एक देश का आर्थिक विकास: 8 पूर्वापेक्षाएँ | Read this article in Hindi to learn about the eight main pre-requisites for economic development. The pre-requisites are:- 1. आर्थिक विकास की इच्छा (The Desire for Economic Development) 2. बाजार अपूर्णताओं को दूर करना (Removal of Market Imperfections) 3. प्रशासनिक दक्षता (Administrative Efficiency) 4. एक स्थानीय आधार (An Indigenous Base) and a Few Others.

अल्प विकसित देश आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये अधिक उत्सुक हैं परन्तु यह कोई चमत्कार नहीं है जैसे कि हम कल्पना करते हैं । आर्थिक विकास की प्रक्रिया के आरम्भण, संभाल और इसे तीव्र गति प्रदान करने के लिये प्रासंगिक वातावरण की आवश्यकता होती है । अन्य शब्दों में आर्थिक विकास का उच्च दर केवल मार्ग में आने वाली अड़चनों को दूर करके ही प्राप्त नहीं की जा सकती ।

”आर्थिक वृद्धि के प्रत्यक्ष कारण हैं- मितव्ययता के लिये प्रयत्न, ज्ञान की वृद्धि अथवा उत्पादन में इसका प्रयोग और पूंजी की राशि अथवा प्रति व्यक्ति अन्य साधनों को बढ़ाना । यह तीन कारण यद्यपि स्पष्टतया भिन्न हैं तो भी प्रत्ययात्मक रूप में इकट्ठे पाये जाते हैं ।” –लुईस

वास्तव में, आर्थिक विकास मानवीय प्रतिभा, सामाजिक दृष्टिकोण, देश की राजनीतिक स्थितियों और ऐतिहासिक घटनाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ा है परन्तु साथ ही राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताएं भी आर्थिक विकास के लिये आवश्यक हैं ।

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“विकास केवल बहुत सा धन प्राप्त करने की बात नहीं है, न ही यह केवल विशुद्ध आर्थिक परिदृश्य है । यह सामाजिक व्यवहार के सभी पहलुओं को अपनाता है, कानून व्यवस्था की स्थापना, व्यापारिक व्यवहारों में कर्तव्यनिष्ठा, जिसमें राजस्व अधिकारियों से व्यवहार, पारिवारिक-साक्षरता, यान्त्रिक उपकरणों की जानकारी इत्यादि भी इसमें सम्मिलित हैं ।” –ए. के कैरन क्रास

यहां हमें, यह याद रखना चाहिए है कि अल्प विकसित देशों में प्राय: बाजार अपूर्णताओं की कुछ निषेधकारी शक्तियों के साथ निर्धनता के कुचक्र पाऐ जाते हैं । केवल इन अवरोधों को दूर करना ही आर्थिक वृद्धि की पर्याप्त शर्त नहीं है । आर्थिक विकास की प्राप्ति की दृष्टि से महान महत्व रखने वाली शक्तियों को पहचानने के लिये विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है ।

इस पहलू को ध्यान में रखते हुये आईये, हम आर्थिक विकास की कुछ मूलभूत आवश्यकताओं का वर्णन करें:

Prerequisite # 1. आर्थिक विकास की इच्छा (The Desire for Economic Development):

आर्थिक प्रगति की प्रथम शर्त यह है कि लोगों में उन्नति की इच्छा हो । इस बात से सभी सहमत हैं कि जब तक देश के लोगों में आर्थिक उन्नति के प्रति दृढ़ इच्छा नहीं होगी तब तक आर्थिक विकास सम्भव नहीं हो सकता । सामान्य जनों में विकास की तीव्र इच्छा आर्थिक विकास के पहियों को चिकनाहट उपलब्ध कराती है ।

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इससे अर्थव्यवस्था की स्व-उत्पादक शक्ति में वृद्धि होती है । अत: किसी देश में लोगों के लिये उन्नति की इच्छा रखना अत्यन्त आवश्यक है और वहां की सामाजिक, वैधानिक और राजनीतिक संस्थाओं को उसका समर्थन करना चाहिये ।

