आलू के रोगों को कैसे नियंत्रित करें? | Read this article in Hindi to learn about how to control diseases of potato.
आलू की फसल को अनेक रोग नुकसान पहुँचाते हैं । ये रोग मुख्य रूप से फफूँद, शुक्राणु एवं विषाणु द्वारा फैलती है । मैदानी इलाकों-क्षेत्रों में जलवायु अनुकूल होने के कारण बीमारियों से प्रति वर्ष नुकसान भयानक रूप में होता है । जिससे 50 से 90 प्रतिशत तक फसल बर्बाद हो जाती है ।
ये बीमारियाँ निम्न प्रकार विभक्त किये गये हैं:
1. फफूँद जनित रोग:
इस किस्म के बीमारियों का दो भागों में विभक्त किया गया है:
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(क) तने व पत्तों पर लगने वाले रोग- अगेती झुलसा, पिछेती झुलसा, चकती रोग (फोमा पर्ण धब्बा) ।
(ख) कन्द पर लगने वाला रोग- काली खुरण्ड/ब्लैक स्कर्ब/कॉमन स्कैब ।
I. अगेती सुलसा (अर्ली ब्लाइट):
भारत में इस बीमारी का प्रकोप सर्वप्रथम 1903 ई॰ में उत्तर प्रदेश के फरूखाबाद जिले में हुआ था । परन्तु धीरे-धीरे इस बीमारी का प्रकोप देश के पहाड़ी तथा मैदानी दोनों क्षेत्रों में आलू जहाँ उगाया जाता है वहाँ भी यह बीमारी फैल गयी ।
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कारक:
यह बीमारी आल्टरनेरिया सोलोनाई नामक फफूँद द्वारा होता है ।
पहचान:
रोग का प्रकोप करीब 35 – 40 दिन वाली फसल पर आने लगता है लेकिन अधिक प्रकोप 60 दिनों के बाद ही होता है । जैसे-जैसे फसल की उम्र बढ़ती जाती है इसका प्रकोप भी बढ़ता जाता है । शुरू में इस रोग के लक्षण पौधों के निचली व पुरानी पत्तियों पर 1.0 – 2.0 मि॰मी॰ आकार के अण्डाकार गोलाकार कोणाकार छोटे और भूरे या बादामी रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देता है ।
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बाद में ये धब्बे आकार में बड़े होकर कोणीय रूप धारण कर लेता है कुछ धब्बों में चक्राधार धारियाँ होती है तथा कुछ में नहीं । बड़े धब्बों में यह भली भांति देखा जा सकता है । परन्तु धीरे-धीरे फसल की उम्र के साथ यह उपर वाली पत्तियों में भी आने लगता है । पत्तियों पर परिपक्व अवस्था में ये धब्बे सुखकर कागजी हो जाते है ।
परिणामतः प्रभावित पत्तियां जल्द ही झड़ जाती है । पिछेती झुलसा की तरह रोग के धब्बों की निचली सतह पर सफेद फफूँद नहीं होती है । अनुकुल मौसम में तनों पर भी धब्बे दिखाई पड़ती है । कभी-कभी कंदों की भी प्रभावित करती है जिससे प्रभावित कंद का सतह काला एवं अनियमित आकार का हो जाता है । कवक (फफूँद) कन्द के अन्दर प्रवेश कर जाते है और भंडारण के दौरान जीवित रहने की क्षमता रखते है । परिणामतः भंडारण के दौराण कन्द जल्द सड़ते भी है ।
प्रकोप का समय:
आमतौर पर आगात झुलसा का प्रकोप किसी भी समय हो सकता है । परन्तु प्रायः इस रोग के धब्बे करीब 35 – 40 दिन वाली फसल पर या कन्द बनने के पहले आने लगते हैं । अधिक प्रकोप 60 दिनों के बाद ही होता है । जैसे-जैसे फसल की उम्र बढ़ती जाती है वैसे ही इस रोग का प्रकोप भी बढ़ता है । इस रोग का प्रकोप प्राय: फसल के आगात समय में होता है, इसलिए आगात झुलसा कहा जाता है ।
मौसम का प्रभाव:
आमतौर पर आगात झुलसा का आना तो मौसम पर ज्यादा निर्भर नहीं करता है लेकिन इस रोग का फैलाव मौसम पर काफी निर्भर करता है । यह रोग मध्यम तापमान (17-25° सें॰ ग्रे॰) व अधिक आर्द्रता (75 प्रतिशत) होने पर फैलता है तथा बारी-बारी से होने वाला शुष्क व नम मौसम काफी अनुकुल होता है ।
गर्म व आर्द्र (नम) मौसम में कमजोर पौधों पर यह रोग अधिक असर दिखाता है । फसल काल के शुरू में यह रोग जमीन के साथ निचली पत्तियों में आता है जिसके कारण जमीन में अच्छी तरह से न दबे हुए बढ़ते कंदों को भी प्रभावित करता हैं । यदि रोगी कन्द का प्रयोग बीज के रूप में किया जाय तो यह रोग अगली फसल को भी प्रभावित करेगा ।
प्रकोप का कारण:
(i) रोग ग्रस्त कन्द का बीज के रूप में उपयोग
(ii) मौसम का प्रभाव
(iii) कमजोर पौधे
(iv) नेत्रजन की कमी
(v) परपोशी फसलें जैसे सोलेनेसी कुल (आलू परिवार) के टमाटर, बैगन, तम्बाकू, मिर्च आदि फसलों का प्रयोग फसल-चक्र के रूप में करना ।
रोग का प्रसार:
हवा, जल एवं रोगग्रस्त बीज कन्द फफूँद 17 माह तक कमरा तापमान (22 – 25° सें॰ग्रे॰) पर जीवित रहता है । फफूँद प्रभावित पौधों के अवशेष में मिट्टी के अन्दर जीवित रहता है जो आगामी फसल को प्रभावित करता है ।
समेकित प्रबन्धन:
(i) अच्छी पैदावार सुनिश्चित करने के लिए केवल रोग रहित एवं स्वस्थ बीज कंदों का ही प्रयाग करें ।
(ii) फसल की बुआई से पहले बीज कन्दों को किसी रासायनिक फफूँदनाशक (वाभीस्टीन 1 ग्राम या थीरम या कैफटाक या कार्बोक्सीन 2 ग्राम प्रति लीटर) या जैविक फफूँदनाशक ट्राइकाडर्मा 4 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 10 – 15 मिनट तक घोल में डुबोकर उपचारित करने के उपरान्त छाया में सूखाकर बुआई करें ।
