Read this article in Hindi to learn about the various determinants of human development.

1. मानव विकास में परिवर्तन होते हैं (Human Development Involves Changes):

मानव विकास एक विस्तृत संज्ञा है, इसमें गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों बदलाव होते हैं ।

प्राणी में बहुत से बदलाव हो सकते हैं जिसमें से मुख्य हैं:

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(a) आकार का परिवर्तन (Change of Size):

इसके अन्तर्गत शारीरिक बदलाव, जैसे: ऊँचाई, वजन इत्यादि तथा परिवर्तन जैसे-स्मृति तर्कणा आदि सम्मिलित होते हैं ।

(b) अनुपात में परिवर्तन (Change in Proportion):

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विकास के समय प्राणी में आनुपातिक परिवर्तन भी पर्याप्त होते हैं । उदाहरणार्थ, बच्चों में तर्कणा की अपेक्षा कल्पना की क्षमता अधिक पायी जाती है, जबकि युवाओं में इसके विपरीत पाया जाता है ।

(c) पुरानी विशेषताओं का लुप्त हो जाना (Disappearance of Old Feathers):

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शिशु की उम्र बढ़ने के साथसाथ उसकी कुछ शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं । जैसे- शिशु के दूध के दाँत टूट जाना तथा उसके व्यवहार से बचकानापन गायब हो जाना ।

(d) नयी विशेषताओं का आगमन (Acquisition of New Features):

परिपक्वता, अनुभवों तथा सीखने से बालक में बहुत-सी नयी शारीरिक तथा मानसिक विशेषताएँ आने लगती हैं । उदाहरण के लिए शिशु के दूध के दाँत टूट जाना तथा नये दाँत निकलना । नैतिक व धार्मिक मूल्यों की समझ बने में आ जाती है । प्राणी में अन्त गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक निरन्तर बदलाव होते रहते हैं ।

हर आयु स्तर पर कुछ बदलाव अभी प्रारम्भ होते हैं, व कुछ पूर्णता पर होते हैं, कुछ समाप्ति की ओर बढ़ रहे होते हैं । इनमें से कुछ बदलाव परस्पर विरोधी होते हैं अन्य अन्त सम्बन्धित होते हैं ।

वृद्धि और एट्रॉफी इसी प्रकार के विरोधी प्रक्रम हैं, जो समकालीन चलते रहते हैं । जीवन के शुरू के वर्षों में वृद्धि प्रभुत्व जमाती है, परन्तु बड़ी उम्र में एट्रॉफी का प्रभुत्व होता है । आकार व अनुपातों में बदलाव अन्त सम्बन्धित परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं, ऐसे ही मानसिक विशेषताओं में भी अन्त सम्बन्धित परिवर्तन होते रहते हैं ।

आत्म सिद्धि या जननिक सुप्त क्षमताओं की प्राप्ति विकासात्मक बदलावों का उद्देश्य या लक्ष्य माना जाता है । मौसलो ने इसे ‘Self-Actualization’ कहा है । इसका अभिप्राय है- शारीरिक तथा मानसिक रूप से सबसे उत्तम बनने का प्रयत्न क्या एक प्राणी इस लक्ष्य को पा सकता है, या नहीं, यह बाहरी वातावरण से पैदा हुई कठिनाइयों या वैयक्तिक परिसीमाओं पर निर्भर करता है ।

2. प्रारम्भिक विकास बाद के विकास की तुलना में अधिक क्रान्तिक होता है (Early Development is more Critical than Later Development):

अनेक शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है, कि शिशु के विकास में उसके प्रारम्भिक वर्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं । फ्रायड के अनुसार, कोई प्राणी अगर बड़ी उम्र में व्यक्तित्व कुसमायोजन का शिकार होता है, तो इसके लिए उसके बचपन के प्रतिकूल अनुभव जिम्मेदार होते हैं ।

इरिकसन (1964) ने भी इस बात की पुष्टि की है, कि शिशु बाल्यावस्था में ही संसार पर विश्वास तथा अविश्वास करना सीखता है । बालक ससार पर विश्वास करेगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है, कि माता-पिता शिशु को भोजन ध्यान तथा प्रेम की जरूरतों को किस तरह से पूरा करते हैं ?