प्रो. कैरन क्रास के अनुसार- ”आर्थिक विकास असम्भव है यदि यह लोगों के मन में विद्यमान नहीं होता ।”

अन्य शब्दों में, प्रगति तभी सम्भव होगा जब लोग उसकी इच्छा करेंगे और उसकी की प्राप्ति के सम्बन्ध में उन्हें आश्वस्त किया जायेगा । यदि लोगों को आर्थिक विकास की प्राप्ति के सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं किया गया तो लोगों में विकास की इच्छा नहीं होगी ।

विकास प्रवृत्ति के लोग जो प्रयोगात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं आर्थिक विकास के लिये अपेक्षित आधार उपलब्ध कराते हैं । एक अर्थ में गतिशील कार्य और आर्थिक प्रगति के लिये दृढ़ इच्छा शक्ति किसी अर्थव्यवस्था में निविष्ट विकास के लिये सुदृढ़ आधार का निर्माण करती है ।

Prerequisite # 2. बाजार अपूर्णताओं को दूर करना (Removal of Market Imperfections):

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ऐसा विश्वास किया जाता है कि बाजार अपूर्णतायें मुख्यता अल्प विकास के लिये उत्तरदायी हैं तथा इन अपूर्णताओं को दूर करना आवश्यक है । इन अर्थव्यवस्थाओं में निर्धनता की परिस्थितियां बनाये रखने के कारण और प्रभाव इन अशुद्धियों में हैं ।

इसके अतिरिक्त, बाजार अपूर्णतायें साधनों के आंशिक उपयोग तथा कारकों की गतिहीनता का कारण बनती है और क्षेत्रीय विस्तार और विकास प्रक्रिया को रोकती हैं ।

यह बाजार अपूर्णतायें साधनों के बहाव को कम उत्पादक क्षेत्र से रोजगार के अधिक उत्पादक क्षेत्रों की ओर ले जाने से रोकती हैं, विस्तार को अवरूद्ध करती हैं और एक क्षेत्र के विकास के प्रभाव को दूसरे क्षेत्र में जाने से रोकती है, जिससे साधनों का कम उपयोग तथा गलत दिशा में उपयोग होता है ।

यदि अल्प-विकसित देश पूंजी निर्माण के दर को तीव्र करना चाहते हैं तो उन्हें अपने बाजारों को इन अपूर्णताओं से मुक्त करना होगा । इस कार्य के लिये, वर्तमान सामाजिक-आर्थिक संस्थानों को सुधारने और एकाधिकार को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है ।

पूंजी और मुद्रा बाजारों को व्यवस्थित तथा व्यापक बनाना होगा । कृषकों, व्यापारियों तथा छोटे व्यापारियों को सस्ती एवं विस्तृत साख सुविधाएं सरलतापूर्वक उपलब्ध की जानी चाहिये । उनकी बाजार अवसरों सम्बन्धी जानकारी के साथ उत्पादन की नई तकनीकों को भी बढ़ाना होगा ।

साधनों का गतिशील प्रयोग समय की आवश्यकता है । अर्थव्यवस्था का लक्ष्य अपने सीमित साधनों का अधिकतम तथा सर्वाधिक दक्ष उपयोग करना होना चाहिये । मुख्य आवश्यकता उत्पादन को ऊपर ले जाने की है न कि वर्तमान गतिशील साधनों के सीमान्त समन्वय की ।

इसके लिये विकास प्रक्रिया की प्रकृति के दृष्टिकोण की आवश्यकता है । अन्त में, यदि पूंजी संचय का निर्माण करना है और एक क्षेत्र के विकास ने दूसरे क्षेत्र के विकास को प्रेरित करना है तो बाजार की अपूर्णताओं को दूर करना आवश्यक है ।

