आर्थिक विकास की पूर्व शर्त | Read this article in Hindi to learn about the seven important prerequisites of economic development. The prerequisites are:- 1. आन्तरिक या स्वदेशी शक्तियाँ (Indigenous Forces) 2. संरचनात्मक परिवर्तन (Structural Change) 3. बाजार की अपूर्णताएँ (Market Imperfections) and a Few Others.

विकास की पूर्व आवश्यकताओं को निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

Prerequisite # 1. आन्तरिक या स्वदेशी शक्तियाँ (Indigenous Forces):

आर्थिक विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक विकास की उत्कृष्ट इच्छा है जिसके लिए अनुकूल वातावरण एवं आशावादी दृष्टिकोण अनिवार्य है । विकास वस्तुत: आन्तरिक प्रेरणा है । यह प्रयास एवं प्रयत्न के राग पल्लवित होती है । विचार एवं कर्म के समन्वय से ही प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाते हुए मात्रात्मक व गुणात्मक सुधार सम्भव बनते हैं । अत: विकास की चेतना, जागरुकता व प्रबल प्रयास द्वारा ही उपलब्धियों प्राप्त की जा सकती हैं । केअरन क्रास का कथन है कि विकास तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक यह देश के नागरिकों के मस्तिष्क में भौतिक व मानवीय संसाधनों के समुचित प्रयोग व दोहन द्वारा ही विकास कर सकता है ।

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार- विकासशील शक्तियों को मौलिक रूप में देश के आन्तरिक संसाधनों के विकास हेतु आधार बनाना आवश्यक होता है । विकास की प्रक्रिया केवल तब ही संचयी व दीर्घकालिक प्रवृत्ति रखेंगी जब विकास की शक्तियाँ देश के भीतर से सृजित हों ।

ADVERTISEMENTS:

डी.एस.नाग अपनी पुस्तक Problems of under Developed Economy में लिखते हैं कि बाह्य आर्थिक शक्तियों के द्वारा विकास की प्रक्रिया को आरम्भ अवश्य किया जा सकता है लेकिन यह स्वयं स्फूर्ति की अवस्था नहीं ला सकती । यदि आन्तरिक अभिप्रेरणा का अभाव रहेगा तो विकास अस्थायी एवं अल्पकालीन होगा ।

यह ध्यान रखना होगा कि विदेशी शक्तियों के अधीन विदेशी सहायता व विनियोग पर आश्रित रहने से आन्तरिक प्रयास अवरूद्ध होने लगते हैं । विदेशी सहायता निर्भरता में वृद्धि करती है जिससे विकास की प्रेरणाएँ मन्द पड़ती है । विदेशी सहायता प्राय: कठोर अनुबन्ध व शर्तों के अधीन प्रदान की जाती है जो आन्तरिक या धरेलू नीतियों के साथ तालमेल नहीं रखती ।

विदेशी विनियोग भी प्राय: उन्हीं क्षेत्रों में किए जाते है जहाँ लाभ अधिक हों । ऐसे में देश में कुछ क्षेत्रों का ही विकास सम्भव हो पाता है । विदेशी सहायता अल्प काल के लिए ही सहायक है दीर्घकालीन दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था को निर्भर व पंगु बना देती है । अत: यह कहा जा सकता है कि आत्मनिर्भरता व स्वावलम्बन पर आधारित विकास तब ही सम्भव है जबकि आन्तरिक या स्वदेशी शक्तियों का आधार लिया गया हो ।

Prerequisite # 2. संरचनात्मक परिवर्तन (Structural Change):

देश में उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम एवं अनुकूलतम उपयोग को संरचनात्मक परिवर्तनों द्वारा सम्भव बनाया जा सकता है । अर्द्धविकसित देशों में प्राथमिक व कृषि क्षेत्र पर जनसंख्या की निर्भरता व दबाव अधिक होता है । अत: इन देशों संरचनात्मक परिवर्तन से आशय है कि जनसंख्या का कृषि से संलग्न भाग सीमित करते हुए गैर कृषि क्षेत्रों की ओर रूपान्तरित किया जाना चाहिए ।

ADVERTISEMENTS:

