Here is an essay on the ‘Moral Development of an Individual’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Moral Development of an Individual’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. नैतिक विकास का सम्प्रत्यय (Concept of Moral Development):

मानव स्वभाव से एक चिन्तनशील प्राणी है, वह सदैव उचित अनुचित के विषय में सोचता है । उसे इस बात का ज्ञान होता है, कि उसके द्वारा किये जा रहे कार्य की क्या सीमाएँ हैं ? क्या मर्यादाएँ है ? समाज में उनको स्वीकार करने के क्या मापदण्ड हैं ? एवं वातावरण जन्य परिस्थितियों में उसके व्यवहार के क्या निर्धारक हैं ?

आदि ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिनका समाधान मनुष्य अपने स्वविवेक से करता है । मनुष्य के क्रियाकलापों से सम्बन्धित उसका पारिवारिक, विद्यालयी, सामुदायिक, सामूहिक एवं सामाजिक वातावरण सम्बन्धी ताना-बाना बुना होता है, जिसमें वह दिन-प्रतिदिन नयी-नयी जानकारियाँ, तौर-तरीके एवं अन्य बातों का ज्ञान प्राप्त करता है ।

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मनुष्य द्वारा प्राप्त ज्ञान उसकी बुद्धि के विकास में सहायक होता है । मनुष्य के इन क्रियाकलापों से अभिप्राय उसके नैतिक व अनैतिक व्यवहार करने के तरीके से है । वह अनेक बार भयभीत होता है ।

जब उसके मन में यह बात आती है, कि वह जो कार्य कर रहा है वह अनुचित है, यही उसके नैतिक आचरण का मापदण्ड है । मनुष्य के बचपन से लेकर अग्रिम अवस्थाओं तक नैतिकता की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है ।

नैतिकता वह है जिसमें समाज विरोधी क्रियाओं का परिहार तथा समाजोन्मुखी क्रियाओं का निष्पादन किया जाता है । E.B. Hurluck (1918) ने नैतिकता से सम्बन्धित अनेक संज्ञाओं के विषय में बताया है ।

‘Moral’ शब्द लैटिन भाषा के Mores शब्द से उत्पन्न हुआ है, जिसके द्वारा विशेष प्रकार के मानक को दर्शाया जा सकता है । नैतिक व्यवहार के विषय में वह कहते हैं, कि ”नैतिक व्यवहार का अर्थ सामाजिक समूह के नैतिक कोड के अनुरूप व्यवहार से होता है ।”

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(“More behavior is conformity with the moral code of the social group.”)

वास्तविकता में नैतिक व्यवहार, व्यवहार के उन नियमों से नियन्त्रित होता है, जिनके प्रति संस्कृति के सदस्य अभ्यस्त होते हैं, तथा जो समह के प्रत्याशित व्यवहार प्रतिमानों का निर्धारण करते हैं । नैतिक व्यवहार की प्रकृति अनैतिक व्यवहार से भिन्न होती है ।

जब एक व्यक्ति सामाजिक नियमों को जानते हुए भी सामाजिक प्रत्याशाओं के विरूद्ध व्यवहार करता है, तब वास्तविक नैतिकता वाले व्यक्ति में हमेशा अपराध की गुजाइश होती है । आत्म-नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति बाहरी उन्मुखी मानदण्डों की अपेक्षा में आन्तरिक उम्मुखी मानदण्डों के माध्यम से समूह के लोकाचार का अनुपालक होता है ।

नैतिक विकास में अपराध की मुख्य भूमिका होती है । जब बच्चों में अपराध की भावना विकसित होती है, तब वह समूह की प्रत्याशाओं को ग्रहण करने व इनके समान व्यवहार करने के लिए अभिप्रेरित हो जाते हैं ।

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इस प्रकार का व्यवहार अनैतिक व्यवहार कहलाता है । इसके विपरीत, यदि व्यक्ति समाज की प्रत्याशाओं से अन्जान होकर इस प्रकार की व्यवहार प्रक्रिया करता है, जो कि सामाजिक नियमों के उल्लघंन का संकेत देती है, तो यह व्यवहार भी अनैतिक व्यवहार कहलाता है ।

वास्तविकता तो यह है, कि नैतिकता का सम्बन्ध आत्मनियन्त्रण से होता है । वास्तविक नैतिकता वाला व्यवहार न केवल सामाजिक नियमों के अनुरूप होता है, वरन् स्वेच्छापूर्वक किया जाता है । इस व्यवहार में बाहरी सत्ता से आन्तरिक सत्ता में संक्रमण देखा जाता है ।