जब स्कूल व विद्यालयों में ऐसे बालक को पहचाना जाता है, जिनका समायोजन उचित नहीं होता है, तो उनके बचपन के इतिहास से यह पुष्टि होती है, कि उन्हें बचपन में ‘समस्या बच्चे’ का लेबल लगा हुआ है ।

दो साल या दो साल से ज्यादा की उम्र में ही कुछ बच्चे समाज के खिलाफ व्यवहार करते हैं, तथा ऐसे बच्चों के बड़े होकर किशोर अपराधी बनने के विषय

बच्चे जो व्यवहार प्रतिमान बचपन में प्रदर्शित करते हैं, उनमें वही व्यवहार प्रतिमान पक जाता है, तथा वे बड़ी आयु में भी वही व्यवहार प्रतिमान ग्रहण करते हैं । अनेक सांस्कृतिक प्रभावों के बाद भी अनेक प्राणी अपनी अभिवृत्तियों मूल्यों इत्यादि को बचपन से लेकर बड़ी आयु तक जस का तस बनाये रखते हैं ।

बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने इस विषय पर बल दिया है, कि शिशु के नीवन के प्रथम दो वर्ष की अवधि के अनुभव बाद के जीवन में उत्तम व्यक्तिगत व सामाजिक समायोजन हेतु क्रान्तिक साबित होते हैं । अब यह सवाल उठता है, कि वे कौन-कौन सी दशाएँ हैं, जो व्यक्ति की प्रारम्भिक बुनियाद को प्रभावित करती हैं ?

इसके लिए शोधकर्त्ताओं ने निम्नलिखित दशाओं का वर्णन किया है:

(i) प्रारम्भिक भूमिका वहन,

(ii) बचपनावस्थीय प्रारम्भिक संरचना,

(iii) बाल प्रशि क्षण स्थितियाँ,

(iv) अन्त: वैयक्तिक सम्बन्ध,

(v) संवेगात्मक स्थितियाँ,

(vi) वातावरणजन्य उत्तेजना |

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह दर्शाने का प्रयास किया कि आरम्भिक बुनियाद बच्चे हेतु क्यों महत्व रखती है ?

(a) आरम्भिक बुनियाद जल्दी ही आदतजन्य प्रतिमानों में विकासित होती जाती है, तथा ये प्राणी के वैयक्तिक और सामाजिक समायोजन को सम्पूर्ण जीवन प्रभावित करती है ।

(b) बचपन में सीखने तथा अनुभवों का अत्यन्त महत्व होता है । परिवार के सदस्य बच्चे को एक ऐसे मार्ग को ओर प्रशस्त कर सकते हैं, जो उसे बड़ी आयु तक कुमार्गों से बचा सकता है ।

(c) बचपन में अर्जित अभिवृत्तियों तथा व्यवहार के प्रतिमान जीवन में लम्बी अवधि तक उसी रूप में बने रहते हैं ।

(d) यदि शिशु के जीवन में कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता पड़ती है, तो उन्हें बचपन में ही सरलता से लाया जा सकता है ।

3. विकास परिपक्वता तथा सीखने का प्रतिफल है (Development is the Product of Maturation and Learning):

शिशु जननिक विरासत में अपने पूर्वजों से अनेक विशेषताएँ सुप्त अवस्था में अपनाता है । इन्हीं विशेषताओं का खिलना परिपक्वता कहलाता है । कई कार्य ऐसे होते हैं, जो प्रजाति के लिए उभयनिष्ठ होते हैं । ये ‘Psylogenetic Functions’ कहलाते हैं । इनके अन्तर्गत घुटनों के बल चलना पैरो पर चलना आदि की गणना करते हैं ।

दूसरी ओर ऐसे कार्य होते हैं, जो प्राणी हेतु विशेष होते हैं; जैसे: तैरना, ड्राइविंग आदि । ये कार्य (Autogenetic Function) कहलाते हैं । पहले तरीके के कार्यों के विकास हेतु परिपक्वता को उत्तरदायी माना जाता है । इसके विपरीत, दूसरी तरह के कार्यों के विकास हेतु प्रशिक्षण का उत्तरदायी माना जाता है ।

सीखना इस विकास की ओर इशारा करता है, जो अभ्यास के माध्यम से होता है । बच्चे सीखने के द्वारा ही वंशानुक्रम के संसाधनों को इस्तेमाल करने की क्षमता को विकसित कर सकते हैं । सीखना, अनुकरण, तादात्मीकरण व प्रशिक्षण के माध्यम से हो सकता है ।

