ज्ञानेश्वर की जीवनी | Biography of Dnyaneshwar in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन व कार्य ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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सन्त ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के उन धार्मिक सन्तों में से एक थे, जिन्होंने पद-दलित जातियों के उद्धार हेतु इस संसार में जीबन धारण किया था । मात्र सोलह वर्ष की आयु में समाधि धारण करने वाले इस धार्मिक सन्त ने अपने चमत्कारों से अज्ञान रूपी अन्धकार में डूबे हुए लोगों को मानवता का सच्चा ज्ञान कराया ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन:

सन्त ज्ञानेश्वर का इस धरती पर जन्म लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था । कहा जाता है कि उनकी माता रुक्मिणी को छोड़कर उनके पिता ने सन्यास धारण कर लिया था । एक दिन स्वामी रामानन्द नाम के सन्त रामेश्वर ! की यात्रा पर जाते-जाते आलंदी गांव  में रुके थे । माता रुक्मिणी ने स्वामी रामानन्द के श्रद्धाभाव से चरण छुए थे ।

स्वामी रामानन्द ने उन्हें पुत्रवतीभव का आशीर्वाद दे डाला । रुक्मिणी ने स्वामी से प्रश्न किया कि: उनके पति विट्ठलपंत कुलकर्णी (जो आपे गांव के ब्राह्मण थे, जो आजकल हैदराबाद के मराठवाड़ा पैठण नगर के पास है ।) अत: गृहस्थ जीवन छोड़कर वे संन्यासी हो गये हैं ।

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ऐसे में शास्त्रों की दृष्टि में वह धर्म की मर्यादा कैसे भंग कर सकती है ? स्वामीजी की प्रेरणा ने रुक्मिणी को काशी जाने हेतु प्रेरित किया । स्वामीजी ने विट्ठलपंत कुलकर्णी को समझा-बुझाकर रुक्मिणी के साथ आलन्दी ग्राम भेज दिया । गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के उपरान्त विट्ठल दम्पती ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जो निवृत्तिनाथ के नाम से विख्यात महाराष्ट्र के सन्तों में प्रसिद्ध हुआ ।

सन् 1275 में श्रावण बदी अष्टमी को एक प्रज्ञावान पुत्र ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ, जिसे प्रारम्भ में ज्ञानोबा या ज्ञानदेव कहा जाता था । दो बरस के अन्तराल में क्रमश सोपानदेव और मुक्ताबाई का जन्म हुआ । ये चारों भाई-बहिन महाराष्ट्र के सन्तों में अग्रगण्य हैं ।

बच्चों के जन्म लेने के बाद इनकी तकलीफें तब बढ़ गयीं, जब कुछ कट्टरपंथी पण्डितों ने संन्यासी होकर भी गृहस्थ जीवन जीने की वजह से विडलपंत और उनकी पत्नी रुक्मिणी को धर्मभ्रष्ट और कलंकी कहकर समाज और जाति से बहिष्कृत कर दिया । इस संकटकाल में दोनों पति-पत्नी ने अपने बच्चों के साथ अनेक कष्टों उघैर अपमान की पीड़ा का सामना किया ।

निवृत्ति के उपनयन सरकार हेतु जब कोई ब्राह्मण साथ नहीं आया, तो वे पूरे परिवार को लेकर व्यंबकेश्वर चले आये । यहां पर प्रसिद्ध योगी गहनीनाथ से निवृति ने दीक्षा ली । पण्डितों ने ज्ञानेश्वर का उपनयन संस्कार विट्ठलपंत और रुक्मिणी चारों बच्चों को प्रायश्चित स्वरूप देह त्यागने पर स्वीकार किया । आज्ञा मानकर विट्ठलपंत और रुक्मिणी चारों बच्चों को अनाथ, असहाय छोड़कर प्रयाग में जल समाधिस्थ हो

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गये ।

भिक्षावृत्ति से गुजारा करने वाले उन भाई-बहिनों की कुशाग्र बुद्धि, शास्त्र ज्ञान को देखकर पैठण के ब्राह्मण बहुत दुखी होते थे । उन्होंने यह कहा कि: ”माता-पिता के अपराधों का दण्ड बच्चों को देना अन्यायपूर्ण

है ।”

अत: 1288 में पैठण के ब्राह्मणों ने चारों भाई-बहिनों की शुद्धि करवाकर समाज में सम्मिलित कर लिया । 1298 ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी गीता नामक मराठी भाषा में ग्रन्थ लिखा । आठ हजार पृष्ठ के इस ग्रन्थ में गीता का भावार्थ मराठी के ओवी छन्दों में सरल ढंग से लिखा ।

विसोबा नाम का एक ब्राह्मण, जो हमेशा उन्हें परेशान करने के साथ-साथ लोगों को यह कहकर धमकाता था कि जो इन धर्मभ्रष्ट भाई-बहिनों का साथ देगा, उसे जाति से बहिकृत कर दिया जायेगा । एक बार मुक्ताबाई की इच्छा गरम परांठे खाने की हुई ।

