मौर्य साम्राज्य के दौरान सामाजिक और आर्थिक स्थिति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मौर्य काल के सामाजिक दशा (Social Condition of Mauryan Age) 2. मौर्य काल के आर्थिक दशा (Economic Condition of Mauryan Age) 3. धार्मिक दशा (Religious Condition).

मौर्य काल के सामाजिक दशा (Social Condition of Mauryan Age):

मौर्य काल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था को एक निश्चित आधार प्राप्त हो चुका था । वर्ण कठोर होकर जाति के रूप में बदल गये जिसका आधार जन्म था । यूनानी लेखकों के विवरण से जाति-व्यवस्था के अत्यन्त जटिल होने की सूचना मिलती है ।

मेगस्थनीज ने भारतीय समाज में सात वर्गों का उल्लेख किया है:

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(i) दार्शनिक,

(ii) कृषक,

(iii) योद्धा,

(iv) पशुपालक,

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(v) कारीगर,

(vi) निरिक्षिक और

(vii) मन्त्री ।

कोई भी व्यक्ति न तो अपनी जाति के बाहर विवाह कर सकता था और न उससे भिन्न पेशा ही अपना सकता था । परन्तु दार्शनिक इसके अपवाद थे और वे किसी भी वर्ग के हो सकते थे । मेगस्थनीज का यह वर्गीकरण व्यवसाय के आधार पर किया गया जान पड़ता है ।

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इससे न तो ब्राह्मण गुणों में वर्णित चारों वर्णों का बोध होता है और न तत्कालीन समाज की वहुसंख्यक जातियों की ही सूचना मिलती है । दार्शनिक समाज के बुद्धिजीवी वर्ग थे । उनका राजदरबार एवं समाज में बड़ा सम्मान था ।

राज्य अपने राजस्व का एक भाग दार्शनिकों के भरण-पोषण पर व्यय करता था । वे समाज की शिक्षा एवं संस्कृति के रक्षक थे । इस वर्ग में ब्राह्मण तथा श्रमण दोनों ही आते थे । वे सादा जीवन व्यतीत करते थे तथा अपना समय अध्ययन और शास्त्रार्थ में व्यतीत करते थे ।

इनमें से कुछ जंगलों में निवास करते थे, कन्दमूल फल खाते थे तथा वृक्षों की छाल पहनते थे । यूनानी लेखकों ने भी वनों में रहने वाले सन्यासियों का उल्लेख किया है । अशोक के अभिलेखों में गृहस्थ सन्यासियों तथा वनों में विचरण करने वाले श्रमणों का उल्लेख मिलता है ।

चारों आश्रमों की व्यवस्था भी समाज में प्रचलित थी । देश की संख्या का बहुत बड़ा भाग कृषकों का था । वे सादगी का जीवन व्यतीत करते तथा नगर की चहल-पहल से दूर रहते थे । मेगस्थनीज के अनुसार वे सटा अपने कामों में लगे रहते थे तथा जिस समय सैनिक युद्ध करते थे, उस समय भी कृषक कृषि-कर्म में व्यस्त रहते थे ।

कृषकों के बाद संख्या में सबसे अधिक क्षत्रिय वर्ग के लोग थे । वे केवल सैनिक कार्य किया करते थे । कृषक, कारीगर तथा व्यापारी सैनिक कर्तव्यों से मुक्त रहते थे । वे गाँवों में निवास करते । पशुपालक तथा शिकारी खानाबद्दोश जीवन व्यतीत करते थे ।

कुछ शिकारी राज्य की ओर से कृषि को क्षति पहुंचाने वाले जीव-जन्तुओं को नष्ट करने के लिए नियुक्त किये जाते थे और इस कार्य के लिए उनको पारितोषिक मिलता था । कारीगरों का समाज में बड़ा सम्मान था तथा उनकी अंग-क्षति करने वाले राज्य की ओर से दण्डित किये जाते थे ।

अर्थशास्त्र से पता चलता है कि समाज में दासों की स्थिति संतोषजनक थी । उन्हें सम्पत्ति रखने तथा बेचने का अधिकार प्राप्त था । उनके साथ अनुचित व्यवहार करने वाले स्वामी अर्थशास्त्र में दण्डनीय बताये गये हैं । साधारणतः युद्ध में बन्दी बनाये गये तथा म्लेच्छ लोग ही दास के रूप में रखे जाते थे ।

