मसाले: उत्पादन और उपयोग | Read this article in Hindi to learn about the production and uses of spices in Rajasthan.

मसालों की प्रस्तावाना:

साधारण भाषा में मसाला उन कृषि उत्पादों को कहते हैं जो स्वयं खाद्य पदार्थ तो नहीं होते हैं परन्तु उनका उपयोग खाद्य सामग्री को सुगन्धित, स्वादिष्ट, रुचिकर, सुपाच्य व मनमोहक बनाने के लिए किया जाता है ।

अंग्रेजी में मसालों को ‘स्पाइसेज एण्ड कॉन्डिमेन्टस’ कहा जाता है । स्पाइसेज के अन्तर्गत वे मसालें सम्मिलित किए जाते हैं जिन्हें खाद्य पदार्थों के निर्माण में साबुत पीसकर या घोलकर मिलाते हैं जबकि जिन मसालों का उपयोग खाद्य सामग्री में तड़का या बघार के रूप में करते हैं वह ”कॉन्डिमेन्टस” कहलाते हैं ।

परन्तु हिन्दी भाषा में साधारणतया ऐसा वर्गीकरण नहीं कर सभी को मसालें ही कहते हैं । भारत को मसालों का देश कहा जाता है, क्योंकि भारत में विश्व के सर्वाधिक प्रकार के सर्वाधिक मात्रा में मसाले उत्पादित किए जाते हैं । भारत विश्व में मसालों का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक देश है ।

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विश्वभर में मसालों का महत्व समझे जाने के कारण इनका उपयोग प्रतिवर्ष लगातार बढ़ रहा है । मसालों का महत्व न केवल इनका स्वादिष्ट व सुगन्धकारक होने के कारण है अपितु इनका आर्थिक, व्यावसायिक एवं औद्योगिक व औषधीय महत्व भी बहुत अधिक है ।

1. मसालों की खेती नगदी फसलें होने के कारण कृषक को अधिक आमदनी प्राप्त करने का स्रोत है । राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में कृषक की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने में इनका प्रमुख योगदान रहता है । इन क्षेत्रों में परम्परागत फसलों के साथ कृषक अच्छी आमदनी के लिए मसालों की खेती भी करते हैं ।

2. मसालों की फसलों का स्वरूप व्यावसायिक है अतः इसकी निरन्तर देखरेख व सुरक्षा की नियमित व्यवस्था रखनी होती है जिससे कृषक परिवार व अन्य श्रमिकों को अधिक रोजगार के अवसर प्रातः होते हैं ।

3. मसालों का औद्योगिक महत्व भोज्य पदार्थों एवं पेय पदार्थों के निर्माण सम्बन्धी कई उद्योगों से है । अचार, डिब्बाबंद भोज्य पदार्थ, मेन्थोल, ओलियोरेजिन्स, वाष्पशील तेल, क्रीम, सुगन्धित द्रव्य एवं शृंगार प्रसाधन, सुगन्धित साबुन व दन्त क्रीम आदि के निर्माण में इनका उपयोग होता है ।

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4. भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान होने के कारण भारत जैसे विकासशील देशों में मसालों का निर्यात विदेशी मुद्रा अर्जन का महत्वपूर्ण स्रोत है । मसालों के निर्यात से न केवल विदेशी मुद्रा अर्जित होती है, अपितु मसालों के उत्पादन, संसाधन व निर्यात में लगे व्यक्तियों को भी पर्याप्त लाभ प्राप्त होता है ।

5. प्राचीन काल से ही मसालों का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार व शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने हेतु किया जाता रहा है । प्रसूति महिलाओं में वात व गर्भाशय रोग, दन्त चिकित्सा, जठर रोगों के निवारण में इनका उपयोग किया जाता है ।

6. मसालों का स्वरूप बदलकर विभिन्न रूपों में इनका परिवर्तन किए जाने से विश्व बाजार में इनका महत्व बढा है । इनसे निकाले जाने वाले वाष्पशील तेल तथा ऑलियोरोजिन्स का भण्डारण, विपणन व निर्यात करना सुविधाजनक रहता है, क्योंकि मसालों की मूल आयतन की तुलना में इनके कृत्रिम स्वरूप का आयतन बहुत ही कम होता है ।