कुम्हारों के पास बर्तन पकाने हेतु लेने जाने पर विसोबा ने कुम्हारों को उन्हें देने से रोक दिया । मुक्ताबाई के इस दु:ख से दुखी होकर ज्ञानेश्वर ने अपने प्राणायाम के बल पर पीठ को तवे की तरह तपा लिया और उस पर मुक्ताबाई ने परांठे सेंके ।

विसोबा यह सब देखकर अवाक रह गया । वह प्रायश्चित करते हुए उनके चरणों पर गिर पड़ा । शुद्धि संस्कार होने पर जब वे पैठण पहुंचे, तो वहां पण्डितों की सभा में जाने पर उनकी बहस शुरू हुई । ज्ञानेश्वर ने बहस में कहा “परमेश्वर सभी प्राणियों में निवास करते हैं ।” तो इस भैंसे में भी होंगे, ऐसा कहकर पण्डितों ने ताना मारा ।

ज्ञानदेव ने कहा: ”इसमें झूठ क्या है ?” एक पण्डित ने भैंसे की पीठ पर कोड़े बरसाते हुए कहा: “तुम्हारी पीठ पर इसके निशान दिखाओ ?” अगले ही क्षण ज्ञानदेव की पीठ पर वही निशान  और  घाव के साथ बहता हुआ खून नजर आने लगा ।

यहां तक कि ज्ञानदेव ने भैंस के मुख से वैदिक मन्त्रों का उच्चारण भी करवाया था । अब तो पण्डितों को उनके ईश्वरीय अंश का बोध होने लगा था । एक स्त्री के पति को जीवित करने का चमत्कार भी ज्ञानदेव ने कर दिखाया था ।

उनके प्रमुख चमत्कारों में चांगदेव नामक सिद्ध सन्त-जो गोदावरी नदी के किनारे रहते थे-से सम्बन्धित चमत्कार उल्लेखनीय है । एक बार चांगदेव ने ज्ञानदेव को छोटा समझकर कोई सम्बोधन न देते हुए कोरा कागज उनके पास भेजा ।

ज्ञानदेव ने अपनी अन्तर्दृष्टि से उसके भावों को समझकर उसका उत्तर लिख भेजा । चांगदेव का उाभिमान ऐसा टूटा कि वे अपने शिष्यों के साथ ज्ञानेश्वर से मिलने तो आये, किन्तु अपनी सिद्धि का घमण्ड दिखाते हुए शेर पर सवार होकर काले नाग के चाबुक से हांकते हुए वहां पहुंचे ।

उस समय ज्ञानेश्वर टूटी हुई दीवार पर अपने भाई-बहिनों के साथ बैठकर धूप का आनन्द ले रहे थे । चांगदेव की अगवानी में वे भाई-बहिनों सहित दीवार चलाते हुए उनके पास पहुंचे । बस फिर क्या था, उस सोलह वर्ष के ज्ञानदेव की शरण में वे आ गये ।

15 वर्ष की अवस्था में ज्ञानदेव ने 9 हजार पृष्ठों की ज्ञानेश्वरी गीता लिखी, जिसमें मराठी के 700 ओवी, छन्द, 46 भाषाओं सहित शामिल हैं । जनसाधारण की भाषा में लिखी गयी इस गीता में ज्ञान, कर्म और शक्ति योग का अनूठा समन्वय है ।

जनभाषा मराठी में होने के कारण “ज्ञानेश्वरी गीता” जब जनसामान्य द्वारा अत्यन्त लोकप्रिय हो गयी और घर-घर पड़ी जाने लगी, तो कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने इसका पुरजोर विरोध किया । ज्ञानेश्वरी गीता व उनके उपदेशों में मानवतावादी मूल्यों की प्रधानता है । ईश्वर सभी जातियों का है, जो पिछड़े और निम्न जातियों के साथ समस्त प्राणियों में निवास करता है, ऐसा उनका विचार था ।

अपने भाई-बहिनों के साथ पंढरपुर तथा अन्य तीर्थो की यात्रा करते हुए वे आलन्दी लौट आये, तब उन्होंने अपने गुरु निवृत्तीनाथ का आशीर्वाद लेते हुए 21 वर्ष की आयु में समाधि ले ली ।

3. उपसंहार:

ज्ञान की धारा बहाने वाले इस सच ज्ञानेश्वर ने समस्त मानव-जाति को ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध से दूर रहने का उपदेश देते हुए सच्चे मानव धर्म की शिक्षा दी । ज्ञानदेव वारकरी सम्प्रदाय के संप्र्दाय माने जाते

हैं । इस सम्प्रदाय के अनुयायी आषाढ़ी कार्तिकी एकादशी के दिन समाधिस्थल पर मेले में एकत्र होकर अपना श्रद्धाभाव व्यक्त करते हैं ।

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