गन्ना के रोगों को कैसे नियंत्रित करें? | Read this article in Hindi to learn about how to control diseases of sugarcane.

भारत में दूसरे देशों की अपेक्षा गन्ने की प्रति इकाई पैदावार बहुत कम है । पैदावार की कमी के कई कारण हैं । इन कारणों में गन्ने की फसल में लगने वाली बीमारियाँ मुख्य है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये बीमारियाँ रोगी बीज गन्ना द्वारा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैल जाती हैं ।

देश में बीज गन्ने को एक स्थान से दूसरे स्थान तक या एक से दूसरे प्रदेश में ले जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है । इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों के बीच संगरोध की उचित व्यवस्था भी नहीं है इसलिए किसानों की नवीनतम् प्रजातियों की बढती माँग के साथ-साथ बीमारियों को भी नये प्रक्षेत्रों में प्रवेश मिल जाता है ।

संकर प्रजातियों के बढते उपयोग, सिंचाई की पर्याप्त सुविधा व उर्वरकों के अधिक उपयोग और फसल दर फसल, रोगी बीज लेते रहने से गन्ने में बीमारियाँ बढ रही है अच्छी उपज एवं प्रचुर मात्रा में चीनी पैदावार करने वाली अनेक प्रजातियां जैसे को. 213, को. 312, को. 360, को. 419, को. 453, को. 997, को. 1148, को. 1158, को. 510, को. शा. 767, बी.ओ. 17, बी.ओ. 54, को.ज. 64, को.ज. 82 और को. क. 671 को इन रोगों के कारण अधिक समय तक उगाया नहीं जा सका और बोना बंद करना पड़ा ।

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पिछले दशक में किए गये एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में प्रतिवर्ष रोगों से गन्ने की औसत उपज में लगभग 19-20 प्रतिशत और चीनी के परते (शुगर रिकवरी) में लगभग 2-3 प्रतिशत की कमी आई है । गन्ने में लगभग 60 प्रकार की बीमारियाँ लगती हैं, परंतु ये सारे रोग आर्थिक रूप से समान हानि नहीं पहुँचाते हैं । कुछ रोग अत्यधिक और कुछ कम हानि करते हैं । इसलिए सुविधा के लिए गन्ने की फसल में लगने वाले रोगों को आर्थिक नुकसान के आधार पर दो भागों में बाट सकते हैं ।

पहला बीजजनित या अधिक महत्वपूर्ण रोग- जैसे फफूँदी जनित लाल सडन, उकठा, कंडुवा, फाइटोप्लामा जनित-घासीय प्ररोह और शाकाणु जनित पडी कुंठन व पर्णदाह और विषाणु जनित मोजेक मुख्य हैं, दूसरा-रूम महत्वपूर्ण रोग या अन्य जैसे पोरी विगलन रोग, पत्तियों में फफूँदी या शाकाणु जनित पत्तियों के धब्बे रोग, किट्‌ट रोग, जड गलन, निमेटोड आदि ।

इन बीमारियों से गन्ने की फसल को कम हानि होती है । गन्ने की मुख्य बीमारियाँ ज्यादातर बीज जनित होती हैं और रोगग्रस्त बीज गन्ने द्वारा स्थानान्तरित होती रहती है । बीज जनित होने के कारण इन रोगों का सीधा प्रभाव अंकुरण पर पडता है, स्वस्थ किल्ले मर जाते हैं और जमाव कम हो जाता है ।

रोगी गन्ने सड कर सुख जाते हैं और खेत में गन्नों की संख्या कम हो जाती है । इसका सीधा प्रभाव गन्ने की उपज पर पडता है और किसान की आय में कमी आ जाती है । इन रोगों के लगने के कारण, गन्ने का रस सडकर दूषित हो जाता है और चीनी की परता में कमी आ जाती है । इससे मिल मालिकों को आर्थिक रूप से हानि उठानी पडती है । पत्तियों के मोजेक या धब्बे आदि रोग लगने से पत्तियों में पर्णहरित (क्लोरोफिल) की मात्रा घट जाती है, जिससे गन्ने में चीनी का जमाव कम होता है ।

1. लाल सडन रोग (रेड रॉट) (Red Rot Disease):

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गन्ने में बीज जनित रोगों में लाल सडन जिसे कहते हैं, एक प्राचीन व असाध्य रोग है । सर्वप्रथम एक वैज्ञानिक ‘वेन्ट’ ने 1893 में की थी । अब यह में पाया जाता है भारत में इस रोग को डा. बारबर ने प्रथम बार रेड मारीशस प्रजाति में गोदावरी डेल्टा (आन्ध्र प्रदेश) में देखा था ।

