मसालों की खेती की समस्याएं (समाधान के साथ) | Read this article in Hindi to learn about the problems faced during spices cultivation with its solution.

राजस्थान राज्य भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में 233′ से 3012′ उत्तरी अक्षांशों तथा 6930′ से 7817′ पूर्वी देशान्तरों के मध्य उत्तर से दक्षिण 836 किलोमीटर की लम्बाई व पूर्व से पश्चिम 869 किलोमीटर की चौड़ाई में फैला हुआ है । वर्तमान में यह राज्य 7 संभागों व 32 जिलों में विभक्त है ।

राजस्थान राज्य को भू-आकृतिक दृष्टि से चार भागों-पश्चिमी रेतीला मैदान अरावली श्रेणी व पहाड़ी प्रदेश पूर्वी मैदान तथा दक्षिण-पूर्वी राजस्थान का पठार में विभाजित किया जा सकता है । अरावली पर्वत शृंखला राज्य को दो भागों में विभक्त करती है ।

अरावली श्रेणी के पश्चिम भाग में व दक्षिण क्षेत्र में मसालों की कृषि व उत्पादन (जीरा, धनिया, अजवायन, मेथी, मिर्च, सौंफ, अदरक, हल्दी, लहसुन) के प्रमुख क्षेत्र स्थित हैं । अरावली श्रेणी राज्य की अपवाह प्रणाली को दो भागों में विभाजित करती है । इनमें प्रमुख नदियां चम्बल लूनी व माही हैं । राज्य को 5 मुख्य व 10 गौण कृषि जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया गया है ।

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ग्रीष्मकाल में राज्य का औसत तापमान 35 से 40 रहता है जो कभी-कभी उत्तर-पश्चिम भाग में 50 सेल्सियस तक पहुंच जाता हैं । शीतकाल में औसत तापमान 14 से 18 सेल्सियस के मध्य रहता है जो जीरा धनिया, मेथी की बुवाई के लिए महत्त्वपूर्ण है ।

50 सेन्टीमीटर की समवर्षा रेखा राज्य को दो भागों में विभाजित करती है । इस रेखा के पश्चिमी भागों में वर्षा 50 सेन्टीमीटर से कम होती है वहाँ ऐसी फसलें जो कम जल की आवश्यकता वाली है जैसे बाजरा, जौ, ग्वार, जीरा आदि बोई जाती है जबकि पूर्वी दक्षिण-पूर्वी व दक्षिणी भागों में सिंचित फसलें गेहूँ, गन्ना, धनिया, लहसुन, अदरक, हल्दी, सौंफ आदि बोई जाती है ।

रंग, रूप व गठन के आधार पर राज्य की मृदाओं को 8 प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है, इनमें रेतीली भूरी, कछारी, लाल व पीली, लाल दोमट, मिश्रित लाल व काली तथा मध्यम काली मृदा है । भूरी रेतीली मृदा में जीरा, मध्यम काली में धनिया, लहसुन, अजवायन, लाल-पीली मृदा में सौंफ तथा रेतीली दोमट मृदा में मिर्च, मेथी उत्पन्न की जाती है । काली मृदा में राज्य के अजवायन, लहसुन, हल्दी, अदरक के प्रमुख क्षेत्र हैं ।

राज्य का जनसंख्या घनत्व 222 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है । जयपुर जिले का जनसंख्या घनत्व सर्वाधिक 471 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है । राज्य की 1991-2001 में जनसंख्या वृद्धि की दर 28.33 प्रतिशत रही है । राज्य की साक्षरता सन् 2001 में 61.03 प्रतिशत है । राज्य की 76.62 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है तथा 66 प्रतिशत जनसंख्या कृषि गतिविधियों में संलग्न है ।

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राज्य में मसाला फसलों का गौण स्थान है । राज्य के कुल फसली क्षेत्र के 3.38 प्रतिशत पर मसालों की फसलें बोई जाती है । मसालों में सर्वाधिक क्षेत्र पर जीरा (1.67%) बोया जाता है । धनिया 1.00% पर बोई जाने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण मसाला फसल है ।

