आर्थिक विकास के निर्धारक | Determinants of Economic Development in Hindi!

Read this article in Hindi to learn about the nine main determinants of economic development. The determinants are:- 1. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) 2. पूँजी निर्माण (Capital Formation) 3. पूँजी उत्पाद अनुपात (Capital Output Ratio) and a Few Others.

यहाँ हम आर्थिक घटकों में निम्न महत्वपूर्ण कारकों का संक्षिप्त विवेचन करेंगे:

Determinant # 1. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources):

मनुष्य को प्राकृतिक संसाधन उसके भौतिक वातावरण से प्राप्त होते हैं । वह अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु इन पर निर्भर रहता है । संकीर्ण अर्थों में प्राकृतिक संसाधनों के अधीन प्रकृति के उन उपहारों को सम्मिलित किया जाता है जिनका विदोहन मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप करता है ।

ADVERTISEMENTS:

एक देश का आर्थिक विकास उस देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता है यथा:

i. देश में उपलब्ध व उपयोग में लाई भूमि,

ii. भूमि की उर्वरता,

iii. नदियों की सिंचाई क्षमता,

ADVERTISEMENTS:

iv. जलवायु एवं वर्षा,

v. वन संसाथनों की उपयोगिता,

vi. पर्वत, भूमि व जल स्रोतों से प्राप्त संसाधन व खनिज सम्पदा,

vii. भूमिगत स्रोतों व सागर से प्राप्त सम्पदा,

ADVERTISEMENTS:

viii. पर्यावरण एवं परिस्थितिकी की दशा ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने विकास की समस्या को एक देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा के सन्दर्भ में दखा । उनका विश्वास था कि दीर्घकाल में प्राकृतिक संसाधनों की कमी की समस्या उत्पन्न होगी जिससे आर्थिक विकास अवरूद्ध होगा । रिचर्ड टी. गिल के अनुसार- जनसंख्या व श्रम की पूर्ति की भाँति प्राकृतिक संसाधन भी देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं, जैसे कि उर्वर मिट्‌टी व जल का अभाव होने पर कृषि विकास सम्भव नहीं हो पाता । कोयला, लोहा व खनिज पदार्थों के अभाव से औद्योगीकरण की प्रक्रिया बाधित होती है उसी प्रकार जलवायु व भौगोलिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होने से आर्थिक क्रियाओं में विस्तार सम्भव नहीं ।

बामोल अपनी पुस्तक Economic Dynamics में लिखते हैं कि प्राकृतिक संसाधन आर्थिक प्रगति के महत्वपूर्ण निर्धारक हैं । आर्थर लेविंस के अनुसार- किसी देश के विकास का स्तर व स्वरूप उस देश के संसाधनों द्वारा सीमित होता है ।

प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि व उपयोग देश के तकनीकी ज्ञान के विस्तार, नवीन खोज व आविष्कार पर निर्भर करता है । वह संसाधन जिनका पुन: उत्पादन नहीं हो सकता, की कमी को तकनीकी स्वरूप में परिवर्तन के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है ।

अत: प्राकृतिक संसाधनों का प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होना ही आर्थिक विकास के लिए आवश्यक नहीं बल्कि इनका समुचित व विवेकपूर्ण विद्रोहन होना चाहिए । वर्तमान समय में संसाधनों की संरक्षण एवं विनाश की समस्या उत्पन्न हुई है ।

संसाधनों का अधिकतम ब्दिएाहन किये जाने से पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ा है तथा पर्यावरण की समस्याएं स्मत्र हो गयी हैं । संसाधनों का प्रयोग करने में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि

(1) संसाधनों का इस प्रकार मितव्ययितापूर्ण उपयोग किया जाये जिससे संसाधनों का क्षरण न हो ।

(2) प्राकृतिक संसाधनों का बहुल उपयोग किया जाना चाहिए । अर्द्धविकसित देशों में इनका समुचित विदोहन इस कारण नहीं होता, क्योंकि इन देशों में पूँजी, तकनीक, उद्यमशीलता का अभाव है । इसके साथ ही अन्तर्संरचनात्मक दुर्बलता व बाजार की अपूर्णता संसाधनों के अनुकूलतम प्रयोग हेतु अवरोध उत्पन्न करते हैं ।