गर्भावस्था में विकास प्रधानत: परिपक्वता के कारण होता है । Sontag और Buhler ने इस दिशा में बहुत से प्रयास किये व महत्वपूर्ण परिणाम दिये । एक अध्ययन में देखा गया कि जो शिशु गर्भस्थ दशा में अधिक सक्रिय होते हैं, वे जन्म के बाद दूसरे शिशुओं की अपेक्षा में कौशलों को जल्दी सीख लेते हैं ।

जन्म के बाद परिपक्वता तथा सीखना परस्पर घनिष्ठ तरीके से जुड़े हुए होते हैं । स्थूल शारीरिक विकास व शरीर के भागों में प्रहस्तन के मध्य उच्च सकारात्मक सहसम्बन्ध पाया जाता है । अत: विकास वंशानुक्रम वृत्तिदान तथा वातावरण के बलों के मध्य अन्त क्रिया पर निर्भर होता है । कई शोधकर्ताओं ने परिपक्वता तथा सीखने के मध्य अन्त: सम्बन्ध के प्रभावों पर प्रकाश डाला है ।

जिनमें से मुख्य हैं:

(i) भिन्न-भिन्न वातावरणजन्य कारक बच्चे के विकास प्रतिमान को भिन्न-भिन्न ढंगों से प्रभावित करते हैं ।

(ii) परिपक्वता विकास की निश्चित सीमाओं का निर्धारण करती है, तथा अतिरिक्त सीखने से बालक इन सीमाओं को नहीं लाँघ पाता है ।

(iii) इस बात की आशंका बहुत कम होती है, कि बच्चे अक्सर अपनी निर्धारित सीमा तक आ जायें । बच्चे निर्धारित सीमा तक पहुंचने से पहले ही अपना प्रयत्न बंद कर देते हैं ।

(iv) सीखने के अवसरों के बिना शिशु अपनी वंशानुक्रम सुरक्ष क्षमताओं को साकार नहीं कर पाते हैं ।

(v) शिशु की जन्मजात क्षमताओं के सम्पूर्ण विकास के लिए उत्तेजना तथा प्रोत्साहन आवश्यक है ।

(vi) सीखने की प्रभावशीलता समय विशेष पर पायी जाती है ।

(vii) आत्म उत्तेजना भी सुप्त क्षमताओं को साकार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है ।

4. विकासात्मक प्रतिमान की भविष्यवाणी की जा सकती है (Development Pattern is Predictable):

प्रत्येक प्राणी में अपनी जाति के अनुकूल एक निश्चित विकासात्मक प्रतिमान होता है । जन्म से पहले व जन्म के बाद शिशु में जननिक अनुक्रम देखा जाता है, जिसकी वजह से कुछ निश्चित विशेषक निश्चित अन्तरालों पर प्रदर्शित हो पाते हैं । व्यवहारपरक विकास में भी यही बात प्रदर्शित होती है ।

अनेक बाल-मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक विकास के दिशात्मक अनुक्रम के दो नियमों की चर्चा की है:

(1) मस्तकोधोमुखी नियम;

(2) निकट-दूर नियम |

प्रथम नियम के अनुसार, विकास सिर से पैरों की ओर होता है । दूसरे नियम के अनुसार विकास सुषमा नाड़ी के नजदीक के क्षेत्रों से शुरू होकर दूर के क्षेत्रों तक फैला रहता है । कई मनोवैज्ञानिकों ने लम्बवत् उपागम का उपयोग करके पाया कि मानसिक विकास प्रतिमान की भी उतनी ही भविष्यवाणी की जा सकती है, जितनी शारीरिक विकास प्रतिमान की ।

यह देखा गया कि पहले 16 या 18 वर्षों में शारीरिक विकास बहुत शीघ्रता से होता है, तथा इसके साथ ही मानसिक विकास भी अत्यधिक तीव्रता से होता है । शिशुओं पर जन्म से पाँच वर्षों के अध्ययनों में यह देखा गया कि समस्त बच्चों में सामान्य व्यवहार प्रतिमान प्रदर्शित होते हैं ।