इसके लिये, बाजार कठोरताओं में कमी अनुत्पादक निकासों को अधिक उत्पादक निवेश मार्गों की ओर मोड़ने में सहायक होगी । विकास में बाजार का विस्तार सम्मिलित है और कृत्रिम बाधाएं इस विस्तार को रोकने में प्रतिबन्धक हो सकती हैं जैसे प्रभावी माँग में वास्तविक कमी ।

बाजार अपूर्णताओं की मात्रा जितनी कम होगी, साधनों का आवंटन उतना ही अधिक दक्ष होगा और विदेशी व्यापार उतनी ही तीव्रता से उन्नत होगा जिससे कुचक्रों को तोड़ना सरल और सुरक्षित हो जायेगा ।

Prerequisite # 3. प्रशासनिक दक्षता (Administrative Efficiency):

आर्थिक विकास के लिये एक अन्य महत्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है- एक दृढ़, प्रतियोगी, दक्ष, ईमानदार और सुस्थिर सरकार । यह आर्थिक विकास का एक आवश्यक राजनीतिक निर्धारक है । इसकी अनुपस्थिति में आर्थिक विकास की विशिष्ट नीतियों का निर्माण और कार्यान्वयन असम्भव होगा जो अर्थ व्यवस्था को संकटों की ओर भी ले जा सकता है ।

इसलिये सरकार का दृढ़ होना आवश्यक है तथा सरकार आन्तरिक कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा देश को बाहरी आक्रमणों से बचाने के योग्य होनी चाहिये । यदि सरकार दुर्बल, भ्रष्ट और अस्थिर होगी तो तीव्र विकास असम्भव होगा । आर्थिक आयोजन को क्षति पहुंचेगी तथा अर्थव्यवस्था में विकास गतिविधियां रुक जायेंगी ।

Pre-Requisite # 4. एक स्थानीय आधार (An Indigenous Base):

आर्थिक विकास की एक मुख्य आवश्यकता यह है कि अल्प विकसित अर्थव्यवस्था के समाज के भीतर इसकी प्रक्रिया का घरेलू आधार होना चाहिए है । आर्थिक प्रगति, सामाजिक बेहतरी और प्रक्रिया के कार्यान्वयन की इच्छा का होना आवश्यक है ।

इसका कार्यान्वयन बाहर से नहीं हो सकता । बाहरी शक्तियां केवल स्थानीय शक्तियों को प्रोत्साहित कर सकती है तथा सुविधा जनक बना सकती है । वह केवल सतत् विकास को पूर्ण कर सकती है परन्तु घरेलू पहल का विकल्प नहीं बन सकती ।

प्रो. मायर और बाल्डविन का मत है कि स्थानीय आधार के महत्व की सराहना तभी होगी यदि इसे पहचाना जाता है और विकास के आरम्भण तथा विकास को बनाये रखने में व्यापक अन्तर होता है ।

पुन: कुछ परियोजनाएं विदेशी सहायता से आरम्भ की जा सकती हैं परन्तु इससे लम्बे समय के लिये विकास सुनिश्चित नहीं होगा । फलत: पर्याप्त आन्तरिक प्रेरणा के अभाव से विकास क्षीण पड़ जायेगा ।

इसलिये, यदि विकास की प्रक्रिया को संचयी तथा दीर्घकालिक बनाना है तो विकास शक्तियों का विकासशील देशों के भीतर से आधारित होना आवश्यक है । इसके लिये निर्धन देशों के भीतर विकास शक्तियों का सृजित होना आवश्यक है ।

जैसे प्रो. केरन क्रास कहते हैं- “यदि विकास लोगों के मन में घटित नहीं होता तो इसका होना असम्भव है ।” बाहरी शक्तियों पर अत्याधिक निर्भरता विकास के लिये समग्र पहलकदमी को समाप्त कर देती है तथा विदेशी निवेशकों को स्वार्थी उद्देश्यों के लिये प्राकृतिक साधनों के शोषण की इजाजत देती है ।