मसालों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

मसालों का इतिहास भौगोलिक अन्वेषण, धर्म प्रचार, वाणिज्य, व्यापार एवं विजय-पराजय से सम्बन्धित रहा है । सदियों से भारत एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश मसाला उत्पादन के कारण विभिन्न पश्चिमी देशों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने रहे हैं ।

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पश्चिमी देशों ने इन देशों पर आधिपत्य जमाने के बहुत प्रयास किए तथा मसालों की खोज ने इतिहास की धारा को मोड़ने में अहम् भूमिका निभाई है । प्राचीन काल से ही मसाला उत्पादन की दृष्टि से भारत का अद्वितीय स्थान रहा है ।

यहां पर काली मिर्च, इलायची तथा दालचीनी जैसे मसालों की खेती सम्भवतः 500 ई. पूर्व में ही शुरू हो चुकी थी । इसी प्रकार अन्य मसाले अदरक, हल्दी, मिर्च एवं बीजीय मसाले जैसे जीरा, धनियाँ, सौंफ, अजवायन, मेथी आदि की खेती भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है ।

भारत और मध्य पूर्वी देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्धों को आधार प्रदान करने में मसालें प्रमुख रहे हैं । मसालों के आकर्षण के कारण चीन, अरब और यूरोप के देशों से लोग भारत आए । अरबी व्यापारियों ने भारतीय मसालों को यूरोपीय देशों तक पहुँचा कर उन्हें लोकप्रिय बनाया ।

इन व्यापारियों द्वारा मसालों का व्यापार ही नहीं हुआ बल्कि विश्व के अन्य देशों में इनके बीजों का वितरण भी किया गया । इस प्रकार मसालों की खेती अफ्रीकी तथा दक्षिणी अमेरिकी देशों में भी की जाने लगी । प्राचीन औषधि-शास्त्रों, चरक संहिता में भी चिकित्सा पद्धतियों में मसालों का भरपूर उल्लेख मिलता है ।

आधुनिक युग में राजस्थान एवं भारत के अन्य राज्यों में पुराने समय से प्रमुख मसाले जीरा, सौंफ, धनियां आदि की खेती में विस्तार इनके व्यापार के कारण हुआ है । किशनगढ, जयपुर एवं केकड़ी आदि की मण्डियों जीरे के व्यापार के लिए प्रसिद्ध रही हैं यहां व्यापारी एवं विदेशी निर्यातक थोक में खरीददारी करते थे । इसका कारण पहले अजमेर, टोंक व जयपुर में जीरे की खेती बहुतायत से होना था ।

सन् 1954 में गुजरात में ऊंझा मण्डी स्थापित होने से यह जीरे व सौंफ का प्रमुख बाजार बना । इससे गुजरात के समीपवर्ती राज्यों में मसालों की फसलों का विस्तार हुआ । केकड़ी व किशनगढ़ मण्डी से जीरा विपणन हेतु ऊँझा मण्डी में ले जाते हैं ।

इसी प्रकार सौंफ की खेती का विस्तार सिरोही जिले में अत्यधिक हुआ है जबकि पहले यह टोंक व अजमेर जिलों के व्यापार के वर्चस्व के लिए आज भी जाना जाता है । मारवाड़ क्षेत्र की लाल मिर्च, जिससे मथानिया किस्म की मसालों में एक पृष्ठभूमि रही है । अजवायन की खेती प्रतापगढ़ जिले में अधिक विकसित हुई है ।

मसालों की उपयोगिता:

उद्यानिकी फसलों में मसालों का महत्त्वपूर्ण स्थान है जिनका उपयोग उनके वनस्पति उत्पाद या उनके भाग जो बाहर से मुक्त हो, भोज्य पदार्थों को जायकेदार, स्वादिष्ट एवं खुशबूदार बनाने में किया जाता है । मसाला शब्द का उपयोग पूर्ण उत्पाद या पिसे हुए उत्पाद दोनों के लिए किया जाता है ।

जीवन में मसालों की उपयोगिता को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं:

i. भोज्य पदार्थों के रूप में उपयोगिता:

मसालों में तीखापन एवं चरपरापन पाया जाता है जो विशेष प्रकार के ”एल्केलाइड” पदार्थों द्वारा पैदा होता है । एल्केलाइड अलग-अलग मसालों में अलग-अलग प्रकार के होते हैं, जैसे काली मिर्च में चरपराहट ”पाइपेरिन” से तथा लाल मिर्च में ”कैप्सेलीन” नामक एल्केलाइड के कारण होती है ।

इन्हीं कारणों से मसालों का उपयोग भोज्य पदार्थों में सुगन्ध, जायका बढ़ाने एवं भोज्य पदार्थों को आकर्षक दिखाने में किया जाता है । मसालों में विद्यमान वाष्पशील तेल इन्हें सुगन्ध प्रदान करके भोजन को रुचिकर व मनभावक बनाते हैं । ये भोजन के सहज पाचन में सहायक होते हैं ।

ii. खाद्य-सुरक्षा व उपयोगिता:

विभिन्न शोध अध्ययनों से पता चला है कि खाद्य पदार्थों में मसालों की उचित मात्रा इनमें जीवाणुओं की वृद्धि को रोककर नष्ट करने में सहायक है अतः: खाद्य पदार्थों को जीवाणुओं द्वारा खराब होने से बचाने हेतु पारम्परिक रसायनों की अपेक्षा अधिक प्राकृतिक व टिकाऊ मसाला-परिरक्षण उपयोग करने का परामर्श दिया जाता है । खाद्य परिरक्षण में खाद्य पदार्थों में जीवाणु प्रतिरोधक मसालें तापमान के अनुसार उचित अनुपात में मिलाये जाते हैं । खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है ।

iii. भोज्य पदार्थों को प्राकृतिक रंग प्रदान करने में:

सामान्य: मसालों का रंग आकर्षक होने के कारण ये भोज्य पदार्थों की ओर ध्यान आकर्षित करने का विशेष प्राकृतिक गुण रखते हैं । इनके इस प्राकृतिक रंग का उपयोग औषधियों व हर्बल चाय आदि में वृहद् स्तर पर किया जाता है ।

iv. औद्योगिक उपयोग:

मसालों का उपयोग इसके विभिन्न स्वरूपों में किया जाता है, जिसमें पाउडर (पिसा मसाला), इनसे निकाले जाने वाला वाष्पशील तेल, औलियोरेजिन्स मसालों का सत्व औषधि निर्माण में, इत्र, सौन्दर्य-प्रसाधन, क्रीम, लोशन, साबुन, दन्तमंजन एवं अन्य उद्योगों में भी किया जाता है । इनमें पाए जाने वाले प्रति- ऑक्सीकारक, प्रतिरक्षक, प्रति-सूक्ष्मजैविक, प्रति जैविक एवं औषधीय जैसे गुण इनके औद्योगिक उपयोग को आधार प्रदान करते हैं ।

राजस्थान की मसाला निर्यात संवर्धन योजनाएँ:

राजस्थान देश का प्रमुख मसाला उत्पादक राज्य है । यहाँ देश के कुल उत्पादित धनिया का 70 प्रतिशत, जीरा 53, मेथी 93, सौंफ 10, लहसुन 12 एवं मिर्च 4 प्रतिशत उत्पादित की जाती है । अजवायन उत्पादन में भी राज्य अग्रणी है ।

राज्य में मसालों का उत्पादन घरेलू उपयोग की तुलना में बहुत अधिक होता है परन्तु निर्यात में अनेक कठिनाइयों के कारण कृषकों को पूरा मूल्य नहीं मिल, पाता है । राजस्थान में उत्पादित होने वाले मसालों का जायका, रंग, चमक व महक देश-विदेश में अत्यधिक पसन्द की जाती है ।

यहाँ के मसालों की माँग एशिया, अमेरिका व यूरोप महाद्वीप में बढ रही है । किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य दिलाने हेतु मसालों की विशेष मंडियाँ स्थापित की जा रही हैं । ”जहाँ उत्पादन वहाँ विपणन” की योजना के अन्तर्गत धनिया मंडी रामगंज मडी में, जीरा मंडी मेड़ता सिटी व भीनमाल में, मिर्च मंडी टोंक, लहसुन मंडी छीपा बड़ौद में स्थापित की गई है ।