आर्थर लेविस के अनुसार- एक देश जिसे वर्तमान समय में संसाधनों की दृष्टि से दुर्बल माना जा रहा है कुछ समय के उपरान्त संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध बन सकता है । यह केवल इस कारण नहीं कि अज्ञात साधनों को खोज लिया जाएगा बल्कि इसलिए कि ज्ञात संसाधनों के नए प्रयोग खोजे जाने सम्भव होंगे ।

Determinant # 2. पूँजी निर्माण (Capital Formation):

सामान्यत: पूँजी निर्माण से अभिप्राय है देश की वास्तविक पूँजी में वृद्धि होना । व्यापक अर्थ में पूँजी निर्माण के अधीन भौतिक एवं अभौतिक पूँजी (शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशिक्षण, कुशलता निर्माण) की वृद्धि को सम्मिलित किया जाता है । पूँजी निर्माण हेतु बचतें आवश्यक हैं लेकिन बचतों का होना ही समर्थ दशा नहीं पूँजी निर्माण हेतु तीन स्वतन्त्र क्रियाओं का होना अनिवार्य है:

i. शुद्ध बचतों के परिणाम में होने वाली वृद्धि जिससे वह साधन जिनका प्रयोग उपभोग उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है को पूँजी निर्माण की ओर प्रवाहित किया जाये ।

ii. ऐसी वित्तीय व साख प्रणाली की स्थापना जो उपलब्ध बचतों को क्रियाशील कर सके ।

iii. विनियोग की क्रिया जिससे पूँजीगत वस्तुओं का उत्पादन सम्भव बन सके ।

अर्द्धविकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर न्यून होने से बचतें अल्प होती है लेकिन निवासियों की उपभोग प्रवृत्ति उच्च होने से प्रदर्शन प्रभाव कार्य करता है । आय में होने वाली थोड़ी वृद्धि भी उपभोग पर व्यय कर दी जाती है । अत: पूँजी निर्माण को बढ़ाने के लिए घरेलू उपभोग पर नियन्त्रण आवश्यक होता है ।

इस हेतु सरकार करारोपण, सार्वजनिक उधार प्राप्ति, आयातों के उपभोग में कटौती के तरीके अपनाती है । छद्म बेकारी के उपयोग द्वारा भी पूँजी निर्माण में वृद्धि की जा सकती है जिसमें कृषि क्षेत्र में अनुत्पादक श्रम शंकित को विनिर्माण कार्यों में रोजगार प्रदान कर उनकी आय वृद्धि के प्रयास किए जाते है ।

Determinant # 3. पूँजी उत्पाद अनुपात (Capital Output Ratio):

पूँजी उत्पाद अनुपात को एक अर्थव्यवस्था में एक नियत समय अवधि के अधीन विनियोग के उत्पादन से सम्बन्ध द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है । यह विनियोग का निर्धारक है । इसे पूँजी आय गुणांक या पूँजी गुणांक भी कहा जाता है । यह उत्पादन की निश्चित मात्रा के उत्पादन हेतु विनियोजित पूँजी की मात्रा व उत्पादन के मध्य सम्बन्ध को अभिव्यक्त करता है ।

पूँजी उत्पादन अनुपात को दो रूपों में प्रकट किया जा सकता है:

(1) औसत पूँजी-उत्पाद अनुपात (ACOR) तथा

(2) सीमान्त पूँजी उत्पाद अनुपात (MCOR) ।

औसत पूँजी-उत्पाद अनुपात, पूँजी के विद्यमान स्टाक (K) एवं उससे प्राप्त उत्पादन (Y) के सम्बन्ध को अभिव्यक्त करता है । अर्थात् ACOR = (K)/(Y)

सीमान्त पूँजी उत्पाद अनुपात पूँजी के स्टाक में वृद्धि (∆K) द्वारा उत्पादन की मात्रा में वृद्धि (∆Y) के सम्बन्ध को अभिव्यक्त करता है ।

अर्थात् MCOR = (∆K)/( ∆Y)

