जीरा कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate cumin (jeera).

जीरा कम समय में तैयार होकर अधिक आय प्रदान करने वाली बीजीय मसाले की प्रमुख फसल है । जीरे का वानस्पतिक नाम “क्यूमीनम साईमिनम एल” है । यह अम्बेलीफेरी कुल का पौधा है । भारत में जीरे की खेती प्रमुखतः राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश में की जाती है ।

राज्य में उत्पादित की जाने वाली मसाला फसलों में 20.84 प्रतिशत का योगदान देकर जीरा द्वितीय स्थान पर है । वर्ष 2001-04 में राज्य के जीरा उत्पादन में सर्वाधिक 2.66 प्रतिशत से बाड़मेर जिले का प्रथम स्थान है, यहाँ सन् 2001-04 में मैट्रिक टन जीरे का उत्पादन हुआ जो जिले में उत्पादित कुल मसाला फसलों का 99.41 प्रतिशत है ।

बाड़मेर जिले के पश्चात् जीरा उत्पादन में द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ स्थान क्रमशः जालौर (19.21%), जोधपुर (11.65%), नागौर (11.49) जिलों का है । इनके पश्चात् जैसलमेर (10.88%), पाली (3.18%), बीकानेर (2.73%), अजमेर (1.81%) प्रमुख जीरा उत्पादक जिले हैं ।

ADVERTISEMENTS:

पश्चिमी जिलों में रेतीली बलुई दोमट मृदा में जीरा उत्पादन अधिक होता है तथा पकते समय इन जिलों में फसल को पर्याप्त मृदा में जीरा उत्पादन अधिक होता है तथा पकते समय इन जिलों में फसल को पर्याप्त तापमान प्राप्त होता है । शेष जिलों में जीरा उत्पादन बहुत कम होता है । देश के कुल उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत उत्पादन राजस्थान में होता है । इसके पश्चात् गुजरात जीरे का द्वितीय बड़ा उत्पादक राज्य है ।

जीरे का महत्व:

जीरे की उपयोगिता इसकी तेज मनमोहक सुगन्ध व स्वाद के कारण है । इसकी सुगन्ध व तीखापन इसमें पाए जाने वाले एल्केलाइड की मात्रा पर निर्भर करता है । जीरे का महत्व स्वदेशी मांग के साथ-साथ निर्यात द्वारा विदेशी मुद्रा अर्जन के कारण भी बढ़ गया है । जीरे की 90 प्रतिशत खपत देश में तथा 10 प्रतिशत निर्यात होता है । राज्य में जीरे के अन्तर्गत देश के कुल क्षेत्रफल व उत्पादक का 50 से 70 प्रतिशत हिस्सा है परन्तु प्रति हैक्टेयर राष्ट्रीय औसत उपज से राजस्थान की उपज कम है ।

भारत से जीरा का निर्यात अमेरिका, सिंगापुर, जापान, सऊदी अरब और ब्रिटेन को किया जाता है । विश्व बाजार में निर्यातक प्रमुख देश चीन, ईरान व टर्की इसके मुख्य प्रतिद्वन्दी हैं । चीन का जीरा मूल्य की दृष्टि से कम होने के कारण भारत के निर्यात में कमी हुई है ।

ADVERTISEMENTS:

उपयोगिता:

जीरा उत्पादन राजस्थान के किसानों को व्यावसायिक फसल के रूप में आर्थिक दृष्टि से एक अच्छा आधार प्रदान करता है । जीरे का उपयोग औषधियों तथा सुगन्ध कारक के रूप में प्रमुखता से होता है । दैनिक जीवन में इसका उपयोग खाद्य पदार्थों में स्वाद व सुगन्ध कारक के रूप में होता है । औषधियों के रूप में इसका उपयोग पाचक, वातनाशक, वायुजनित विकारों को शान्त करने वाला होता है ।

जलवायु:

जीरा समशीतोष्ण कटिबन्धीय पौधा है । इसकी खेती के लिए शुष्क व ठंडी जलवायु उपयुक्त रहती है । इसके पौधे की लम्बाई व वृद्धि के लिए ठण्डा वातावरण तथा फल आने और बीज पकने के समय उच्च तापमान व लम्बी प्रकाश अवधि आवश्यक होती है । यह शीत ऋतु की फसल है ।

ADVERTISEMENTS:

फसल के लिए बादल छाये रहना व वातावरण में नमी होना हानिकारक है । फसल में फूल व बीज बनते समय इस वातावरण से बीमारियों का प्रकोप बढ जाता है अतः समय पर तत्काल इन पर नियन्त्रण आवश्यक है ।

भूमि:

जीरे की खेती के लिए भुरभुरी जीवांशयुक्त हल्की एवं दोमट उपजाऊ भूमि अच्छी होती है । इस भूमि में जीरे की खेती आसानी से की जा सकती है । भूमि में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था आवश्यक है । भारी, लवणीय एवं क्षारीय भूमि इसकी खेती के लिए बाधक मानी जाती है । भूमि में उखटा की समस्या नहीं होनी चाहिए ।

