मुद्रास्फीति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about the benefits and limitations of inflation in economic development.

मुद्रा प्रसार एवं आर्थिक विकास के मध्य सम्बन्धों के अनुभवसिद्ध प्रमाणों के आधार पर यह मूल्यांकन सम्भव बनता है कि मुद्रा प्रसार द्वारा एक देश का आर्थिक विकास गति प्राप्त करता है अथवा अवरुद्ध होता है ।

ऐसे अध्ययन यू तुन वू, भाटिया व डोरेंस द्वारा किये गये । इन अध्ययनों द्वारा सुस्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं हुए । कुछ देशों में मुद्रा प्रसार आय का पुनर्वितरण पूँजीवादी क्षेत्र की ओर करता है जिसकी बचत प्रवृतियों अधिक होती है व इस प्रकार यह विनियोग, पूँजी निर्माण व आर्थिक वृद्धि को सहायता पहुँचाता है ।

रोस्टोव के अनुसार 1870 के दशक में ब्रिटेन, 1850 के दशक में यूनाइटेड स्टेट्‌स तथा 1870 के दशक में जापान में मुद्रा प्रसार द्वारा पूँजी निर्माण को सहायता मिली । जापान व सोवियत रूस में भी मुद्रा प्रसारिक उपायों द्वारा सरकार ने विकास प्रयास किये ।

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कम विकसित देशों में किए गए एतिहासिक अवलोकनों में 1946 से 1976 तक लेटिन अमेरिकी देशों में मुद्रा प्रसार व आर्थिक वृद्धि के मध्य कोई सह-सम्बन्ध नहीं देखा गया । इनमें से कई देशों में मुद्रा प्रसार की उच्च दरों ने वृद्धि को हतोत्साहित किया था, जबकि ब्राजील में मुद्रा प्रसार के साथ आर्थिक विकास सम्भव बना ।

पूंजी निर्माण एवं तीव्र आर्थिक विकास के उद्देश्य से मुद्रा प्रसार की महत्ता पर विचार करते हुए मुख्य रूप से दो विचार महत्वपूर्ण है:

(1) मुद्रा प्रसार आर्थिक विकास में सहायक:

मुद्रा प्रसार समर्थकों के अनुसार जानबूझ कर किये गये न्यूनता वित्त प्रबन्ध से विनियोग कार्यक्रमों हेतु साधन गतिशील किए जा सकते हैं । यह तर्क दिया जाता है कि मुद्रा प्रसार की एक धीमी व सतत् दर आर्थिक विकास की एक नियमित दर लाने में सहायक होती है । इस प्रकार मुद्रा प्रसार को विकास का इंजन माना गया है ।

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इसके समर्थन में निम्न तर्क दिए जाते है:

(i) कम विकसित देशों में स्वैच्छिक बचत व विनियोग अनुपात का अल्प होना ।

(ii) अप्रभावी कर प्रणाली जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में विनियोग संसाधनों को सृजित कर पाना कठिन ।

(iii) पूर्ति की सीमाओं तथा संस्थागत दृढ़ताओं को देखते हुए राष्ट्रीय आय में विनियोग अनुपात में वृद्धि हेतु निजी क्षेत्र द्वारा पहल नहीं की जाती । संसाधन गतिशीलता के अभाव के कारण वास्तविक पूंजी निर्माण भी हतोत्साहित होता है ।

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(iv) पूंजी बाजार का अविकसित होना तथा वित्तीय संस्थाओं द्वारा अपर्याप्त साख की आपूर्ति ।

उपर्युक्त के सन्दर्भ में मुद्रा प्रसार को करारोपण का विकल्प माना जाता है, यद्यपि यह प्रशासनिक रूप से कठिन व राजनीतिक रूप से दुखदायी होता है, लेकिन मुद्रा प्रसारिक उपायों द्वारा वित्तीय क्रियाशीलता उत्पन्न कर निर्धनता व अर्द्धरोजगार के विषम चक्र को खण्डित किया जा सकता है ।

इसके अनुकूल परिणाम केवल उस दशा में प्राप्त होंगे जब पर्याप्त सोच-विचार एवं सावधानी के साथ ऐसी परियोजनाओं पर विनियोग किया जाये जो अल्प समय अवधि में उत्पादन देने में समर्थ ही । अतः मुद्रा प्रसार आर्थिक विकास हेतु आवश्यक लाभदायक व वांछनीय है । इसके दीर्घकाल में प्राप्त होने वाले प्रतिफल अल्पकाल की लागत व दुष्प्रभावों को समाप्त कर सकते हैं ।

(2) मुद्रा प्रसार आर्थिक विकास में सहायक नहीं:

मुद्रा प्रसार द्वारा आर्थिक विकास में सहायक भूमिका का निर्वाहन न करने के पीछे जो तर्क दिया जाता है वह असमानता एवं विषमता में वृद्धि से सम्बन्धित है । वस्तुतः मुद्रा प्रसार कर का एक उच्च विभेदात्मक व असमान रूप है जो समाज के निर्धन वर्ग पर असहनीय दबाव डालता है ।

इससे सामाजिक तनाव बढते हैं तथा राजनीतिक अस्थिरता आती है । स्थिर आय वाले वर्ग, सरकारी कर्मचारी, पेंशनभोगी, लगान वसूल करने वाले, मजदूरी धारक, बॉण्ड धारक, अन्य बचत योजनाओं में पूँजी लगाने वाले मुद्रा प्रसार के भार को वहन करते हैं ।

बचतों का वास्तविक मूल्य भी मुद्रा प्रसार से कम होता जाता है । बचत व विनियोग की प्रवृतियाँ दुर्बल होती है । सट्‌टे की प्रवृति बढती है । मुद्रा प्रसार के और अधिक घातक होने पर मुद्रा में विश्वास नहीं रह जाता तथा मौद्रिक प्रणाली खतरे में पड जाती है जितने दीर्घ समय तक मुद्रा प्रसार रहता है विकृतियाँ उतनी ही अधिक होती है । मुद्रा प्रसार को संकुचित सीमाओं में रख पाना सम्भव नहीं होता ।

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