पूँजी उत्पाद अनुपात विनियोग पूँजी की मात्रा पर ही नहीं बल्कि अनेक कारकों से प्रभावित होता है यथा:

i. प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता होने पर इनका पूँजी से प्रतिस्थापन सम्भव होगा । अत: COR न्यून या कम होगा ।

ii. जनसंख्या में होने वाली वृद्धि से औद्योगिक क्षेत्र में COR कम व कृषि प्रधान देश में COR उच्च होने की प्रवृत्ति रखेगा ।

iii. तकनीकी सुधार, यदि पूँजी गहन तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा दें तो यह बढ़ेगा, जबकि श्रम गहन तकनीक से COR कम होगा ।

iv. अन्तर्संरचना व भारी व आधारभूत उद्योग पर किए विनियोग से COR उच्च व कृषि व लघु कुटीर उद्योग धन्यों पर किये विनियोग से COR निम्न रहेगा ।

v. प्रबन्धकीय कौशल व संगठन योग्यता के स्तर के उच्च होने से COR न्यून होगा ।

अर्द्धविकसित देशों में पूँजी निर्माण की दर न्यून होने से आय में पूँजी का अनुपात कम बना रहता है । इसलिए COR कम होता है । इसी प्रकार इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों का अर्द्ध उपयोग होता है जिससे अल्प मात्रा में ही पूँजी विनियोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त करना सम्भव बनता है । अत: COR भी कम होगा । इन देशों में छद्म रूप से बेरोजगार व्यक्तियों को काम देने के लिए श्रम प्रधान तकनीक व कृषि व कुटीर उद्योगों में विनियोग हेतु अल्प पूँजी की आवश्यकता होती है । अत: COR कम होगा ।

अर्द्धविकसित देशों में जब अन्तर्संरचनात्मक या सामाजिक व आर्थिक उपरिमदों पर भारी पूँजीगत व्यय किया जाता है तो इसकी प्रवृत्ति पूँजी गहन व दीर्घ समय अवधि अन्तराल के उपरान्त प्रतिफल देने वाली होती है । अत: COR अधिक होगा । इन देशों में अभी तक प्रयोग न किए गए साधनों के प्रयोग हेतु पूँजी की विशाल मात्रा का प्रयोग तथा नये प्लांट व उपक्रमों के कच्चे माल के आपूर्ति स्थलों से दूर होने के कारण यातायात पर अधिक व्यय होता है ।

अत: इस दशा में COR अधिक होगा । साथ ही ऐसा देश जहाँ प्राकृतिक साधन कम हैं वहाँ उसके बदले पूँजी का प्रयोग बढ़ने से COR उच्च रहेगा । संक्षेप में विकास की एक वांछित दर को प्राप्त करने के लिए विनियोग अनुपात में वृद्धि, पूँजी उत्पाद अनुपात की कमी व जनवृद्धि की दर को सीमित रखना आवश्यक हो जाता है ।

वृद्धिमान पूँजी उत्पाद अनुपात (Incremental Capital Output Ratio):

वृद्धिमान पूँजी उत्पाद अनुपात या ICOR का महत्व अधिक है, क्योंकि उद्योग द्वारा चाही जाने वाली पूँजी की उस मात्रा का मापन करता है जो एक इकाई उत्पादन की वृद्धि हेतु आवश्यक हो अर्थात यह उद्योग द्वारा चाही गयी पूँजी की औसत मात्रा को अभिव्यक्त नहीं करता ।

ICOR का मापन अर्थव्यवस्था में समूचे रूप से या विशिष्ट उद्योग के लिये किया जा सकता है । एक अर्थव्यवस्था के लिये ICOR एक समय अवधि में देश के पूँजीगत स्टाक में होने वाली वृद्धि को देश की उत्पादक क्षमता में होने वाली वृद्धि के भाग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । एक उद्योग में ICOR वह गुणांक है जो उद्योग के पूँजी स्टाक में उसके द्वारा की गई उत्पादन वृद्धि या Value Added के भाग द्वारा ज्ञात किया जा सकता है ।

ICOR के मापन में आयी कठिनाइयाँ निम्न हैं:

1. ICOR का मापन सकल रूप में किया जा सकता है । शुद्ध रूप में नहीं । इसका कारण यह है कि ह्रास अथवा क्षरण के वास्तविक स्तर का आंकलन कठिन होता है । सकल पूँजी विनियोग में पुनर्स्थापन पूँजी, एक देश की उत्पादक क्षमता में ठीक उसी प्रकार वृद्धि नहीं करती, जैसे कि नयी पूँजी द्वारा सम्भव है ।

2. एक देश की उत्पादक क्षमता का आकलन करने के लिए ICOR सकल राष्ट्रीय उत्पाद को ध्यान में रखती है । सकल राष्ट्रीय उत्पाद में हर वर्ष परिवर्तन होते है तथा यह परिवर्तन प्रत्यक्ष रूप से विनियोग से सम्बन्धित नहीं होते ।