अशोक के अभिलेखों में भी दासों तथा भृत्यों के साथ उचित बर्ताव करने का उपदेश दिया गया है । अशोक के समय में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण जाति-प्रथा की कठोरता में पर्याप्त शिथिलता आ गयी थी । रोमिला थापर, आर. एस. शर्मा जैसे कुछ आधुनिक इतिहासकार मौर्यकालीन समाज में शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होने की वात कहते हैं ।

वे भारतीय दासों की समता यूनान तथा रोम के दासों से स्थापित करते हैं । उनके अनुसार मौर्यकाल में राजकीय नियन्त्रण अत्यन्त कठोर था । प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग की लालसा से राज्य में शूद्र वर्ण को रोमीय हेलाटों की स्थिति में ला दिया गया ।

थापर ने बताया है कि- ‘अशोक ने कलिंग युद्ध के डेढ़ लाख बन्दियों को बंजर भूमि साफ कराने तथा नई बस्तियाँ बसाने के कार्य में नियोजित कर दिया ।’ शर्मा मौर्यकालीन समाज की तुलना यूनान तथा रोम के समाज से करते हुए लिखते है कि- ‘यूनान तथा रोम में दास जो कार्य करते थे ठीक वही कार्य भारत में शूद्र किया करते थे, यद्यपि भारतीय समाज दास-समाज नहीं था ।’

किन्तु यह विचार अतिवादी है । यूनानी लेखक मेगस्थनीज भारतीय समाज में दास-प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं करता जो इस बात का प्रमाण है कि भारत में दासों की दशा यूनान तथा रोम के दासों से कहीं बहुत अच्छी थी ।

इस मत के लिए कोई आधार नहीं है कि अशोक ने डेढ़ लाख युद्ध-बन्दियों को बंजर भूमि साफ कराने के लिए नियोजित कर दिया था । वह कहीं अपने उद्देश्य पर प्रकाश नहीं डालता । निर्वासन के अन्य कारण भी हो सकते हैं ।

सम्भव है विद्रोह की आशंका को समाप्त करने के लिए उन्हें कलिंग से हटा दिया गया हो । आर. सी. मजूमदार का विचार है कि वे दक्षिण-पूर्व एशिया में चले गये जहां उन्होंने भारतीय संस्कृति का प्रचार किया । किन्तु ये सभी सम्भावनायें ही हैं । यूनान तथा रोम के दास जो कुछ भी करते थे वह सभी आधुनिक मजदूरों द्वारा किया जाता है ।

किन्तु मात्र कार्यों की समानता से ही कोई वेतन-भोगी श्रमिक दास नहीं हो जाता है, जैसा कि डॉ. ओम प्रकाश ने स्पष्ट किया है- ‘दास की अवधारणा के अन्तर्गत दास कहे जाने वाले का स्वामित्व दूसरे के पास होता है जो स्वामी कहलाता है । बंधुआ मजदूर दास श्रमिक नहीं होता तथा औद्योगिक मजदूर बन्धुआ मजदूर नहीं कहा जा सकता है । दासों की बड़ी संख्या के अभाव में बड़े पैमाने पर दासता की बात नहीं कही जा सकती ।’

यदि हम यूनानी रोमन दासों को भारतीय शूद्र मान लें तो यह मानना पड़ेगा कि यहाँ शूद्र स्वतन्त्र किसान नहीं थे तथा उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था । अर्थशास्त्र में स्पष्टतः ‘वार्ता’ अर्थात कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य को शूद्र का धम बताया गया है ।

‘शूद्र कर्षक’ का भी उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है- शूद्र किसान । उन्हें सेना में भर्ती होने तथा सम्पत्ति रखने का भी अधिकार था । वह कृषि योग्य भूमि खरीद सकता था । दायगत नियमों में वर्णसंकर जातियों तक की उपेक्षा नहीं की गयी है ।

अत: मौर्य समाज की दशा यूनानी रोमन समाज के दासों से बहुत अच्छी थी । गौतम धर्मसूत्र, जो अर्थशास्त्र से प्राचीनतर है, में भी ‘वार्ता’ को शूद्र का वर्णधर्म बताया गया है । मनुस्मृति से भी पता चलता है कि शूद्रों को सम्पत्ति का अधिकार था ।

समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा थी । लड़कों के लिए वयस्कता की आयु 16 वर्ष तथा कन्याओं के लिए 12 वर्ष होती थी । स्मृतियों में वर्णित विवाह के आठों प्रकार इस समय समाज में प्रचलित थे । तलाक की प्रथा थी । तलाक पति-पत्नी की सम्पत्ति से सम्भव था ।

पाते के बहुत समय तक विदेश में रहने या उसके शरीर में दोष होने पर पत्नी उसका त्याग कर सकती थी । इस प्रकार पत्नी के व्यभिचारिणी होने या बन्ध्या होने जैसी दशाओं में पति उसका त्याग कर सकने का अधिकारी था ।

पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री अपना पुनर्विवाह कर सकने के लिए स्वतन्त्र थी । विवाहिता स्त्री के उपहार तथा आभूषण उसकी अपनी संपत्ति (स्त्रीधन) होती थी । पति के अत्याचारों के विरुद्ध पत्नी न्यायालय में जा सकती थी । स्त्रियों के साथ अन्याय अथवा अत्याचार करने वाले राज्य की ओर से दण्डित किये जाते थे ।

कुलीन परिवारों में बहुविवाह की प्रथा थी । समाज में अर्न्तजातीय विवाह का भी प्रचलन था । उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति में विवाह अनुलोम तथा उच्चजातीया कन्या का निम्नजातीय वर के साथ विवाह प्रतिलोम कहा जाता था ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का यूनानी कन्या के साथ विवाह हिन्दू समाज में एक क्रान्तिकारी कदम था । यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि स्त्रियाँ सम्राट की अंगरक्षिका नियुक्त की जाती थीं । अर्थशास्त्र में स्त्री के लिए ‘असूर्यपश्या’ (सूर्य को न देखने वाली), ‘अवरोधन’ तथा ‘अन्त:पुर’ शब्दों का प्रयोग हुआ है ।

इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि समाज में पर्दा-प्रथा भी प्रचलित रही होगी । सम्भवत: यह उच्च कुलों तक ही सीमित थी । अर्थशास्त्र में गणिकाओं का उल्लेख हुआ है जिनकी देख-रेख करने के लिए ‘गणिकाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी नियुक्त होते थे । इस वर्ग की महिलाओं में अभिनेत्री, नर्तकी, गायिका आदि सम्मिलित थीं ।

यूनानी लेखकों ने भारतीयों के अनुशासित एवं सरल जीवन का उल्लेख किया है । मेगस्थनीज लिखता है कि लोग मितव्ययी तथा उच्च नैतिक आचरण वाले होते थे । वे सत्य एवं गुणों का समान रूप से आदर करते थे । उनके भोजन में अन्न, फल, दूध तथा माँस सम्मिलित थे । अन्नों में गेहूँ, चावल तथा जौ का प्रयोग होता था ।

मेगस्थनीज ने भारतीयों के खाने के ढंग का इस प्रकार वर्णन किया है- “जब वे खाने बैठते हैं तो उनके सामने तिपाई के आकार की एक मेज रख दी जाती है । उसके ऊपर एक सोने का प्याला रखा जाता है । इसमें सर्वप्रथम चावल डाला जाता है । इसके बाद भोजन के अन्य पकवान एवं पदार्थ परोसे जाते हैं, जो भारतीय विधि द्वारा तैयार किये जाते है ।”

मौर्यकालीन भारतीय अच्छे वस्त्रों एवं आभूषणों के शौकीन थे । उनके कपड़े सोने एवं बहुमूल्य पत्थरों से जड़े हुए होते थे । बड़े लोगों के पीछे छत्र धारण किये हुए सेवक चलते थे । रथ-दौड़, घुड़-दौड़, सांड़-युद्ध, हस्ति-युद्ध, मृगया आदि मनोविनोद के साधन थे ।

नट, नर्तक, गायक, वादक, मदारी, चारण, विदूषक आदि विविध प्रकार के लोग नाना प्रकार के मनोरंजन किया करते थे । राज्य की ओर से अनेक प्रकार के उत्सवों एवं मेलों का आयोजन किया जाता था । अशोक ने कई हिंसक मनोंरंजन के साधनों के ऊपर पाबन्दी लगा दिया था ।