(iii) आलू के साथ मक्का, धान, लोबिया, गेहूँ का फसल-चक्र अपनायें ।
(iv) आलू के खेतों के नजदीक तम्बाकू-टमाटर कुल (सोलेनेसी परिवार) की फसलों जैसे टमाटर, बैगन, तम्बाकू, मिर्च आदि न लगायें, क्योंकि ये इन रोग कारकों के परपोशी फसलें है ।
(v) फसल को उवर्रको, विशेषकर पोटाश के साथ नाइट्रोजन की संतुलित मात्रा दें । इन रोगों के भीषण प्रकोप से फसल को बचाने के लिए 45 दिनों की फसल पर 1.0 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव भी प्रभावशाली रहता है ।
(vi) रोग का आगमन होने पर मैकाजेव या प्रोपीनेव या कॉपर आक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की से घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव भी प्रभावशाली होता है ।
II. पिछेती झुलसा (लेट ब्लाइट):
सन् 1898 – 1900 के दौरान पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में पिछेती झूलसा रोग का प्रकोप देखा गया । लेकिन 1956-58 तक यह रोग देश के सम्पूर्ण क्षेत्रों में फैल गया । पहले इस रोग का प्रकोप प्राय: जनवरी के अन्तिम सप्ताह में होता था, परन्तु अब यह रोग दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में भी आ जाता है । यह रोग आलू की फसल को भारी क्षति पहुँचाता है ।
बिहार में यह रोग 60 प्रतिशत तक एवं उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत तक नुकसान पहुँचाता है । नुकसान इस बात पर ज्यादा निर्भर करता है कि रोग का प्रकोप कब शुरू हुआ । रोग की जल्द शुरूआत इसके देर से आने की अपेक्षा ज्यादा क्षति पहुँचाता है ।
कारक:
यह रोग फाइटोप्थोरा इनफैसटान्स नामक फफूँद द्वारा होता है ।
पहचान:
रोग का प्रकोप पौधों के प्रत्येक भाग (पत्तियां, तना, कन्द) पर होता है । प्रारम्भ में पौधों के निचली पत्तियों पर सिरे तथा किनारों से बढ़ते हुए हल्के पीले-हरे अनियमित आकार के धब्बे जो जल्दी ही बादामी रंग का हो जाता है ।
अनुकुल मौसम रहने पर धब्बे अति शीघ्रता से बढ़ते है और बीज भाग से काले या भूरे हो जाते है तथा जल्द ही उपर की पत्तियों को भी प्रभावित कर देते है । ये धब्बे पानी सोखे हुए लगते है । जल्दी ही ये धब्बे आपस में मील जाते है और पूरी पत्ती को सड़ा डालते है ।
सुबह के समय पत्ती की निचली सतह पर सफेद रूई की तरह फफूँद दिखाई पड़ती है जो इस रोग की प्रमुख पहचान है । जब इस रोग का प्रकोप काफी बढ़ जाता है तो तने और पत्तियों के डंठल पर हल्के भूरे रंग के धब्बे, लम्बाई में बढ्कर डंठल के चारों तरफ फैल जाते है ।
अनुकुल मौसम में इस रोग का प्रकोप इतनी जल्दी फैलता है कि थोड़े ही समय में पूरी फसल को तबाह कर डालता है । पौधे ऐसे लगते हैं मानो झुलस गये हों । ग्रसित पौधे कुछ दिनों में ही मर जाते हैं । रोगग्रस्त और गल रहे पौधों से एक प्रकार की दुर्गन्ध भी आती है ।
मिट्टी में दबे आलू के कन्द भी अतिशीघ्र रोग ग्रसित हो जाते है । इस रोग के फफूँद बरसात के पानी या ओस के बूँदों के साथ पत्तियों से झड़कर जमीन पर आ जाते है जो मिट्टी में कम दवे हुए और खुले हुए कन्दों को रोग ग्रसित कर देते है ।
कन्दों पर इसका प्रकोप हल्के बैंगनी रंग के धब्बों के रूप में शुरू होता है जो धीरे-धीरे बैंगनी बादामी रंग में बदल जाते हैं तथा कुछ कन्दों की सतह में नीचे बैठ जाते है अगर प्रभावित धब्बों के कन्दों को काटा जाय तो धब्बों के नीचे जंग जैसा धब्बा दिखाई देता है ।
पिछेती रोग से प्रभावित कन्द अन्य फफूँदों व शुकाणुओं का शिकार जल्दी हो जाता है जिसके कारण या तो वह खेत में ही सड़ जाता है या फिर खुदाई के बाद ढेर में । अगर रोग का प्रकोप कम हुआ है तो ये कन्द खुदाई के दौरान लगभग स्वस्थ होते हैं । परन्तु जब शीतगृह से आलू की बुआई के लिए निकाला जाता है तब इसका प्रकोप दिखाई देने लगता है ।
प्रकोप का समय:
पिछेती झुलसा का प्रकोप प्रायः 15 – 20 दिसम्बर के बाद होता है ।
रोग का स्रोत:
इस रोग का फफूँद एक साल से दूसरे साल तक प्रभावित आलू के कन्दों में जिन्हें शीतगृह में रखा गया है जीवित रहता है । ये रोग प्रभावित आलू से ही रोग का मुख्य श्रोत बन जाता है । इन प्रभावित कन्द बीज को खेत में बुआई करने के पश्चात् इन कन्दीं पर फफूँद क्रियाशील हो जाती है ।
मिट्टी के तापमान तथा नमी की मात्रा के अनुसार फफूँद की संख्या बढ़ती है और जड़ एवं तनों को ग्रसित करते हुए पौधों के निचली पत्तियां तक पहुँच जाती है । रोग विकास के दौरान ग्रसित पौधों की पत्तियों पर लाखों की संख्या में फफूँद पैदा होते है । ये फफूँद सिंचाई या वर्षा के पानी से बह जाती है ।