3. ICOR अर्थव्यवस्था में वृद्धि को प्रभावित करने वाले कई घटकों को ध्यान में नहीं रखता, जैसे- श्रम एवं अन्य आदाओं का योगदान, नए संसाधनों की खोज, नयी पूंजी का प्रयोग, शिक्षा प्रणाली में सुधार इत्यादि ।

4. ICOR का सामान्यीकरण करना कठिन है । यह हर उद्योग में भिन्न होंगे । कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के सापेक्ष कम विकसित अर्थव्यवस्था में ICOR सामान्यत: उच्च होते है ।

इसके कारण निम्न हैं:

a. कम विकसित देशों के विकास में सड़कों, सार्वजनिक उपयोगिताओं, संवाद-वाहन, यातायात व अन्तर्संरचनात्मक पर किए गए विनियोग में १६५०९ उच्च होता है ।

b. विकास की प्रक्रिया आरम्भ होने पर ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की ओर जनसंख्या का प्रवास होता है । अत: शहरों में नए आवास, साफ-सफाई, शौचालय निर्माण, स्कूल भवन निर्माण पर अधिक विनियोग किया जाता है । अत: ICOR उच्च होता है ।

c. यह माना जाता है कि कम विकसित देशों में आधुनिक औद्योगिक सुविधाएँ अनुकूलतम आकार पर स्थापित नहीं की जातीं अर्थात् इसका क्षमता उपयोग निम स्तर पर रहता है, क्योंकि समर्थ माँग का अभाव होता है । अत: उत्पादन प्रति इकाई आदा के अधिकतम नहीं होता ।

d. इन देशों में नवीनतम तकनीक का प्रयोग करने के लिए कुशल व्यक्तियों व प्रशिक्षण की कमी होती है, उपक्रमशीलता का अभाव होता है ।

e. पूँजी दुर्लभ होने के बावजूद भी अनुत्पाद कार्यों में लगायी जाती है ।

f. कई विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता न्यून होने के कारण उत्पादकता में वृद्धि के लिए अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है ।

दूसरी ओर अर्थशास्त्री यह आशा करते हैं कि निम्न कारणों से विकसित देशों के सापेक्ष कम विकसित देशों में ICOR कम होगा:

(i) पूँजी की अल्प मात्रा द्वारा ही अधिक उत्पादन सम्भव बनता है ।

(ii) श्रम शक्ति के बाहुल्य के कारण कम पूँजी गहन विधियों का प्रयोग किया जाता है ।

Determinant # 4. तकनीकी प्रगति (Technological Progress):

तकनीकी प्रगति उत्पादन की प्रक्रिया में सुधरी तकनीकी जानकारी का प्रयोग सुनिश्चित करती है । तकनीकी प्रगति हेतु वैज्ञानिक ज्ञान के स्तर में वृद्धि व व्यक्तियों द्वारा इस ज्ञान का आर्थिक विकास हेतु प्रयोग आवश्यक है । वस्तुत: तकनीकी प्रगति को वैज्ञानिक खोज, आविष्कार एवं नव-प्रवर्तन के द्वारा अभिव्यवठत किया जाता है ।

आविष्कार से अभिप्राय है नवीन तकनीक को प्रस्तुत करना तथा नव-प्रवर्तन से तात्पर्य यह है कि आविष्कार को उत्पादक क्रियाओं में क्रियान्वित करना । विकसित देशों में होने वाली तकनीकी प्रगति के पीछे मूल कारण यही रहा है कि इन देशों में खोज व आविष्कार की प्रक्रिया तेजी से चली ।

तकनीकी प्रगति के तीन रूप सम्भव हैं:

(1) पूँजी बचत करने वाली

(2) श्रम बचत से सम्बन्यित, एवं

(3) निष्क्रिय ।

लाभ की दर के दिए होने पर तकनीकी परिवर्तन पूंजी बचत करने वाला तब होगा, जबकि वह पूंजी उत्पाद अनुपात में कमी करे, यह श्रम बचत करने वाली तब होगी जब पूँजी उत्पाद अनुपात को बढ़ाए तथा निष्क्रिय तब होगी जब पूंजी उत्पाद अनुपात अपरिवर्तित रहे ।

तकनीकी प्रगति के लिए आवश्यक है कि:

(1) शोध एवं उद्योग स्थापना हेतु भारी पूँजीगत विनियोग हों,

(2) उपक्रमियों की उपलब्धता जिससे वैज्ञानिक खोज की सम्भावनाओं को व्यावसायिक उद्देश्यों हेतु प्रयुक्त किया जा सके,

(3) उत्पादित वस्तुओं हेतु एक व्यापक एवं विशाल बाजार की आवश्यकता । यह तीनों घटक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ही अनुकूल रूप से देखे जाते है ।

अर्द्धविकसित देशों में तकनीकी विकास का स्तरन्यून होता है, क्योंकि साहसी प्रवृत्ति व उपक्रमशीलता के पनपने का वातावरण अनुपस्थिति होता है । साथ ही पूँजी निर्माण की निम्न दरें व बाजार की अपूर्णताएँ नये प्रयोगों व तकनीकों के उपयोग की सम्भावना को अल्प कर देती है ।

वस्तुत: एक देश ऐसी तकनीक का चुनाव करना चाहता है तो उपलब्ध साधन अनुपात का श्रेष्ठ उपयोग करते हुए अधिकतम प्रतिफल प्रदान कर सके अर्थात् कम लागतों पर उत्पादन अधिक हो ।

विकासशील देशों में तकनीक का चुनाव करते हुए श्रम प्रधान व पूँजी प्रधान, हल्के उद्योग बनाम भारी उद्योग एवं कृषि बनाम उद्योगों के मध्य चुनाव से होता है । श्रम प्रधान तकनीक से अभिप्राय पूँजी की एक नियत मात्रा के साथ श्रम की अधिक मात्रा का संयोजन है । विकासशील देशों में श्रम प्रधान तकनीक को अपनाने से बेकारी की समस्या दूर होती है, सीमित पूँजी का सर्वोत्तम उपयोग सम्भव होता है । इसके साथ ही एकाधिकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन नहीं मिलता । अधिकांश अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि विकासशील देशों में उद्योगों में अतिरिक्त पूंजी गहन तकनीक का प्रचलन बढ़ा है ।

इसका कारण:

(i) इन देशों में आयात प्रतिस्थापन की नीति का अपनाया जाना,

(ii) साधन बाजारों में वक्रताएँ,

(iii) अधिक श्रम गहन तकनीक की सामान्य रूप से अनुपलब्धता,

(iv) आधुनिक होने की इच्छा एवं नवीनतम उत्पादन तकनीकों का प्रयोग है । पूँजी गहन तकनीक के प्रयोग से उद्योग में रोजगार सुविधाओं का विस्तार सीमित हुआ है व साथ ही शहरी बेकारी बड़ी है ।

दूसरी ओर भारी उद्योग से अभिप्राय है- पूँजी गहन आधुनिक तकनीक के प्रयोग से, व्यापक स्तरीय विधियों का प्रयोग जिससे ऐसे आधारभूत उत्पाद निर्मित किए जा सकें जो अन्य उद्योगों के लिए आदा का कार्य करें । भारी उद्योग का उदाहरण है इस्पात, औद्योगिक मशीनरी यन्त्र एवं उपकरण इत्यादि ।

हल्के उद्योग में सरल श्रम गहन उपभोक्ता वस्तु उद्योगों के उत्पादन को ध्यान में रखा जाता है, जैसे- साइकिल, सिलाई मशीन, वस्त्र उद्योग ।

दीर्घस्तरीय उद्योग उन भारी विनियोग क्रियाओं को सूचित करता है जिसमें हजारों श्रमिक अपेक्षाकृत पूँजी गहन तकनीकी व आधुनिक तकनीक की सहायता से उत्पादन करते है तथा एक आधारभूत उत्पाद यथा इस्पात या जन उपयोग की वस्तु; जैसे कार का उत्पादन होता है ।

लघु स्तरीय उद्योग दूसरी तरफ ऐसी छोटी फर्मों को सूचित करती है जो कम श्रमिकों की सहायता से उत्पादन करती है तथा बहुधा अधिक बेहतर व पूँजी गहन तकनीक का प्रयोग नहीं करती । सामान्य रूप से यह परम्परागत क्षेत्र में उत्पादन करती है जिनमें जूता, फर्नीचर, ईंट, हौजरी इत्यादि शामिल हैं ।