इसके बाद डा. बटलर ने इसका गहन अध्ययन किया और इस रोग को लाल सडन (रेड रॉट) की संज्ञा दी । पश्चिम बंगाल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और उडीसा में इस रोग से गन्ने को अधिक हानि होती है । उतरी बिहार और पूर्वी उतर प्रदेश में इस रोग का प्रकोप महामारी के रूप में होता है ।

तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक प्रान्तों में लाल सडन का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है । उतर प्रदेश में 1935-36 में लाल सडन महामारी के रूप में उभरा था । को. 213, को. 312, को. 360, को. 419, को. 453, को. 8612, बी.ओ. 11, बी.ओ. 17, बी.ओ. 54 को.शा. 510, को.शा. 639 और को.क. 671 प्रजातियों की 1939-40, 1946-47, 1994-95 व 1998-99 में इस महामारी के कारण प्राई बन्द करनी पडी थी ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

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(i) प्रजातियों का चयन:

रोग प्रतिरोधी प्रजातियों को अधिक से अधिक बुआई के लिए उपयोग करना चाहिए । अगर इन प्रजातियों का बीज उष्पोपचमरित एवं प्रमाणित पौधशालाओं से लिया जाये तो बहुत अच्छा रहता है । आजकल जो भी नवीन प्रजातियां बुआई के लिए संस्तुति की जाती है उनमें लाल सडन रोग विरुद्ध सहनशीलता का होना अनिवार्य कर दिया गया है ।

(ii) बीज का ऊष्मोपचार:

बीज गन्ना को 54 से. तापमान पर ढाई घंटे का नम गर्म वायु उपचार या फिर 50 से. पर घंटे गर्म पानी का उपचार देने से बीज सतह पर पडे रोगाणु कारक मर जाते हैं । ऊष्मोपचार के बाद फफूंदीनाशक दवाई बावस्टिन के 0.2 प्रतिशत घोल में बीज को फसल में इस रोग का प्रकोप भी कम होता है ।

(iii) रासायनिक उपचार:

अभी तक किसी उपयुक्त रसायन की खोज संभव नहीं हो पाई है । इसके दो कारण हो सकते हैं । पहला शायद पफूंदीनाशक रसायन समुचित सान्द्रता में गन्ने में प्रवेश करते भी हैं तो गन्ने के अंदर पहुँचते ही तुरंत उनका कार्बान्डिजिम विघटन आरंभ हो जाता है फिर भी फफूँदीनाशक दवाई जैसे कार्बान्डिजिम के 0.2 प्रतिशत के घोल में गन्ना बीज को उपचारित करके बोने पर इस रोग का आपतन घट जाता है ।

(iv) जैविक उपचार:

‘ट्राइक्रोडर्मा’ एवं अन्य ‘एस्परजिलस’ आदि फफूंदियों से लाल सडन रोगकारक की रोकथाम के प्रयास अभी हाल में भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान में आरंभ किये गये हैं । अभी तक इस रोग को पूर्णरूपेण जैविक विधियों द्वारा नियंत्रण तो नहीं किया जा सका परंतु कुछ परिणाम उत्साहवर्धक है ।

संभवतः रोग सहिष्णु प्रजातियों में इस विधि से रोग को बचाया जा सकेगा । प्रति जीव-प्रतिस्पर्धा रखने वाले जीवाणुओं की संख्या बढाकर इस रोग के प्रकोप को कम किया जा सकता है । उचित फसल चक्र अपनाने पर और हरी खाद का प्रयोग करने से लाल सडन रोग कारक को कम किया जा सकता है ।

गन्ना बोने से पूर्व खेत में धान की फसल 2-3 साल तक लगातार बोने से बीमारी के प्रकोप में कमी आती है, बशर्ते स्वस्थ बीज गन्ने का उपयोग किया जाये । खेत में जल भराव इस रोग को बढावा देता है इसलिए गन्ने के खेत में पानी नहीं भरने देना चाहिए । रोगी बावक फसल की पेडी कभी नहीं लेनी चाहिए ।

2. उकठा रोग (विल्ट) (Wilt Disease):

भारत में सर्वप्रथम इस रोग का प्रकोप वर्ष 1945 में बिहार प्रदेश में देखा गया था । आजकल यह रोग लगभग सभी गन्ना उत्पादक प्रदेशों में पाया जाता है । यह रोग जब लाल सडन या पोरी विगलन रोगों के साथ अथवा गन्ना बेधक या शल्क कीट के साथ लगता है तो महामारी का रूप धारण कर लेता है और कभी-कभी तो इस बीमारी के कारण खेत का पूरा-पूरा गन्ना सूख जाता है ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

(i) सस्य विधियाँ:

रोगरहित एवं स्वस्थ गन्ना बीज, प्रमाणित पौधशाला से लेकर बोने से रोग का द्वितीय संक्रमण फैलने की संभावना नगण्य हो जाती है । रोगी बावक फसल की पेडी नहीं रखनी चाहिए । फसल कटने के उपरांत खरपतवारों को खेत में ही पलटकर नष्ट कर देने और गहरी जुताई करने से रोगजनकों का कुप्रभाव फसल पर कम हो जाता है । शरदकालीन गन्ने के साथ राई या धनिया की सह फसल लेने से भी इस रोग का प्रभाव काफी कम हो जाता है ।

(ii) ऊष्मोपचार:

यदि बीज गन्ना प्रमाणित पौधशाला है तो बुआई से पहले बीज गन्ने को नम-गर्म वायु (54 से. पर 2.5 घण्टे) या गर्म जल (50 से. पर 2 घण्टे) से उपचारित करके बोने से इस रोग के संक्रमण में कमी आती है ।

(iii) रासायनिक उपचार:

सादे या गर्म पानी में कवकनाशी दवायें जैसे थाईरम, बेनोमिल, बैवस्टीन के 0.20 प्रतिशत घोल से उपचारित करने से बीज गन्ने में उपस्थित कवक काफी सीमा तक नष्ट हो जाता है । इन फफूँदीनाशक दवाओं को गर्म पानी मिलाकर उपचार करने से प्रभाव अधिक होता है ।

3. कंडुआ (स्मट) (Smut Disease):

भारत में गन्ने का कंडुआ रोग सर्वप्रथम सन् 1906 में बिहार प्रदेश में एक महामारी के रूप में दिखलाई पड़ा था परंतु आजकल यह रोग लगभग प्रत्येक गन्ना उत्पादक प्रदेश में फैल गया है । उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान राज्यों में इस रोग का प्रकोप कम होता है जबकि महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा मध्य प्रदेश आदि राज्यों में इस का प्रकोप अधिक होता है यह रोग अक्सर प्रचलित प्रजातियां जैसे को. 419, को. 740, को. 975, को 1158, को. 419, को. शा. 510, को. लक. 7901 में उग्र रूप से फैलता है ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

(i) प्रजातियों का चयन:

रोग के नियंत्रण का सबसे उत्तम उपाय रोगरोधी जातियों का प्रचलन है । प्रायः यह देखा गया आंखों में शल्क पत्तियाँ चिपकी होती है वे प्रायः रोगरोधी होती हैं । अतः किसानों में गन्ने की ऐसी ही जातियों का प्रचलन बढाना चाहिए ।

(ii) स्वस्थ बीज का उपयोग:

बोने के लिये स्वस्थ गन्ने से ही बीज चुनना चाहिए । बीज के लिये गन्ने स्वस्थ एवं ऐसे खेत से लेने चाहिए । जहां पर आस-पास की फसल में भी कंडुआ रोग न हो ।

(iii) ऊष्पोपचार:

रोगग्रस्त पौधों को गर्म पानी या नम गर्म वायु द्वारा उपचारित करने से गन्ने की आंख की शल्क पत्तियों में उपस्थित बीजाणु नष्ट हो जाते हैं । परंतु जब इस रोग का संक्रमण आंखों के ऊतकों में होता है तब इस विधि से नियंत्रण शत-प्रतिशत नहीं हो पाता है । रोगग्रस्त पौधों को नम-गर्म वायु शोधक यंत्र द्वारा (54 से. पर 2.5 घंटे) उपचारित करके बोने से रोग रहित फसल पैदा की जा सकती है ।

(iv) सघन निरीक्षण एवं ‘रोमिंग’:

पूर्ण फसलकाल में गन्ने की फसल का सघन निरीक्षण करते रहना चाहिए और प्रारंभ से ही रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना या मिट्टी में दबा देना चाहिए । इससे रोग के फैलाव पर काफी नियंत्रण पाया जा सकता है ।

(v) फसल-चक्र:

एक ही खेत में कई बार गन्ने की फसल बीते रहने से रोगजनक का निवेश शीघ्रता से बढता है । अतः संक्रमित खेतों में उचित फसल-चक्र अपनाकर इस रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है । फसल-चक्र में हरी खाद लेना श्रेयस्कर माना गया है क्योंकि ऐसी फसल लेने से मृदा में सूक्ष्मजीवियों की संख्या बढ जाती है जो रोगजनक के फैलाव को कम करते हैं । गन्ने की दो पंक्तियों के बीच अरहर की सहफसली खेती से भी आ रोग के संक्रमण में कमी आती है ।

4. घासीय प्ररोह (ग्रासी शूट) (Grassy Shoot Disease):