मौर्य काल के आर्थिक दशा (Economic Condition of Mauryan Age):

मौर्य-युग में कृषि अधिकांश जनता के जीवन का आधार थी । भूमि राजा तथा कृषक दोनों के अधिकार में होती थी । कृषक युद्ध तथा अन्य राजकीय कर्तव्यों से मुक्त रहने के कारण अपना सारा समय खेतों में ही लगाते थे ।

लोहे के उपकरणों के भारी मात्रा में प्रयोग के कारण उत्पादन बहुत अधिक बढ़ गया । इस काल में ही मूँठदार कुल्हाड़ियों, फाल, हँसिये आदि का कृषि कार्यों के लिए बड़े पैमाने पर प्रयोग प्रारम्भ हुआ । राज्य की ओर से कृषि को प्रोत्साहन मिलता था ।

युद्ध के समय में भी सैनिकों को खेतों को हानि न पहुँचाने का आदेश रहता था । कृषि को क्षति पहुँचाने वाले कीड़े-मकोड़े तथा पशु-पक्षियों को नष्ट करने के लिए राज्य की ओर से गोपालक और शिकारी नियुक्त किये गये थे । अधिकाधिक बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाया गया ।

भूमि बड़ी उर्वरा थी तथा प्रतिवर्ष दो फसलें आसानी से उगाई जा सकती थीं । देश अकाल एवं अभाव से मुक्त था । गेहूँ, जौ, चना, चावल, ईख, तिल, सरसों, मसूर, शाक आदि प्रमुख फसलें थीं । सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी । मेगस्थनीज लिखता है कि भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था ।

कुछ पदाधिकारी नदियों का प्रबन्ध रखते थे ताकि उनसे पानी ठीक से नहरों द्वारा खेतों को पहुंचाया जा सके । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि सिंचाई की चार विधियाँ थीं- हाथ द्वारा, कन्धों पर पानी ले जाकर, मशीन द्वारा तथा नदियों, तालाबों आदि से पानी निकाल कर ।

सिंचाई की सुविधा के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुराष्ट्र प्रान्त में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था । रुद्रदामन् के जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि इस झील के निर्माण का कार्य चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने प्रारम्भ करवाया था तथा अशोक के राज्यपाल तुषास्प ने इसे पूरा करवाया था ।

पशुओं में गाय-बैल, भेड़-बकरी, भैंस, गधे, ऊँट, सुअर, कुत्ते आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे । राज्य की ओर से चारागाहों की भी व्यवस्था थी । अर्थशास्त्र से पता चलता कि चन्द्रगुप्त के समय में पशुधन विकास के लिए एक विशेष विभाग था जो पशुओं के भरण-पोषण एवं उनकी चिकित्सा आदि की उचित व्यवस्था रखता था ।

मौर्य युग में व्यापार-व्यवसाय की उन्नति हुई । मौर्य सम्राटों ने सड़कों के निर्माण तथा एकात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना करके भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापार को प्रोत्साहन दिया । आंतरिक तथा वाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर थे ।

इस समय भारत का वाह्य व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था । यह व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाहों द्वारा किया जाता था । ‘बारबैरिकम’ नामक बन्दरगाह सिन्धु के मुहाने पर स्थित था ।

यूनानी रोमन लेखक भारत के समुद्री व्यापार का वर्णन करते हैं । एरियन हमें बताता है कि भारतीय व्यापारी मुक्ता बेचने के लिए यूनान के बाजारों में जाते । व्यापारिक जहाजों का निर्माण इस काल का एक प्रमुख उद्योग था ।

यह राज्य के नियन्त्रण में होता था जो व्यापारियों को किराये पर जहाज देता था । नवाध्यक्ष नामक पदाधिकारी व्यापारिक जहाजों का नियन्त्रण करता था । समुद्री मार्ग से आने वाली वस्तुयें यदि क्षतिग्रस्त हो जाती थीं तो राज्य उन पर शुल्क नहीं लेता था या क्षति के अनुपात में उसे घटा देता था ।