अत: यह याद रखना आवश्यक है कि विकास का ढांचा दृढ़तापूर्वक स्थानीय आधार पर स्थित होना चाहिये । बिना घरेलू आधार के अल्प विकसित देशों में आर्थिक विकास की प्राप्ति सम्भव नहीं है । जब तक विकास प्रक्रिया की जड़ अर्थव्यवस्था के भीतर स्थान प्राप्त नहीं करती तब तक विकास अल्पकालीन और कृत्रिम होगा ।

इसलिये, विकास का एक दृढ़ घरेलू आधार अत्यावश्यक है । इसकी अनुपस्थिति में पूर्ण सम्भावना है कि ‘विकास के द्वीप’ व्यापक विकास में लुप्त हो जायेंगे और नोदक शक्तियां लम्बे समय के लिये चालू रहेंगी ।

Prerequisite # 5. सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताएं (Socio-Cultural Requirement):

लोगों की सामाजिक-आर्थिक अभिवृत्तियां विकास की ओर परिवर्तित की जायें अर्थात् सामाजिक अवरोध जो विकास के मार्ग में अड़चन डालते हैं उन्हें या तो दूर किये जाये या फिर दृढ़ता से दबा दिया जाये ।

सामाजिक संगठन जैसे संयुक्त परिवार, जाति प्रथा, रिश्तेदारी, धार्मिक हठधर्म और ग्रामीण जीवन आदि को संशोधित करना चाहिये । वास्तव में, यह कार्य सरल प्रतीत होते हैं, परन्तु इन्हें चमत्कार द्वारा नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई भी सामाजिक अथवा सांस्कृतिक परिवर्तन असन्तोष एवं विरोध उत्पन्न करेगा जिससे अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

इसलिये, एक प्रासंगिक संस्थानिक संरचना आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा है । कुछ धार्मिक एवं सामाजिक अभिवृत्तियां विकास के लिये अन्य कारकों से अधिक हितकर हैं ।

बदलते हुये सामाजिक वातावरण की आवश्यकता पर बल देते हुये प्रो. मायर और बाल्डविन ने सत्य ही कहा है कि यदि राष्ट्रीय आय को अधिक तीव्रता से बढ़ाना है तो नई आवश्यकताएं, नए आविष्कार, उत्पादन के नये ढंग तथा नई संस्थाओं की स्थापना की आवश्यकता है जहां आधुनिक उन्नति के मार्ग में धर्म अड़चन डालता है वहां धर्म को अधिक गम्भीरता से न लिया जाये अथवा इसका स्वरूप परिवर्तित कर दिया जाये ।

सामाजिक संगठन उन्नति के मार्ग में रोधक बनते हैं क्योंकि वे व्यक्ति को कड़ा परिश्रम करने के लिये प्रेरित नहीं करते । ऐसे समाजों में रीति-रिवाज उत्पादकों को नव प्रवर्तन से रोकते हैं । आय और सम्पत्ति की असमानताएं जनसंख्या के बड़े भाग को अवसरों की समानताएं देने से रोक सकती हैं तथा सम्भव है कि बहुत से लोग नये अवसरों की जानकारी न रखते हों ।

ऐसा समाज तीव्रतापूर्वक वृद्धि नहीं कर सकता यदि इन अवरोधों को समय पर नहीं रोका गया । इसलिये तीव्र आर्थिक विकास को अल्प विकसित देशों में बदले हुये अथवा संशोधित संस्थानिक और सांस्कृतिक प्रतिरूप की आवश्यकता है ।

इसके अतिरिक्त, विकसित एवं अल्प-विकसित देशों के बीच शैक्षिक असमानता निम्न आय वाले देशों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण है । प्रौद्योगिकी की सामान्य उन्नति ऐसे देशों में शैक्षिक संरचना के अभाव के कारण एक बाधा है जिस द्वारा उत्पादक नई प्रौद्योगिकी सीख सकते हैं ।