ये फफूँद पौधों की पत्तियों के सर्म्पक में आने पर तथा अनुकूल मौसम प्राप्त होने के कारण तेजी से फैलती है और दूसरे स्वस्थ्य पौधों को भी ग्रसित कर देता है । मौसम का प्रभाव : आमतौर पर अधिक नमी (आर्द्रता) एवं कम तापमान पिछेती झूलसा आने में मदद करता है । रोग के विकास में बादल भी सहायक होता है ।
i. तापमान:
(a) फफूँद वृद्धि – 16 – 20 डिग्री सैल्सियस
(b) बीजाणु उत्पादन – 18 – 22 डिग्री सैल्सियस
(c) बीजाणु अंकुरण – 10 – 20 डिग्री सैल्सियस
(d) ग्रसन तथा रोग – 10 – 22 डिग्री सैल्सियस
(e) रोग का विकास – 18 ± 1 डिग्री सैल्सियस
ii. आर्द्रता:
नमी वाले वातावरण में फफूँद पैदा होते हैं । फफूँद के अंकुरण तथा ग्रसन के लिए 100 प्रतिशत आर्द्रता की आवश्यकता पड़ती है । 75 प्रतिशत से आर्द्रता (नमी) कम होने पर फफूँद नष्ट हो जाते हैं ।
iii. प्रकाश:
फफूँद रात्रि के दौरान पैदा होते हैं तथा प्रकाश की उपस्थिति में सक्रिय होते है । रोग के विस्तार में बदली का मौसम सहायक होते हैं ।
पूर्वानुमान का आकलन:
पिछेती झुलसा रोग बहुत तीव्रता से फैलता है । अत: इस पर प्रभावी नियंत्रण के लिए पूर्वानुमान करना अतिआवश्यक होता है । रोग के बारे में अगर रोग आगमन के पूर्व जानकारी प्राप्त हो जाए तो किसान अपने खेतों में फफूँदनाशकों का समय रहते छिड़काव करके अपनी फसल को होने वाली क्षति से बचा सकेगें ।
आकाशवाणी शिमला द्वारा रोग आगमन के बारे में हिमाचल प्रदेश के किसानों को पूर्व जानकारी प्रदान की जाती है । अतः तापमान, सापेक्षित आर्द्रता तथा वर्षा की मात्रा के आधार पर पिछेती झुलसा रोग के आगमन की निम्न दोनों अवस्थाओं के बारे में चेतावनियाँ दी जाती हैं ।
पहली अवस्था का अंदेशा:
अगर 7 दिन तक लगातार रूक-रूक कर वर्षा होती रहे. औसत तापमान 24.0 डिग्री सैल्सियस या उससे कम रहे तो तीन सप्ताह के भीतर पिछेती झुलसा का प्रकोप हो सकता है ।
दूसरी अवस्था का अंदेशा:
यदि लगातार दो दिनों के 18 घंटों का औसत तापमान 10 – 20 डिग्री सैल्सियस, सापेक्षित आर्द्रता 80 प्रतिशत या अधिक हो तो पिछेती झुलसा का प्रादुर्भाव एक सप्ताह के भीतर हो सकता है । ज्यों ही दूसरी अवस्था का अंदेशा होता है तो हिमाचल प्रदेश में केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला द्वारा आकाशवाणी से आलू उत्पादकों को हिदायतें दी जाती है कि वह अपनी फसल में फफूँदनाशकों का छिड़काव करें ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी किसानों के लिए इसी प्रकार की एक प्रणाली विकसित की गई है । इस प्रणाली द्वारा वर्षा तथा शुष्क मौसमों के दौरान पिछेती झुलसा रोग का पूर्वानुमान हेतु दो अलग-अलग मॉडल तैयार किये गए हैं ।
बरसात मौसम के लिए मॉडल:
1. अगर 2 दिन लगातार 0.1 से 0.5 मिली मीटर वर्षा हो ।
2. लगातार 5 दिनों की अवधि के दौरान 50 या अधिक घंटे तक सापेक्षिक आर्द्रता ≥ 85 प्रतिशत तक रहे ।
3. लगातार 5 दिनों की अवधि के दौरान 100 घंटे तक तापमान 72 डिग्री सैल्सियस से 26 डिग्री सैल्सियस के बीच रहे ।
अगर उपरोक्त अवस्थाएँ लगातार 5 दिनों तक जारी रहे तो पिछेती झुलसा का प्रादुर्भाव 10 दिनों के भीतर हो सकते है ।
शुष्क मौसम के लिए मॉडल:
1. लगातार 7 दिनों के 50 या अधिक घंटों की अवधि तक अगर सापेक्षिक आर्द्रता 85 प्रतिशत या अधिक रहे ।
2. लगातार 7 दिनों के 115 या अधिक घंटों तक तापमान 7.2 से 26.0 डिग्री सेल्सियस के बीच रहे ।
प्रकोप का कारण:
i. रोग से ग्रसित कन्द बीजों का प्रयाग ।
ii. मौसम का प्रभाव- अधिक नमी ( ≥ 85% आर्द्रता), कम तापमान (7.72 डिग्री सेल्सियस), बदली का छाया रहना तथा रूक-रूक कर वर्षा होना अधिक अनुकुल होता है ।
iii. संवेदनशील किस्मों का चयन ।
iv. समय पर उपयुक्त एवं प्रभावी फफूँदनाशकों का छिड़काव नहीं करना ।
v. लगातार एक ही खेत में आलू की फसल लगाना ।
vi. अगर रात ठण्डी एवं आर्द्र हो और दिन गर्म एवं आर्द्र हो तो इस रोग को आने की संभावना अधिक रहती है ।
vii. वैसे कभी-कभी मौसम साफ रहने पर भी इस रोग का प्रकोप हो जाता है । असल में होता यह है कि कई बार जब पौधे बड़े हो जाते हैं और जब उनमें पानी अधिक दिया जाता है तो रात के तापमान में आर्द्रता और भी अधिक बढ़ जाती है जो पिछेती झुलसा रोग के फफूँद को पनपने के लिए अनुकुल परिस्थिति उत्पन्न कर देती है इससे यह फसल को और भी अधिक प्रभावित करता है और अगर कहीं मौसम भी अनुकुल हो जाय तो यह रोग महामारी के रूप में फैल जाता है । सिंचाई बहुत अधिक और कम भी इस रोग के फैलाव में सहायक होता है ।
समेकित प्रबन्धन:
(i) रोग मुक्त कन्द बीज का प्रयोग:
जिस खेत में रोग का प्रभाव न पड़ा हो उस खेत के बीज का प्रयोग करें ।
(ii) बीज उपचार:
मेंकोजैव (75 डब्लू॰ पी॰) 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम (50 डब्लू॰ पी॰) 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 10 – 15 मिनट तक घोल में कुन्द बीज को डुबोकर रखें उसके बाद छाया में सुखाकर बुआई करें ।