कृषि विपणन क्षेत्र में लाभकारी स्थिति लाने के लिए मंडियों के आधुनिकीकरण के लिए श्रृंखलाबद्ध प्रयास कर, मसालों के मूल्य संवर्द्धन के लिए परियोजनाएँ बनाई जा रही हैं । निर्यात की अपार सम्भावनाओं को देखते हुए मंडियों में कृषि प्रसंस्करण इकाइयाँ लगाने के लिए आगामी वर्षों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर परियोजनाएं तैयार की जा रही हैं ।

मसाला उत्पादन में राष्ट्रीय परिदृश्य एवं राजस्थान की स्थिति:

प्राचीन काल से ही भारत मसालों की भूमि के नाम से जाना जाता है । विश्व में अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार 107 मसालों की किस्मों में से लगभग 60 मसालें भारत में उत्पादित किये जाते हैं । इनमें से 16 मसालें अत्यधिक महत्व के भारतीय मसालें हैं जिनमें कालीमिर्च, छोटी इलायची, लौंग, केसर, सेलेरी, अदरक, हल्दी, लाल मिर्च, लहसुन, जीरा, मेथी, अजवायन, धनिया एवं सुवा है ।

इनमें जीरा, सौंफ, मेथी, अजवायन, धनिया एवं सुवा को बीजीय मसालों में वर्गीकृत किया जाता है । बीजीय मसालों की मुख्य रूप से राजस्थान एवं गुजरात में खेती की जाती है तथा मध्यप्रदेश, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार व आन्ध्रप्रदेश में भी ये थोड़ी-थोड़ी मात्रा में उत्पादित किये जाते हैं । भारत के कुल बीजीय मसालों के उत्पादन का 50 प्रतिशत से भी अधिक राजस्थान से प्राप्त हो रहा है ।

राजस्थान मुख्य बीज-मसाला उत्पादक प्रदेश है । इन फसलों की खेती के लिए अनुकूल जलवायुवीय परिस्थितियाँ जैसे शुष्क एवं ठण्डे व स्वच्छ मौसम आदि यहाँ उपलब्ध हैं । राजस्थान मसालों के अन्तर्गत देश में क्षेत्रफल की दृष्टि से प्रथम तथा उत्पादन की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है ।

वर्ष 2002-03 के अनुसार मसालों के राज्यवार क्षेत्रफल एवं उत्पादन तथा उनकी राष्ट्रीय हिस्सेदारी की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि मसालों के क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत में 25.81% की हिस्सेदारी से प्रथम स्थान पर है तथा मसाला उत्पादन में आन्ध्रप्रदेश (28.17%) को छोडकर 13.60% उत्पादन के साथ दूसरे स्थान पर है ।

मसालों के अन्तर्गत राष्ट्रीय एवं राज्य के क्षेत्रफल एवं उत्पादन की तुलना करने पर प्रतीत होता है कि वर्ष 2002-03 के आंकडों के आधार पर राज्य में भारत के कुल मसालों के फसली क्षेत्र का 25.85 प्रतिशत, उत्पादन का 13.65 प्रतिशत है ।

भारत में कुल मसालों के उत्पादन में धनिया, जीरा, मेथी व अजवायन के उत्पादन में राज्य की भागीदारी क्रमशः 71.20%, 52.30%, 87.47% व 76.87% है । इसलिए भारत में मसालों के क्षेत्र एवं उत्पादन में राजस्थान की महत्वपूर्ण स्थिति है अतः राजस्थान में मसालों की फसलों का क्षेत्रफल व उत्पादन की दृष्टि से अध्ययन करना आवश्यक है ।

अध्ययन का उद्देश्य:

1. मसालों के उत्पादन क्षेत्रों का सीमांकन का वितरण का क्षेत्रीय विवेचन ।

2. मसालों के क्षेत्र की विगत 10 वर्षों में प्रवृत्ति का विश्लेषण व तुलनात्मक अध्ययन ।

3. राज्य में मसालों की फसलों के संकेन्द्रण क्षेत्रों का सीमांकन ।

4. मसाला फसलों के विकास को प्रोत्साहित करने वाले कारकों को ज्ञात करके मसालों के विकास के लिए क्षेत्र का सीमांकन करना ।

5. राज्य में मसाले की फसलों पर जलवायु, सिंचाई व मृदा की संरचना के प्रभावों का अध्ययन करना ।