कुछ दशाएँ विकास प्रतिमान पर प्रभाव डाल सकती हैं, जिससे विकास की गति कम या बढ़ सकती है । बीमारी कुपोषण तीव्र संवेगात्मक प्रतिबल जैसे कारक विकास को ऋणात्मक ढंग से प्रभावित कर सकते हैं । कुछ कारक शारीरिक तथा मानसिक विकास प्रतिमानों को स्थायी रूप से परिवर्तित कर सकते हैं ।

जैसे: गल ग्रन्थि की असामान्यता बालक में बहुत से विकार उत्पन्न कर देती है । ऐसे ही संवेगात्मक वंचन, जनपरक तिरस्कार, माता-पिता की मृत्यु आदि कारक भी विकास प्रतिमान को ऋणात्मक तरीके से प्रभावित करते हैं ।

इन कारकों के विपरीत शारीरिक तथा मानसिक विकास की उत्तेजना विकास प्रतिमान की गति में वृद्धि कर सकती है । अच्छा स्वास्थ्य, प्रोत्साहन, प्रबल, अभिप्रेरणा इत्यादि ऐसे सकारात्मक कारकों के उदाहरण हैं, जो विकास प्रतिमान की गति को तीव्र करते हैं ।

5. विकासात्मक प्रतिमान की भविष्यवाणी योग्य विशेषताएँ होती हैं (Development Patterns have Predictable Characteristics):

विकासात्मक प्रतिमान न केवल भविष्यवाणी के लायक होता है, अपितु इस प्रतिमान की निश्चित सांझी तथा भविष्यवाणी-योग्य विशेषताएँ भी होती हैं । यह नियम शारीरिक व मानसिक दोनों प्रतिमानों पर जारी होता है ।

यहाँ मुख्य भविष्यवाणी योग्य विशेषताओं का परिचय दिया गया है:

(i) विकास निरन्तर होता है (Development is Continuous):

विकास गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक निरन्तर चलता रहता है । इसकी गति कभी तेज तथा कभी हल्की होती है । इसमें कभी सन्तुलन व कभी असन्तुलन प्रदर्शित होता है । एक अवस्था में घटित हुई क्रिया आने वाली अवस्था को प्रभावित कर सकती है ।

(ii) विकासात्मक प्रतिमानों में एक प्रकार की समानता होती है (Similarity in Developmental Pattern):

समस्त शिशुओं में एक जैसा विकास प्रतिमान होता है । सभी में एक निश्चित अवधि के बाद दूसरी अवस्था आती है । उदाहरणार्थ – पहले बच्चा खड़ा होता है, फिर चलना सीखता है ।

(iii) विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर चलता है (Development Proceeds from General to Specific Responses):

शारीरिक तथा मानसिक अनुक्रियाओं में पहले सामान्य क्रिया की जाती है, तत्पश्चात् विशिष्ट क्रिया की जाती है । यथा – नवजात शिशु पहले पूरे हाथ को हिलाकर अनुक्रिया करता है, और फिर आयु बढ़ने पर अपनी अँगुलियों से अनुक्रिया करने का प्रयत्न करता है ।

(iv) विभिन्न क्षेत्र विभित्र दर से विकसित होते हैं (Different Area Develop at Different Rates):

शारीरिक तथा मानसिक विकास में बहुत से क्षेत्र अलग अलग दर से विकसित होते हैं । उदाहरणार्थ: हाथ, पैर तथा नाक आरम्भिक किशोरावस्था में अधिक विकसित हो जाते हैं, किन्तु चेहरे का निचला हिस्सा तथा कन्धे धीरे-धीरे विकसित होते हैं । बच्चों की सृजनात्मक कल्पना अधिक तीव्रता से बढ़ती है, जो किशोरावस्था आते आते अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच जाती है, किन्तु तर्कणा का विकास धीरे-धीरे होता है ।

(v) मानव विकास में सहसम्बन्ध होता है (There is Correlation in Human Development):

जननिक अध्ययनों से स्पष्ट होता है, कि वांछनीय विशेषकों से सम्बन्ध समारात्मक होता है । जब शारीरिक विकास तेज गति से होता है, तो मानसिक विकास भी तीव्रता से होता है ।

6. विकास में वैयक्तिक भेद पाये जाते हैं (There are Individual Differences in Development):