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार संरचनात्मक परिवर्तन से अभिप्राय है गैर कृषि क्षेत्रों का विकास । एच.जी. मौल्टन का कहना है कि यदि हम अधिकतम आर्थिक प्रगति चाहें तो एक ओर श्रमिक की कुशलता तो दूसरी ओर पूँजी संयन्त्र व औद्योगिक संगठन में होने वाले सुधार महत्वपूर्ण हैं ।

गैर कृषि क्षेत्र के विस्तार के साथ ही कृषि क्षेत्र में भी उत्पादकता की वृद्धि के समस्त प्रयास करने होंगे । इसके लिए भूमि सुधार, कृषि आदाओं में वृद्धि, नये सुधरे बीज, खाद, परिष्कृत यन्त्र का प्रयोग, सिंचाई की सुविधाओं में विस्तार कृषि क्षेत्र को पर्याप्त साख सुविधा की उपलब्धि एवं बाजार अतिरेक के विपणन हेतु प्रबन्ध आवश्यक होंगे ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संरचनात्मक परिवर्तन के द्वारा अर्थव्यवस्था में कार्यकारी जनसंख्या को प्राथमिक से द्वितीयक व द्वितीयक से तृतीयक या सेवा क्षेत्र की ओर स्थानान्तरिक करना सम्भव बनता है । इस प्रकार संरचनात्मक परिवर्तन नवीन सामाजिक व्यवस्था का विकास करता है । इस नवीन व्यवस्था में परम्परागत रूढ़ियाँ, संयुक्त परिवार, प्रणाली, जातिगत संकीर्णताएँ, संकुचित व निराशावादी दष्टिकोण का विखण्डन होता है ।

हालिस बी. चेनरी के अनुसार– संरचनात्मक परिवर्तनों की शृंखला में निम्न परितर्वन दिखायी देते हैं:

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i. सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि जिससे आय के परिवर्तन के सापेक्ष बचत व विनियोग बढ़ते हैं । सरकारी आगम व व्यय में वृद्धि होती है । खाद्यान्नों के उपयोग में कमी आती है व गैर खाद्यान्नों का प्रयोगे बढ़ता है ।

ii. कृषि क्षेत्र से उद्योग व उद्योग से सेवा क्षेत्र की ओर श्रम की उत्पादकता बढ़ती है ।

iii. राष्ट्रीय आय में निर्यातों के अंश में वृद्धि होती है । प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात के सापेक्ष विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ता है ।

iv. आय के बढ़ने से जनसंख्या की वृद्धि दर भी धीरे-धीरे कम होती है, क्योंकि व्यक्ति अपने जीवन-स्तर को उच्च रखने के लिए सीमित व छोटे परिवार को अच्छा समझते हैं ।

v. आय का प्रारम्भ में असन्तुलित वितरण होता है, बाद की अवस्थाओं में इसका समानता पूर्ण वितरण सम्भव बनता है ।

Prerequisite # 3. बाजार की अपूर्णताएँ (Market Imperfections):

एक देश में उपलब्ध संसाधन यदि अपने सर्वश्रेष्ठ सम्भावित प्रयोग की ओर गतिशील हो तो यह एक पूर्ण बाजार की दशा है अर्थात् इस दशा में अर्थव्यवस्था में संसाधनों का आदर्श आबंटन सम्भव होता है । अर्द्धविकसित देशों में संसाधनों का अनुकूलतम आवंटन इस कारण सम्भव नहीं होता, क्योंकि बाजार की अपूर्णताएँ विद्यमान होती हैं ।

बाजार की अपूर्णताओं से अभिप्राय है:

i. देश में संसाधनों की अगतिशीलता का विद्यमान होना ।

ii. बाजार दशाओं का समुचित ज्ञान न होना ।

iii. कीमत दृढ़ताएँ विद्यमान होना ।

iv. दृढ़ सामाजिक संरचना ।

v. विशिष्टीकरण का अभाव ।

vi. एकाधिकारी प्रवृत्तियों का विद्यमान होना ।

vii. आर्थिक ढाँचे का बेलोचदार होना ।

बाजार की अपूर्णता के कारण उत्पादकता की संरचना दुर्बल बनी रहती है । संसाधनों का उचित विदोहन नहीं होता तथा क्षेत्रीय असन्तुलन बढ़ते जाते हैं ।