(iii) बीज कन्द मिट्टी से बाहर न रहे इसके लिए आलू की बुआई के समय मिट्टी चढ़ाते वक्त ऊंची मेंड़े बनाए ।
(iv) आकाश में बादल छाए रहे तो सिंचाई न करें । अगर सिंचाई करना ही है तो हल्की सिंचाई करें या थोड़ी मात्रा में ही सिंचाई करें ।
(v) कभी-कभी रोग सिर्फ एक या दो जगह पर दिखलाई पड़ता है । अगर ऐसा हो तो तुरन्त ग्रसित पौधों को उखाड़कर किसी गड्ढे में गाड़ दें ।
(vi) अगर कोई ग्रसित आलू खेत में बो दिया गया है और वह पानी लगाते समय मिट्टी से बाहर निकल जाता है तो उसमें रोग फैलने की संभावना अधिक रहती है । इसलिए मेड़ ऊंची व मोटी बनायें, ताकि आलू बाहर न निकले । मोटी व ऊंची मेड़ बनाने से एक फायदा और होता है कि रोग के जीवाणु आलूओं को जल्द प्रभावित नहीं कर पाते हैं ।
(vii) पिछेती झुलसा प्रतिरोधी किस्मों का चयन:
कुफरी बादशाह, कुफरी ज्योति, कुफरी सतलज, कुफरी आनन्द, कुफरी गिरिराज, कुफरी मेघा, कुफरी कंचन, कुफरी थनामलाई, कुफरी नवतल, कुफरी कुन्दन (हाइब्रीड) ।
(viii) पिछेती झुलसा का प्रभाव 80 प्रतिशत से अधिक होने पर तने काट दें ।
(ix) नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें ।
(x) मेंड़े उँची-उँची बनाएँ ताकि बीज कन्द मिट्टी से पूरी तरह ढक जाय ।
(xi) गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें । ऐसा करने से मिट्टी के भीतर रोगकारक के जीवाणु सूर्य के तेज धूप से मर जाता है ।
(xii) मेंडों पर उग आई घास-पात की सफाई समय-समय पर करते रहें ।
(xiii) भंडारण से पूर्व कटे हुए व चोट लगे हुए कंद को छाँट दें ।
(xiv) रासायनियक नियंत्रण:
अनेक फफूँदनाशकों का परिक्षण किया गया है । उनमें से कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (50 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰), मेंकोजेब (75 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰) क्लोरोथालोमिल (75 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰) पिछेती झुलसा रोग पर नियंत्रण पाने के लिए प्रभावी पाये गये थे । लेकिन ये समस्त फफूँदनाशक संरक्षी (प्रोटेक्टेंट) हैं ।
अत: इनका प्रयोग रोग आगमन से पूर्व करना चाहिए । इसके अतिरिक्त ये फफूंदनाशक वर्षा के जल से घुलकर बह जाते हैं । फफूंदनाशक के जल से धुल कर बह न जाय इसलिए नए फफूँदनाशकों में से मोटालेक्सिल (35 प्रतिशत डब्लू॰ एस॰ अधिक प्रभावी है । यह (सिस्टेमिक) अन्तरप्रवाही प्रकृति का है और खेत में प्रयोग करने के 2 घंटे के भीतर ही पौधों द्वारा आत्मसात या सोख लिया जाता है ।
ज्योंही पिछेती झुलसा आगमन व अनुकुल अवस्थाएं नजर आएं तोप्रोपिनेव (75 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰) या मेंकोजब (75 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰) का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें । इसके उपरान्त भी अगर मौसम में तबदीली न आए और रोग का प्रकोप बढ़ना शुरू कर दें तो मेटालेक्सल 8 प्रतिशत + मेंकोजेब 64 प्रतिशत जैसे रिडोमिल (एम जेड 72) या मेटको आदि (2.5 ग्राम/लीटर पानी) का छिड़काव करें ।
किसी भी फफूँदनाशक का प्रयोग करते समय टीपोल ( 1 मि०ली०/लीटर पानी) जैसे चिपकाने वाले पदार्थ को फफूँदनाशक घोल में मिलाना न भूलें । फसल पर 5 प्रतिशत तक रोग फैलने पर उपरोक्त फफूँदनाशकों का पुन: छिड़काव करें ।
बाद में यदि मौसम अनुकुल हो तो प्रत्येक 7–10 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार मेंकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू॰ पी॰ (2.5 ग्राम/लीटर पानी) का छिड़काव करें । ध्यान रखे कि रोग से प्रभावित हिस्से पर दवा का छिड़काव सही ढंग से हुआ हो ।
सावधानी:
यह रोग पत्तियों की निचली सतह से फैलती है । अतः छिड़काव इस प्रकार करें कि पत्तियों की निचली सतह अवश्य भींग जाये ।
2. काली रूसी/काली खुरण्ड/कामन स्कैब (ब्लैक स्कार्फ):
यह रोग आलू के कन्दो पर लगता है और देश के सभी मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है । उत्तर प्रदेश के फरूखाबाद क्षेत्रों में इसका अधिक प्रकोप होता है ।
कारक:
यह रोग रहीजोकटोनिया सोलेनाई नामक फफूँद द्वारा होता है ।
पहचान:
इस रोग की सबसे आसान पहचान यह है कि इससे ग्रसित आलूओं के कन्दों के उपर काली खुरदरी परत दिखाई पड़ती है । इन खुरदरी परतो को धोकर साफ नहीं किया जा सकता, अंगुठे से थोड़ा रगड़ने पर छुट जाता है अत: किसान इसे मिट्टी ही समझते हैं ।
इस बिमारी में कभी-कभी तना गलने लगता है जो जमीन के पास से ही तना गलकर गिर जाता है । कामन स्कैब से आलू के कन्दों पर हल्के काले उभरे या दब हुए व गहरे गड्ढे बन जाते हैं । इन रोगों से ग्रसित आलू की कीमत बाजार में बहुत कम ही जाती है । जिससे काफी आर्थिक होनी होती है । स्कैब बीमारी एक विशेष प्रकार के एक्टिनोमाइसिस से होता है ।
