दूध संग्रह की क्षमता: 7 कारक | Read this article in Hindi to learn about the seven main factors affecting the effeciency of milk collection. The factors are:- 1. दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में विपण्य तथा विपणित आधिक्य दूध की मात्रा (Marketable and Marketed Surplus of Milk in the Region) 2. दुग्ध प्राप्तिकरण की विभिन्न विधियां एवं प्रणालियाँ (Various Methods and Systems of Milk Procurements) and a Few Others.

दुग्ध प्राप्ति से सम्बन्धित उपरोक्त कारकों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है:

Factor # 1. दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में विपण्य तथा विपणित आधिक्य दूध की मात्रा (Marketable and Marketed Surplus of Milk in the Region):

दुग्ध उत्पादक केवल व्यवसायिक रूप से वेचने के लिए ही दूध का उत्पादन नहीं करते वरन उसका तरल रूप में या दुग्ध पदार्थों के रूप में उपयोग भी करते है । दूग्ध उत्पादक के अपने परिवार उपभोग से बचा दूध ही अन्य उपभोक्ताओं या दुग्ध व्यवसाय में लगे छोटे-बड़े दुग्ध व्यापारियों को बेचा जाता है ।

दूध की विक्रय की गयी इस मात्रा को विपणित आधिक्य (Marketed Surplus) कहा जाता है । यह कुल उत्पादन तथा कुल उपभोग के अन्तर के बराबर होता है ।

ADVERTISEMENTS:

इस जानकारी को प्राप्त करने के लिए जो सर्वे (Survey) किया जाता है उसके मुख्य पद निम्नलिखित होने चाहिए:

1. सर्वे का उद्देश्य निश्चित करना ।

2. सर्वे के लिए समग्र (Population) सुपरिभाषित (Well Defined) किया जाए ।

3. चयनित क्षेत्र से नमूना (Sample) लेने के लिए इकाइयों (Units) की सूची तैयार करना ।

ADVERTISEMENTS:

4. समय में से नमूना इकाई (Sampling Units) छाटें ।

5. नमूना इकाई (Sampling Units) से नमूना (Sample) छांटना ।

6. एकत्र किये जाने वाले आकड़ों का निर्धारण सुनिश्चित प्रकार से करें ।

7. सर्वे का समय तय करना तथा समयबद्ध कार्यक्रम तैयार करना ।

ADVERTISEMENTS:

8. आंकडे एकत्र करने वाले कर्मचारियों (Staff) को प्रशिाक्षित करना ।

9. आंकडे एकत्रीकरण में लगे कर्मचारियों का पर्यवेक्षण (Supervision) ठीक प्रकार तथा नियमित रूप से किया जाय ।

10. समयबद्ध तरीके से आकंडों का अवलोकन करना भी आवश्यक होता है ।

11. अन्त में सर्वे से प्राप्त आकंडों का विश्लेषण कर उचित परिणाम घोषित किया जाए ।

किसी क्षेत्र विशेष में उत्पादक कितना दूध बाजार में दे रहे है तथा कितना उपभोग कर है, का सर्वे करने के बाद ही यह ज्ञात किया जा सकता है कि दुग्ध संयंत्र के लिये क्षेत्र से कितना दूध उपलब्ध हो सकता है । देश में किसानों के यहाँ दूध का बाध्यकारी उपभोग (Forced Consumption) भी किया जाता है ।

कुछ रीतिरिवाजों (Customs and Traditions) के कारण कुछ परिवारों में दूध को बेचना अच्छा नहीं माना जाता तथा जितना दूध घर में उपलब्ध होता है वह सब उपभोग ही किया जाता है । जबकि स्वास्थ की दृषटि से अधिक मात्रा में खाना या पीना (Over Feeding) अच्छा नहीं होता ।

अतः यदि किसानों को पोषण तथा व्यवसाय सम्बन्धी उचित शिक्षा प्रदान की जाए तो Marketable Surplus दूध को काफी मात्रा में बढाया जा सकता है तथा देश का प्रति व्यक्ति उपभोग प्रतिदिन का स्तर भी ऊँचा उठाया जा सकता है ।