ये दोनों फसलें राज्य की प्रमुख मुद्रादायिनी मसाला फसलें हैं । इनका उत्पादन 2-3 सिंचाई में ही हो जाता है जबकि खाद्यान्न फसल गेहूं में 6-7 सिंचाई की आवश्यकता होती है । राज्य में जीरे का सर्वाधिक क्षेत्र (कुल फसलों के क्षेत्र का 6 प्रतिशत से अधिक) दक्षिणी-पश्चिम भाग के जिले जालौर व 6 प्रतिशत क्षेत्र बाड़मेर जिले में संकेन्द्रित है । इन जिलों में वर्षा आधारित नमी व 2-3 सिंचाई द्वारा भूरी रेतीली मृदा में जीरे की सिंचित कृषि करते हैं तथा जीरे का क्षेत्र आशानुरूप नहीं बढ़ा है ।

राज्य में जीरे की फसल के उपरान्त दूसरी प्रमुख मसाला फसल धनिया है । राज्य के कुल फसली क्षेत्र के 17 प्रतिशत क्षेत्र पर धनिया बोया जाता है । इसका सर्वाधिक संकेन्द्रण दक्षिण-पूर्वी भाग के जिलों में सर्वाधिक है । बात जिले में धनिये का सर्वाधिक संकेन्द्रण 18.33 प्रतिशत है ।

धनिये की फसल रबी फसल में 3-4 सिंचाई में यहाँ की हल्की काली मृदा में इसका बहुत अच्छा उत्पादन होता है । अधिक पाला लवणीय भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है । राज्य के अन्य भागों में इसका उत्पादन बहुत कम होता है ।

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राज्य के कुल फसली क्षेत्र के 0.37 प्रतिशत क्षेत्र पर मेथी की कृषि की जाती है । यहां मेथी की फसल रबी सिंचित फसल के रूप में बोई जाती है । राज्य में पर्याप्त नमी वाली मृदा व सिंचित क्षेत्रों में मेथी का उत्पादन अधिक है । मेथी की अधिकांश कृषि राज्य के दक्षिणी-पूर्वी भाग व उत्तरी भाग में की जाती है ।

राज्य में मेथी का सर्वाधिक फसली क्षेत्र 3.40 प्रतिशत कोटा जिले में है, यहां की मध्यम काली उपजाऊ मृद में व सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध होने व मेथी के लिए उपयुक्त आर्द्र व गर्म जलवायु आदर्श परिस्थितियों का निर्माण करती है ।

राज्य में कुल फसली क्षेत्र के 0.14 प्रतिशत क्षेत्र पर मिर्च की कृषि की जाती है । राज्य में मिर्च का अधिकांश क्षेत्र पश्चिमी व पूर्वी भाग में संकेन्द्रित है । राज्य में मिर्च का सर्वाधिक फसली क्षेत्र जोधपुर जिले में (6.43 अवस्थिति निर्धारक द्वारा) 0.90 प्रतिशत है ।

यहाँ की लाल रेतीली बलुई मृदा व गर्म जलवायु में खरीफ फसल के रूप में इसे बोया जाता है । उपयुक्त जलवायु दशाओं व सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध होने पर यह क्षेत्र मिर्च की कृषि के लिए उपयुक्त है । राज्य में कुल फसली क्षेत्र के 0.10 प्रतिशत पर लहसुन की कृषि की जाती है ।

लहसुन कृषि का सर्वाधिक संकेन्द्रण दक्षिण व दक्षिण-पूर्वी जिलों में है । राज्य के दक्षिणी जिले चित्तौड़गढ़ में कुल फसली क्षेत्र का 0.98 प्रतिशत क्षेत्र (9.40 अवस्थिति निर्धारक मान) पर लहसुन की कृषि की जाती है । इस भाग में गर्म व आर्द्र जलवायु उपजाऊ काली मृदा में लहसुन का रबी फसल के रूप में उत्पादन किया जाता है ।