जबकि समस्त बालकों में विकास प्रतिमान एक जैसा होता है, तब भी वे एक समान उम्र में विकास के एक जैसे बिन्दु तक पहुँच नहीं पाते हैं । अत: कहा जा सकता है, कि विकास में व्यक्तिगत भेद पाये जाते हैं । इन व्यक्तिगत भेदों के लिए आन्तरिक तथा बाह्य दशाओं को उत्तरदायी माना जाता है ।

उदाहरणार्थ:

शारीरिक विकास आंशिक रूप से वंशागत सुप्त क्षमताओं पर निर्भर होता है, तथा आंशिक रूप से भोजन, सामान्य स्वास्थ्य, जलवायु आदि पर निर्भर करता है । ऐसे ही बौद्धिक विकास भी आनुवंशिकता तथा वातावरण पर निर्भर करता है ।

जबकि बच्चों में विकास-दर भिन्न-भिन्न पाई जाती है, तथापि समस्त शिशुओं में विकास संगति पायी जाती है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि हर बच्चे का विकास-प्रतिमान होता है, जो उसके वंशागत वृत्तिदान व वातावरण कारकों के अद्वितीय संयोजन पर निर्भर होता है ।

जैसे: जो बच्चे एक अवस्था में अपेक्षाकृत लम्बे होते हैं, वे आने वाली अवस्था में भी लम्बे पाये जाते हैं । इसी प्रकार जो एक अवस्था में कद में छोटे होते हैं, वे आने वाली अवस्था में भी छोटे पाये जाते हैं ।

यही बात मानसिक विकास के सम्बन्ध में भी प्रदर्शित होती है, जो बच्चे एक अवस्था में तेज बुद्धि के होते है, वे आने वाली अवस्था में भी ऐसे ही पाये जाते हैं, तथा जो मानसिक मन्दन से ग्रसित होते हैं, वे आने वाली अवस्था में भी ऐसे ही रहते हैं । अगर शिशु का जन्म से लेकर परिपक्वता तक पुनर्परीक्षण किया जाये तो स्पष्ट होता है, कि उनमें बुद्धि के दृष्टिकोण से संगति पायी जाती है ।

7. विकासात्मक प्रतिमान में अवधियाँ होती हैं (There are Various Periods in the Developmental Pattern):

जबकि विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है, तब भी कुछ आयु स्तरों पर दूसरों की अपेक्षा कुछ विशेषकों के विकास के दर अधिक तेज होती है, जिस कारण ये विशेषक अपेक्षाकृत अधिक विकसित नजर आने लगते हैं ।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विकास की ऐसी अवस्थाओं की चर्चा की जाती है, जिनमें से हर अवस्था विकास के विशिष्ट प्रकार से सम्बन्धित होती है, किन्तु इन अवधियों के लिए आयु सीमाओं की मात्र मोटे तौर पर ही भविष्यवाणी की जा सकती है ।

वे इस प्रकार से हैं:

(1) गर्भकालीन अवस्था;

(2) शैशवावस्था (जन्म से 14 दिनों तक);

(3) बचपनावस्था (दो सप्ताह से दो वर्ष तक);

(4) बाल्यावस्था (दो वष से दस वर्ष तक);

(5) वय: सन्धि (11 वर्ष से 16 वर्ष तक);

(6) किशोरावस्था (14 वर्ष से 21 वर्ष तक);

(7) प्रौढावस्था (21 वर्ष से लेकर आगे तक) |

विकासात्मक प्रतिमान में कुछ अवधियों में सन्तुलन और दूसरों में असन्तुलन प्रदर्शित होता है । सन्तुलन की अवधियों में शिशु अच्छा समायोजन कर लेता है, किन्तु असन्तुलन की अवस्था में उसका समयोजन भिड़ाभिड़ा कारकों द्वारा समाप्त हो जाता है ।

उदाहरणार्थ:

शिशु ढाई साल की उम्र में असन्तुलन तथा तीन साल की आयु में सन्तुलन का अनुभव करता है । जिस प्रकार से सन्तुलन व असन्तुलन के वर्षों की भविष्यवाणी की जा सकती है । उसी प्रकार से इन वर्षों से सम्बन्धित व्यवहार प्रतिमानों की भी भविष्यवाणी की जा सकती है ।

उदाहरणार्थ:

असन्तुलन की अवधि में अच्छे बच्चे अचानक बुरे बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं, तथा वे खान-पान, सोने इत्यादि में कठिनाई का अनुभव करने लगते हैं, किन्तु सन्तुलन अवधि में आकर फिर वे अच्छा समायोजन कर लेते हैं । लड़के तथा लड़कियाँ आपसी भिन्न दरों से विकसित होते हैं, तथा उनकी सन्तुलन तथा असन्तुलन की अवधियाँ भी कुछ अलग उम्र में पायी जाती हैं ।

उदाहरणार्थ:

लड़कियों में वय सन्धि लड़कों से लगभग एक साल पहले आरम्भ हो जाती है ।

8. प्रत्येक विकासात्मक अवधि हेतु सामाजिक प्रत्याशाएँ होती हैं (There are Social Expectations for Every Developmental Periods):

वास्तव में, हर संस्कृति में दूसरों की अपेक्षा कुछ आयु स्तरों पर, कुछ व्यवहार प्रतिमानों तथा कौशलों को जल्दी सीखा जा सकता है । दूसरा व्यक्ति एक व्यक्ति से आयु स्तर के अनुकूल ही व्यवहार की आशा रखते हैं । सभी को इन सामाजिक प्रत्याशाओं का बोध होता है ।

यहाँ तक कि कम उम्र के बच्चे भी यह जानते हैं, कि उनके सीखने के प्रतिमान को सामाजिक प्रत्याशाएँ ही प्रधानत: निर्धारित करती हैं । इन्हीं सामाजिक प्रत्याशाओं को विकासात्मक कार्यों के नाम से जाना जाता है ।

Havighurst (1972) के अनुसार एक विकासात्मक कार्य ऐसा कार्य होता है, जो प्राणी के जीवन की निश्चित अवधि से जुड़ा रहता है, यदि प्राणी इसे पूरा कर लेता है, तो वह खुश हो जाता है तथा बाद के कार्यों पर भी सफलता प्राप्त कर लेता है ।

यदि वह उसे हासिल नहीं कर पाता तो दु:खी हो जाता है । समाज उसे अनुमोदन नहीं देता है, तथा वह बाद के कार्यों में कठिनाई महसूस करता है । विकासात्मक कार्य शारीरिक परिपक्वता सामाजिक तथा सांस्कृतिक दवाबों और व्यक्तिगत मूल्यों तथा आकांक्षाओं से जुड़े होते हैं ।

विकासात्मक कार्य निम्नलिखित तीन उद्देश्यों को पूरा करते हैं:

(i) ये माता-पिता तथा अध्यापकों के लिए इन दिशानिर्देशों का कार्य करते हैं, कि एक आयु स्तर पर बालक को क्या सीखना चाहिए?

(ii) ये कारक बच्चों के लिए ऐसे अभिप्रेरणा बलों का कार्य करते हैं, जिनके कारण वे उन सभी को सीखते हैं, जिनकी अन्य व्यक्ति उनके आयु स्तर अनुसार प्रत्याशा करते हैं ।

(iii) ये कार्य माता-पिता तथा शिक्षकों को यह बताते हैं, कि तत्कालिक तथा दूर भविष्य में उनसे क्या उम्मीद की जायेगी?

विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों ने ऐसे कारको को ज्ञात किया है, जो विकासात्मक कार्यों की पारंगतता पर प्रभाव डालते हैं,

ये इस प्रकार है:

(i) शारीरिक विकास;

(ii) आयु के अनुसार ताकत तथा ऊर्जा;

(iii) बुद्धि;

(iv) सीखने के मौके;

(v) मार्गदर्शन;

(vi) अभिप्रेरणा;

(vii) स्वयं को अलग दर्शाने की इच्छा ।

इन उपर्युक्त कारकों की उचित मात्रा विकासात्मक कार्यों की पारंगतता में मददगार साबित होती है । दूसरी ओर इन कारको की न्यूनता पारंगतता में कठिनाई पैदा करती है ।

9. विकास के प्रत्येक क्षेत्र में अपने सम्भव खतरे हैं (Every Area of Development has its own Potential Hazards):

जब विकासात्मक प्रतिमान की गति सामान्य होती है, तब भी हर आयु स्तर पर विकास के कुछ क्षेत्रों में कुछ खतरे होते हैं, जो सामान्य प्रतिमान के साथ हस्तक्षेप करते हैं । ये कुछ तो वातावरण से जुड़े होते हैं, और कुछ अन्य स्वयं व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बन्धित होते हैं ।

