एक देश का आर्थिक विकास: 9 आर्थिक कारक | Read this article in Hindi to learn about the nine economic factors governing economic development of a country. The factors are:- 1. प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता तथा उनका उचित उपयोग (Availability of Natural Resources and their Proper Utilization) 2. जनसंख्या और मानवीय साधन (Population and Human Resources) and a Few Others.

आर्थिक कारक वह है जो प्रत्यक्षत: किसी देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं । अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर उनमें होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप बढ़ती अथवा घटती है ।

ये घटक हैं- प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता तथा उनका उचित उपयोग, जनसंख्या और मानवीय संसाधन, पूंजी संचय, बाहरी साधनों की उपलब्धता, बाजार की विस्तृत सीमा, उचित निवेश, प्रतिरूप, आर्थिक नियोजन और आर्थिक राष्ट्रवाद आदि ।

ये इस प्रकार हैं:

Factor # 1. प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता तथा उनका उचित उपयोग (Availability of Natural Resources and their Proper Utilization):

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एक संकीर्ण भाव में प्राकृतिक साधनों का अर्थ है प्रकृति के उपहार जो उनकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त किया जा सकते है, परन्तु एक व्यापक अर्थ में, इसमें प्रकृति द्वारा प्रदत वायु, जल, धूप, पशु-पक्षी, सब्जियां, पौधे, वन आदि सम्मिलित हैं जो मानवीय आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हैं ।

इस प्रकार, प्रत्येक आविष्कार जो प्रकृति पर आदमी का नियन्त्रण बढ़ता है, कुल उपलब्ध साधनों को भी बढ़ाता है । आदमी और प्राकृतिक साधनों को प्रकार्यात्मक पारस्परिकता का नाम दिया गया है । इन साधनों में भूमि की स्थिति को उच्च स्थान दिया गया है ।

आर्थिक विकास के लिये, भारी मात्रा में प्राकृतिक साधन पूर्वापेक्षित हैं । समृद्ध प्राकृतिक साधनों वाले देश आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से, निर्धन साधनों वाले देशों जिन्होंने विकास की चुनौती के लिये लोगों को मन से तैयार नहीं किया, की तुलना में विकास के लिये अच्छा आरम्भ कर सकते हैं ।

सामान्यत: अल्प विकसित देशों में प्राकृतिक साधन प्राय: अल्प प्रयुक्त, अप्रयुक्त अथवा कुप्रयुक्त होते हैं तथा इन देशों के पिछड़ेपन का यही मुख्य कारण है । इनके उचित उपयोग की आवश्यकता है । वास्तव में, विकास की प्रक्रिया में यह अन्तर मुख्यत: विकसित एवं अल्प विकसित देशों की आर्थिक वृद्धि के बीच विद्यमान विलम्ब की व्याख्या करता है ।

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जे. एल. फिशर ने कहा है- ”प्राकृतिक साधनों के विकास की आशा रखने के पीछे बहुत कम कारण है, यदि लोग ऐसे साधनों द्वारा उपलब्ध किये जाने वाले उत्पादों और सेवाओं के प्रति उदासीन हों ।” इसलिये प्रौद्योगिकी के सुधरे हुये ढंगों और ज्ञान की वृद्धि द्वारा प्राकृतिक साधनों को कुछ हद तक विकसित किया जा सकता है ।

Factor # 2. जनसंख्या और मानवीय साधन (Population and Human Resources):

जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक वृद्धि के बीच सम्बन्ध रुचिकर एवं जटिल है । यह साधन और साध्य दोनों हैं । एक साधन के रूप में, मानवीय साधन पूर्ति एक आवश्यक कारक सेवा है जो अन्य कारकों को काम में लगाती है अर्थात् श्रम एवं उद्यमीय योग्यता ।

इस भूमिका में यह कुल उत्पादन का आकार निर्धारित करती है । दूसरी ओर, सम्पूर्ण विकास गतिविधियां लोगों को बेहतर जीवन स्थितियां उपलब्ध करने के लिये सम्पन्न की जाती है ।