6. मसालों की फसलों के उत्पादन में आने वाली प्रमुख समस्याओं का आंकलन कर उनके संभावित समाधान का अध्ययन करना ।

7. राज्य में मसाला फसलों के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि हेतु भावी योजनाएं प्रस्तुत करना ।

आँकड़ों के स्रोत:

किसी भी अध्ययन के लिए आँकड़ों की आवश्यकता होती है ।

प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में उपयोग हेतु प्राथमिक एवं द्वितीयक कड़े एकत्रित किए गए हैं:

1. कृषि निदेशालय, राजस्थान, जयपुर से कृषि सांख्यिकी संबंधी कड़े, 1991-94 से 1991-94 से 2001-04 तक मसाला फसलों के क्षेत्रफल, उत्पादन, भूमि उपयोग संबंधी कड़े ।

2. कृषि बोर्ड जयपुर से फसल विपणन संबंधी कड़े ।

3. कृषि विस्तार निदेशालय, दुर्गापुरा, जयपुर से मसाले की फसलों की कृषि की जलवायुवीय दशाओं व फसलों की उन्नत किस्मों आदि के बारे में जानकारी ।

4. मृदा सर्वेक्षण विभाग, दुर्गापुरा से मृदा का वितरण एवं विशेषताओं का वर्णन ।

5. भारतीय मौसम विभाग, जयपुर से जलवायु संबंधी आँकड़े ।

6. भारतीय सर्वेक्षण विभाग, जयपुर से स्थालाकृतिक मानचित्रों से सर्वेक्षित गाँवों की स्थिति के बारे में जानकारी ।

7. चित्तौड़गढ़, झालावाड़, जालौर, सिरोही, भरतपुर (वैर तहसील), उदयपुर (झाडोल तहसील), सीकर (श्रीमाधोपुर तहसील) जिलों से सर्वेक्षित ग्रामों के फसल प्रतिरूप व भूमि उपयोग संबंधी कड़े ।

उपलब्ध साहित्य की समीक्षा:

भारत में ”मसाले” विषय पर बहुत अधिक कार्य नहीं हुआ है । गत दशक से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मसालों की महत्ता, उपयोगिता व देश की अर्थव्यवस्था में इनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए प्रयास किए जा रहे हैं । मसालों पर उपलब्ध पुस्तकें महत्वपूर्ण मार्गदर्शक पुस्तकें हैं, इसके अन्तर्गत मिर्च, धनिया, जीरा, कंदीय मसाले की हल्दी, अदरक आदि फसलों के उत्पादन क्षेत्र, भौतिक एवं रासायनिक गुण एवं इनके उत्पादन के लिए दशाओं का विवेचन किया गया है ।

एस.पी. चट्‌टोपाध्याय द्वारा लिखित (1986) Recent Advances in Medicinal Aromatic and Spice Crop, Vol. 2 में विभिन्न मसाला फसलों में तथा खरपतवार प्रबन्ध हेतु शानमुगेवेलु द्वारा लिखित पुस्तक “Weed Management in Horticulture Crops” में विस्तार से वर्णन किया गया है । इसके अतिरिक्त भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तबीजी, अजमेर से नेशनल रिसर्च सेन्टर आन स्पाइससेज के सुरेश के मल्होत्रा द्वारा प्रकाशित उन्नत स्तर के पत्र महत्वपूर्ण हैं ।

2002 में बृजगोपाल शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ”राजस्थान में मसालों की खेती” में विभिन्न मसाला फसलों की कृषि तकनीकी प्रबन्धन, उपचार, प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन पर विशेष जानकारी दी गई है । यह पुस्तक प्रदेश में मसालों के अध्ययन के लिए मील का पत्थर है ।

इनके अतिरिक्त उद्यान निदेशालय, जयपुर द्वारा प्रकाशित ”राजस्थान में मसाला फसलों की खेती में” इनके तकनीकी पक्ष की महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है । कृषि विभाग राजस्थान द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित जिलानुसार मार्गदर्शिकाएँ प्रत्येक जिले में उत्पन्न की जाने वाली मसाला फसलों के बारे में महत्त्वपूर्ण भौगोलिक आर्थिक जानकारी देती हैं ।