विकासशील देशों में तकनीक का चुनाव एक महत्वपूर्ण समस्या है । यह वर्तमान साधनों की मात्रा, तकनीक के स्तर, पूँजी अवशोषण की क्षमता व देश के संस्थागत ढाँचे पर निर्भर करती है । शूमाखर ने विकासशील देशों में तकनीक के चुनाव हेतु मध्यवर्ती तकनीक के विचार को प्रस्तुत किया जो बेहतर भी है व कारगर भी ।

उन्होंने अपनी पुस्तक Small in Beautiful में कहा कि विकासशील देशों के लिए विकसित देशों द्वारा अपनायी पूँजी गहन तकनीक उपयुक्त नहीं है । अत: इन देशों को मध्यवर्ती तकनीक का प्रयोग करना चाहिए । जिसके लिए विशेष प्रशिक्षण कौशल व अधिक पूँजी की आवश्यकता नहीं होती ।

Determinant # 5. जनसंख्या एवं मानव संसाधन विकास (Population and Human Resource Development):

विकासशील देशों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि चिन्ता का विषय रही है । इसका कारण यह है कि इन देशों में उत्पादकता वृद्धि की दर सापेक्षिक रूप से न्यून रही है । जनवृद्धि से उपलब्ध संसाधनों का तेजी से क्षरण हुआ है तथा भूमि की धारक क्षमता सीमित हो गयी है । आर्थिक विकास की सम्भावनाएँ तब तक न्यून बनी रहेंगी जब तक जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण न लगाए जाये ।

मानव संसाधन विश्लेषण के अधीन वर्तमान एवं भविष्य की जनशक्ति आवश्यकताओं व सम्भावनाओं का परीक्षण किया जाता है । इसके द्वारा मानव शक्ति में किए गए विनियोग हेतु नीति निर्धारित की जाती है । जिसके द्वारा विकासशील देशों के सीमित संसाधनों का कुशलता के द्वारा उपयोग हो सके । जनशक्ति नियोजन द्वारा प्रबन्धकीय, वैज्ञानिक अभियन्त्रण व अन्य तकनीकी कुशलताओं का विकास व समर्थ उपयोग सम्मिलित है जिससे संगठनों का सृजन विस्तार एवं विकास सम्भव हो सके ।

Determinant # 6. राज्य की भूमिका (Role of State):

आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गतिशील बनाने में राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका । राज्य द्वारा अन्तसंरचना के निर्माण एवं सामाजिक व आर्थिक उपरिमदों का विकास किया जाता है । उत्पादकता की वृद्धि हेतु राज्य द्वारा कृषि क्षेत्र में भूमि सुधार के कार्यक्रम, कृषि आदाओं की पूर्ति व विपणन हेतु बाजार की विस्तार एवं उद्योग क्षेत्र में औद्योगीकरण की योजनाएँ में आरम्भ की जाती हैं जिससे एकाधिकारी प्रवृत्तियों व आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण पर रोक लगे ।

विकासशील देशों में निर्धनता के विषम दुश्चक्रों को खण्डित करने एवं विद्यमान सामाजिक व संस्थागत अवरोधों व आर्थिक बाधाओं के निवारण हेतु राज्य द्वारा प्रभावी हस्तक्षेप नीतियाँ आरोपित की जाती हैं । उद्यमी के रूप में राज्य की विशिष्ट भूमिका रही है । संक्षेप में राज्य द्वारा रक्षा एवं प्रशासन सम्बन्धी कार्य, सार्वजनिक सेवाओं की उपलब्धि के नियन्त्रण, भूमि सुधार हेतु प्रभावी प्रयास किए जाते हैं । सुविचारित मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के दारा आन्तरिक स्थायित्व व बाह्य सन्तुलन की प्राप्ति हेतु सजग रहा जाता है ।

Determinant # 7. बाजार का आकार (Size of Market):

अर्द्धविकसित देशों में बाजार अपूर्णताएँ विकास के मार्ग में बाधक होती हैं । बाजार का आकार सीमित होने से उपभोक्ता माँग बेलोच रहती है, बाजार में तकनीकी वक्रताएँ उपस्थित रहती हैं तथा उपक्रमशीलता पनप नहीं पाती । बाजार का अल्प आकार होना उपक्रमी को विनियोग की प्रेरणा से संचित रखता है । इस प्रकार पूँजी की माँग अनुपस्थित रहती है । वस्तुत: बाजार के आकार को बढ़ाकर ही आर्थिक विकास की प्रक्रिया को सुनिश्चित किया जा सकता है । बाजार के आकार में वृद्धि हेतु उत्पादकता की वृद्धि करना आवश्यक होता है ।