पीटर ड्रक्कर (Peter Drucker) के अनुसार- ”तीव्र ओद्योगिक विकास के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता लोगों की है, जो आर्थिक परिवर्तन और इसमें विद्यमान अवसरों की चुनौती का स्वागत करने के लिये तैयार है । सबसे अधिक, लोग, अपने देश के आर्थिक विकास के प्रति समर्पित हैं और ईमानदारी के उच्च मानकों, सक्षमता, ज्ञान और निष्पादन की इच्छा रखते हैं । इसलिये हम मानवीय साधनों की भूमिका को इस प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं (क) कारक सेवा के रूप में, (ख) उपभोग की इकाइयों के रूप में ।”

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(क) कारक सेवा के रूप में मानवीय साधन (Human Resources as Factor Service):

कारक सेवा के रूप में यह श्रम एवं उद्यमी प्रवृत्ति उपलब्ध कराते हैं । वास्तव में, आर्थिक विकास लोगों द्वारा प्राकृतिक साधनों के दोहन की योग्यता पर निर्भर करता है ।

साइमन कुज़नेटस के मतानुसार मानवीय साधन निम्नलिखित प्रकार से एक सम्पत्ति प्रमाणित हो सकते हैं:

(i) विविध प्रकार के अप्रयुक्त प्राकृतिक साधनों की उपस्थिति,

(ii) बढ़ते हुये युवा वर्ग जिन्हें एक बढ़ती हुई जनसंख्या श्रम की गतिशीलता को सुगम बनाने के लिए देती है,

(iii) श्रम विभाजन,

(iv) मानवीय और भौतिक साधनों के प्रयोग के लिये लाभप्रद ज्ञान और प्रौद्योगिकी की पूंजी का बढ़ता हुआ भण्डार ।

(ख) उपभोग की इकाइयों के रूप में मानवीय संसाधन (Human Resources as Units of Consumption):

 

उपभोग की इकाई के रूप में लोग राष्ट्रीय उत्पाद की मांग करते हैं । यदि जनसंख्या का आकार राष्ट्रीय उत्पाद की पूर्ति से अधिक है तो इससे अनेक तथा गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।

उदाहरणार्थ जनसंख्या का आधिक्य देश में निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न करता है:

(i) बढ़ती हुई जनसंख्या खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ाती है अत: मांग और उपलब्ध पूर्ति के बीच अन्तर बढ़ता है (दुर्लभताएं और अभाव),

(ii) बढ़ती हुई जनसंख्या का अर्थ है कि राष्ट्र के उत्पादन के बड़े भाग का प्रयोग चालू उपभोग आवश्यकताओं के लिये हो जाता है तथा निवेश और निर्यात के लिये बहुत कम शेष बचता है जिससे पूंजी निर्माण और आगे विकास की गति में बाधा पड़ती है ।

(iii) यह व्यापार सन्तुलन पर बुरा प्रभाव डालती है ।

(iv) यह बेरोजगारी और उसके साथ अन्य सामाजिक और आर्थिक बुराइयों को जन्म देती है ।

(v) जनसंख्या में वृद्धि के कारण सामाजिक संरचना के लिये पूंजी की आवश्यकता बढ़ती रहती है ।

संक्षेप में, जनसंख्या वृद्धि, प्राय: आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा प्रमाणित होती है क्योंकि यह पूंजी संचय में एक रोधक का कार्य करती है । आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये किसी अल्प विकसित एवं जनसंख्या के आधिक्य वाले देश के लिये आवश्यक है कि जनसंख्या वृद्धि दर को कम करें ।

जहां यह समझना बहुत गलत होगा कि सभी अर्थशास्त्री आर्थिक वृद्धि पर बढ़ती हुई जनसंख्या के प्रभाव को निराशावादी मानते हैं । सी. क्लार्क ने अवलोकन किया कि जनसंख्या वृद्धि के उच्चतम दर के साथ प्रति व्यक्ति उत्पादन की दर में भी उच्चतम वृद्धि हुई है तथा ऐतिहासिक रूप में जनसंख्या वृद्धि के समयों में प्राय: आर्थिक वृद्धि उपलब्ध हुयी है ।

इसी प्रकार ईस्टरलिन (Easterlin) सुझाव देते हैं कि जनसंख्या का दबाव व्यक्तिगत प्रेरणा को हितकर रूप में प्रभावित कर सकता है तथा उत्पादन तकनीकों में परिवर्तनों की ओर ले जा सकता है ।

अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या द्वारा वृद्धि में योगदान या फिर बाधा बनना, पूर्णतया अन्य कारकों के सन्तुलन पर निर्भर करता है जो किसी देश में वृद्धि को निर्धारित करते हैं ।