व्यवहार का नियन्त्रण पहले बाहर से हुआ करता था, किन्तु अब स्वयं के अन्दर से होने लगा है । आयु में वृद्धि के साथ-साथ वास्तविक नैतिक विकास में भी वृद्धि होने लगती है । भले ही बाल्यावस्था में इसके प्रमाण न दिखें किन्तु किशोरावास्था में इसके प्रमाण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने लगते हैं ।

नैतिक विकास के आवेगी एवं बौद्धिक पहलू होते हैं । एक आयु स्तर पर बालक सही एवं गलत को अलग-अलग कर देता है, क्योंकि वह समाज की प्रत्याशाओं को समझना शुरू कर देता है ।

Essay # 2. नैतिकता को सीखने के मुख्य तत्व (Main Elements to Learn Morality):

नैतिकता को सीखने का मानदण्ड क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने प्रयास किया है, परिणामों के आधार पर इसे चार तत्वों में विभाजित किया जा सकता है:

(i) कानून, प्रथाएं एवं नियम (Laws, Customs and Rules):

सामाजिक वातावरण में कानून, लोकाचार प्रथाएँ एवं नियमों को मान्यताएँ समाज के सदस्य ही प्रदान करते हैं क्योंकि नैतिक व्यक्ति बनने के लिए व्यक्ति का आचरण उत्तम होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है, कि व्यक्ति यह समझे कि समाज के अन्य सदस्य उससे किस प्रकार की प्रत्याशाएँ रखते हैं ?

ये प्रत्याशाएँ ही एक प्रकार से कानून एवं नियमों के रूप में लागू होती हैं । प्रत्येक समूह में यह ध्यान रखा जाता है, कि सामूहिक रूप से जो आचरण उत्तम हो उसे सही माना जाए तथा समस्त सदस्य इसका परिपालन करें, सही-गलत का निर्णय लें ।

अनुचित करने वाले को सजा एवं उचित करने वाले को पुरस्कार दिया जाये अर्थात, समाज में रहकर प्रथाओं एवं नियमों से परे कोई नहीं हो सकता । इसी प्रकार विद्यालयों, संस्थाओं व संगठनों सभी में कुछ नियम बनाए जायें जिनका पालन उसके सभी सदस्पों को करना अनिवार्य रखा जाये ।

नैतिक आचरण के तत्व को बाल्यावस्था से लेकर अन्य अवस्थाओं तक लागू किया जाये उनका दृढ़ता से पालन किया जाए । इस प्रकार नियम कानून एवं प्रथाएँ नैतिक विकास में प्रमुख भूमिका निवर्हन करते हैं ।

(ii) अन्तरात्मा (Conscience):

नैतिकता का आचरण करने के लिए दूसरा महत्वपूर्ण तत्व अन्तरात्मा है । अर्थात् मनुष्य की अन्तरात्मा का विकास । अन्तरात्मा मनुष्य के व्यवहार एवं आचरण पर नियन्त्रण स्थापित करने का कार्य करती हैं । हालांकि बालक को अन्तरात्मा का अभिप्राय मालूम नहीं होता किन्तु क्या सही है क्या गलत इस बात को अवश्य सीखने लगता है, धीर-धीरे उसकी यही समझ अन्तरात्मा के तत्व से जुड़ जाती है ।

अन्तरात्मा के अभिप्राय को व्यवहारवादी मनोविद निश्चित परिस्थितियों एवं कार्यों के प्रति अनुबन्धित दुश्चिंता अनुक्रिया का रूप मानते है । मनोविश्लेषणवादी ‘सुपर इगो’ का एक संघटक (Component) मानते हैं । आन्तरिक रूप से अन्तरात्मा उस समय कार्य करती है, जब कोई व्यक्ति अनुचित कार्य करता है, तब उसे अन्तरात्मा शूल चुभाती है ।

अर्थात् उसके व्यवहार को नियन्त्रित करने वाले आन्तरिक मानदण्ड के रूप में कार्य करती है । ऐसे में व्यक्ति का आत्मनियन्त्रण विकसित हो जाता है ।

(iii) अपराध एवं शर्म (Guilt and Shame):

अपराध एवं शर्म की भावना का विकास एक व्यक्ति को नैतिक व्यवहार करना सिखाता है । इसे नैतिक आचरण का तीसरा मूल तत्व माना गया है । जब एक बालक की अन्तरात्मा विकसित हो जाती है, तो उसे सदैव व्यवहार के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं होती बल्कि वह स्वयं ही अपना मार्गदर्शन करना शुरू कर देता है ।

अन्य शब्दों में कहा जा सकता है, कि जब उसको अन्तरात्मा द्वारा निर्धारित किये मानदण्ड पर अपना व्यवहार उचित नहीं जान पडता तो वे शर्म की भावना एवं अपराध बोध से ग्रस्त हो जाते हैं:

Eysnck (1960) ने अपराध को इस प्रकार परिभाषित किया है:

जब कभी व्यक्ति स्वयं के द्वारा निर्धारित मानदण्डों के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाता तो वह अपराध की भावना से ग्रस्त हो जाता है ।

D.A. Asubel (1955) ने शर्म के विषय में अपना तर्क निम्नवत् दिया है:

उपर्युका आधार पर कहा जा सकता है, कि अपराध आन्तरिक एवं बाह्य प्रतिबन्धों पर निर्भर करता है, जबकि शर्म मात्र प्रतिबन्धों पर ही निर्भर करती है ।

(iv) सामाजिक अन्त:क्रियाएं (Social Interaction):

जब बच्चा सामाजिक समूह के सदस्यों के साथ अन्तर्क्रिया करता है, तब वह सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहारों और सदस्यों द्वारा अनुमोदित व्यवहारों के मानदण्डों के विषय में जानने लगता है और वह उन्हीं के अनुरूप उन सदस्यों द्वारा अभिप्रेरित होकर इन मानदण्डों के समान व्यवहार करने की कोशिश करके वह सीख जाता है, कि उसे समाज में किस तरह का व्यवहार करना चाहिए ।

सर्वप्रथम एक नवजात शिशु अपने परिवार के लोगों के साथ अन्तर्क्रिया करता है । धीरे-धीरे जैसे ही उसका दायरा बढ़ने लगता है, वह सामाजिक दायरे में आता है । वह पड़ोस स्कूल तथा अभिजात सदस्यों के साथ भी अन्तर्क्रिया करना शुरू कर देता है ।

बच्चे सामाजिक अन्तर्क्रिया से न केवल सामाजिक नियम ही सीखते हैं, वरन् वह यह भी सीखते हैं, कि दूसरे लोग उसके व्यवहार का किस प्रकार से मूल्यांकन करते हैं ? यदि उनके मानदण्डों का मूल्यांकन अनुकूल होता है, तब बच्चे अनुकूल मूल्यांकन वाले व्यवहारों के कारण नैतिक मूल्यों का अपना लेते है ।

इसके अलावा वे प्रतिकूल मानदण्डों की प्राप्ति करते हैं, तब वे नैतिक मानदण्डों को बदल लेते हैं और ऐसे मानदण्डों को अपनाने लगते हैं जिनके समान व्यवहार करने पर उन्हें स्वीकृति व अनुमोदन मिलते हैं । जब उनको इस काम में अधिक स्वीकृति मिलती है, तब वह सामाजिक अन्तर्क्रिया के और अधिक अवसर तलाशने लगते हैं तथा नैतिक संहिता को जानने के और अधिक अवसर निकाल लेते हैं ।

इस तरह कहा जा सकता है, कि नैतिक विकास में सामाजिक अन्तर्क्रियाएँ महत्वपूर्ण होती हैं ।

Essay # 3. नैतिक एवं सामाजिक अधिगम के सिद्धान्त (Moral & Social Learning Theories):

1. प्रयास व भूल विधि के माध्यम से सीखना (Trail and Error Method Learning):

बाल्यकाल में बच्चे प्रयत्न व भूल विधि के माध्यम से नैतिकता को सीखने का प्रयत्न किया करते हैं । इसके द्वारा वे पहले एक व्यवहार प्रतिमान को करने की कोशिश करते हैं और जब उन्हें इस व्यवहार के प्रदर्शन से सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है, तब वह इसे सामाजिक मानदण्डों के समान अनुरूप मानकर उन्हें स्थायी रूप देने की कोशिश करते हैं ।

अगर उनको अपने इस व्यवहार प्रतिमान के प्रदर्शन से सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं होती तब वह अपने व्यवहार को बदल लेते हैं तथा इस प्रकार किसी दूसरे व्यवहार प्रतिमान को अजमाने की कोशिश करते हैं । वह अपने व्यवहार प्रतिमान को तब तक परिवर्तित करते हैं जब तक कि उनको स्वीकृत व्यवहारों के बारे में जानकारी न मिल जाये ।

इस विधि द्वारा बहुत समय व ऊर्जा लगती है तथा इसमें अन्तिम परिणाम भी संतोषजनक नहीं पाये जाते लेकिन बाल्यावस्था में बच्चे प्रशिक्षण के अभाव में इससे काम चलाते देखे जा सकते हैं ।

2. प्रत्यक्ष शिक्षण (Direct Teaching):