ये खतरे प्राणी के शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक व सामाजिक अभियोजनों को प्रभावित करते हैं । ये शिशु के विकास प्रतिमान में अवरुद्धता या प्रतिमान तक पैदा कर सकते हैं । जब बच्चा खतरे के कारण समायोजन समस्या का सामना करता है, तो वह अपरिपक्व कहलाता है ।

10. प्रसन्नता विभिन्न विकासात्मक दशाओं के अनुसार बदलती है (Happiness Varies at Different Developmental Stages):

वाचिक प्रतिवेदनों से स्पष्ट होता है, कि बचपन जीवन की सबसे अच्छी अवस्था होती है । किन्तु कुछ शोधकर्ताओं ने इस पर विरोधी प्रतिक्रिया व्यक्त की है । खुशी एक उचित सज्ञा नहीं है । खुशी एक आत्मगत अनुभव है, और इसका मापन वस्तुनिष्ठ मापनी द्वारा सम्भव नहीं है ।

खुशी का अध्ययन करने में पद्धति से सम्बन्धित परेशानियाँ होते हुए भी इसे बच्चों के प्रतिवेदन के अतिरिक्त उनके संवेग, व्यवहार, वाणी, चेहरे के हाव-भाव आदि वस्तुनिष्ठ साक्ष्यों के आधार पर अध्ययन करने का प्रयास किया जाता है । विभिन अध्ययनों से स्पष्ट होता है, कि पूर्ण जीवनकाल में बचपन सबसे खुशी की अवस्था होती है ।

सभी लोग शिशुओं को असहाय समझकर उन्हें खुश रखना चाहते हैं । बहुत कम बच्चे तिरस्कार का शिकार होते हैं । जीवन के पहले वर्ष की अपेक्षा दूसरा वर्ष कम खुशी वाला होता है । इस वर्ष बालक कुछ आजादी चाहते हैं, तथा दूसरे लोगों के नियन्त्रणों का विरोध करते हैं । किसी अन्य भाई-बहन का जन्म उन्हें खुशी नहीं देता ।

जब बालक बड़े हो जाते हैं, तो बाद के बाल्यकाल में बहुत से कारक उनकी खुशी को निर्धारित करते हैं, इस अवस्था में शिशु बहुत खुश रहते हैं, क्योंकि तब वे अपनी पसंदगियों की क्रियाएँ कर सकते हैं ।

यदि घर की दशाएँ अधिक अनुकूल हैं, तो वे घर में अधिक समय बिताते हैं, और यदि बाहर की दशाएँ अधिक अनुकूल हैं, तो वे बाहर जाकर दोस्तों तथा सहपाठियों के साथ खेलते हैं । तत्पश्चात् वय: सन्धि अप्रसन्नता या नाखुशी की अवस्था होती है । इस अवस्था के अन्तर्गत बालक दिवास्वप्न में खोये रहते हैं, तथा कभी-कभी ऐसा समय भी आ जाता है, कि वे जीवन को व्यर्थ समझने लगते हैं ।

हर विकासात्मक अवस्था पर सन्तुलन और असन्तुलन की अवस्पियाँ होती हैं । शिशु सन्तुलन की अवधि को असन्तुलन की अवधि की अपेक्षा ज्यादा सुखमय मानता है । खुशी के मुख्य तीन तत्व होते हैं: (Acceptances, Affection and Achievement) | जिस प्राणी में इन तीन मूल तत्वों की उपयुक्त संयुक्ति पायी जाती है, वह खुशी महसूस करता है ।

अध्ययनों के अनुसार जो प्राणी खुशी महसूस करते रहते हैं, वे जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं, जो नाखुश रहते हैं, उन्हें हर कदम पर असफलता मिलती रहती है । जो बालक नाखुश दशाओं में भी स्वयं को सँभालने का प्रयास करते हैं, वे उच्च अंशों तक विकसित होने की क्षमता रखते हैं ।

11. अन्य:

(a) मानव विकास के अन्तर्गत विभिन्नीकरण तथा एकीकरण होता है ।

(b) मानव विकास में प्रस्फुटित क्षमताओं और कौशलों का स्वत: उपयोग होता है ।

(c) मानव सुसंगठित तथा सम्पूर्ण रूप से विकसित होता है ।

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