगठन किया गया, क्योंकि इसीने विद्रोह का सूत्रपात किया था । आगामी पचास वर्षों तक “विभाजन और साम्य का विचार” भारत में ब्रिटिश सैनिक नीति को प्रभावित करता रहा । १८९३ ई॰ तक प्रेसिडेंसी सेनाएं पूर्णतया-अलग रखी गयीं; उनका यूरोपियन तत्व मजबूत बनाया गया तथा कुछ आवश्यक नौकरियों के एकमात्र चार्ज में रखा गया; तथा यूरोपियन सैनिकों की संख्या बढ़ा दी गया ।

१८७९ ई॰ की भारतीय सेना संगठन पर नियुक्त कार्य-भार-प्राप्त सभा (कमीशन) ने लिखा- “गदर द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं से दो महान् सिद्धांतों का पालन किया जाने लगा हैं-देश में ब्रिटिश सैनिकों की एक अप्रतिरोधनीय सेना बनाये रखने का सिद्धांत तथा यूरोपियनों के हाथों में गोलंदाज फौज रखने का सिद्धांत ।”

तीसरे, ब्रिटिश सरकार ने अब भारतीय राज्यों के प्रति एक नया रुख अख्तियार किया । इन राज्यों को अब से ब्रिटिश क्राउन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी पड़ी तथा वे एक ही कार्य (‘सिंग्ल चार्ज’) के अंग समझे जाने लगे ।

गदर का एक अप्रत्यक्ष परिणाम भारतीय राजनीति में चरमपंथ (गर्म दल) के जन्म और उदय में साथ दीख पड़ता है । आंदोलन के असंयम ने कुछ भारतीयों और भारत में रहनेवाले कुछ अंग्रेजों के मन में शत्रुता की भावना पैदा कर दी । यह भावना इन दोनों के बीच बढ़ते हुए जातीय भेदभाव के द्वारा और भी प्रज्वलित हो चली ।

यह आधुनिक युग में भारत में राजनीतिक विचार और प्रशासनिक नीति को प्रभावित करती रही है । भारत में ‘टाइम्स’ के संवाददाता रसेल ने अपनी ‘डायरी’ में ठीक ही लिखा कि “गदरों ने दोनों नस्लों के बीच इतनी अधिकघृणा और दुर्भावना पैदा कर दी है कि शासकों का परिवर्तन-मात्र भारत पर असर डालनेवाली बुराइयों के लिए दवा का काम नहीं करेगा । वे क्रुद्ध भावनाएँ उक्त घृणा और दुर्भावना का सबसे गंभीर प्रदर्शन है ।…..बहुत वर्षों के बाद कुई इन उपद्रवों द्वारा उभारे गये तीव्र आवेगों का शमन होगा । शायद विश्वास कभी पुर: प्रतिष्ठित नही होगा । और अगर ऐसा हुआ, तो भारत में हमारे राज के कायम रहने से इतना कष्ट होगा, जिसका अनूमान करना भी भयानक है ।”


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