बाजार की अपूर्णताओं के निवारण हेतु आवश्यक है कि:

(i) सामाजिक, आर्थिकसंस्थाओं को अधिक कुशल व समर्थ बनाया जाये । ऐसी वैकल्पिक संस्थाओं का निर्माण किया जाये जो आर्थिक विकास की मनोवृति व प्रेरणा उत्पन्न कर सकें ।

(ii) संसाधनों के अधिकतम विदोहन हेतु बेहतर व कारगर तकनीक का प्रयोग करना ।

(iii) एकाधिकारी प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करते हुए प्रोतिस्पर्द्धात्मक वातावरण निर्मित करना ।

(iv) पूँजी व साख बाजार का इस प्रकार विकास करना कि उत्पादन हेतु पूँजी सुविधा से उपलब्ध हो सके ।

प्रो. मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार- अर्द्धविकसित देशों में संसाधनों के अनुकूलतम प्रयोग हेतु मात्र बाजार की अपूर्णताओं का निराकरण ही पर्याप्त नहीं वरन मुख्य समस्या तो संसाधनों की गतिशीलता एवं उचित आबंटन की है । अत: यह आवश्यक हो जाता है कि नए संसाधनों, नवीन वस्तुओं, नयी उत्पादन तकनीक, संगठनात्मक परिवर्तनों व संरचनात्मक सुधार के द्वारा बाजार की अपूर्णताओं को दूर किया जाये ।

Prerequisite # 4. पूँजी निर्माण (Capital Formation):

मौरिस डॉब के अनुसार- उत्पादन के स्तर एवं एक समुदाय के भौतिक स्तर में होने वाला सुधार मुख्य रूप से उपलब्ध पूँजी के स्टॉक पर निर्भर करता है । लेकिन पूँजी का स्टाक तकनीकी ज्ञान के उस स्तर पर आश्रित रहता है जो उत्पादन की संगठित प्रक्रिया से प्राप्त होगा तथा जब अन्य घटक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक हों तब उत्पादकता में होने वाली वृद्धि ही पर्याप्त नहीं बल्कि इसके लिए उस तकनीकी ढाँचे में सुधार की आवश्यकता है जिसके परिणामस्वरूप पूँजी निर्माण की उच्च दर प्राप्त होती है ।

अबरामोविटज् लिखते हैं कि केवल आविष्कार एवं ज्ञान के प्रसार द्वारा ही आर्थिक विकास सम्भव है जिससे पूँजी निर्माण होता है । यह दोनों घटक एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार समुदाय के पूँजीगत स्टाक में ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है । तकनीकी विकास के फलस्वरूप उत्पादन की प्रक्रिया में पूँजी गहनता की वृद्धि होती है अर्थात् प्रति श्रमिक पूँजी परिध्यय बढ़ता है ।

इससे अभिप्राय है कि औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो रही है । वास्तव में एक देश में पूँजी निर्माण का स्तर इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश में पूँजी वस्तु उद्योगों को आकार क्या है ? अबरामोविट्ज के अनुसार- यदि एक अर्द्धविकसित देश प्रगति की उच्च दर को शीघ्र प्राप्त करने की आकांक्षा रखे तो इसके लिए मात्र पूँजी निर्माण ही आवश्यक नहीं बल्कि यह जरूरी है कि पूँजी वस्तु उद्योगों की स्थापना में पूँजी को जानबूझ कर लगाया जाये ।

पूँजी की वृद्धि दर जो इसके गुणात्मक घटक को समाहित करती है का निर्धारण वस्तुत: प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त प्रतिफल की दर ज्ञान के उपलब्ध स्तर एवं समाज की मनोवृत्तियों पर निर्भर करता है । अत: पूँजी निर्माण एक द्विआयामी प्रक्रिया है । चालू विनियोग की दर इसका मुख्य निर्धारक है । विनियोग करने के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि व्यक्ति अपने उपभोग में कमी कर बचतों में वृद्धि करें ।