Factor # 3. पूंजी संचय (Capital Accumulation):

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक जो आर्थिक विकास निर्धारित करता है वह पूंजी का संचय है । सरल शब्दों में पूंजी का अर्थ है भौतिक रूप में पुनरुत्पादन योग्य उत्पादन के कारकों का भण्डार । पूंजी की वृद्धि पूंजी को संचय की ओर ले जाती है ।

इस प्रकार आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पूंजी को प्रमुख स्थान प्राप्त है । पूंजी वस्तुओं के उद्योगों में निवेश, पूंजी भण्डार में वृद्धि, प्राकृतिक उत्पादन एवं आय में वृद्धि की ओर ले जाता है ।

पूंजी निर्माण की प्रक्रिया तीन सोपानों से गुजरती है:

(i) बचतों का सृजन,

(ii) बचतों की गतिशीलता,

(iii) निवेश ।

अत: पूंजी निर्माण निम्नलिखित ढंग से तीव्र आर्थिक विकास के संवर्धन में सहायता करता है:

(i) पूंजी किसी अर्थव्यवस्था के उत्पादन को बढ़ाने में बहुमुखी भूमिका निभाती है । यह उत्पादन की तकनीकों अथवा परिमाप में परिवर्तन लाने की सम्भावनाओं से सम्बन्धित है । पूंजी के भण्डार में वृद्धि के फलस्वरूप कोई अर्थव्यवस्था बड़े स्तर के उत्पादन और विशेषीकरण के लाभ उठा सकती है ।

(ii) बढ़ती हुई जनसंख्या को उत्पादन के औजार और उपकरण उपलब्ध करने के लिये पूंजी संचयन आवश्यक है । उत्पादन के विस्तार के लिये और बढ़ती हुई श्रम शक्ति को रोजगार के अवसर उपलब्ध करने के लिये पूंजी संचय अनिवार्य है ।

(iii) पूंजी संचय में तीव्र वृद्धि प्रतिश्रमिक उपकरणों और यन्त्रों की पूर्ति में सहायक होती है । इसे दूसरे रूप में प्रस्तुत करते हुये, यह उत्पादन की विकसित तकनीकों को अपनाने में सहायता करती है जोकि आधुनिक विकास का महत्वपूर्ण भाग है । तथापि, किसी अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाने के लिये अनेक उपायों की कल्पना की जा सकती है ।

जो इस प्रकार हैं:

(i) नये करों का आरम्भ, परन्तु निर्धन लोगों पर विपरीत प्रभाव को ध्यान में रखते हुए । इनसे कार्य के लिये प्रोत्साहन समाप्त नहीं होना चाहिये ।

(ii) उपभोक्ता वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगाना ।

(iii) अनिवार्य बचत योजनाएं ।

(iv) दिखावे वाली वस्तुओं के उपयोग को कम करना ।

(v) छुपी हुई बेरोजगारी को कम करना और रोजगार के नये अवसर उत्पन्न करना ।

(vi) विदेशी ऋण ।

Factor # 4. हितकरी निवेश प्रतिरूप (Favourable Investment Pattern):

आर्थिक विकास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण निर्धारक है- हितकरी निवेश प्रतिरूप । इसका अर्थ है निवेश वरीयताओं के लिये उद्योगों का उचित चयन और निम्न पूंजी उत्पाद अनुपात बनाये रखने के लिये अथवा अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिये अपनायी जाने वाली उत्पाद तकनीकों का चयन । उचित निवेश मानदण्ड का चयन जिससे समाज को अधिकतम लाभ हो राज्य का उत्तरदायित्व बन जाता है ।

निवेश का अनुकूलतम प्रतिरूप प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित मानदण्ड हैं जो लाभप्रद सिद्ध हो सकते हैं:

(i) सबसे उचित निवेश मानदण्ड ऐसे उद्योगों में निवेश करना है जहां सामाजिक सीमान्त उत्पादकता उच्चतम हो । इस विधि के अनुसार सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को न कि व्यक्तिगत फर्म अथवा उद्योग को उसकी उत्पादन सीमा अथवा नियोजित निवेश द्वारा उत्पादन सम्भावना वक्र की ओर संचालित किया जाये ।

(ii) निवेश ऐसे ढंग से किया जाये जिससे बाजार अपूर्णताएँ कम हो और अतिरिक्त बाहरी मितव्ययताएं का विस्तार हो ।