राज्य में मसालों में अजवायन की कृषि कुल फसली क्षेत्र के 0.05 प्रतिशत क्षेत्र पर की जाती है । अजवायन की कृमि का सर्वाधिक संकेन्द्रण राज्य के दक्षिणी भाग के चित्तौड़गढ़ जिले में सर्वाधिक है । यहाँ कुल फसली क्षेत्र का 1.68 प्रतिशत (31.28 अवस्थिति निर्धारक मान) पर अजवायन की कृषि की जाती है । इस क्षेत्र में अजवायन की कृषि सूखारोधी किस्म व वर्षा आधारित नमी में काली मृदा में की जाती है । अजवायन के लिए सभी आदर्श परिस्थितियां उपलब्ध हैं ।

राज्य में सौंफ कुल फसली क्षेत्र के बहुत कम 0.03 प्रतिशत क्षेत्र पर बोई जाती है, राज्य में इसका सर्वाधिक संकेन्द्रण दक्षिण जिले सिरोही में कुल फसली क्षेत्र के 1.65 प्रतिशत (46.19 अवस्थिति निर्धारक मान) पर है । यहाँ आर्द्र व गर्म जलवायु में चूने के अंशवाली दोमट मृदा इसकी कृषि के लिए उपयुक्त है ।

राज्य में कुल फसली क्षेत्र के मात्र 0.001 प्रतिशत पर अदरक की कृषि की जाती है । अदरक की कृषि राज्य के दक्षिणी भाग उदयपुर जिले में सर्वाधिक संकेन्द्रित है । यहाँ कुल फसली क्षेत्र के 0.02 प्रतिशत (65.0 अवस्थिति निर्धारक मान) पर अदरक का फसली क्षेत्र है । भूरी काली मृदा व गर्म व आर्द्र जलवायु में इस क्षेत्र में छोटी-छोटी जोतों के अन्तर्गत सिंचित खरीफ फसल में इसकी कृषि की जाती है ।

राज्य के कुल फसली क्षेत्र के मात्र 0.0006 प्रतिशत क्षेत्र पर हल्दी की कृषि की जाती है । हल्दी की कृषि के प्रमुख क्षेत्र दक्षिणी व मध्य दक्षिणी भाग है । राज्य में हल्दी क्षेत्र का सर्वाधिक संकेन्द्रण उदयपुर जिले में कुल फसली क्षेत्र के 0.02 प्रतिशत (36.33 अवस्थिति निर्धारक मान) पर है । यहां इसकी कृषि खरीफ की सिंचित फसल के अन्तर्गत की जाती है ।

मसाला फसलों में सर्वाधिक वृद्धि (176.41 प्रतिशत) मेथी क्षेत्र में हुई है, इसके पश्चात् लहसुन के फसल क्षेत्र में 175.40 प्रतिशत वृद्धि तथा जीरा में 80.95 प्रतिशत, सौंफ 78.74 प्रतिशत, धनिया 36.44 प्रतिशत, अदरक 7.86 प्रतिशत वृद्धि हुई है । समस्त मसालों में कुल फसली क्षेत्र के 1.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।

राज्य में कुल फसली क्षेत्र में मसालों के क्षेत्र में वृद्धि 0.83 प्रतिशत की हुई है । इतनी कम वृद्धि का कारण आलोच्य वर्षों में आधार वर्ष की तुलना में 16.15 प्रतिशत वर्षा कम होना है । कुल फसली क्षेत्र में सर्वाधिक वृद्धि जैसलमेर के जीरे के क्षेत्र में 4.03 प्रतिशत हुई है ।

धनिये के क्षेत्र में 0.34 प्रतिशत की वृद्धि हुई । धनिया, लहसुन, मेथी, सौंफ क्षेत्र में कम धनात्मक परिवर्तन के कारण आलोच वर्षों का कम होना प्रमुख कारण रहा है जबकि हल्दी व अदरक के क्षेत्रों में वर्षा कम होने, साथ-साथ कृषि भूमि का कम होना भी प्रमुख कारण है ।

मिर्च, हल्दी, अजवायन के फसली क्षेत्र में आधार वर्ष की तुलना में ऋणात्मक परिवर्तन हुआ है, इसका प्रत्यक्ष कारण आलोच्य वर्ष में वर्षा का आधार वर्ष की तुलना में कम होना है जिससे इन फसलों के स्थान पर कृषक जलाभाव को सहने वाली खाद्यान्न फसलों को प्राथमिकता दे रहे हैं ।