अर्थशास्त्र में विदेशी ‘सार्थवाहों’ (व्यापारियों के काफिलों) का उल्लेख मिलता है । देश का आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था । इस समय देश के अन्दर अनेक व्यापारिक मार्ग थे । एक मार्ग बंगाल के समुद्र-तट पर स्थित ताम्रलिप्ति नामक बन्दरगाह से पश्चिमोत्तर भारत में पुष्कलावती तक जाता था ।

इसे ‘उत्तरापथ’ कहा जाता था जिस पर चम्पा, पाटलिपुत्र, वैशाली, राजगृह, गया, काशी, प्रयाग, कौशाम्बी, कान्यकुब्ज, हस्तिनापुर, साकल एवं तक्षशिला जैसे प्रमुख नगर स्थित थे । दूसरा मार्ग पश्चिम में पाटल से पूर्व में कौशाम्बी के समीप उत्तरापथ में मिलता था ।

तीसरा मार्ग दक्षिण में प्रतिष्ठान से उत्तर में श्रावस्ती तक जाता था जिस पर माहिष्मती, उज्जैन, विदिशा आदि नगर स्थित थे । चौथा प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग भृगुकच्छ से मथुरा तक जाता था जिसके रास्ते में उज्जयिनी पड़ता था । इस प्रकार उत्तरापथ तथा दक्षिणापथ के भूभाग व्यापारिक मार्गों द्वारा परस्पर संयुक्त कर दिये गये ।

व्यापार के ऊपर राज्य का नियन्त्रण होता था । पण्याध्यक्ष बिक्री की वस्तुओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता था । वह वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करता था ताकि व्यापारी जनता से अनुचित लाभ न कमा सकें । व्यापारियों के लाभ की दरें भी निश्चित की गयी थीं तथा इससे अधिक लाभ राजकोष में जमा हो जाता था ।

व्यापारी स्थानीय वस्तुओं पर 5% तथा विदेशी वस्तुओं पर 10% का मुनाफा कमा सकते थे । देश के भीतर व्यवसाय एवं उद्योग-धन्धे काफी विकसित अवस्था में थे । कपड़ा बुनना इस युग का एक प्रमुख उद्योग था । अर्थशास्त्र के अनुसार मदुरा, अपरान्त, कलिंग, काशी, बंग, वत्स तथा महिष में सर्वोत्कृष्ट प्रकार के सूती वस्त्र तैयार होते थे । अन्य वस्त्रों में ‘दुकूल’ (श्वेत तथा चिकना वस्त्र) तथा ‘क्षौम’ (एक प्रकार का रेशमी वस्त्र) का भी उल्लेख मिलता है ।

चीन भूमि के कौशेय (रेशमी वस्त्र) तथा नेपाल के कम्बल का उल्लेख मिलता है । चर्म-उद्योग भी उन्नति पर था । एरियन ने भारतीयों द्वारा श्वेत चमड़े के जूते पहने जाने का उल्लेख किया है जो काफी सुन्दर होते थे । बढ़ईगिरी भी एक प्रमुख उद्योग था ।

बढ़ई लकड़ियों द्वारा विविध प्रकार के उपकरण बनाते थे । कुम्रहार की खुदाई में सात बड़े एवं आश्चर्यजनक ढंग से निर्मित लकड़ी के चबूतरे प्राप्त हुये हैं, जिनसे काष्ठ-शिल्प के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है । इसके अतिरिक्त धातुकारी का भी उद्योग उन्नति पर था ।

सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, टिन, पीतल, कांसा आदि धातुओं से विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, आभूषण तथा उपकरण बनाये जाते थे । तक्षशिला के भीर टीले तथा हस्तिनापुर की खुदाइयों से नाना प्रकार के बहुमूल्य आभूषणों के प्रमाण प्राप्त होते हैं । लोग धातुओं को गलाने तथा शुद्ध करने की कला से भी परिचित थे ।

पाषाण तराशने का उद्योग भी अच्छी अवस्था में था । इस समय के एकाश्मक स्तम्भ पाषाण तराशने की कला की उत्कृष्टता के साक्षी है । साथ ही साथ 50 टन के वजन तथा लगभग 30 फीट से अधिक की ऊँचाई वाले स्तम्भों को पांच-छ: सौ मील की दूरी तक ले जाकर स्थापित करना मौर्यकालीन अभियान्त्रिकी कुशलता को सूचित करता है ।