(iii) एक अन्य मानदण्ड यह है कि निवेश को उत्पादक मांगों की और निर्दिष्ट किया जाना चाहिये ताकि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिये श्रृंखला प्रतिक्रियाएँ आरम्भ की जा सकें ।

(iv) निवेश को सन्तुलित वृद्धि के नियम का अनुकरण करना चाहिये जो कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के बीच सन्तुलन, घरेलू व्यापार और विदेशी में सन्तुलन, चालू उपभोग और बचत के बीच तथा उत्पादन आय के वितरण के बीच सन्तुलन बनाये रखने का लक्ष्य रखता हो । अन्य शब्दों में बाहरी और आन्तरिक निवेश होना चाहिये ।

(v) उत्पादन की पूंजी गहन और श्रम गहन तकनीकों के बीच चयन हो सकता है जिसका लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य हो । यहां इन दो तकनीकों के बीच चयन करने को प्रश्न है ।

Factor # 5. अन्तर्राष्ट्रीय कारक (International Factors):

आर्थिक विकास एक बहुमुखी परिदृश्य है । आधुनिक विश्व में कोई भी अकेला कारक चाहे वह घरेलू हो या विदेशी, अर्थव्यवस्था की आन्तरिक वृद्धि को निर्धारित नहीं कर सकता । घरेलू साधनों के अतिरिक्त, बाहरी साधनों की भूमिका को भी कम करके नहीं आंका जा सकता । अत: विदेशी साधनों की उपलब्धता मुख्यत: देश के आर्थिक विकास को निर्धारित करती है ।

मोटे तौर पर आर्थिक वृद्धि के तीन मुख्य निर्धारक हैं जैसे:

(i) विदेशी व्यापार अर्थात् देश की निर्यात क्षमता,

(ii) उन्नत देशों से पूंजी आयात करने की योग्यता और इच्छा,

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग ।

पहले निर्धारक के प्रकरण में, अल्प विकसित देशों की आयात क्षमता उनके पिछड़ेपन के कारण प्राय: दृढ़ होती है । परन्तु दीर्घ काल में सतत आयात के लिये भुगतान की क्षमता देश की वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की क्षमता पर निर्भर करती है जिनकी मांग अन्य राष्ट्रों द्वारा प्रतियोगी मूल्यों पर की जाती है ।

इसलिये, एक अल्प विकसित देश सतत आयात आधिक्य के भुगतान के लिये दीर्घ काल में अपने निर्यातों को सुधारने के प्रयत्न कर सकता है । दूसरे निर्धारक के सम्बन्ध में, विदेशी पूंजी विशेषतया एक अल्प-विकसित देश के उद्योगीकरण के आरम्भिक सोपान पर लाभप्रद होती है ।

ऋण प्राप्तकर्त्ता विदेशी पूंजी का प्रयोग, ऋण दायित्व को पूरा करने के लिये, वास्तविक राष्ट्रीय आय बढ़ाने के लिये कर सकता है । विदेशी पूंजी का बहाव उत्पादकता में तीव्र वृद्धि उपलब्ध करेगा और संचयी विस्तार की प्रक्रिया आरम्भ करेगा ।

फलत: निर्धनता का कुचक्र टूट जायेगा और आर्थिक विकास की गति तीव्र होगी । वास्तव में, यह साधन घरेलू साधनों की सहायता करेंगे । इस तथ्य को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के तथ्य तथा इससे लाभान्वित अनेक देशों द्वारा समर्थित किया गया है ।

अत: विदेशी पूंजी का प्रयोग आवश्यक कच्चे माल और पूंजी साज-सामान के आयात के लिये भी किया जा सकता है । इस प्रकार, विदेशी पूंजी आर्थिक विकास के पहियों के लिए चिकनाई का कार्य करती है ।

विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग आर्थिक विकास का तीसरा निर्धारक है । बहुत से उन्नत देश जिनमें अमेरिका भी शामिल है अपने विकास के लिये विदेशी पूंजी अथवा निवेश पर निर्भर रहे हैं ।

रुस और जापान का आर्थिक विकास नि:सन्देह उन की अपनी घरेलू बचतों द्वारा हुआ, यद्यपि उनके द्वारा अपनाई गई विधियां बहुत भिन्न थी (कभी-कभी विदेशी पूंजी देश में विदेशियों के द्वारा या तो विभिन्न निवेशों के रूप में या एक उद्यम द्वारा सहायता, ऋण अथवा तकनीकी सहायता के रूप में हो सकती है) ।

अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का प्रार्दुभाव, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), पुनर्निर्माण और विकास के लिये अन्तर्राष्ट्रीय बैंक (I.B.R.D.) अथवा विश्व बैंक, विभिन्न क्षेत्रों के बीच क्षेत्रीय सहयोग तेल और पैट्रोलियम, निर्यात करने वाले देश- OPEC मध्य पूर्व में, एशिया में एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशनज- ASEAN, यूरोपियन इक्नामिक कम्यूनिटी EEC यूरोप में और बैस्ट अफ्रीकन इक्नामिक अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के उदाहरण हैं ।

Factor # 6. प्रौद्योगिक उन्नति (Technological Advancement):

आजकल प्रौद्योगिक उन्नति को आर्थिक विकास का मुख्य इंजन माना जाता है, यद्यपि प्रौद्योगिक उन्नति का अर्थ है सुधरी हुई तकनीकी जानकारी का प्रयोग है ।

परन्तु यह निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है:

(i) लोगों को प्रौद्योगिक उन्नति का प्रयोग आर्थिक लाभों के लिये करना चाहिये ।

(ii) प्रौद्योगिक उन्नति व्यावहारिक विज्ञान पर आधारित है जो नये नव-प्रवर्तनों और आविष्कारों में परिणामित होती है ।

(iii) नव-प्रवर्तनों का बड़े स्तर पर प्रयोग किया जाना चाहिये ।

वास्तव में, प्रौद्योगिक उन्नति की सुविधाएं और पूंजीगत वस्तुओं का प्रयोग उन्हें अधिक उत्पादक बना देता है । सैम्यूलसन् के मतानुसार- ”उच्च आविष्कारक राष्ट्र” प्राय: ”उच्च निवेश वाले राष्ट्र” से तीव्रतापुर्वक बढ़ता है । जैसा कि प्रस्तुत रेखाचित्रों में दर्शाया गया है ।

रेखाचित्र 4.1 से देखा जा सकता है कि बायीं ओर का देश A उच्च निवेश राष्ट्र है तथा दायीं ओर का देश B हैं जो उच्च आविष्कारक राष्ट्र हैं । पूर्व-वर्णित देश निवेश के उच्च दर पर निर्भर करता हैं जबकि उत्तर-कथित देश विभिन्न वर्षों में अधिक-से-अधिक आविष्कार, तकनीकी प्रगति तथा पूंजी निर्माण करता है ।

औद्योगिक उन्नति तीन रूप ले सकती है अर्थात्:

(i) पूंजी बचत वाली,

(ii) श्रम बचत वाली अथवा

(iii) तटस्थ ।

लाभ की दर दिये होने पर, प्रौद्योगिक परिवर्तन को पूंजी बचत पूर्ण कहा जाता है यदि यह पूंजी उत्पाद अनुपात को कम करता है, यदि यह पूंजी उत्पाद अनुपात को प्रभावित नहीं करता तब इसके श्रम-बचत अनुपात में वृद्धि होती है ।

प्रौद्योगिक उन्नति की प्राप्ति के लिये निम्नलिखित शर्तों को पूरा होना आवश्यक है:

(क) प्रौद्योगिक उन्नति हेतु शोध के लिये भारी निवेशों की आवश्यकता होती है ।

(ख) इसे ऐसे उद्यमियों की आवश्यकता होती है जो व्यापारिक कार्यों के लिये वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रयोग की सम्भावनाओं को समझने की योग्यता रखते हैं ।

(ग) वे अपने उत्पादों के लिये विस्तृत बाजार चाहते हैं ।

अल्प विकसित देशों में इन शर्तों को हितकर नहीं पाया जाता इसलिये यह शर्तें तकनीकी उन्नति को प्रतिबन्धित करती हैं । निस्सन्देह: उन्नत देशों में ये शर्तें सरलतापूर्वक पूरी कर ली जाती हैं परिणामत: प्रौद्योगिक उन्नति की दर उच्चतम होती है ।

परन्तु कम विकसित देशों में भुगतानों का सन्तुलन प्रतिकूल होता है । बचत और निवेश का अनुपात नीचा होता है, उच्च स्तरीय प्रबन्धकीय, तकनीकी और श्रम निपुणताओं का अभाव पाया जाता है । इस प्रकार वह वैज्ञानिक और औद्योगिक साधनों के लाभ प्राप्त करने में असफल रहते हैं ।