बाजार के आकार में वृद्धि के साथ ही बाजार को संगठित करना भी जरूरी है । जिससे संसाधनों का विवेकपूर्ण आबंटन सम्भव हो तथा देश के समस्त भागों में कीमतों का एक स्तर बनाए रखा जा सके । कम विकसित देशों में बाजार संगठन दुर्बल होता है, क्षेत्रीय स्तर पर वस्तु के कई बाजार विद्यमान होते हैं जिनके मध्य समन्वय का अभाव होता है ।

Determinant # 8. विदेशी पूंजी (Foreign Capital):

विकासशील देशों में आन्तरिक संसाधनों के अभाव को पूरित करने की दृष्टि से विदेशी पूँजी सार्थक भूमिका प्रस्तुत करती है । इन देशों में अन्तर्संरचना निर्माण व तीव्र औद्योगीकरण की विनियोग आवश्यकताओं का प्रबन्ध आन्तरिक बचतों व सार्वजनिक उधार द्वारा पूर्ण नहीं होता ।

अत: संसाधनों की कमी को विदेशी पूँजी यथा विदेशी ऋण, सहायता व अनुदान द्वारा पूरित किया जाता है । इसके साथ ही आवश्यक तकनीकी कुशलता, भारी मशीन, कच्चे माल की आपूर्ति आयातों द्वारा सम्भव बनती है । वस्तुत: विकासशील देशों का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि अपने आन्तरिक संसाधनों को पूर्ण करने के लिए किस सीमा तक यह देश विदेशी पूँजी को गतिशील कर पाते है ।

विदेशी पूँजी प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन, पूँजीगत यन्त्र उपकरण, तकनीकी ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होती है । इससे वास्तविक परिसम्पत्ति का निर्माण सम्भव होता है । विनियोग कार्यक्रमों के लागू होने से रोजगार की सम्भावनाएँ बढती है ।

विदेशी पूँजी की प्राप्ति में अनेक बाधाएँ है । प्राय: यह दबाव पूर्ण शर्तों पर प्रदान किया जाता है । इसके द्वारा प्राप्त लाभों का काफी बड़ा भाग विदेशों को प्रवाहित होता है जिससे आरम्भिक पूंजी निर्माण पर विपरीत प्रभाव बड़ता है । विदेशी विनियोग घरेलू प्रतिस्पर्द्धा का संकट भी उत्पन्न करते है तथा असन्तुलित औद्योगिक विकास होने से अन्तक्षेंत्रीय असन्तुलन उत्पन्न होता है तथा आय व सम्पत्ति की विषमताएँ बढ़ती हैं ।

Determinant # 9. आर्थिक राष्ट्रवाद (Economic Nationalism):

एक देश का आर्थिक विकास वस्तुत: उस देश के निवासियों में राष्ट्र के निर्माण की प्रबल इच्छा के परिणामस्वरूप सम्भव होता है । राष्ट्रवादी विचारधारा के पल्लवित होने से देश आत्मनिर्भरता की भावना से अपनी विकास नीतियों का क्रियान्वयन करता है ।

प्रथम महायुद्ध के उपरान्त हैप्सबर्ग साम्राज्य के विघटन के जो नये राज्य यूरोप में अस्तित्व में आए उन्होंने स्वावलम्बन के लक्ष्य को ध्यान में रखा था । युद्ध एवं संक्रान्ति काल में आत्मनिर्भरता के लाभ महत्वपूर्ण हैं जो राष्ट्र में अनिवार्यत: सैन्य दृढ़ता व स्वाभिमान को उत्पन्न करते है ।

राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर पश्चिमी जर्मनी, सोवियत संघ व पूर्वी यूरोपीय देशों ने एक सुदृढ़ औद्योगिक आधार स्थापित किया । साम्यवादी देशों ने राष्ट्रीय नियोजन पर आधारित रहकर संरक्षण की नीतियों को अपनाते हुए विकास किया । जापान का उदाहरण स्तुत्य है जिसने आर्थिक राष्ट्रवाद के अधीन संरक्षित नीतियों एवं प्रत्यक्ष आन्तरिक विनियोग पर आधारित रहकर सुदृढ़ औद्योगिक व विनिर्माण क्षेत्र का साम्राज्य स्थापित किया ।