पूँजी निर्माण एक दीर्धकालीन प्रकिया है । इसे तीन अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है । पहली अवस्था है बचतों का सृजन दूसरी अवस्था बचतों की गतिशीलता एवं विनियोग में होने वाले प्रवाह एवं तीसरी अवस्था विनियोग कोषों का उपयोग है । यहाँ तीन बिन्दु उल्लेखनीय हैं पहला यह कि सभी बचतें विनियोग हेतु उपलब्ध नहीं होतीं इन्हें या तो चालू उपभोग में व्यय कर दिया जाता है या अनुत्पादक उद्देश्यों में लगा दिया जाता है या इनका प्रवाह विदेशों की ओर हो जाता है ।

अत: यह एक प्रकार से बचतों का क्षरण है । दूसरा, विनियोग उद्‌देश्यों के लिए जो बचतें उपलब्ध हो पाती हैं उनका उपयोग उनके स्वामियों द्वारा पूंजीगत वस्तुओं की प्राप्ति के लिए स्वयं कर लिया जाता है । इस प्रकार यह सामाजिक आवम्पकताओं हेतु विनियोजित नहीं हो पातीं । इसका एक उदाहरण उपभोक्ता पूँजीगत वस्तुओं की खरीद भी है । तीसरा विनियोग कोषों द्वारा हमेशा पूँजी निर्माण नहीं होता इसके अन्य अनुत्पादक प्रयोग भी हो सकते हैं जिससे समर्थ नया विनियोग नहीं हो पाता ।

अर्द्धविकसित देशों में पूँजी निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है क्योंकि यह अपनी सभी अवस्थाओं में बाधा व संरचनात्मक कुसमायोजनों का अनुभव करती है । यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अर्द्धविकसित देशों में पूँजी की सीमान्त उत्पादकता का विचार लागू नहीं होता, क्योंकि समस्या का मुख्य पक्ष सीमान्त वृद्धि नहीं बल्कि संरचनात्मक परिवर्तन तथा सभी क्षेत्रों में होने वाली वृद्धि है ।

अर्द्धविकसित देशों में पूँजी की अवशोषण क्षमता कम होती है । इसका कारण है तकनीकी ज्ञान की कमी, श्रम की गतिशीलता का अभाव एवं कुशल व प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव । यदि पूँजी अवशोषण क्षमता से अधिक विनियोग कर दिये जाएँ तो मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न हो जाएँगे जिसका देश के भुगतान सन्तुलन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । पूँजी निर्माण एवं पूँजी अवशोषण क्षमता में तालमेल बनाए रखने के लिए ऐसे उत्पादक विनियोग किए जाने चाहिएँ जो अपेक्षाकृत अल्प समय अवधि में उत्पादन प्रदान कर सकें ।

Prerequisite # 5. विनियोग का आवश्यक स्तर (Critical Level of Investment):

प्रत्येक देश विनियोग के एक आवश्यक स्तर को सुनिश्चित करें जिससे प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि एवं उत्पादक क्षमता में सुधार भी सम्भव हो सके । एक अर्थव्यवस्था जो घरेलू या विदेशी संसाधनों की सहायता से विनियोगों के आवश्यक स्तर को प्राप्त करने में असमर्थ होती है वह अवरोधों का सामना करेगी । मौरिस डाब के अनुसार- अर्द्धविकसित देश अपनी विनियोग आवश्यकताओं को निर्धारित करते हुए यह ध्यान रखे कि (अ) विनियोग राशि का कुल आय से अनुपात क्या है? (ब) विनियोग की जाने वाली राशि का विपिन क्षेत्रों में वितरण किस प्रकार हो रहा है तथा (स) उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध तकनीक का चुनाव किस प्रकार किया जाये ।

विनियोग की क्रिया के सुनिश्चित होने के लिए तीन उद्देश्य ध्यान में रखे जाने चाहिएँ- 1. वर्तमान समय में चालू उपभोग की इच्छा, 2. जोखिम की दशा से बचने के लिए सुरक्षा की आकांक्षा एवं 3. स्थायित्व की इच्छा ।

केलेकी के अनुसार- स्थिर पूँजी प्रति इकाई समय पर किया गया विनियोग एक निश्चित समय अवधि में तीन घटकों से प्रभावित होता है- 1. फार्मों द्वारा की गई चालू आन्तरिक सकल बचतें, 2. लाभ में होने वाली वृद्धि की दर तथा 3. पूँजी संयन्त्र के परिमाण में होने वाली वृद्धि । अर्द्धविकसित देश मात्र इसी कारण अधिक विनियोग नहीं कर पाते कि उनकी बचत कम है, क्योंकि वह निर्धन हैं बल्कि इसलिए भी उनका निजी व सार्वजनिक पूँजीवादी क्षेत्र बहुत छोटे आकार का होता है ।