प्रकोप का कारण:
a. रोगग्रस्त कन्द बीज का उपयोग ।
b. पोटाश उर्वरक की कमी ।
समेकित प्रबन्धन:
स्वस्थ्य कन्द बीज का प्रयोग ।
खेत में पोटाश वाली खाद का संतुलित मात्रा में प्रयोग । खेत में हरी खाद अथवा पर्याप्त मात्रा में कम्पोस्ट डालकर ट्राइकोडर्मा (5 कि०ग्रा०/हे०) का प्रयोग करें ।
3. चकती रोग (फोमा पर्ण धब्बा):
यह एक फफूँद जनित रहा है । फोमा एक्सीगुआ कवक के कारण होने वाले पर्ण धब्बा रोग में पाइयों पर बड़े हल्के अथवा गाढ़े रंग के 1.0 से 2.5 मी०मी० आकार के गोल धब्बे बन जाते है ।
फोमा सारधिना के कारण पत्तियों पर पिन की नोक के आकार के धब्बे बनते है । यह धब्बे अण्डाकार, गोल अथवा अनियमित आकार वाले 4 मिली मीटर तक होते है ।
तीनों (अगेती झुलसा, पिछेती झुलसा एवं फोमा) ही रोग कारक कन्दों को भी ग्रसित करते है तथा भंडारण के दौरान जीवित रहने की क्षमता रखते हैं । रोगी कन्द इन फफँदों के लिए प्राथमिक स्रोत का काम करते है । आमतौर पर ये रोग मध्यम तापमान (17 से 25° से० ग्रे० व अधिक आर्द्रता (75%) होने पर फैलते हैं ।
समेकित प्रबन्धन:
अगेती झूलसा रोग की तरह प्रबन्धन करें ।
4. चारकोल रॉट (काला गलन):
यह रोग मेक्रोफोमीना फेसियोली नामक फफूँद से उत्पन्न होता है । इसका फफूँद मिट्टी में पाया जाता है । इस बीमारी का आक्रमण उन आलूओं पर ज्यादा होता है जो मार्च-अप्रेल में खाद जाते हैं । मिट्टी का तापमान 280 से०ग्रे० से अधिक होने पर इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है ।
लक्षण:
तना का सतह राख रंग का हो जाता है । कंद से सटे तना का भाग काला हो जाता है । जड़ का रंग भूरा होकर सड़ जाता है । उसके बाद यह बीमारी कन्दों को ग्रसित करता है और धीरे-धीरे पूरे आलू को सड़ा देता है । यह रोग सिर्फ कन्दों में लगता है ।
समेकित निंयत्रण:
फसल को जल्दी खोदकर निकाल लेना चाहिए । अगर किसी कारणवस फसल को देर से खोदना पड़े तो खेत में जल्दी सिंचाई कर दें ताकि मिट्टी का तापमान बढ़ने न पायें ।
5. गॉठ रोग (वार्ट रोग):
यह रोग सइनचूट्रीयम इण्डोवायोटिकम नामक फफूँद से होता है । इस रोग में कंद, तना एवं नयी शाखाओं पर गाँठ बन जाता है । कभी-कभी पूरा कंद ही विकृति आकृति का दिखता है ।
समेकित नियंत्रण:
गाँठ से प्रभावित कन्द की बुआई नहीं करना चाहिए । गाँठ प्रतिरोधक प्रजाति को लगाना चाहिए ।
6. शाकाणू जनित रोग (बैक्टरीयल वील्ड एवं भूरा गलन):
देश के विभिन्न क्षेत्रों में भूरा गलन रोग अत्यन्त विनाशकारी रूप में फसल को क्षति पहुँचाता है। बिहार एवं उत्तर प्रदेश में भी इस रोग का प्रकोप अधिक होता है । यह रोग आलू की फसल के साथ-साथ टमाटर, मिर्च, बैगन, अदरक, जूट, कपास, मूँगफली, तिल, अरण्डी, बाखला, अजवाइन, जीरा आदि फसलों पर भी पाया जाता है । कर्नाटक में यह रोग पैदा के साथ-साथ अजरेटम नामक खरपतवारों पर भी पनपता है ।
कारक:
यह रोग स्यूडोमोनस सोलनेसीयरम नामक शाकाणु बैक्टिरीया से उत्पन्न होता है ।
पहचान:
इस रोग से आलू की फसल जमीन के उपरी भाग में पौधों के मुरझाने से तथा भीतरी भाग में आलू कंदों के सड़ने से प्रभावित होती है । अधिक नमी (70 – 100 प्रतिशत आर्द्रता) व तापमान (26 – 38° से०ग्रे०) और सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में रोगी पौधों का जमीन से उपर का भाग मुरझा जाता है या शिथिल हो जाता है ।
परन्तु शाम के समय तापमान कम होने पर कुछ रोगी पौधे न्यूनतम संक्रमण की वजह से स्वस्थ दिखाई देने लगते है । पुराना पौधों में रोग के अधिक संक्रमण दबाब से पौधों की निचली पत्तियां हमेशा के लिए पीली पड़ जाती है और धीर-धीरे सुखने लगती है । बाद में सभी रोगी पौधे सुखकर जमीन पर गिर जाते है ।
यदि शाकाणु के अधिक दबाब के समय वातावरण में नमी व गर्मी बढ़ जाय तो खेत में बीमारी का प्रकोप बहुत अधिक बढ़ जाता है । जमीन के अन्दर आलू कन्दों का भी सड़ना शुरू हो जाता है । यदि रोगग्रस्त मुरझाये हुए पौधों के कन्दों को काटकर देखा जाय तो शाकाणु (बैक्टिरिया) संक्रमण से वाहिनी उत्तकों का भूरे रंग का वृत से चिपचिपी भूरे रंग की दुर्गन्ध युक्त चमकीली बून्दे निकलती है । रोगी कन्दों के औखुओं व बाह्य शिरों पर भी शाकाणुयुक्त चमकीला पदार्थ निकलता है ।
खेत में रोगी पौधों के तना और जड़ें भी सड़ जाती है । वातावरण का तापमान (28° से०ग्रे० से अधिक) होने पर यदि खत से आलू उचित समय पर न निकाला जाय तो आलू अधिक मात्रा में सड़ जाते हैं । यद्यपि रोगी पौधों के सभी आलू संक्रमित नहीं दिखाई देते परन्तु इस प्रकार के कन्द गुप्त संक्रमण लिए होते है और दूसरी जगह जब इन कन्दों को लगाया जाता है तो उचित नमी (70 – 100 प्रतिशत आर्द्रता) व तापमान (28 – 30 से०ग्रे०) की उपस्थिति में बीमार पौधों को जन्म देते है ।