अन्य शब्दों में शिक्षा जागृति की ओर ले जाती है और ज्ञान की ओर नये मार्ग खोलती है । यह आत्म संयम, विवेकशील विचार की शक्ति की रचना करती है और आर्थिक विकास में शिक्षा के महत्व पर बल देते हुये भविष्य में शोध की क्षमता प्रदान करती है ।

अत: किसी पिछड़े हुये देश में सामाजिक-सांस्कृतिक उनके तीव्र विकास की महत्वपूर्ण पूर्व शर्त बन जाता है । उन देशों में उन्नति अधिक तीव्रता से होगी जहां सामाजिक आर्थिक अभिवृत्ति स्वचालित संचयी वृद्धि के लिये स्वस्थ वातावरण तैयार करती है ।

Prerequisite # 6. पूंजी निर्माण (Capital Formation):

आर्थिक विकास की एक अन्य युक्ति संगत शर्त है- पूंजी का निर्माण । यह मान्य तथ्य है कि पूंजी साधनों ने श्रम उत्पादकता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

अत: पूंजी में प्रत्येक प्रकार की पुन: उत्पादन योग्य सम्पत्ति सम्मिलित है जिसे विशाल मात्रा में उत्पादन के लिये सीधा प्रयोग किया जाता है । प्रो. कॉलन क्लार्क के अनुसार- “पूंजी वस्तुएं पुनरुत्पादन योग्य धन है जिसे उत्पादन के प्रयोजन से प्रयुक्त किया जाता है ।”

प्रो रैगनर नर्कस के शब्दों में- पूंजी निर्माण का अर्थ है कि समाज अपनी सम्पूर्ण चालू गतिविधि को तुरन्त उपयोग की आवश्यकताओं और इच्छाओं के लिये प्रयुक्त नहीं करता परन्तु इसके एक भाग को पूंजी वस्तुओं के निर्माण- उपकरणों, यन्त्रों, यातायात सुविधाओं, परियोजनाओं के निर्माण के लिये बचाता है जिसके इर्द-गिर्द आर्थिक विकास घूमता है ।

इसे आर्थिक विकास की मुख्य कुंजी माना जाता है । विकसित देशों का अनुभव इस तथ्य को सुनिश्चित करता है कि उच्च पूंजी निर्माण के फलस्वरूप अधिक उत्पादन और आर्थिक विकास प्रोत्साहित होते हैं ।

यह आर्थिक तत्वों के चक्र को अधिक उत्पादक रूप में गति प्रदान करता है, जिसके फलस्वरूप अधिक आय और अधिक अतिरेक और अधिक निवेश होता है जिससे रोजगार में वृद्धि होती है । पूंजी निर्माण की प्रक्रिया संचयी और स्व-पोषक है ।

निर्धन और पिछड़े हुये देशों में पूंजी संचय का स्तर बहुत नीचा होता है तथा इसे कुचक्र से जोड़ा जा सकता है । ऐसे अल्प-विकसित देशों में निम्न प्रति-व्यक्ति आय के साथ उपयोग की उच्च प्रवणता होती है जिस कारण बचतों के लिये बहुत कम शेष रहता है ।

इसका अर्थ है निम्न निवेश क्षमता निम्न उत्पादकता की ओर ले जाती है । अत: बचतों की वृद्धि के लिये कड़े प्रयत्न किये जाने चाहियें जो बदले में उच्च निवेश और उच्च पूंजी संचय को प्रोत्साहित करेंगे ।

Prerequisite # 7. प्रासंगिक निवेश मानदण्ड (Suitable Investment Criteria):

अल्प-विकसित देशों में आर्थिक विकास की एक अन्य पूर्वापेक्षा न केवल निवेश की दर को निर्धारित करना है बल्कि निवेश का संघटन भी है । अनुकूलतम निवेश प्रतिरूप अधिकतया देश में उपलब्ध निवेश के फलदायक मार्गों पर निर्भर करते हैं । इसकी सामाजिक सीमान्त उत्पादकता भी भिन्न होती है ।