जीरे की खेती के प्रमुख चरण:

i. भूमि को खेती के लिए तैयार करना:

जीरे के पौधे की जड़े 13 से 16 सेमी. लम्बी होनी है अतः इसके लिए खेत में पहली जुताई के समय हल से मृदा को पलटने की प्रक्रिया की जाती है । इसके बाद 5-6 जुताई से मृदा नरम व भुरभुरी हो जाती है । इसके उपरान्त खेत को समतल कर क्यारियाँ बना ली जाती हैं ।

ii. बीज एवं बुवाई की प्रक्रिया:

बीज बोने से पहले उन्हें कवकनाशी जैसे 2 ग्राम बोविस्टीन प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित किया जाता है या ट्राइकोडर्मा 4 से 6 ग्राम प्रति किलोग्राम का उपयोग करते हैं । बुवाई के लिए 15 नवम्बर से 30 नवम्बर का समय अच्छा रहता है । प्रति हैक्टेयर लगभग 12 से 15 किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है ।

बीज की बुवाई प्रायः छिटकना विधि से की जाती है, परन्तु बीजों की बुवाई एकसार होनी चाहिए । पहले से तैयार क्यारियों में बीजों को एकसार बिखेरा जाता है । निराई-गुडाई व अन्य शस्य क्रियाओं के लिए सुविधा की दृष्टि से कतारों में बुवाई की जाती है । कतारों में बुवाई के लिए क्यारियों में 22 से 25 सेन्टीमीटर की दूरी रखते हैं ।

iii. खाद एवं उर्वरक:

प्रायः प्रति हैक्टेयर दस से पन्द्रह टन गोबर की खाद उपयुक्त रहती है । इसके अतिरिक्त जीरे की फसल में 30 किलोग्राम नत्रजन एवं 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हैक्टेयर देना फसल के अधिक उत्पादन के लिए ठीक रहता है । नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के 30 दिन बाद व आधी मात्रा बुवाई के 60 दिन बाद सिंचाई के साथ देनी चाहिए ।

iv. सिंचाई प्रबन्ध:

जीरे की खेती के लिए कुल 5 सिंचाई पर्याप्त रहती है । क्यारियों में पहली सिंचाई छिंटकना विधि के तुरन्त बाद करनी चाहिए । दूसरी सिंचाई बुवाई के एक सप्ताह बाद जब बीज फूलने लगे तब करनी चाहिए । इसके बाद भूमि की बनावट व मौसम के अनुसार 15-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए । जब दाने बनने लगे तब गहरी व अन्तिम सिंचाई करनी चाहिए ।

v. गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण:

जीरे के खेत में 2-3 बार निराई-गुडाई की आवश्यकता है प्रथम निराई-गुड़ाई जब पौधे दो इंच बडे हो जाए अर्थात् बुवाई के 30-35 दिन बाद कर देनी चाहिए । दूसरी गुडाई 55-60 दिन की फसल में करनी चाहिए । इसके बाद तीसरी निराई-गुडाई करना फसल के लिए लाभदायक रहता है ।

ऐसी जगह जहाँ निराई-गुडाई का प्रबन्धन हो वहाँ खरपतवार नियंत्रण हेतु फ्लूक्लोरेलिन, ट्रब्यूटिन, पेण्डामिथेलिन, आक्साड़ार्जिल, 6 ई.सी. आदि रसायनों का उपयोग कर सकते हैं ।

जीरे की उन्नत किस्में:

I. आर. एस. 1:

यह किस्म देशी किस्म की अपेक्षा रोगरोधी किस्म है । राजस्थान के सभी भागों के लिए यह उपयुक्त व जल्दी पकने वाली है । इसका बीज बड़ा व रोयेंदार होता है । 80-90 दिनों में यह 6 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज देती है । अन्य किस्मों की तुलना में यह 20 से 25 प्रतिशत अधिक उपज देती है ।

II. आर. जेड 19:

राजस्थान के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त इस किस्म के दाने सुडौल, आकर्षक तथा गहरे भूरे रंग के होते हैं । यह कृषि महाविद्यालय, जोबनेर द्वारा विकसित की गई है । यह 125 दिन में पक जाती है व आर.एस.1 की तुलना में उखटा व छाछया रोग से कम प्रभावित होती है । इसकी औसत उपज 5-6 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है । उक्त कृषि विधियों द्वारा 10.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है ।

III. आर. जेड. 209:

यह आहोर (जालौर) की स्थानीय किस्म से सलेफ्यान विधि द्वारा विकसित की गयी है । इसके दाने बड़े, सुडौल और गहरे भूरे रंग के होते हैं । 120-125 दिन में फसल पककर तैयार हो जाती है । यह किस्म समस्त राजस्थान के लिए उपयुक्त है । इस किस्म में झुलसा व छाछया रोग का प्रकोप आर.जेड.19 की तुलना में कम होता है एवं पैदावार 10-15 प्रतिशत अधिक होती है । इस किस्म की औसत उपज 6-7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है ।