आलू के गलने-सड़ने के अलावा शाकाणु पौधों की अल्पायु से ही उनकी पत्तियों एवं तनों में संक्रमण करते है जिनके प्रभाव से पौधे अपनी शिशु अवस्था में अथवा आलू कन्दों के बनने से पूर्व ही मुरझाने लगते है, इसलिए इस रोग को ”बैक्टीरियल विल्ट” कहते है ।
पौधों के मुरझाने के साथ-साथ आलू कन्दों में बाहरी सतहो का रंग शाकाणुओं के संक्रमण से भूरा हो जाता है तथा भण्डार में भी उचित तापमान मिलने पर आलू सड़ या गल जाते है इसलिए इस आलू का भूरा गलन या ब्राउन रॉट कहते है ।
लक्षण:
शाकाणु द्वारा जनित इस रोग के शुरू में पौधों की उपरी पत्तियां तेज धुप में थोड़ी देर के लिए मुरझा जाती है । बाद में पूरी पत्तियां बुरी तरह मुरझा कर नष्ट हो जाती है । रोग की विकसित अवस्था में यदि ग्रसित पोधों के तने को निचली ओर से तिरछा काटकर दबाया जाये तो कटे स्थान से मटमैले सफेद रंग के शाकाणु पुंज का स्राव होता है । कंदों में दो प्रकार के लक्षण दिखाई पड़ते हैं । एक वाहिय गलन, दूसरा धंसी हुई आंखे ।
शाकाणु एवं फफूँद मुरझान रोग कैसे पहचाने:
आलू के पौधों का मुरझाना केवल शाकाणु के संक्रमण से ही नहीं वल्कि कुछ फफूँद जैसे राजनेक्टोनिया या वर्टीसिलियम आदि के संक्रमण से भी होता है । इसलिए किसानों को दोनों प्रकार की मुरझान को पहचानने में काफी परेशानी होती है । पौधों में शाकाणु मुरझान की पहचान के लिए मुरझाये हुए आलू के पौधों के तने का 8 से 10 सें०मी० लम्बा टुकड़ा लेकर साफ पानी से भरे शीशे की ग्लास में ठीक बीच में लटकाना चाहिए ।
लटकने के 5 मिनट के बाद तने के निचले सिरे से सफेद रंग का धागे की तरह का शाकाणु स्राव निकलता दिखाई देता है जबकि फफूँद द्वारा मुरझाये गये पौधों के तने से कोई स्राव नहीं निकलता है । शाकाणु का स्राव देखते समय ग्लास एकदम नहीं हिलना चाहिए । अन्यथा सफेद भाग पानी में घूल जाएगा ।
पैतृक स्थान से नये स्थान पर रोग कैसे फैलती है:
एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोग फैलने के प्रमुख माध्यम पूरी तरह से रोगी आलू, गुप्त शाकाणु संक्रमित आलू मिट्टी में रोगी पौधों के अवशेष तथा रोगी खरपतवारों व उनके अवशेषों को ही माना जाता है । फसल की उपस्थिति में रोग के शाकाणु भूमि की उपरी सतह पर 30 सें०मी० तक गहराई में पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं परन्तु फसल की अनुपस्थिति में कम हो जाते है । फिर भी रोग के शाकाणु क्षारीय या अम्लीय दोनों प्रकार की मिट्टी में सोलेनेसी कुल की फसल उगाये बिना ढाई वर्ष तक जीवित रह सकते हैं ।
परन्तु किसान जब दो वर्ष के बाद बीमारी फसल के पैतृक खत में आलू की खेती करते हैं तो अनुकुल नमी व तापमान के मिलने पर भी शाकाणुओं के संक्रमण से पौधे मुरझाने की संख्या बहुत कम रहती है । परन्तु जब इस शाकाणुयुक्त मिट्टी से उत्पन्न आलू की प्रारम्भिक गुप्त संक्रमित उपज को किसान स्वस्थ बीज आलू समझकर बाजार से खरीद कर दूसरे रोग रहित क्षेत्र में ले जाकर बुआई करता है तो उपयुक्त नमी एवं तापमान मिलने पर शाकाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी होती है और पौधों में शाकाणु संक्रमण दबाव की वजह से अधिक मात्रा में आलू के पौधे अपनी शिशु अवस्था में ही रोग के शिकार हो जाते है ।
रोग के शाकाणु एक वर्ष से दूसरे वर्ष या आलू की एक फसल से दूसरी फसल तक कम या अधिक मात्रा में भूमि के अन्दर जीवित रहते हैं । वर्षा व सिंचाई के जल के माध्यम से भी रोगी मिट्टी के शाकाणु एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँच जाते हैं । इस प्रकार रोग रहित मिट्टी संक्रमित हो जाती है ।
संक्रमित खेत में आलू की फसल को निराई-गुड़ाई करते समय पौधों की छोटी व बड़ी जड़ों के टूटने से उनपर घाव हो जाते है और ये घाव शाकाणु को पौधों में संक्रमण फैलाने में मदद करते है जिससे खत में बीमारी का दबाव बढ़ जाता है ।
रोग का प्रसार:
वर्षा व सिंचाई का जल, संक्रमित बीज, कन्द व संक्रमित भूमि ।
प्रकोप का कारण:
1. संक्रमित बीज कन्द व संक्रमित भूमि ।
2. परपीबी फसलें जैसे सोलेनेसी कुल के टमाटर, बैगन, मिर्च आदि फसलों का प्रयोग फसल-चक्र के रूप में करना ।
3. आलू को ज्यादा गर्मी में उखाड़ना ।
समेकित प्रबन्धन:
अभी तक इस बीमारी के नियंत्रण के लिए रोग रोधी आलू की किस्म और उपयुक्त रासायनिक उपचार प्राप्त नहीं ही पाया हैं. फिर भी यदि निम्नलिखित आसान उपायों का खेती करते समय लगातार अपनाया जाय तो फसल को रोग से बचाने में संतोषजनक परिणाम मिलते हैं ।
(i) जिन खेतों में यह बीमारी साल दर साल आती है तो उन खेतों में कम से कम तीन वर्ष तक आलू की फसल नहीं लेनी चहिए बल्कि गेहूँ, जौ, मक्का, गन्ना आदि फसल लगाना चाहिए ।