Factor # 2. दुग्ध प्राप्तिकरण की विभिन्न विधियां एवं प्रणालियाँ (Various Methods and Systems of Milk Procurements):

देश में प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू होने के बाद 1951 से ही डेरी उद्योग का आधुनिकीकरण हुआ है । प्रथम पंच वर्षीय योजना से लेकर कई एक दुग्ध योजनाएँ विभिन्न पंच वर्षीय यूजनाओं में लागू की गई हैं । वर्तमान में संगठित क्षेत्र (Organized Sector) में लगभग 275 दुग्ध संयंत्र (Milk Plants) तथा लगभग 83 दुग्ध पदार्थ संयंत्र (Milk Product Factories) कार्य कर रही हैं ।

ऐसा अनुमान लगाया उत्पादन का 47.6 प्रतिशत दूध बाजार में जाता है जिसमें से 38.9 प्रतिशत परम्परागत व्यापारी (Traditional Traders) को दिया जाता है तथा शेष मात्रा (8.7 प्रतिशत) प्राप्त होता है ।

परम्पारागत क्षेत्र में दुग्ध प्राप्तिकरण (Milk Procurement) तथा वितरण (Distribution) के लिए निम्नलिखित प्रणालियाँ अपनायी जा रही हैं:

संगठित क्षेत्र में दूध की प्राप्त तथा वितरण की निम्नलिखित प्रणालियाँ अपनायी जाती हैं:

 

दुग्ध प्राप्तिकरण की प्रमुख प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं:

1. सीधी प्रणाली (Direct System):

इस प्रणाली में डेरी संयंत्र दुग्ध उत्पाद की से दूध सीधे रूप में खरीदते है । इसके लिए गाँवों में दुग्ध संयंत्र द्वारा दुग्ध प्राप्ति केन्द्र स्थापित किये हुए है जहां पर उत्पादकों से दूध खरीद कर संयंत्रों (Plants) तक गाडियों द्वारा भेजा जाता है ।

2. ठेकेदार प्रणाली (Contractor System):

डेरी संयंत्र दूध को ठेकेदारों से ठेके की शती के अनुसार खरीद लेते हैं । ठेका तय करते समय दूध की गुणवत्ता, मात्रा तथा दर प्रति इकाई (भाव) आदि पहले से ही तय कर लिया जाता है ।

3. अभिकृता प्रणाली (Agent System):

दुग्ध संयंत्र, क्षेत्र विशेष से दूध प्राप्त करने के लिए अपने अधिकृत अभिकृता नियुक्त कर देते हैं । दूध का भुगतान सीधा उत्पादक को ही दिया जाता है जबकि अभिकृता दूध की मात्रा पर संयंत्र से कमीशन लेता है । जो कि पहले से तय कर लिया जाता है ।

4. सहकारी प्रणाली (Cooperative System):

इसमें दुग्ध संयंत्र केवल गाँव में बनी उत्पादक सहकारी समिति से ही दूध खरीदते है । एक अनुमान के अनुसार केवल 10 प्रतिशत संयंत्र ही उत्पादक से सीधा दूध खरीदते हैं । शेष में 32 प्रतिशत सहकारी समितियों द्वारा, 30 प्रतिशत दोनों प्रणालियों (सीधा उत्पादक से तथा सहकारी प्रणाली द्वारा) से तथा केवल 5 प्रतिशत संयंत्र ठेकेदारों से दूध खरीदते है । शेष 23 प्रतिशत ठेकेदार प्रथा व अन्य प्रणालियाँ मिले-जुले रूप में दूध खरीदते है ।

दुग्ध प्राप्ति की किसी भी प्रणाली का मूल्यांकन निम्नलिखित सूचकों द्वारा किया जा सकता है:

1. दुग्ध एकत्रीकरण में नियमितता (Regularity in Milk Procurement/Collection),

2. दूध की कमी के महीने (Lean Months) में प्रणाली की दक्षता । (Efficiency of System in Lean Months),