इसके अतिरिक्त गुजरात कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई कुछ किस्में निम्न हैं:

a. गुजरात जीरा-1:

(जी.सी.-1) गुजरात कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गयी है । यह बड़े बीजों वाली 105 से 110 दिन में पकने वाली अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है इसमें उखटा सहने की अधिक क्षमता है । इससे प्रति हैक्टेयर 700 किलोग्राम उपज मिलती है ।

b. गुजरात जीरा-2:

(जी. सी-2) यह 100 दिन में तैयार हो जाती है । इसकी प्रति हैक्टेयर उपज 700 किलोग्राम है ।

c. गुजरात जीरा-3:

(जी. सी-3) यह उखटा रोग सहने की क्षमता वाली किस्म है । इसकी उपज जी.सी. 2 किस्म के समान है तथा यह 98 दिन में तैयार हो जाती है । राज्य में मसाला फसलों में सर्वाधिक क्षेत्र पर जीरा बोया जाता है । यह राज्य की प्रमुख मुद्रादायिनी मसाला फसल है, इसका उत्पादन 2 या 3 सिंचाई करने पर ही हो जाता है जबकि अन्य खाद्यान्न व रबी फसलों में 6-7 सिंचाई की आवश्यकता होती है अतः राज्य के पश्चिमी भागों में रबी की अन्य फसलों में इसने महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त की है ।

इसके अतिरिक्त मसाला फसलों के ऊंचे भाव व इनके उत्पादित किए जाने वाले जिलों में सरकारी प्रोत्साहन में वृद्धि से जीरे की फसल को वरीयता मिली है । राज्य के कुल मसाला फसलों के लगभग आधे क्षेत्र (49.60%) पर जीरा बोया जाता है ।

मसाला फसलों के शेष 50.40% क्षेत्र के लगभग दो-तिहाई क्षेत्र (29.76%) पर धनिया, 11.04% पर मेथी, 3.04% पर लहसुन, अजवायन तथा सौंफ क्रमशः 1.44 व 0.95% क्षेत्र पर उत्पादित की जाती है । 2001-04 तक तीन वर्षों में हल्दी व अदरक की फसलों का औसत फसली क्षेत्र क्रमशः 194 हैक्टेयर व 20.66 हैक्टेयर है जो कुल फसली क्षेत्र की तुलना में अत्यन्त कम है ।

जीरे की खेती में फसलोत्तर प्रबन्धन:

राजस्थान में उत्पन्न होने वाला जीरा गुणवत्ता में श्रेष्ठ होने के बावजूद फसलोत्तर प्रबन्धन की कमियों से इसका उचित बाजार भाव नहीं मिल पाता है । राजस्थान की मण्डियों में कर की दर अधिक होने के कारण यहाँ का जीरा गुजरात की ऊँझा मण्डी में विक्रय के लिए भेजा जाता है । साथ ही वहाँ क्लीनिंग, ग्रेडिंग व पैकिंग की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं अतः जीरा उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ प्रसंस्करण एवं विपणन पर विचार किया जाना चाहिए ।

कटाई:

फसल की कटाई पूरी तरह पक जाने पर ही की जानी चाहिए । फसल काटते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज झड़े नहीं ।

श्रेणीकरण:

श्रेणीकरण करते समय यह विदित हो कि जीरे में वजन के 7 प्रतिशत से ज्यादा अन्य पदार्थ नहीं होने चाहिए । जीरे के बीज के अतिरिक्त अन्य खाने योग्य बीज 5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो । उत्पादन की अच्छी कीमत के लिए कीड़े द्वारा नुकसान 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए ।

पैकिंग:

जीरे की पैकिंग टाट के बोरों में की जाती है । जिनमें अन्दर प्लास्टिक लगा होता है जिससे बाह्‌य वातावरण से नमी बोरों में प्रवेश नहीं कर सके । परिवहन के दौरान कीट आदि से भी इनकी सुरक्षा होती है ।

भण्डारण:

जीरे को लम्बे समय तक सही तरीके से भण्डारित नहीं करने पर इसका रंग व खुशबू खराब होना शुरू हो जाते हैं अतः इसे प्लास्टिक लगे बोरों में भरकर रखा जाना चाहिए । लेकिन व्यापारिक स्तर पर इसे कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है । कभी कभी भण्डारण से पूर्व गंधक के धुएं से उपचारित किया जाता है । इससे इसकी सुरक्षित भण्डारण क्षमता लगभग दो माह तक बढ़ जाती है लेकिन गुणवत्ता में कमी आना शुरू हो जाती है ।

प्रोसेसिंग:

इसके अन्तर्गत जीरे के बीजों को पीसकर पाऊडर के रूप में काम में लिया जाता है ।

इसके लिए निम्न मापदण्ड होने चाहिये:

I. नमी – वजन के 12 प्रतिशत से अधिक नहीं हो ।

II. कुल राख – वजन के 9.5 प्रतिशत से अधिक नहीं हो ।

Home››Cultivation››Cumin››