(ii) यह रोग आलू को ज्यादा गर्मी में उखाड़ने से होता है इसलिए आलू को ज्यादा गर्मी पड़ने के पहले अधिक से अधिक 15 मार्च तक अवश्य उखाड़ लेना चाहिए ।
(iii) जब किसी खेत में यह बीमारी पहली बार दिखाई देता है तो बीमार जगह की मिडी को 1.5 से 2.0 मीटर के घेरे में 30 – 45 से०मी० की गहराई तक एक प्रतिशत फार्मलिन (10 लीटर पानी में 0.1 लीटर फार्मलिन) या 0.5 प्रतिशत नीलाथोथा (10 लीटर पानी में 5 ग्राम नीलाथोथा) या 0.1 प्रतिशत स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन) के घोल को मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर मिट्टी को दबा देना चाहिए ।
(iv) आलू का रोग रहित बीज इस्तेमाल करना चाहिए जहाँ तक हो सके ऐसे स्थान से बीज प्राप्त करना चाहिए जहाँ यह रोग किसी सोलेनेसी कुल की फसल (बैगन, मिर्च, टमाटर, तम्बाकू) में न होता हो ।
(v) प्रयोग के आधार पर देखा गया है कि यदि स्वस्थ्य आलू के बीज में एक सें०मी० गहरा चीरा लगाकर उनको 02 प्रतिशत फफूँदनाशक कार्बेन्डाजीम (10 लीटर पानी में 20 ग्राम कार्बेन्डाजीम) व शाकाणुनाशक वीटावैक्स (10 लीटर पानी में 20 ग्राम वीटावैक्स) व फफूँद एवं शाकाणुनाशक 01 प्रतिशत स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (10 लीटर पानी में 10 ग्राम) से आलू को लगाने के 24 घण्टे पहले 30 मिनट तक उपचारित करके बोया जाय तथा साथ ही साथ निम्नलिखित उपायों को भी खेती करने के तरीकों में जोड़ा जाय तो बीमारी 50 – 60 प्रतिशत तक कम हो जाती है ।
(क) आलू का स्वस्थ्य और सम्पूर्ण आकार का बीज प्रयोग करना चाहिए ।
(ख) आलू की बुआई के समय ही 12 कि०ग्रा०/हेक्टेयर की दर से ब्लीचिंग पाउडर नामक दवाई खाद के साथ मिलाकर प्रयोग करना चाहिए ।
(ग) गर्मी के दिनों में रोगी खेतों की गहरी जुताई करके उन्हें खुला छोड़ देना चाहिए ।
(घ) आलू की बुआई के समय 2 कि०ग्रा०/हेक्टेयर की दर से ट्राइकोडर्मा 60 – 70 कि०ग्रा० कम्पोस्ट में मिलाकर खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मीला देना चाहिए ।
(vi) रोगी पौधों व आलू कन्दों को खेत से बाहर निकालकर किसी उचित जगह पर जला देना चाहिए तथा उस स्थान पर ब्लीचिंग पाउडर का घोल डालना चाहिए जहाँ से पौधा निकाला गया हो ।
(vii) फसल की खुदाई के बाद इस बीमारी के शाकाणु कुछ खरपतवारों जैसे गेंदा, अजरेटस आदि पर पनपते हैं । इसलिए ऐसे पौधों को भी खेत से निकालकार जला देना चाहिए ।
(viii) जहाँ तक सम्भव हो सके आलू के बीज को काटे नहीं बल्कि संपूर्ण कन्द बीज का ही प्रयोग करें।
7. विषाणु जनित रोग:
आलू की उपज में कमी नन्हे विषाणुओं द्वारा होती है । यह बीज द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँच जाता है । आलू में लगभग तीस विषाणुओं का संक्रमण होता है, परन्तु भारत में करीब 12 विषाणुओं का ही प्रकोप पाया गया है । इनमें कुछ ही अधिक महत्वपूर्ण है । हमारे देश के मैदानी इलाकों में लक्षणों के आधार पर आलू के विषाणु रोगों को निम्न भागों में बांटा गया है ।
(i) पत्ती मोड़क (मोजेक रोग):
यह रोग प्राय: माहु द्वारा फैलता है तथा आर्थिक रूप से अत्यधिक नुकसानदायक होता है । इस रोग का संक्रमण छुत द्वारा नहीं होता है ।
लक्षण:
कई तरह के लक्षण इस रोग में पत्तियों पर देखने को मिलते हैं जैसे पत्तियों का छोटा होना इन पर हरी-पीली चित्तियां बन जाना छोटे रहना आदि लक्षण होते है । पत्ती मोड़क में सबसे पहले उपर की पत्तियां मुड़ने लगती है जो किनारे से उपर की तरफ मुड़ती है ।
पत्तियां मोटी हो जाती है एवं पौधे की बढ़वार रूक जाती है । कभी-कभी पत्तियों का किनारा गुलाबी या बादामी रंग का हो जाता है । इन पत्तियों को हिलाने से खड़-खड़ की आवाज होती है । रोगी पौधों का रंग हल्का पीला होता है । पत्ती मोड़क रोग से आलू की पैदावार में लगभग 20 – 25 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है ।
(ii) उग्र चित्ती-गम्भीर चित्ती (PVY):
इस रोग का कारण विषाणु वाई (Y) है । यह प्राय: सभी जगह पाया जाता है । इस रोग का संक्रमण बीज कन्द छुआछुत और माहु द्वारा होता है । यही कारण है कि यह रोग सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है ।
लक्षण:
इस रोग के प्रमुख लक्षण पत्तियों पर हल्की या गहरी पीली चित्तियों का पाया जाना है । सुख मौसम में पत्तियों की नसें काली हो जाती है और काला गलन पत्तियों से तनों पर भी पहुँच जाता है । बाद में पत्तियां सुखकर लटक जाती है । रोगी पौधों से उपज 40 – 80 प्रतिशत तक कम हो जाती है ।
इस रोग का विषाणु अन्य सब्जियों जैसे मिर्च टमाटर बैगन आदि को भी संक्रमित करता है । अत: यदि आलू की फसल के पास ही उर्पयुक्त सब्जियों की फसल भी खड़ी हो तो इनसे भी विषाणु वाई का प्रसार माहुओं द्वारा आलू की फसल में हो सकता है ।