3. दूध की मात्रा (Quantity of Milk), तथा

4. दुग्ध प्राप्ति में परिव्यय (Cost of Milk Procurement) ।

दुग्ध उत्पादकों की दृष्टि से वह विधि उत्तम मानी जाती है जिसमें उसे उसके मूल्य का उचित मूल्य प्राप्त हो, भुगतान नियमित तथा समय पर हो तथा उत्पाद की को उत्पादन वृद्धि हेतु कुछ प्रलोभन (Incentive) जैसे पशु खरीद हेतु आर्थिक मदद, मुक्त पशुचिकित्सा सुविधा, कम दाम पर तैयार पशु खाद्य की उपलब्धता, हरे चारे की अच्छी किस्मों के बीज तथा दूसरी तकनीकी सहायता आदि ।

Factor # 3. कच्चे दूध के लिए मूल्य निर्धारण नीति (Pricing Policy for Raw Milk):

दूध की कीमत उत्पादकों के उत्साहवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । दूध का उत्पादन, संगठन तथा विपण्य आधिक्य की मात्रा पशु, मौसम तथा स्थान के साथ-साथ परिवर्तित होती रहती है ।

अतः अच्छी मूल्य निर्धारण नीति (Good Price Determining Policy) वह जिसमें निम्नलिखित सभी बातों का ध्यान रखा जाए:

(a) मौसम (Season) की भिन्नता:

दूध की मात्रा की उपलब्धता पशुओं के ब्याने के मौसम तथा हरे चारे की मात्रा पर निर्भर करती है ।

दूध की उपलब्धता की दृष्टि से वर्ष को चार भागों में बाटा जा सकता है:

1. परिपूर्ण मौसम:

 

नवम्बर से फरवरी (Flush Season – November to February)

2. श्रेणिक मौसम (परिपूर्ण से क्षीण):

मार्च तथा अप्रैल (Transistory to Lean March and April)

3. क्षीण मौसम:

मई से अगस्त (Lean Season – May to August)

4. श्रेणिक मौसम (क्षीण से परिपूर्ण):

सितम्बर तथा अक्तूबर (Transitory to Flush September and October)

(b) संगठनात्मक भिन्नता (Commotional Variation):

मौसम के अनुसार दुध के संगठन को ध्यान में रख कर तय किया गया मूल्य सर्वोतम्म होता है । इस विधि को 2 – अक्ष मूल्य निर्धारण नीति (2-Axis Pricing Policy) कहा जाता है । इसमें वसा तथा वसा रहित मिला कर दूध का मूल्य तय किया जाता है । इसमें वसा रहित ठोस को वसा का 2/3 मन कर, वसा के मूल्य की समानता में नापते हैं ।

इस विधि के प्रयोग से दूध मिलावट की प्रवृति कम हो जाती है क्योंकि मिलावट करने पर वसा या कोई-न-कोई पदार्थ निश्चित रूप से कम होता है अतः दूध का मूल्य कम हो जाता है । मौसम के प्रभाव से होने वाले दूध के संगठन में परिवर्तन का अनुचित प्रभाव नहीं पड़ता है ।

(c) स्थानीय भिन्नता (Spatial Variation):

विभिन्न स्थानों पर दूध का मूल्य उपलब्धता तथा माँग के आधार पर अलग-अलग होता है । शहर के पास के उत्पादक को दूध की माँग अधिक होने के कारण शहर से दूर के उत्पादक की अपेक्षा अधिक मूल्य प्राप्त होता है । इस अन्तर को कम करने के लिए संयंत्र को दूर दराज के क्षेत्रों को अपना Milk Shed Area बना लेना चाहिए । उस क्षेत्र में अपने एकत्रीकरण एवं अवशीतन (Collection and Chilling) केन्द्र स्थापित कर लेने चाहिए ।

(d) बाजार भाव का प्रभाव (Market Price Influence):

दूध एक आवश्यक खाद्य पदार्थ होने के साथ-साथ जल्दी खराब होने वाला (Perishable) पदार्थ भी है । अतः अधिक समय तक इसको भण्डारण करके नहीं रखा जा सकता है । दूध की कीमत परिपूर्ण मौसम (Flush Season) में कम तथा क्षीण मौसम (Lean Season) अधिक प्राप्त होती है ।