राज्य में आधार वर्ष 1991-94 से आलोच्य वर्षों 2001-04 में दस वर्षों में मसालों के उत्पादन में 95.63 प्रतिशत वृद्धि हुई । यह परिवर्तन आधार वर्ष की तुलना में आलोच्य वर्ष 2001-04 में लहसुन की फसल में सर्वाधिक 245.86 प्रतिशत धनात्मक है ।

इसके अतिरिक्त गत दशक में धनात्मक परिवर्तन मेथी 233.82 प्रतिशत, धनिया 127.17 प्रतिशत, सौंफ 75.09 प्रतिशत व अदरक 35.08 प्रतिशत है । ऋणात्मक परिवर्तन मिर्च 34.75 प्रतिशत व हल्दी 14.63 प्रतिशत में हुआ । इसका कारण मिर्च व हल्दी के क्षेत्रों में वर्षा की कमी व लम्बी अवधि व अधिक लागत के कारण इनके उत्पादन के प्रति किसानों का रुझान कम होना है ।

राज्य में मसाला उत्पादन में कुल उत्पादन से भागीदारी राज्य के दक्षिण-पूर्वी, दक्षिणी, दक्षिणी-पश्चिमी व पश्चिमी जिलों की है । इन भागों में बारां, झालावाड़, कोटा, चित्तौड़गढ़, सिरोही, जालौर, बाड़मेर, जोधपुर प्रमुख है । ये जिले राज्य के कुल मसालों के उत्पादन का दो-तिहाई से अधिक उत्पादन करते हैं ।

समाधान:

राजस्थान में मसालों की कृषि की कई प्रकार की समस्याएँ हैं ।

इन समस्याओं का समाधान इस प्रकार है:

उत्पादन में अनिश्चितता:

मसालों की खेती उत्पादन की अनिश्चितता के कारण जोखिमपूर्ण होती है । राज्य में अधिकांश मसालों की खेती वर्षा आधारित नमी संरक्षण पर की जाती है, अतः प्रारम्भ में फसल की वृद्धि वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है जो अनिश्चित रहती है । राजस्थान में वर्षा की अनिश्चित व अनियमित प्रवृत्ति है ।

वर्षा के कम होने पर अधिक क्षेत्र में फसल को सिंचित करना दुष्कर हो जाता है तथा अधिक वर्षा होने से फसलें गलकर नष्ट हो जाती हैं । कृषकों को उचित मूल्य दिलाने हेतु तथा उत्पादन का प्रोत्साहन मूल्य हेतु राज्य कृषि विपणन बोर्ड एवं उद्यान विभाग द्वारा मसाला फसलों का मूल्य निर्धारण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि फसलों के खराब होने के वर्षें में नुकसान की क्षतिपूर्ति अच्छे वर्षों में मिलने वाले मूल्य से हो सके ।

प्रति हैक्टेयर निम्न उपज:

राजस्थान में मसालों की खेती अधिकांशतः परम्परागत तरीकों से ही की जा रही है, जिससे इनकी उपज प्रति हैक्टेयर बहुत कम प्राप्त होती है । इसके अतिरिक्त राज्य में उन्नत किस्मों के बीज की कमी होने से उपज बहुत कम है ।

राष्ट्रीय मसाला उत्पादकता की तुलना में राजस्थान की मसाला उत्पादकता 12 टन प्रति हैक्टेयर की तुलना में मात्र 0.64 टन प्रति हैक्टेयर है । जीरा, सौंफ, लहसुन की उत्पादकता राष्ट्रीय उत्पादकता की तुलना में बहुत कम है । प्रति हैक्टेयर उपज बढाने हेतु क्षेत्रवार अनुसंधान प्रशिक्षण, एवं प्रचार सेवा द्वारा कृषकों एवं प्रचार कर्मियों के तकनीकी एवं वैज्ञानिक स्तर को बढ़ाने के उपाय किए जाने चाहिए ।

घरेलू बीजों के उपयोग की अधिकता:

प्रतिदर्श सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि अधिकांश किसान मसाला फसलों की बुवाई में घरेलू बीज ही बोते हैं, जिसके कारण उन्हें प्रति हैक्टेयर उपज कम मिलती है, इसके अतिरिक्त दानों में पाये जाने वाले विशेष गंधयुक्त व रंगयुक्त रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

कृषकों द्वारा घरेलू बीजों के उपयोग से निम्नलिखित हानियाँ होती हैं:

1. फसल की बुवाई में प्रति हैक्टेयर बीज अधिक डालना पड़ता है, इससे लागत अधिक आती है ।

2. घरेलू बीजों के रोग ग्रसित होने की सम्भावना अधिक रहती है अतः ठीक प्रकार से उपचारित नहीं कर पाने से उपज कम प्राप्त होती है ।

3. बीज कम व छोटे बनते हैं ।

4. बीज का रंग, गंध व गुणवत्ता का स्तर गिरता जाता है ।

5. मसालों का मूल्य रंग व गंध के आधार पर मिलता है अतः घटिया उत्पादन का मूल्य बहुत ही कम प्राप्त होता है ।

मसालों की अच्छी चमक व महक वाली, रोगरोधी उन्नत किस्मों का विकास किया जाना चाहिए ताकि किसानों को पर्याप्त मात्रा में बीज उपलब्ध हो सके । सर्वेक्षण से प्राप्त आकड़ों के आधार पर ज्ञात हुआ कि उन्नत किस्म के बीजों का उपयोग वृहत्त जोत वाले शिक्षित कृषकों द्वारा अधिक होता है ।

साक्षरता कम होने के कारण कृषक निजी प्रतिष्ठानों से बीज खरीदते हैं अतः कृषकों को चाहिए कि उन्नत किस्म के बीज सरकारी बिक्री केन्द्रों से खरीदे व अपने क्षेत्र के कृषि विभाग द्वारा उन्नत कृषि विधियों के अन्तर्गत बताए गए क्षेत्र विशेष के लिए उन्नत किस्मों के बीजों का उपयोग ही करना चाहिए ।

नेशनल रिसर्च सेन्टर आन सीड स्पाइसेज, तबीजी द्वारा विकसित की गई सौंफ ए.एप. 1, किस्म अगेती व रबी फसलों की स्थिति के लिए उपयुक्त है । इसके दाने मोटे एवं आकर्षक होने के साथ यह रमूलारिया एव अल्टरनेरिया लाइट रोग की प्रतिरोधी है ।

इसकी उपज अन्य सौंफ फसलों की तुलना में 5-10 प्रतिशत अधिक है । इसी तरह धनिया, मेथी, लहसुन आदि मसाला फसलों की उन्नत किस्में विकसित की गई हैं । राज्य में नेशनल रिसर्च सेन्टर आन सीड स्पाइसेज द्वारा जर्म प्लाज्म सलेक्शन द्वारा विकसित की गई विभिन्न मसाला किस्मों के बीजों का प्रचलन बढ़ाने हेतु निःशुल्क मिनिकेट वितरित किए जाने चाहिए तथा विस्तृत फसल प्रदर्शन द्वारा कृषकों को इसकी उत्पादन विधि के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए ।

राज्य में उन्नत किस्म के बीज व उर्वरकों के वितरण की उचित व्यवस्था का अभाव:

राज्य में कृषि का विकास तीव्र हुआ है लेकिन मसाले की फसलों का विकास अपेक्षाकृत अधिक नहीं हुआ है । इसका कारण राजस्थान में मसाला उत्पादक क्षेत्र दक्षिणी, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण-पश्चिमी भागों में संकेन्द्रित है इन क्षेत्रों में उन्नत किस्में बहुत कम पहुँची हैं ।

इन क्षेत्रों के कृषकों को गुजरात व मध्यप्रदेश की उन्नत किस्मों का उपयोग करना पडता है जो अधिक महंगा पडता है । इसके अतिरिक्त उर्वरकों के वितरण में अनियमितता व भ्रष्टाचार के कारण कृषकों को उर्वरक उपलब्ध नहीं हो पाते हैं ।