फलत: विकास प्रक्रिया स्वचालित और संचयी नहीं बन पाती । इसलिये अल्प विकसित देशों के लिये आवश्यक है कि केवल उस प्रौद्योगिकी को अपनायें जो उच्च मात्रा में विकास को अनुकूल बना सकें ।

इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति सारे यूरोप में शिल्पियों और श्रमिकों द्वारा फैलायी गयी जोकि यूरोपियन देशों में स्थानान्तरित हुये थे । इसी प्रकार फ्रांस के बैंकरों और इंजीनियरों ने सहयोग किया तथा जर्मनी, इटली, स्विटजरलैण्ड, स्पेन और आस्ट्रेलिया में आधुनिक तकनीक का विस्तार किया ।

अब विश्व के विकासशील देश जैसे भारत, मैक्सिको और ब्राजील संशोधन कर रहे हैं तथा अपने-अपने वातावरण के अनुसार विकसित देशों की तकनीकें अपना रहे हैं । इस प्रकार, प्रौद्योगिक उन्नति की तीव्र दर अल्प विकसित क्षेत्रों में आर्थिक विकास की उच्च सम्भावनाएं प्रस्तुत करती है ।

Factor # 7. बाजार अपूर्णताओं को दूर करना (Removal of Market Imperfections):

एक अन्य कारक जो अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास का निर्धारण करता है, वह है बाजार अपूर्णताओं का विलोपन । इसका अर्थ है कि बाजार सभी अपूर्णतायों से मुक्त हो जो साधनों के आंशिक प्रयोग द्वारा विकास को प्रतिबन्धित करती हैं ।

बाजार की अपूर्णताएं साधनों के बहाव को कम उत्पादक व्यवसायों से अधिक उत्पादक व्यवसायों की ओर जाने से रोकती है तथा एक बड़ी सीमा तक साधनों के अल्प प्रयोग तथा कुनिर्देशन के लिये उत्तरदायी हैं । शुल्टज् (Schultz) के अनुसार- ”बाजार अपूर्णताओं को दूर करने के लिये सामाजिक एवं आर्थिक संगठनों के वैकल्पिक बहावों की आवश्यकता है ।”

यद्यपि, विकास को तीव्र करने के लिये, यह पूर्वापेक्षित हैं कि साधनों का अधिकतम प्रयोग किया जाये, जब बाजार, वृद्धि को रोकने वाली, प्रत्येक प्रकार की बाधा से मुक्त है तब उस समय, अन्य संरचनाओं जैसे परिवहन, बैंक सुविधाएं, संचार, साख सुविधाएं आदि को बड़े स्तर पर विस्तृत किया जाये तथा साधनों को अधिक दक्ष उपयोग के लिये उपलब्ध किया जाये ।

Factor # 8. संरचनात्मक परिवर्तन और संगठन (Structural Changes and Organisation):

संरचनात्मक परिवर्तन और संगठन भी महत्वपूर्ण कारक हैं जो अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास को निर्धारित करते हैं । वृद्धि प्रक्रिया को वर्तमान साधनों का अनुकूलतम आवंटन अथवा दक्ष प्रयोग ही नहीं करना होता बल्कि साधनों की पूर्ति को बढ़ाकर उन्हें भिन्न प्रयोगों में लगाना होता है ।

इसलिये एक प्रदत्त उत्पादन सीमा तक पहुंचने के लिये यह विद्यमान साधनों के भीतर और साधनों के अनुकूलतम आवंटन के भीतर उत्पादन अवसरों के अधिकतम दोहन का लक्ष्य रखता है । इसके अतिरिक्त यह उत्पादन सीमा को साधनों के गतिशील उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तनों द्वारा बाहर की ओर धकेलता है ।

निर्धन कृषि देशों में, ढांचागत परिवर्तनों का अर्थ है, अन्य क्षेत्रों की तुलना में प्राथमिक क्षेत्र में व्यस्त ग्रामीण जनसंख्या की सम्पतियों में कमी । अन्य शब्दों में, कृषि क्षेत्र में जनसंख्या को कम करना होगा तथा इसके साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र की जनसंख्या को बढ़ाना होगा । इसके अतिरिक्त अल्प विकसित देश में ढांचागत परिवर्तन सामाजिक सांस्कृतिक ढांचे में भी परिवर्तन चाहते हैं ।