अतः यह आवश्यक है दूध के मूल्यों पर प्रशासनिक नियंत्रण हो ताकि सामान्य खाद्य पदार्थ की तरह यह भी सभी सामान्य जन को उपलब्ध हो सके । साथ ही उत्पादक को परिपूर्ण मौसम में नुकसान भी न उठाना पडे ।

दूध की उपलब्धता बढ़ने से दूध की प्राप्ति, प्रसंस्करण तथा वितरण पर होने वाला प्रति इकाई खर्च घटता है । इसके लिए उत्पादन बढाना आवश्यक है तथा उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को उचित लाभ का प्रलोभन बना रहना चाहिए । दूध का भाव इस प्रकार तय किया जाए कि किसानों को बढता हुआ लाभ प्राप्त होता रहे ताकि दुग्ध उत्पादक को दुग्ध उत्पादन के प्रति उत्साह बना रहे ।

Factor # 4. कच्चे दूध के लिए मूल्य भुगतान की विधियां एवं प्रणालियां (Methods and Systems of Payment for Raw Milk):

एक अच्छी मूल्य नीति वह है जिसमें दूध के उत्पादन परिव्यय को ध्यान में रखा जाय । इससे दूध अधिक मात्रा में तथा अच्छी गुणवत्ता- युक्त उपलब्ध होता है । साथ ही उत्पादकों को भी उचित दाम प्राप्त हो जाता है जिससे उनका उत्पादन के प्रति उत्साहवर्धन होता रहता है ।

मूल्य निर्धारण व भुगतान की गलत नीति अपनाने से निम्नलिखित दुश्प्रभाव उत्पन्न हो जाते हैं:

(i) दूध में पानी की मिलावट को बढ़ावा मिलना ।

(ii) दूध से क्रीम पृथक्कीकरण (Partial Cream Separation) को प्रोत्साहन मिलना ।

(iii) दूध में अन्य प्रकार के वसा या अन्य सस्ते ठोस पदार्थों की मिलावट को प्रत्साहन मिलना ।

(iv) उत्पादन को हतोत्साहित होना ।

(v) किसी जाति विशेष पशु के दुग्ध उत्पादन को प्रोत्साहन तथा दूसरी जाति के दूध में कमी हो जाना ।

(vi) गाय या भैंस या अन्य जाति के दूध को आपस में मिलाकर बेचने की प्रवृति बढती है, तथा

(vii) कच्चे दूध के मूल्य भुगतान में गलत विधियाँ प्रयोग की जा सकती है ।

अतः दूध के मूल्य निर्धारण की नीति तया भुगतान प्रणाली स्वच्छ होनी चाहिए ।

देश में वर्तमान में दूध के लिए उत्पादक की मूल्य भुगतान की निम्नलिखित चार प्रणालियाँ प्रचलित हैं:

(a) वसा पर आधारित मूल्य भुगतान (Pricing on the Basis of Fat Content in Milk):

इस विधि में दूध में उपस्थित वसा की मात्रा के आधार पर उत्पादक को उसके दूध का मूल्य मिलता है । यह विधि दुग्ध उद्योग में बडे पैमाने पर प्रयोग की जा रही है । इसमें सबसे बडी कमी यह है कि भुगतान वसा की मात्रा के आधार पर होने के कारण गाय के दूध का उत्पादन लगातार घटता जा रहा है । साथ ही दूध में से क्रीम निकालना तथा सस्ते वसा के अपमिश्रण करने की प्रवृति दिनों दिन बढ रही है जबकि पानी के मिलावट की प्रवृति इस विधि के प्रयोग से कम होती है ।

(b) पशु की जाति के आधार पर भुगतान (Pricing on Species Sources):

गाय के दूध की अपेक्षा भैसों के दूध के लिए अधिक मूल्य का भुगतान किया जाता है । चूँकि इस विधि में दूध संगठन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता । अतः पानी एवं सप्रेटा दूध की मिलावट की प्रवृत्ति बढती है । भैंस के दूध में गाय का दूध मिलाकर उसे भैंस का दूध बता कर बेचने की प्रवृति भी विकसित हो रही है ।