आज के वैज्ञानिक युग में भी यह एक आश्चर्य की वस्तु प्रतीत होती है । हाथी दाँत से भी सुन्दर एवं आकर्षक उपकरण तैयार किये जाते थे । इस समय विभिन्न खनिज पदार्थ बहुतायत से उपलब्ध थे । अर्थशास्त्र में समुद्री तथा भूमिगत दोनों ही प्रकार की खानों का वर्णन मिलता है जिनके लिये अलग-अलग पदाधिकारी होते थे । समुद्री खानों के अधीक्षक का काम उनसे प्राप्त होने वाले हीरे, मोती, दूंगा, शंख, बहुमूल्य पत्थरों आदि के संग्रहण की देखभाल करना होता था ।

भूमिगत खानों के अधीक्षक नयी खानों की खोज करते तथा पुरानी खानों के रख-रखाव की व्यवस्था करते थे । खानों में काम करने वाले श्रमिकों के पास वैज्ञानिक उपकरण होते थे । राज्य या तो सीधे खानों का प्रबन्ध करता था या उन्हें पट्टे पर देता था । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि राजा की अनुमति के बिना खान से निकाली धातुओं तथा उनसे तैयार होने वाली वस्तुओं को खरीदने तथा बेचने वाले दोनों पर 600 पण अर्थदण्ड लगाया जाता था ।

विभिन्न शिल्पों के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे । उद्योग-धन्धों की संस्थाओं को ‘श्रेणी’ कहा जाता था । जातक ग्रन्थों में 18 प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख हुआ है, जैसे काष्ठकारों की श्रेणी, लुहारों की श्रेणी, चर्मकारों की श्रेणी, चित्रकारों की श्रेणी आदि ।

श्रेणियों के अपने न्यायालय होते थे जो व्यापार-व्यवसाय सम्बन्धी झगड़ों का निपटारा किया करते थे । श्रेणी-न्यायालय का प्रधान ‘महाश्रेष्ठि’ कहा जाता था । राज्य की और से विविध प्रकार की वस्तुओं को बनाने के लिये औद्योगिक केन्द्र भी स्थापित किये गये थे ।

शिल्पकारों के सुरक्षा की समुचित व्यवस्था थी । शिल्पी के हाथ अथवा आँख को क्षति पहुँचाने वाले को मृत्यु-दण्ड दिया जाता था । जो उनका सामान चुराते थे उन्हें 100 पण का जुर्माना देना होता था । शिल्पियों तथा कारीगरों की मजदूरी कार्य के अनुसार तय की जाती थी ।

अवकाश के दिनों में कार्य करने के लिए अतिरिक्त मजदूरी दी जाती थी । उत्पादित वस्तु की कठोरता से जाँच की जाती थी । घटिया उत्पादन अथवा धोखाधड़ी के कार्य का कठोर दण्ड का विधान था । अर्थशास्त्र में कहा गया है कि- ‘कर्मकार को काम करने पर ही मजदूरी दी जानी चाहिए’ (कृतस्य वेतनं, नाकृतस्यास्ति) ।

यदि कर्मकार आधा काम करता था तो उसे आधी मजदूरी ही देय होती थी । मौर्य-युग तक आते-आते व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो चुका था । सिक्के सोने, चाँदी तथा ताँबे के बने होते थे । स्वर्ण सिक्कों को ‘निष्क’ और ‘सुवर्ण’ कहा जाता था ।

चाँदी के सिक्कों को ‘कार्षापण’ या ‘धरण’ कहा जाता था । तांबे के सिक्के ‘माषक’ कहलाते थे । छोटे-छोटे ताँबे के सिक्के ‘काकणि’ कहे जाते थे । ये सिक्के शासकों, सौदागरों एवं निगमों द्वारा प्रचलित किये जाते थे तथा इन पर स्वामित्व-सूचक चिह्न लगाये जाते थे ।

उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार से बड़ी संख्या में प्राप्त चाँदी के आहत-सिक्कों में से अधिकतर मौर्यकाल के ही हैं । मौर्यकालीन सिक्के मुख्यतः चांदी और तांबे में ढाले गये हैं । प्रधान सिक्का ‘पण’ होता था ।