संक्षेप में पूँजीवादी क्षेत्र के बड़े होने पर राष्ट्रीय आय में लाभ का अंश उच्च होगा तथा बचत व विनियोग की मात्रा भी अधिक होगी । उपर्युक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि ६स्क देश की आर्थिक विकास की सबसे बड़ी बाधा उसका वृद्धिमान बचत अनुपात या बचत की सीमान्त क्षमता कम है ।

संक्षेप में, इन देशों में ऐसी स्वचालित तकनीक काम नहीं करती जो इसे बढ़ाने में योगदान दे । इन देशों में ऐसी विपरीत शक्तियाँ कार्य करती है । (जैसे जनसंख्या वृद्धि) जो सृजित होने वाली अतिरिक्त आय को उपभोग व्यय की ओर धकेल देती है । अर्द्धविकसित देशों की मुख्य समस्या यह है कि वह बचत व विनियोग का एक उच्च स्तर प्राप्त नहीं कर सकते तथा इस बात की कोई गारन्टी नहीं होती कि जो बचतें प्राप्त भी हो रही हैं उन्हें सामाजिक रूप से वांछनीय क्षेत्रों की ओर प्रवाहित किया जाये ।

प्रो.डी.एस. नाग के अनुसार– अर्द्धविकसित देशों में विनियोग नीति के निर्धारण हेतु आवश्यक होगा कि:

i. अर्थव्यवस्था में विकास हेतु कितने पूंजी संसाधनों की आवश्यकता है तथा वास्तव में उपलब्ध संसाधन कितने हैं । इस प्रकार यह ज्ञात होगा कि किस मात्रा में साधनों की कमी अनुभव की जा रही है ।

ii. विनियोग का ऐसा मापदण्ड निर्धारित करना जिसके द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति सम्भव बने ।

iii. बचत एवं पूँजी को गतिशील करना जिससे उत्पादक विनियोग सम्भव बने ।

iv. ऐसे संस्थागत प्रबन्ध जिनसे अर्थव्यवस्था में पूँजी अवशोषण क्षमता में वृद्धि हो सके ।

अल्प विकसित देशों में पूँजी निर्माण की वृद्धि के लिए विनियोग मापदण्ड निर्धारित करना सरल कार्य नहीं, क्योंकि यह मुख्य रूप से संस्थागत परिवर्तनों, तकनीकी रूप से कुशल जनसंख्या व माँग के स्वरूप से प्रभावित होती है । इन देशों में तकनीकी प्रगति का अभाव, दोषपूर्ण सामाजिक संरचना व प्रशासनिक ढांचे की दुर्बलता से विनियोग कार्यक्रमों की सफलता संदिग्ध बन जाती है ।

Prerequisite # 6. सामाजिक एवं संस्थागत घटक (Social and Institutional Factors):

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सामाजिक एवं संस्थागत कारक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । केअरनक्रास का कथन है कि विकास न तो मात्र अधिक मुद्रा के पक्ष से सम्बन्धित है और न ही शुद्ध रूप से यह एक आर्थिक प्रवृत्ति है यह तो सामाजिक व्यवहार में सभी पक्षों को ध्यान में रखता है । आर्थर लेविस के अनुसार- संस्थाएँ उस सीमा तक विकास को प्रेरित या संकुचित करती है जिस सीमा तक उनके द्वारा प्रयास व प्रतिफल को सुनिश्चित रखा जाये । अवसरों के अनुकूल वह विशिष्टीकरण सम्भव बनाती है तथा कार्य की स्वतन्त्रता के अवसर प्रदान करती हैं ।