चूँकि इस विधि में किसानों की अच्छी गुणवत्ता का दूध पैदा करने के लिए कोई प्रलोभन नहीं है अतः दूध की गुणवत्ता दिन प्रति दिन खराब होती जा रही है इस विधि को Flat Pricing विधि के नाम से भी जाना जाता है ।

डेरी उद्योग के परम्परागत क्षेत्र (Traditional Sector) में छोटे व्यापारियों द्वारा इस विधि का कच्चे दूध का मूल्य भुगतान के लिए बडे पैमाने पर किया जा रहा है । दुधियों द्वारा लगभग सभी उपभोक्ताओं को इस तरह से दूध वितरित किया जाता है ।

(c) कुल दुग्ध ठोस के आधार पर भुगतान (Pricing on Total Milk Solid Basis):

परम्परागत दुग्ध व्यापारी (Traditional Milk Traders) दूध में उपस्थित कुल ठोस पदार्थों के आधार पर दूध का क्रय करते हैं । यह दूध से बनने वाले खोया की प्रतिशत मात्रा के आधार पर इस विधि के द्वारा दूध का मूल्य निर्धारण करते हैं ।

इस विधि में वसा रहित ठोस समान मूल्य पर खरीदे जाते है जोकि समानुपातिक नहीं है अतः यह विधि दूध से कुछ वसा को क्रीम के रूप में निकाल लेने या सस्ता अन्य ठोस पदार्थ (Non-Milk Solid) दूध में मिला देने की प्रवृति को बढ़ावा देता है ।

(d) 2 – अक्ष मूल्य प्रणाली (Two-Axis Pricing System of Milk):

तथा इनकी दूध में उपस्थित मात्रा के आधार पर निकाला जाता है । मूल्य भुगतान की यह विधि दूध में होने वाले प्रत्येक अपमिश्रण को कम करती है । राष्ट्रीय डेरी विकास परिषद (N.D.D.B.) के अनुसार वसा रहित ठोस पदार्थों का मूल्य वसा के मूल्य का 2/3 होता है ।

Factor # 5. दुग्ध परिवहन का प्रबन्ध (Management of Milk Transportation):

दूध का उत्पादन मुख्य रूप से गाँवों में छोटे किसानों द्वारा किया जाता है । जबकि इसका उपभोग शहारों में किया जाता है । अतः यह आवश्यक हो जाता है कि दूध को उत्पादन केन्द्र से शहर में प्रसंस्करण (Processing) या वितरण (Distribution) केन्द्र तक स्थानान्त्रित किया जाए ।

गाँव में दूध को एक स्थान पर एकत्र कर लिया जाता है जिसे Assembling Centre है । दुग्ध एकत्रीकरण की इस विधि को Assembling कहा जाता है । दूध का एकत्रीकरण प्रतिदिन दो बार किया जाता है । प्रत्येक समय का दूध बिना ठण्डा किये अवशीतन केंद्र या दुग्ध संयंत्र पर पहुंचा दिया जाता है ।

कभी-कभी शाम को एकत्र किये गये दूध में, यदि परिवहन साधन उपलब्ध न हो तो बर्फ डाल दिया जाता है तथा उस ठण्डे दूध को सुबह के दूध के साथ स्थानान्त्रित किया जाता है । यदि दूध को संग्रह केन्द्र (Assembling Centre) पर भंडारित करना पड़े तो उसे 5C या कम ताप पर ठण्डा करके रखना चाहिए तथा इसी ताप पर स्थानान्त्रित किया जाए ।

संग्रह केन्द्र से दूध को डिब्बों में भर कर ट्रकों द्वारा अवशीतन केन्द्र या संयंत्र पर प्रतिदिन दोनों समय भेजा जाना चाहिए । आवशीतन केन्द्रों (Chilling Centers) से टैंकर्स द्वारा आवश्यकतानुसार दूध का स्थानान्तरण संयंत्र में कर दिया जाता है ।

दूध के परिवहन का साधन भारतीय दशाओं में दूध की मात्रा तथा दूरी पर निर्भर करता है । दुग्ध परिवहन के लिए कई विधियाँ प्रयोग में लायी जाती है ।