अतः सहकारी समितियों के माध्यम से उर्वरकों व उन्नत किस्म के बीजों का विपणन सुदृढ़ किया जाना चाहिए । राज्य सरकार द्वारा फसल बुवाई से पूर्व उन्नत बीजों व उर्वरकों के बारे में समुचित जानकारी व प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

खाद एवं उर्वरकों के उपयोग में भिन्नता:

राज्य में मसालों की फसल रबी व खरीफ में बोई जाती है । अधिकांश किसान मसाला फसलों में आवश्यकता से कम खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करते हैं । प्रतिदर्श गाँवों के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि झालावाड़, जालौर, सिरोही जिलों के मसाला उत्पादक कृषक विभिन्न मसाला फसलों धनिया, जीरा, सौंफ में गोबर की खाद का अधिक उपयोग करते हैं जबकि नत्रजन व डी.ए.पी. आवश्यकता से आधी मात्रा में ही डाला जा रहा है ।

अतः प्रति हैक्टेयर उपज कम होती जा रही है । चित्तौड़गढ़ क्षेत्र में अधिक मात्रा में उर्वरक डाले जाने से उर्वरता हास की समस्या सामने आई है । उर्वरकों की सही मात्रा का उपयोग व समय के बारे में जानकारी देने के लिए समय-समय पर तहसील स्तर पर कृषि विभाग द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था व कार्यशाला आयोजित की जानी चाहिए, जिससे कृषक उर्वरकों की फसलानुसार सही मात्रा का उपयोग कर अच्छी उपज प्राप्त कर सकें ।

मसालों की फसलों को निश्चित खेतों में बोया जाना:

मसाला उत्पादक क्षेत्रों का सर्वेक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि विभिन्न मसाला फसलें, जैसे-जीरा, धनिया, मिर्च, अजवायन आदि मसालों की कृषि पूर्व निर्धारित भूमि पर ही की जाती है, इससे एक ही खेत में लगातार निश्चित मसाला फसल बोने पर भूमि की उर्वरता कम होती है ।

इसके अतिरिक्त मसाले की फसलों में रंग व गंध महत्वपूर्ण होने के कारण, इसके दानों में रासायनिक पदार्थों के संगठन में परिवर्तन आ जाने से गुणवता प्रभावित होती है । मसाला उत्पादक क्षेत्रों में इस प्रकार भूमि उर्वरता में कमी आ रही है ।

सर्वाधिक प्रभाव लहसुन की कृषि में देखा गया है कि एक ही भूमि पर 2-3 साल बीज बोने पर उस खेत में अन्य कोई फसल उत्पादित नहीं होती है । लहसुन की फसल मृदा में से पौषक तत्त्वों का अधिक मात्रा में अवशोषण करती है ।

अतः इस समस्या के निराकरण हेतु जिला स्तर पर उद्यान विभाग द्वारा समय-समय पर समस्या निराकरण शिविर व गोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए । इसके लिए कृषि पर्यवेक्षकों को प्रशिक्षण देकर ग्राम स्तर पर कृषकों की समस्या का निवारण होना चाहिए ।

मृदा परीक्षण की आवश्यकता:

मसाला फसलों के रंग-गंध से ही उनकी उपज का मूल्य निर्धारित होता है । मृदा में किसी भी प्रकार का रासायनिक परिवर्तन प्रत्यक्ष रूप से उनकी उपज में दिखाई देता है । प्रत्येक उर्वरक सभी प्रकार की मृदाओं के लिए उपयुक्त नहीं होता है अतः इनका उपयोग मृदा परीक्षण के पश्चात् ही करना चाहिए ।

उर्वरक की मात्रा, भूमि की उर्वरा शक्ति, फसल प्रकार, बोने का समय, सिंचित और असिंचित दशाओं पर निर्भर करती है । सर्वेक्षित गांवों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि कृषक अपने क्षेत्र विशेष में उपलब्ध उर्वरकों का उपयोग बिना मृदा परीक्षण करवाए ही करते हैं ।