जिसे ‘रुप्यरूप’ भी कहा गया है । अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है जिसका अधीक्षक “लक्षणाध्यक्ष” होता था । मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी ‘रुपदर्शक’ कहा जाता था । मौर्य शासन का वित्तीय वर्ष अषाढ़ (जुलाई) माह से प्रारम्भ होता था ।

मौर्य-काल में जनगणना के निमित्त एक स्थायी विभाग की स्थापना की गयी थी । इसका उल्लेख मेगस्थनीज तथा कौटिल्य दोनों ने ही किया है । मेगस्थनीज के अनुसार तीसरी समिति नगर की जनगणना का कार्य करती थी ।

अर्थशास्त्र से पता चलता है कि प्रत्येक ग्राम तथा नगर में चारों वर्षों की जनगणना ग्रामीण अधिकारियों तथा जनगणना विभाग द्वारा की जाती थी । मनुष्यों के साथ ही साथ उनके व्यवसाय, चरित्र, आय, व्यय आदि का भी पूरा ब्यौरा सुरक्षित रखा जाता था । इससे राज्य को विभिन्न वर्गों के ऊपर कर निर्धारित करने के काम में बड़ी सहायता मिलती थी ।

मौर्य-शासन में निर्धन व्यक्तियों को धनी व्यक्तियों तथा साहूकारों के शोषण से बचाने के निमित्त उनके द्वारा उधार दिये जाने वाले धन पर ब्याज की दर सुनिश्चित-कर दी गयी थी । इन नियमों का पालन न करने वालों को कठोर दण्ड दिये जाते थे ।

अर्थशास्त्र के अनुसार ब्याज की यह दर 15 प्रतिशत वार्षिक होती थी । जनता को अकाल, बाढ़, अग्नि जैसी दैवी आपदाओं से बचाने के लिये भी राज्य की ओर से व्यापक प्रबन्ध किये गये थे । अकाल के समय राज्य की ओर से किसानों को बीज वितरित किये जाते थे तथा लोगों को अभावग्रस्त स्थानों से हटाकर सम्पन्न स्थानों में पहुँचाया जाता था । बाढ़ आने तथा आग लगने पर भी राज्य की ओर से राहत कार्य किये जाते थे ।

नागरिकों के स्वास्थ्य की ओर भी सरकार विशेष ध्यान देती थी । पूरे राज्य में अनेक चिकित्सालयों की स्थापना करवाई गयी थी । विदेशी नागरिकों की चिकित्सा के लिये अलग से प्रबन्ध किया गया था । जीवनोपयोगी औषधियाँ राज्य की ओर से आरोपित करवाई जाती थीं ।

अशोक के लेखों से पता चलता है कि उसने मनुष्यों की चिकित्सा के साथ ही साथ पशुओं की चिकित्सा का भी समुचित प्रबन्ध करवाया था तथा अनेक औषधियों को बाहर से मंगवा कर आरोपित करवाया था ।

नगरों में सफाई की बहुत अच्छी व्यवस्था की गयी थी । इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य युग में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ किया गया था ।

मौर्य काल के धार्मिक दशा (Religious Condition of Mauryan Age):

मौर्य काल में अनेक धर्म एवं सम्प्रदाय प्रचलित थे । इस काल के सम्राटों की धार्मिक विषयों में सहिष्णुता की नीति से विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के विकास का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस समय के मुख्य धर्म एवं सम्प्रदाय वैदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक आदि थे ।

इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:

(i) वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म:

समाज के उच्च वर्गों में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला था । अनेक वैदिक देवताओं की पूजा होती थी तथा विविध प्रकार के यश किये जाते थे । चन्द्रगुप्त मौर्य प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म का ही अनुयायी था । महावंश के अनुसार बिंदुसार ने साठ हजार ब्राह्मणों के प्रति उदारता दिखाई थी ।

अर्थशास्त्र में अपराजित, अप्रतिहित, जयन्त, वैजयन्त, शिव, वैष्णव, अश्विन्, श्रीमादिरा (दुर्गा), अदिति, सरस्वती, सविता, अग्नि, सोम, कृष्ण आदि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है । पुरोहित यज्ञ कराते थे । यज्ञों के अवसर पर पशुओं की बलि भी दी जाती थी ।