Factor # 6. दूब को ठंडा तथा प्रशीतित करना (Chilling/Cooling of Milk):

गाँवों में संग्रह केन्द्रों पर दूध को ठण्डा करने की आवश्यकता पड़ती है तथा अवशीतन केन्द्रों पर दूध को अवशीतित किया जाता है । दूध को ठण्डा करने से दूध की गुणवत्ता खराब नहीं होती है ।

संग्रह केन्द्रों पर दूध को बर्फ डाल कर, पानी में रख कर, डिब्बों पर गीला कपडा लपेटकर या अन्य विधियों से दूध को परिवहन तक ठण्डा रखा जाता है । क्षेत्र में दूध को अवशीतन केन्द्र पर स्थानान्त्रित करके अवशीतन संयंत्र (Chilling Plant) द्वारा 4.5C ताप तक ठण्डा किया जाता है ।

अवशीतन का अभिप्राय ”दूध को एक ऐसे तापमान तक ठण्डा करके रखने से है कि उसमें उपस्थित पानी बर्फ में न बदले तथा जीवाणुओं की वृद्धि रुक जाए” – अवशीतन में वही यन्त्र प्रयोग होता है जो पास्तुरीकरण में प्रयोग किया जाता है । अन्तर केवल यह है कि इस यंत्र में गर्म पानी के स्थान पर ठण्डा नमक का घोल (Chilled Brine Solution) का प्रयोग किया जाता है ।

Factor # 7. दुग्ध प्राप्ति पर परिव्यय का आंकलन (Cost Estimation of Milk Transportation):

दुग्ध प्राप्तिकरण, दूध उद्योग की धुरी है । इस उद्योग की दक्षता एवं विकास प्राप्ति करण पर ही निर्भर है ।

दुग्ध प्राप्ति में निम्नलिखित तीन उप क्रियाएँ सम्पन्न की जाती है:

1. एकत्रीकरण (Collection/Assembling)

2. परिवहन (Transportation)

3. अवशीतन (Chilling)

दुग्ध प्राप्ति की दक्षता उपरोक्त तीनों क्रियाओं की दक्षता पर निर्भर करती है । हर एक दुग्ध संयंत्र की कार्यक्षमता तथा परिव्यय रचना (Cost-Structure) भिन्न होता है । दुग्ध प्राप्ति का परिव्यय कम से कम होना चाहिए । इस खर्च को कम करने के लिए दुग्ध प्राप्ति के प्रत्येक मद (Item) पर होने वाले खर्च की सही-सही जानकारी रखी जाये तथा देखा जाये कि किस मद पर आवश्यकता से अधिक खर्च हो रहा है तथा उसे कैसे कम किया जा सकता है ।

इसके लिए दुग्ध प्राप्ति विभाग (Milk Procurement Section) को एक पूर्ण अध्ययन करने के बाद सभी आवश्यक सूचनाएँ एकत्र करके संयुक्त खर्चो (Joint Costs Items) को अलग-अलग किया जाये ।

विभिन्न मद जैसे मानव श्रम पक्ष (Man Power), उपभोग सामग्री (Utilities), सेवाएं (Services), एकत्रीकरण (Collection), अवशीतन (Chilling), गुणवत्ता नियन्त्रण (Quality Control), यातायात (Transportation) तथा कार्य के समय पदार्थ हानि (Handling Losses) आदि पर होने वाले खर्चों का अध्ययन किया जाए । इनके अतिरिक्त खर्च की गयी पूँजी पर ब्याज, तथा स्थायी सम्पत्ति पर घिसावट (Depreciation and Interest on Capital Invested) का लेखा जोखा रखना भी आवश्यक होता है ।

अन्त में सभी खर्चों की गणना करके प्रति इकाई दूध पर दुग्ध प्राप्ति में होने वाले खर्च का आंकलन करे तथा पता लगायें कि कहा तथा किस मद पर खर्च कम करने से दुग्ध प्राप्ति पर होने वाले प्रति इकाई परिव्यय को घटाया जा सकता है । तथा दुग्ध प्राप्ति को दक्ष (Efficient) बनाया जा सकता है ।

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