सामाजिक वातावरण में परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते हुये मायर और बाल्डविन ने ठीक ही कहा है- “नई आवश्यकताओं, नई प्रेरणाओं, उत्पादन के नये ढंगों, नई संस्थाओं के सृजन की आवश्यकता है यदि हम राष्ट्रीय आय को अधिक तीव्रतापूर्वक बढ़ाना चाहते है । जहां आधुनिक आर्थिक प्रगति के मार्ग में धार्मिक अड़चनें हैं, वहां धर्म को कम गम्भीरता से लिया जाये अथवा इसका स्वरूप बदला जाये ।”

अत: इसके लिये सामाजिक ढांचे में परिवर्तन की आवश्यकता है क्योंकि स्थिर एवं गतिशील दोनों सामाजिक ढांचे इकट्ठे नहीं रखे जा सकते । संरचनात्मक परिवर्तनों के अतिरिक्त व्यवस्थापक के रूप में उद्यमी भी आर्थिक गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

संगठन, पूंजी और श्रम का पूरक है और उत्पादकता को बढ़ाने में सहायता करता है । यह व्यवस्थापक का कार्य करता है तथा बहुत से जोखिम उठाता है । संक्षेप में, इसका मुख्य कार्य नव प्रवर्तन है ।

इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के लिये और 19वीं शताब्दी में यू. एस. ए. में आर्थिक वृद्धि और बीसवीं शताब्दी में प्रबन्ध की गुणवत्ता में सुधार का श्रेय इसे जाता है ।

परन्तु अल्प विकसित देशों में बाजार के सीमित आकार, पूंजी के अभाव, निपुण और प्रशिक्षित श्रम के अभाव, पर्याप्त कच्चे माल की उपलब्धता के न होने तथा अन्य सामाजिक संरचना के अभाव के कारण उद्यमीय योग्यता का अभाव होता है ।

उन्नत देशों में निजी उद्यम संगठन का कार्य करते हैं और आर्थिक प्रगति की प्रक्रिया में सहायता करते हैं । परशु दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात्, राज्य किसी-न-किसी रूप में आयोजक का कार्य करता है । संक्षेप में, संरचनात्मक परिवर्तन और संगठन निर्धन और पिछड़ी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास को बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं ।

Factor # 9. विकास आयोजन (Development Planning):

आर्थिक आयोजन ने विश्व के अनेक देशों में आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने का कार्य किया है । उदाहरण के रूप में, इसने निर्माण उद्योग को बढ़ाने में अनेक उत्तरी देशों ने जिनमें पश्चिमी जर्मन और यू. एस. ए. भी शामिल हैं, मुख्य भूमिका निभायी है । सोवियत संघ द्वारा थोड़े से समय में की गई तीव्र उन्नति आर्थिक आयोजन का ही चमत्कार है ।

एक निर्धन अर्थव्यवस्था में विकास आयोजन की पूर्वापेक्षाएं हैं:

(क) बचतों की गतिशीलता,

(ख) विकास के लिये आवश्यक निवेश की मात्रा में वृद्धि,

(ग) पूंजी निर्माण,

(घ) विभिन्न क्षेत्रों के बीच तीव्र और सन्तुलित वृद्धि,

(ङ) सामाजिक एवं संरचनात्मक पूंजी जैसे शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, यातायात आदि का विस्तार ।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि साधनों को मूर्त रूप देने और विभिन्न क्षेत्रों के उत्पादक मार्गों में आवंटन के लिये आर्थिक आयोजन की आवश्यकता है । यह अधिकतम सामाजिक लाभों सहित अधिकतम वृद्धि उपलब्ध कराने में सहायक है ।

लरनर के अनुसार- ”योजना-रहित विकास एक चालक के बिना स्वचालित वाहन है, परन्तु जिसमें अनेक यात्री चालन-चक्के को मोड़ देने के लिये इस तक पहुंचते रहते हैं जबकि जटिल नियम कम और मात्रा निर्धारित करते हैं जिस तक वे चक्के को मोड़ते हैं ताकि इस सम्बन्ध में उन्हें एक दूसरे के साथ लड़ने से रोका जा सके ।”

संक्षेप में, आर्थिक नियोजन निर्धन एवं अल्प विकसित देशों की आर्थिक बुराइयों के लिये एक रामबाण है ।