नैतिकता को सीखने के लिए बच्चों को विशेष प्रकार की दशाओं के प्रति सही विशिष्ट अनुक्रिया करना सीखना होता है । नैतिक विकास के लिए बच्चे अपने माता-पिता शिक्षक अथवा सत्ता वाले अन्य व्यक्तियों के माध्यम से निर्धारित नियमों कानूनों लोकाचारों प्रथाओं व अन्य मानकों के अनुसार व्यवहार करना सीखते हैं ।

माता-पिता, शिक्षक महत्वपूर्ण अन्य व्यक्ति पुरस्कार व दण्ड का प्रयोग करके बच्चों में नैतिकता के गुणों का विकास करते हैं यदि दो भिन्न दशाओं में वस्तुनिष्ठ पहलुओं में समानता पाई जाती है, तब बच्चा सामान्यीकरण के माध्यम से सीखने में रूपानान्तरण प्रदर्शित करता है ।

3. तादात्मीकरण (Identification):

बच्चे जब किसी व्यक्ति से परिचय करते हैं, उनका व्यवहार उन्हें अच्छा लगता है तथा बच्चे उनकी प्रशंसा करते हैं, तब वे उनके व्यवहार को अपनाकर वैसा ही अनुकरण करने लगते हैं । यह क्रिया अचेतन रूप से चलने लगती है । नवीन शोधों से ज्ञात होता है कि नैतिक विकास में अनुकरण विधि अन्य विधियों की तुलना में मुख्य है ।

Essay # 4. नैतिक विकास की प्रावस्थाएँ (Phases of Moral Development):

नैतिक विकास की दो प्रावस्थाएँ हैं, जो निम्नलिखित हैं:

1. नैतिक व्यवहार का विकास:

नैतिक व्यवहार को नैतिक विकास की पहली प्रावस्था माना जाता है । बच्चा बचपन से नैतिक ज्ञान को सीखने लगता है, लेकिन नैतिक ज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात यह आवश्यक नहीं कि बच्चा इसके बाद नैतिक व्यवहार आवश्यक रूप से प्रदर्शित करेगा ऐसे बहुत से कारक हैं, जो कि उसके नैतिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।

इसमें सामाजिक दवाब बच्चे की अपने बारे में अनुभूति हमजात समूह, शिक्षकों तथा परिवारजनों के माध्यम से उसके साथ व्यवहार वर्तमान दशा आदि की गणना की जाती है । अधिकतर बच्चे प्रयास तथा भूल विधि, तादात्मीकरण, अनुकरण, क्रियाप्रसूत अनुबन्धन आदि के माध्यम से सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहार करना सीखते हैं ।

2. नैतिक सम्प्रत्ययों का विकास:

नैतिक विकास की द्वितीय प्रावस्था का निर्माण सही-गलत होने सिद्धान्तों के सीखने से होता है । इस प्रकार से कहा जा सकता है, कि यह नैतिक संप्रत्ययों की सीखने वाली प्रावस्था होती है ।

यह प्रावस्था बच्चे में अपेक्षाकृत देर से दिखाई देती है । जब बच्चे में सामान्यीकरण तथा सीखने में स्थानान्तरण की मानसिक क्षमता का विकास होता है, तब वह नैतिक सिद्धान्तों को समझने लगता है । पहले-पहले बच्चों में नैतिक संप्रत्यय विशिष्ट होते हैं, तथा केवल उन्हीं दशाओं से जुड़े होते हैं, जिनके द्वारा इन संप्रत्ययों को सीखा गया होता है ।

जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है, वह सम्बन्धों को जानने लगता है तथा इसी क्षमता विकास के आधार पर सही व गलत सम्प्रत्ययों को सीखने लगता है । वह अनेक विभिन्न दशाओं में साँझे तत्वों को जानने लगता है तथा इस प्रकार उसमें सामान्य सप्रत्यय उभरने लगते हैं ।

जैसे – छोटी आयु का बच्चा अच्छे व्यवहार को माता-पिता की आज्ञा का पालन करना, दूसरों की सहायता करना आदि विशिष्ट क्रियाओं के आस्पार पर बताता है । लगभग 8-9 वर्ष की अवस्था में वह गलत व्यवहार को जानने लगता है । ऐसे सामान्यीकृत नैतिक संप्रत्यय जो सामाजिक मूल्यों को दिखाते हैं, वह नैतिक मूल्य कहलाते हैं ।

ये नैतिक मूल्य जल्दी परिवर्तित नहीं होते लेकिन यदि सामाजिक दवाब की वजह से इनमें परिवर्तन होता भी है, तब यह अधिकतर Conventional Morality या वयस्क सामाजिक समूह की नैतिकता की दिशा में होता है ।

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