(iii) मृदु चित्ती (झुर्रीदार चित्ती):
आलू का यह रोग दो विषाणुओं वाई और एक्स के एक साथ संक्रमण से होता है । उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में ऐसे रोगी पौधे आलू की फसल में प्राय: नजर आते हैं ।
लक्षण:
रोगी पौधे छोटे होते है । इनकी पत्तियों पर गहरी-पीली चित्तियां बन जाती है और वे झुर्रीदार नजर आती है । रोग ग्रसित पौधों में आलू या तो बनते नहीं है । यदि बनते भी है तो बहुत कम व छोटे होते है । इस रोग का संक्रमण बीज कन्द छुत और माहु द्वारा होता है ।
(iv) आकुंचन चित्ती:
दो विषाणु वाई और ए मिलकर आकुंचन चित्ती रोग उत्पन्न करते है । ये दोनों विषाणु भी कंद छुत और माहु द्वारा फैलते है । इस रोग का प्रकोप झुर्रीदार चित्ती रहा की तुलना में कम होता है ।
लक्षण:
रोगी पौधे छोटे और उनकी पत्तियाँ अंकुचित (टेडी-मेढ़ी) होती है । कभी-कभी पत्तियों पर काले धब्बे भी बनते हैं । खेत में रोगी पौधे दूर से ही पहचान जा सकते हैं । यह रोग उन्ही जगहों पर अधिक पाया जाता है, जहाँ आलू की पुरानी किस्में उगायी जाती है ।
(v) अति मंद चित्ती:
विषाणु एक्स या एस आलू के मंद चित्ती रोग के कारण होते है । यह रोग अति संक्रामक होता है । इन विषाणुओं के अकेले संक्रमण से आलू की उपज पर ज्यादा असर नहीं होता है परन्तु इसके साथ यदि अन्य विषाणु ए या वाई का सामुहिक संक्रमण हो जाय तो उपज अधिक प्रभावित हो जाती है ।
लक्षण:
इन विषाणुओं के संक्रमण से प्राय: पौधे स्वस्थ्य ही नजर आते है परन्तु कभी-कभी कई सालों के संक्रमण से और अनुकुल मौसम मिलने पर बहुत हल्के धब्बे पत्तियों पर नजर आ जाते है ।
8. मंद चित्ती:
यह रोग विषाणु ‘ए’ के कारण होता है ।
लक्षण:
रोगी पौधों की पत्तियों पर हल्की पीली चित्तियां दिखाई देती है । कभी-कभी इन चित्तियों पर काले छोटे-छोटे धब्बे भी बनते हैं । इस रोग का संक्रमण भी कंद, छुत और माहु द्वारा होता है । इस रोग से आलू की उपज में लगभग 10-25 प्रतिशत तक की कमी आती है ।
अक्यूवा चित्ती:
विषाणु ‘जी’ के कारण आलू में अक्यूवा चित्ती रोग लगता है । यह रोग मैदानी क्षेत्रों में लगायी जाने वाली पुरानी किस्मों में पाया जाता है ।
लक्षण:
रोगी पौधों की निचली पत्तियों में पीले धब्बे नजर आते हैं । सुखे मौसम में इन धब्बों का आकार छोटा होता है. परन्तु जब तापक्रम कम हो और आर्द्रता अधिक हो तो ये धब्बे पूरी पत्तियों पर नजर आते हैं । रोग का संक्रमण मुख्यतः रोगी कंदों द्वारा ही होता है ।
समेकित प्रबन्धन:
1. स्वस्थ्य एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग ।
2. रोगी पौधों का निष्कासन:
आलू की फसल से विषाणु ग्रसित पौधों की दो तीन बार निरीक्षण करके निकालना अत्यन्त आवश्यक होता है, क्योंकि बाद में इन्ही रोगी पौधों द्वारा विषाणुओं का संक्रमण छूत या माहूओं द्वारा स्वस्थ्य पौधों पर फैलता है ।
पहला निष्कासन बुआई के 45 दिन बाद और दुसरा 60 दिन बाद करना चाहिए । रोगी पौधों को निकालते समय, बीजू आलू व नये बने आलू को निकालना कदापि न भूलें । निष्कासित पौधे खेत में न छोड़कर बल्कि अन्य किसी गड्ढे में दबा दें । निष्कासन के दौरान स्वस्थ्य पौधे को न छुए ।
3. कीटनाशक का प्रयोग:
चूंकि आलू के विशाणु रोग माहु द्वारा फैलता है । अत: फसल में जब माहु का प्रकोप दिखाई पड़े तो डाइमेथोएट (30 ई०सी०) 2 मि०ली० या इमेडाक्लोप्रीड (17.8 एस०एल०) 0.25 मि०ली० या ऐसीटामिप्रीड (20 एस०पी०) 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों में छिड़काव करना चाहिए ।
4. तीसरे या चौथे साल अपने आलू बीज को बदल देना चाहिए ।
आलू को बचाएं हरापन से:
आलू जब सूर्य के प्रकाश के सम्पर्क में आता है तो कंद में पर्णहरित बनता है और इसी के साथ हानिकारक एल्केलायड जैसे सोलेनीन और चीकोनीन का संश्लेषण हो जाता है । ये एल्केलायड मनुष्य के लिए बहुत ही हानिकारक है । ज्यादा हरा आलू खाने से कैन्सर जैसी घातक बीमारियां होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।
प्रबन्धन:
यदि कोई आलू का कन्द जमीन के उपर दिखाई दे तो उसे मिट्टी से तुरंत ढक दें । खुदाई के बाद भी यदि आलू का कंद प्रकाश के सम्पर्क में आएगा तब भी कंद में हरापन आ जाएगा, इसलिए आलू के भंडारण में भी सूर्य की रोशनी कदापि नहीं पड़ना चाहिए ।
भंडारण के पूर्व कन्द बीज का उपचार:
2.5 प्रतिशत बोरिक अस्ल घोल (2.5 ग्राम बोरिक अम्ल/लीटर पानी) में 10 – 15 मिनट तक कंदों को डुबोकर उपचारित कर लेना चाहिए । उसके बाद कदा को छायादार स्थान में सुखाने के लिए फैला देना चाहिए । उपचार के समय वातावरण का तापमान (30–32° सें॰ग्रे॰) अधिक गर्म न हो । इस प्रकार उपचारित कंद सीर्फ बीज के लिए उपयोग में लाना चाहिए ।