स्पाईसेज बोर्ड, भारत द्वारा प्रकाशित पुस्तकें भी मसालों से सम्बन्धित अनेक जानकारी देती हैं । स्पाइसेज बोर्ड, भारत द्वारा प्रकाशित Spices India द्वारा देश के प्रख्यात मसाला कृषि वैज्ञानिकों के लेख, मसालों के क्षेत्र में नवीन अनुसंधान व कृषि तकनीकी की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं । सम्पूर्ण राज्य में समग्र रूप से मसालों का भौगोलिक दृष्टि से गहन अध्ययन अभी अछूता ही रहा है ।

राजस्थान में मसालों की क्षेत्रीय सर्वेक्षण:

राज्य में विभिन्न मसाला फसलों में अवस्थिति निर्धारक की सहायता से मसाला प्रदेश ज्ञात करके उनमें से जिन जिलों में विभिन्न मसाला फसलों का सर्वाधिक या अधिक केन्द्रीयकरण पाया जाता है, उनमें से एक-एक गाँव के 15-15 काश्तकारों से प्रश्नावली के माध्यम से भूमि उपयोग, फसल प्रतिरूप, मसाला फसलों का वितरण, धनिया, जीरा, मेथी, लहसुन, अजवायन, सौंफ, मिर्च, अदरक, हल्दी फसलों का सिंचित व असिंचित क्षेत्र, मृदा का प्रकार व क्षेत्र, मृदा परीक्षण, जुताई, पटरा लगाने की संख्या, कृषि उपकरण, भूमि उपचार, बीजोपचार, बीज दर, बीज की किस्म, खाद व उर्वरक का उपयोग व दर, बुवाई की विधि, सिंचाई साधन, विद्युत आपूर्ति, कीट व व्याधि, पाला, कीटनाशक औषधियों का उपयोग, निराई-गुड़ाई, गहाई, भण्डारण, उत्पादन बिक्री केन्द्र, आदि से संबंधित प्राथमिक कड़े संकलित किए गए हैं ।

विधि तंत्र:

इस विवेचन के लिए निम्नलिखित सांख्यिकीय सूत्रों का उपयोग किया गया है:

 

अध्ययन क्षेत्र:

राजस्थान राज्य मसालों के क्षेत्र व उत्पादन दोनों ही दृष्टियों से भारत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । मसाला फसलों में धनिया, जीरा, मेथी, सौंफ व अजवायन के कुल बुवाई क्षेत्रफल का 55.36 प्रतिशत तथा उत्पादन का 63.08 प्रतिशत राजस्थान में है ।

अध्ययन क्षेत्र का परिचय:

राजस्थान राज्य देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में 233 उत्तरी अक्षांश से 3012 उत्तरी अक्षांश के बीच तथा 6930 पूर्वी देशान्तर से 7817 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है । कर्क रेखा राज्य के बांसवाड़ा जिले को छूती हुई निकलती है ।

राज्य की सापेक्षिक स्थिति का अवलोकन करें तो इसके उत्तर में पंजाब, उत्तर-पूर्व में उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में मध्य प्रदेश, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम में गुजरात तथा पश्चिम में पाकिस्तान है । राज्य का आकार विषमकोण चतुर्भुज के समान है ।

राजस्थान राज्य की पश्चिम से पूर्व की ओर लम्बाई 869 कि.मी. तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 868 कि.मी. है । राज्य का क्षेत्रफल 3,42,239 वर्ग कि.मी. है । क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का देश में प्रथम स्थान है । राजस्थान का क्षेत्रफल देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 10.40 प्रतिशत है ।

राजस्थान में विभिन्न मसालों की फसलें:

राज्य की कृषि में मसाला फसलों का अन्य फसलों की तुलना में क्षेत्र बहुत कम है । मसाला फसलें राजस्थान में पारम्परिक रूप से कम क्षेत्र में नकदी फसल के रूप में बोई जाती है । राज्य में उत्पादित की जाने वाली विभिन्न मसाला फसलों का क्षेत्र कुल फसली क्षेत्र से प्रतिशत व कुल मसाला फसलों का क्षेत्र, कुल फसली क्षेत्र से प्रतिशत व कुल मसाला फसलों के क्षेत्र से प्रतिशत को तालिका 1.4 में दर्शाया गया है ।

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