तथापि, भिन्न निवेश मानदण्डों की नीचे चर्चा की गई है:

(क) सामाजिक सीमान्त उत्पादकता:

निवेश ऐसी दिशाओं में किया जाये जहां सामाजिक सीमान्त उत्पादकता उच्चतम है ।

इस प्रयोजन के मार्गदर्शक नियम हैं:

(i) निवेश को अति उत्पादक मार्गों की ओर निर्दिष्ट किया जाये ताकि चालू उत्पादन का निवेश से अनुपात अधिकतम हो अथवा पूंजी उत्पादन अनुपात न्यूनतम हो ।

(ii) उन निवेश परियोजनाओं का चयन किया जाये जो लोगों की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाली वस्तुओं का उत्पादन करती है और अधिक बाहरी मितव्ययताओं का संवर्धन करती है ।

(iii) निवेश केवल उन्हीं परियोजनाओं में किया जाना चाहिये जहां श्रम का अधिकतम प्रयोग होता है ।

(iv) निवेश परियोजनाओं को घरेलू कच्चे माल का प्रयोग करना चाहिये ।

(v) निवेश को उन उद्योगों की ओर निर्दिष्ट किया जाना चाहिये जो विदेशी विनिमय के अर्जन में लाभप्रद हो, भुगतानों के सन्तुलन पर दबाव को कम करें और निर्यात वस्तुओं के अनुपात को अधिकतम बनायें ।

(vi) उन निवेश परियोजनाओं का चयन किया जाये जो वास्तविक आय के वितरण को सुधारती हैं तथा इस प्रकार सम्पन्न और निर्धन के बीच अन्तराल को समाप्त करती हैं ।

अधिकांश देशों में इस मानदण्ड को अर्थव्यवस्था की गतिमय जटिलताओं के कारण अपनाया नहीं जा सकता । निवेश की दिशा के सम्बन्ध में, उनके अन्तिम परिणामों को लेकर, विचारों में अन्तर हो सकता है । इस सम्बन्ध में प्रो. मायर और बाल्डविन कहते हैं- ”उत्पादकता की यह अवधारणा निःसन्देह एक मूल्य अवधारणा है और केवल एक भौतिक अवधारणा नहीं ।”

(ख) सामाजिक और आर्थिक ऊपरी खर्चे (Social and Economic Overheads):

पूर्ति पक्ष से इसकी प्राप्ति के लिये निवेश को बाहरी मितव्ययताओं को इन रूपों में सृजित करनी चाहिये- ईंधन और ऊर्जा के स्रोतों का विकास, कच्चे माल के सामान्य स्रोत, साख, शोध और यातायात सुविधाएं ।

इसी प्रकार मांग पक्ष से, निवेश को विशाल सामाजिक और आर्थिक संरचना का निर्माण अस्पतालों, स्कूलों, सड़कों, रेलमार्गों, भवनों, बांधों के रूप में करना चाहिये ।

निर्यात उद्योगों में निवेश और आयात प्रतियोगी उद्योगों में निवेश फलदायक निवेश का एक अन्य क्षेत्र प्रस्तुत करता है । अत: निवेश को अर्थव्यवस्था में ‘वृद्धिशील बिन्दुओं’ को विकसित करने का लक्ष्य रखना चाहिये ।

आरम्भ करते समय विशिष्ट वृद्धिशील बिन्दुओं को विकसित किया जाना चाहिये, जो बदले में, सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में प्रतिक्रियाओं और प्रभावों की श्रृंखला आरम्भ कर देगें । इस प्रकार, आर्थिक वृद्धि की असंतुलित प्रक्रिया अन्त में ‘सन्तुलित वृद्धि’ की व्यापक व्यवस्था में उभर कर आयेगी ।