अतः उद्यान कृषि विभाग द्वारा मृदा विभाग की सहायता से तहसील स्तर पर मृदा परीक्षण प्रयोग शाला स्थापित की जानी चाहिए तथा समय-समय पर क्षेत्र विशेष की मृदा समस्या का निराकरण मृदा वैज्ञानिकों द्वारा किया जाना चाहिए ।

मसाला उत्पादकों के पास कृषि योग्य भूमि कम होना:

राज्य में मसाला फसलों का अधिकांश क्षेत्र दक्षिणी, दक्षिण-पूर्वी, दक्षिण-पश्चिम भाग पर केन्द्रित है । इनमें दक्षिणी भाग के उदयपुर व चित्तौड़गढ़ जिले पहाड़ी व पठारी क्षेत्र हैं तथा दक्षिण-पूर्वी भाग हाड़ौती पठार पर है ।

दक्षिण-पश्चिम में मरु भूमि की अधिकता के कारण कृषि योग्य भूमि कम है । प्रति हैक्टेयर भूमि कम होने के कारण कृषक अपने भरण-पोषण हेतु खाद्यान्न फसलों को प्राथमिकता देता है इसलिए मसालों की खेती सीमित क्षेत्र पर की जाती है ।

अतः इस प्रकार की समस्या के निराकरण हेतु मसालों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों में सुरक्षा की भावना का विकास किया जाना चाहिए । अन्य खाद्यान्न व तिलहन फसलों की तरह मसाला फसलों पर सुरक्षा बीमा योजना व समर्थन मूल्य घोषित करने के प्रयास राज्य कृषि विभाग व विपणन बोर्ड द्वारा किए जाने चाहिए ।

कीटनाशक व रोगनाशक दवाइयों की उपलब्धता व उपयोग:

मसाला फसलों में रोगों का भयंकर प्रकोप होना, जैसे जीरे में झुलसा, छाछया, उखटा; सौंफ में झुलसा, धनिया में तना छेदक छाछयार मेथी में छाछया व जड़ गलन; मिर्च में विषाणु रोग; लहसुन में पदगलन रोग से अधिक नुकसान होता है इसके अतिरिक्त मोयला कीट सभी मसाला फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं ।

इनके उपचार हेतु दवाइयाँ महंगी होने के साथ सभी जगह उपलब्ध नहीं है अतः किसान इन दवाइयों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, वे स्थानीय स्तर पर घरेलू उपायों द्वारा रोगों से बचाव के उपाय करते हैं जो कारगर नहीं हो रहे हैं ।

अतः जिला स्तर पर कृषि विभाग द्वारा रोग नियन्त्रण इकाई को प्रभावी बनाकर विभिन्न रोगों से बचाव के उपायों पर कार्यशाला आयोजित की जानी चाहिए तथा रोगों से बचाव की दवाइयों के तहसील स्तर पर वितरण केन्द्र स्थापित किए जाने चाहिए ।

फसलों की कटाई में सावधानियाँ व क्योरिंग:

जीरा, धनिया, अजवायन, मिर्च व सौंफ की कटाई फसल के पकने पर सूखने से पूर्व की जानी चाहिए जिससे इनके दाने झड़े नहीं अन्यथा उपज में गिरावट आ जाती है । फसल की कटाई के समय मसालों को जिस अवस्था में प्राप्त किया जाता है उन्हें उस रूप व स्थिति में अधिक दिनों तक संग्रहित नहीं किया जा सकता अतः काटने के बाद इनकी नमी को कम करके ही इनका भण्डारण किया जाना चाहिए, अन्यथा ये खराब हो जाते हैं ।

तुड़ाई-कटाई के बाद की प्रौद्योगिकी या क्योरिंग:

मसाला फसलों में भण्डारण से पहले कटाई व उसके उपरांत सही देखभाल का ज्ञान कृषकों को नहीं होता इसलिए उन्हें काफी क्षति उठानी पड़ती है । इसके लिए कृषकों को क्योरिग के सिद्धान्त अपनाकर फसलों को सुरक्षित करना चाहिए ।

क्योरिंग के सिद्धान्त निम्न हैं:

(1) सही समय पर तुड़ाई या कटाई:

मसालों को अच्छी, पकी हुई अवस्था में सही समय पर काटने से इनमें रंग, चमक व खुशबू की गुणवता उच्च श्रेणी की रहती है । सभी मसालों में इनमें किसी प्रकार का भौतिक नुकसान होने से पूर्व ही उपयुक्त अवस्था में तुड़ाई व कटाई कर लेनी चाहिए ।

(2) नमी कम करके भण्डारण बढ़ाना:

मसाला फसलों में तुड़ाई व कटाई के समय अत्यधिक नमी होती है । अधिक नमी में कुछ ही दिनों तक इनका भण्डारण किया जा सकता है अतः इनमें तुड़ाई के समय की नमी को एकदम घटाकर 8-12 प्रतिशत तक लाना चाहिए ।

(3) मसालों के मूल गुणों व विशेषताओं को संरक्षित रखना:

मसालों का मूल्य उनके रंग, गुण, गंध, स्वाद द्वारा निर्धारित होता है अतः बीजीय मसालों से बीज निकालते समय सुखाते समय उन पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये । क्योंरिंग द्वारा इनके मूल गुणों को बेहतरीन बनाया जा सकता है ।

सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं पर नियन्त्रण कर मसालों को रोगाणु रहित बनाना:

तुड़ाई के बाद मसालों के भण्डारण में इन्हें जीवाणु, फफूंद व भोज्य रोगाणु खराब कर सकते हैं । अच्छी गुणवत्ता वाला मसाला प्राप्त करने के लिए जीवाणु व कीटों का नियन्त्रण आवश्यक है ।

मसाला फसलों के विपणन की समस्या:

मसाला उत्पादन के क्षेत्रों से इनकी विपणन मण्डियों की दूरी अधिक होने के कारण कृषकों को अधिक दूर जाना पड़ता है, स्थानीय व्यापारी फसल का उचित मूल्य नहीं देते हैं अतः कृषक को हानि उठानी पड़ती है । सर्वेक्षण क्षेत्रों में सौंफ, जीरा की विपणन मण्डी गुजरात को ठेका में होने के कारण किसानों को अधिक भाड़ा वहन करने के साथ राज्य सीमा परिवर्तन शुल्क देना पड़ता है इससे उन्हें आर्थिक नुकसान होता है ।

अतः राज्य कृषि विपणन बोर्ड का मसाला उत्पादक क्षेत्रों के समीप विपणन मण्डियाँ स्थापित की जानी चाहिए और मसालों का समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिए । इसके लिए जीरे व धनिये के निर्यात के लिए बनाए ‘कृषि निर्यात जोन’ का क्रियान्वयन शीघ्र होना चाहिए ।

मसाला आधारित उद्योगों का अभाव:

मसालों की गुणवत्ता इनमें पाए जाने वाले विभिन्न पदार्थ अलियोरेजिन्स, वाष्पशील तेल औषधीय गुणों के कारण होती है इसी कारण देश-विदेश में इनकी मांग बड़ी है । नकदी फसल होने से कृषकों को इनका लाभकारी मूल्य मिल जाता है । मसालों का निर्यात इन्हें प्रसंस्करण एवं मूल्य-संवर्द्धन द्वारा किया जाता है ।

इसमें कृषि उत्पादों की गुणवता एवं पौष्टिकता को सुरक्षित रखते हुए इन्हें दूसरे उपयोगी पदार्थों में बदला जाता है जैसे मसालों को सूखाकर रखते हुए इन्हें दूसरे उपयोगी पदार्थों में बदला जाता है, जैसे-मसालों को सूखाकर, पीसकर पाउडर बनाना, वाष्पशील तेल निकालकर आयल एवं आलियोरेजिन्स का निर्माण करना, पेस्ट व परिरक्षित उत्पाद बनाना आदि ।

राजस्थान की आर्द्र व गर्म जलवायु में इस प्रकार के उद्योग कम विकसित हुए हैं । लेकिन पश्चिमी जिलों की गर्म व शुष्क जलवायु इन उद्योगों के लिए उचित है अतः राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा इन जिलों में मसाला प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए ।

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