अशोक के प्रथम शिलालेख से पता चलता है कि उसके राज्य में सर्वत्र पशु-बलि होती थी जिसे बन्द कराने के लिये उसने आदेश जारी किये थे । अर्थशास्त्र में राजप्रासाद के समीप बनी हुई ‘यज्ञशाला’ (इज्या-स्थानम्) का उल्लेख मिलता है ।

ब्राह्मणों का एक वर्ग सन्यासियों का था । वे जंगलों में रहकर कठोर साधना एवं तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करते थे । सन्यासियों को ‘श्रमण’ कहा जाता था । यूनानी लेखकों ने उनके ज्ञान एवं सदाचरण की बहुत प्रशंसा की है ।

मेगस्थनीज के अनुसार मंडनिस नामक एक इसी प्रकार के आश्रमवासी सन्यासी ने अपने ज्ञान से सिकन्दर को बहुत अधिक प्रभावित किया था । उपर्युक्त देवी-देवताओं के अतिरिक्त इस समय अग्नि, नदी, समुद्र, पर्वत, नाग आदि की भी पूजा की जाती थी । लोग तीर्थयात्रा पर जाते थे । ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं, शकुन-विचारकों आदि का भी समाज में महत्वपूर्ण स्थान था ।

(ii) बौद्ध धर्म:

अशोक के शासन-काल में बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ । उसने यह घोषित किया ‘जो कुछ बुद्ध ने कहा है वह सत्य है ।’ अशोक ने इस धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य की सारी शक्ति एवं साधनों को नियोजित कर दिया ।

उसके अथक परिश्रम के फलस्वरूप यह धर्म भारत की सीमाओं का अतिक्रमण कर पश्चिमी एशिया तथा लंका तक फैल गया । अशोक के ही समय में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति हुई जिसकी समाप्ति पर विभिन्न दिशाओं में प्रचारक-मण्डल भेजे गये । परम्परा के अनुसार उसने 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था । अशोक के उत्तराधिकारियों में शालिशूक भी बौद्ध मतानुयायी था जिसने उसी के समान धम्मविजय की थी ।

(iii) आजीवक तथा निर्ग्रन्थ:

आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना मक्खलिगोसाल ने की थी । वे बुद्ध एवं महावीर के समकालीन थे । मौर्य-युग तक आते-आते यह एक प्रबल सम्प्रदाय बन चुका था । अशोक के सातवें स्तम्भ-लेख में आजीवकों का भी उल्लेख किया गया है तथा महामात्रों को आजीवकों के हितों का ध्यान रखने के लिए कहा गया है ।

अशोक ने अपने अभिषेक के 12वें वर्ष इस सम्प्रदाय के सन्यासियों के निवास के लिये बराबर पहाड़ी पर दो गुफाओं का निर्माण करवाया था । अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुनी पहाड़ी पर कुछ गुहा-विहार बनवाये थे । इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर दोनों ही वर्गों के सन्यासी सम्मिलित थे ।

निर्ग्रन्थ से तात्पर्य जैन धर्म से है । यह भी श्रमणों का ही एक वर्ग था । अशोक के लेखों में निर्ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है । मेगस्थनीज ने इन्हें ‘नग्न साधु’ कहा है । परम्परा के अनुसार इस सम्प्रदाय के महान् आचार्य भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त को जैन मत में दीक्षित किया था ।

अशोक का एक उत्तराधिकारी सम्प्रति, जैन परपरा के अनुसार जैन धर्म का संरक्षक था । इस समय जैन धर्म भारत के पश्चिमी प्रदेशों में फैला था । दिव्यावदान के अनुसार निर्ग्रन्थ लोग अशोक के समय में उत्तरी बंगाल के पुण्ड्रवर्द्धन प्रदेश में भी निवास करते थे । परजु आजीवकों के समान वे लोग मौर्य राजाओं से दान नहीं पा सके ।

भक्ति सम्प्रदाय का उदय:

मौर्ययुगीन भारत के धार्मिक जीवन में भक्ति सम्प्रदाय का उदय हो चुका था । बुद्ध को देवता मानकर उनकी धातुओं एवं प्रतीकों की पूजा की जाने लगी । यूनानी लेखकों ने वासुदेव (कृष्ण) की पूजा का उल्लेख हेराक्लीज नाम से किया है ।

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