(ग) सन्तुलित विकास (Balanced Growth):

इसका अर्थ है- अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ सर्वपक्षीय विकास । अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र समस्वरता से बढ़ने चाहिये ताकि कोई क्षेत्र पिछड़ न जाये तथा कोई क्षेत्र दूसरों से अधिक आगे न निकल जाये क्योंकि विभिन्न क्षेत्र परस्पर सम्बन्धित अथवा एक-दूसरे पर निर्भर हैं ।

इसलिये आवश्यक है कि निवेश को विस्तृत सीमा की ओर निर्दिष्ट किया जाये । विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों में सन्तुलन और विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं और पूंजी वस्तुओं के उद्योगों के बीच सन्तुलन आवश्यक है । कृषि क्षेत्र और उद्योग क्षेत्रों के बीच भी सन्तुलन की आवश्यकता है ।

दोनों क्षेत्र एक दूसरे के पूरक हैं । औद्योगिक क्षेत्र में श्रम शक्ति में वृद्धि के कारण अधिक कच्चे माल की आवश्यकता होती है । सामाजिक एवं आर्थिक संरचना में पर्याप्त निवेश की आवश्यकता है जिससे अर्थव्यवस्था के कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों को प्रोत्साहन और सहायता प्राप्त हो ।

इसके अतिरिक्त घरेलू और विदेशी क्षेत्रों में भी सन्तुलन की आवश्यकता है । पूंजीगत साज-सामान के आयात की बड़े स्तर पर आवश्यकता होती है । आयतों की वित्त व्यवस्था निर्यातों द्वारा भुगतानों के सन्तुलन के साथ की जाती है ।

इसका अर्थ है घरेलू उपभोग के लिये उत्पादन और निर्यात के लिये उत्पादन में उचित सन्तुलन आवश्यक है । संक्षेप में, देश में आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये घरेलू एवं विदेशी क्षेत्रों में साथ-साथ वृद्धि होनी चाहिये ।

(घ) तकनीकों का चयन (Choice of Techniques):

उत्पादन की तकनीकें निवेश के नमूने को बहुत प्रभावित करती हैं । यह परियोजना के गुणों पर अधिक निर्भर करता है कि पूंजी गहन तकनीकों पर निर्भरता ठीक होगी अथवा श्रम गहन तकनीकों पर ।

दूसरी ओर, जहां श्रम की दुर्लभता है वहां पूंजी गहन तकनीक अधिक हितकर होगी । पूंजी के अभाव की स्थिति में अधिक श्रम को नियुक्त करना बेहतर होगा । सुरक्षा उद्योगों में पूंजी गहन तकनीकों का प्रयोग राष्ट्रीय हित के लिये बेहतर समझा जाता है ।

अधिक विदेशी विनिमय अर्जित करने के लिये देश को पूंजी गहन तकनीकों का प्रयोग करना चाहिए । अत: विस्तृत विकास परिदृश्य और देश के संरचनात्मक वातावरण को ध्यान में रखते हुये निर्णय लेना योजना-निर्माताओं पर निर्भर करता है ।

(ङ) पूंजी उत्पाद अनुपात (Capital Output Ratio):

कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि पूंजी उत्पादन अनुपात निवेश का एक मानदण्ड है । निवेश परियोजनाओं का चयन करते समय और प्राथमिकताएं निर्धारित करने में, विभिन्न परियोजनाओं की पूंजी उत्पाद अनुपातों की तुलना करनी चाहिए, निवेश उन्हीं परियोजनाओं तक सीमित रहना चाहिये जो पूंजी उत्पाद अनुपात को नीचा रखती है ।

पूंजी-उत्पाद अनुपात जितना नीचा होगा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर उतनी ही ऊंची होगी । जिन परियोजनाओं को निवेश की आवश्यकता है उन्हें शुद्ध स्थानापन्नों के रूप में रखा जाये । कृषि परियोजनाएं और उद्योग परियोजनाएं, स्थानापन्न से अधिक पूरक हैं ।