आर्थिक विकास की गति तभी तीव्र हो सकती है, जबकि विकास कार्यक्रमों में देश के निवासियों की भागीदारी सुनिश्चित हो तथा वह देश के विकास के लिए जागरूक व प्रतिबद्ध रहें । अर्द्धविकसित देशों में सामाजिक कारक व संस्थागत ढाँचा परम्परा व रूढ़ियों से ग्रस्त रहा है । वाल्टर क्रास के अनुसार- कठोर जाति व्यवस्था कार्य के अवसरों व व्यवसाय की गतिशीलता में बाधा उत्पन्न करते हैं । शिक्षित व्यक्ति विशिष्ट कार्य ही करना पसन्द करते हैं । धार्मिक सिद्धान्त विकास को अवरूद्ध करते हैं, क्योंकि इन्हें अत्यन्त संकीर्ण रूप से प्रस्तुत किया जाता है । यह संस्थाओं को इस प्रकार बदलने नहीं देते जिससे विकास को प्रेरणा प्राप्त हो । इस प्रकार जाति व्यवस्था, धार्मिक गठबन्धन, क्षेत्रवाद के फलस्वरूप इन देशों में राष्ट्रवाद की शक्तियाँ पनप नहीं पातीं ।

साइमन कुजनेट्‌स के अनुसार- सम्भव है कि यह संस्थाएँ आर्थिक वृद्धि के लिए कभी उपयोगी रही हों परन्तु वर्तमान समय में यह विकास पर बाधाकारी प्रभाव डाल रही हैं । जब सामाजिक संरचना न्यायपूर्ण नहीं होती अर्थात् जब विकास के समस्त लाभ समृद्ध वर्ग द्वारा हथिया लिए जाएँ तो निर्धन व्यक्ति द्वारा विकास के प्रति संवेदनशील रह पाना सम्भव नहीं बन पाता ।

Prerequisite # 7. प्रशासनिक सुधार (Administrative Reforms):

राज्य द्वारा संचालित आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्रशासन की भूमिका महत्वपूर्ण है । प्रशासन के लिए समर्पित नौकरशाहों की आवश्यकता होती है जो सार्वजनिक नीति के उद्देश्यों को सक्रिय रूप से क्रियान्वित कर सकें ।

प्रो. गुन्नार मिरडल के अनुसार- विकासशील देश नरम राज्य इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि इन देशों में प्रशासन अकुशल भ्रष्ट व लाल फीताशाही से ग्रस्त रहता है । प्रशासक की भूमिका निष्क्रिय व संवेदनाहीन होती है । प्रशासकों पर राजनीतिज्ञों व समृद्ध वर्ग का दबाव रहता है जिससे विकास के मार्ग में राजनीतिज्ञ व प्रशासकों के मध्य का विवाद मुख्य अवरोध बन जाता है ।

प्रशासनिक ढाँचे के द्वारा आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित करने में असफलता ही हाथ लगती है जिसके कारण निम्नांकित हैं:

1. समस्या के मूल कारणों की गलत जाँच करना जिससे स्थितियों का सही अन्दाज नहीं लग पाता ।

2. कार्य के जो तरीके एवं विधियाँ चली आ रही हैं उसी का अनुसरण करना नव-प्रवर्तन को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता ।

3. लम्बे समय से चली आ रही परम्परा एवं तकनीक पर आश्रित रहना । सृजनात्मक व कुशल व्यक्तियों को आकर्षित कर पाने की असफलता ।

4. व्यापक निरीक्षण का अभाव, अनुश्रवण गतिविधियों को उत्पन्न न कर पाना ।

5. कार्य के मूल्यांकन का अभाव, सहायक गतिविधियों को उत्पन्न न कर पाना ।

विकासशील देशों में यह देखा गया है कि निजी क्षेत्र के औद्योगिक् व व्यावसायिक उपक्रम, सार्वजनिक सेवाओं के सापेक्ष कुशलता से प्रबन्धित किए जाते हैं । अत: प्रशासनिक सुधार के लिए व्यावसायिक प्रबन्ध के सिद्धान्त, तकनीक व विधियों को सार्वजनिक सेवाओं हेतु आवश्यक माना जाने लगा है । प्रशासन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह संरचनात्मक सुधार लाने में सक्षम हों तथा आधुनिक प्रबन्ध की विधियों को अपनाए । समन्वय, तालमेल, एकीकरण व सरलीकरण की प्रक्रिया से प्रशासनिक कुशलता में सुधार होता है ।