निवेश परियोजनाओं के चयन के मार्ग में उनके द्वारा आय में किये जाने वाले योगदान की तुलना की जाये न कि पूंजी उत्पाद अनुपातों से । पूंजी उत्पाद अनुपात के अतिरिक्त अन्य कारक भी हैं जैसे श्रम-निवेश अनुपात और आय वितरण पर निवेश के प्रभाव जोकि अधिक महत्व रखते हैं ।

अत: किसी देश की निवेश क्षमता उसकी पूंजी समावेशन शक्ति द्वारा सीमित की जाती है, जो बदले में श्रम प्रौद्योगिकी और निपुण कर्मचारियों की गतिशीलता से सीमित होती है ।

अत: तर्कपूर्ण मानदण्ड की आवश्यकता है कि अन्य सहकारी कारकों को पूंजी के साथ तब तक बढ़ाया जाये जब तक सभी सीमाओं को पार नहीं कर लिया जाता । मुद्रा स्फीति और भुगतान के सन्तुलन में असन्तुलन को समाप्त करने के लिये भी निवेश किया जाना चाहिये ।

Prerequisite # 8. पूंजी समावेशन और स्थायित्व (Capital Absorption and Stability):

निर्धन देश प्राय: पूंजी को सीमा रहित और किसी भी दर पर समाविष्ट नहीं कर सकते । किसी अर्थव्यवस्था की पूंजी समावेशन क्षमता एक ओर तो अन्य सहकारी कारकों की उपलब्धता पर निर्भर करती है और दूसरी ओर स्थायित्व की आवश्यकता और मुद्रा स्फीति से बचे रहने पर निर्भर करती है ।

प्राय: किसी निर्धन देश की पूंजी समाविष्ट करने की क्षमता की अत्यधिक महत्वपूर्ण सीमा प्रौद्योगिकी का अभाव, प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव और श्रमिकों की न्यून भौगोलिक गतिशीलता है । उनमें प्रबन्धकीय, तकनीकी, पर्यवेक्षी और निपुण जन-शक्ति का भी अभाव रहता है ।

विकास की आरम्भिक स्थितियों में पूंजी, संचय, पूंजी की सीमान्त उत्पादकता में एक वृद्धि स्थापित कर सकता है परन्तु विकास के बढ़ने पर पूंजी की सीमान्त उत्पादकता तीव्रता से घट सकती है, पूंजी के साथ अन्य सहकारी कारकों और उत्पादन में त्रुटियों के कारण सीमान्त उत्पादकता ऋणात्मक भी हो सकती है ।

यदि पूंजी संचय को तीव्रतापूर्वक बढ़ना है तो पूंजी के अन्य सहयोगी कारकों की पूर्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करना भी आवश्यक होगा । जब तक इन त्रुटियों को पार नहीं किया जाता निवेश को और भी ध्यानपूर्वक राष्ट्रीय निवेश मानदण्ड के अनुसार चुनना आवश्यक हो जाता है ।

जब पूंजी संचय देश की समावेशी क्षमता से बढ़ जाता है तो सदैव भुगतान सन्तुलन की समस्या उत्पन्न होती है । विकास प्रक्रिया को सापेक्षतया उच्च निर्यात क्षमता सहित तीव्र करना आवश्यक है ताकि बढ़ते हुये आयतों का भुगतान किया जा सके । यदि विकास की तीव्र दर मुद्रा स्फीति लाती है, तो परिणाम में लागतें निरन्तर बढ़ती हैं और भुगतान-सन्तुलन की कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं ।

इसलिये आवश्यक है कि विकास की दर को, निर्यातों + विदेशी निवेश की प्राप्ति तथा आयतों + विदेशी निवेश के खर्चों के बीच एक सन्तुलित सम्बन्ध को बनाये रखने के विचार द्वारा अवश्य प्रभावित होना चाहिये ।