भारत में रोग के लक्षण सर्वप्रथम वर्ष 1919 में देखे गये थे । ये लक्षण किल्लों की बहुतायत और पतली पत्तियों में हरीतिमा के ह्रास रूप में दक्षिण भारत में दिखलाई दिये थे । वर्ष 1955 में इस रोग को घासीय प्ररोह का नाम दिया गया । यह रोग प्रायः एल्बिनों, लीफ टफ्ट तथा पत्तियों का पीत रोग आदि नामों से भी जाना जाता है । भारत के अतिरिक्त यह बीमारी दक्षिण एशियाई देशों जैसे श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल में पायी जाती है ।

उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में गन्ने की विभिन्न प्रजातियों में इस रोग को देखा गया है । पुरानी कई प्रजातियां जैसे (को. 313, को. 356, को. 419, को. 740, को. 1081, को. 1149, को. 1191, को. शा. 321, को.शा. 515 बी. ओ. 10 एवं बी. ओ. 70) इस रोग से ग्रस्त होने के कारण ही किसानों के खेतों पर अधिक समय तक नहीं चल पाई ।

नवीनतम प्रजातियों में जैसे को.शा. 95255, को. शा. 96269 और को. ल. 8102 के प्रचलन में भी इस रोग से बाधा आई है क्योंकि इन प्रजातियों में घासीय प्ररोह रोग बहुत शीघ्रता से फैलता है । को. श. 96269 में लगभग 60-70 प्रतिशत बीमारी का प्रकोप देखा गया है ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

(i) बीज गन्ने का उष्मोपचार:

बीज की ताप-शोधन करने से ‘फाइटोप्लाज्मा’ नष्ट हो जाता है और शत्-प्रतिशत इस रोग का नियंत्रण हो जाता है । अतः गन्ने को शोधित करके बोना चाहिए । इसके लिए बीज गन्ने को गर्म पानी (50 से पर 2 घं.) या गर्म-आर्द्र भाप (54 से. पर 2.5 घं.) से उपचारित करना चाहिए । गर्म-आर्द्र भाप शोधित बीज बोने पर पौधों की जडों का विकास अच्छा होता है और पत्तियों में हरीतिमा अधिक होती है ।

(ii) रोगरोधी जातियों का बुआई के लिए उपयोग:

रोगरोधी प्रजातियों को बोना चाहिए । कुछ प्रजातियों में सहनशीलता अधिक होती है और उनमें रोग-सुग्राही की अपेक्षा घासीय प्ररोह का आपतन कम होता है । ऐसी प्रजातियों के प्रचलन से इस रोग का प्रकोप कम होगा । बी.ओ. 91 जाति में यह रोग नहीं दिखाई दिया है अतः इस जाति का रोग-रोधी जातियाँ उत्पन्न करने में उपयोग किया जा सकता है ।

(iii) फसल का निरीक्षण एवं ‘रोमिंग’:

बीज के लिए उगाई गई फसल में मार्च-अप्रैल और अक्तूबर-नवंबर में रोगी पौधे थान सहित उखाड़ कर नष्टकर देना चाहिए । इस प्रकार द्वितीय संक्रमण होने से फसल को बचाया जा सकता है ।

(iv) कीटनाशक दवाओं का छिडकाव:

मार्च-अप्रैल में फुदका नियंत्रण हेतु कीटनाशकों, डाइमेक्रान (0.2 प्रतिशत) का छिडकाव करने से रोग कम फैलता है । जीव प्रतिरोधी रसायन (टेट्रासाइक्लीन 0.001 प्रतिशत) का छिडकाव करने से बीमार पौधे 5-6 महीने तक घासीय प्ररोह से बचे रहते हैं । रोगी गन्ने भी यदि 24 घंटे उक्त रसायन के घोल में भिगोकर बोए जाये तो फसल में बीमारी से बचाव होता है । चूंकि यह रसायन महंगा होता है इसलिए सामान्यतः फसल में छिडकाव की संस्तुति नहीं की जाती है ।

5. पेडी का कुंठन (रैटून स्टंटिंग) (Ratoon Stunting Disease):

वर्ष 1950 में इस रोग को सर्वप्रथम ऑस्ट्रेलिया में देखा गया था । पेडी में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाने से इसके लक्षण स्पष्ट दिखालायी पडते हैं । अतः इसे पेडी का बौना रोग कहा गया है । यद्यपि बावक फसल में भी यह बीमारी पायी जाती है । भारत में प्रथम बार उत्तर प्रदेश में को. 510 प्रजाति में इस बीमारी को देखा गया था ।

इसके पश्चात् इस रोग को को. 738 प्रजाति में देखा गया । उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा में इससे बहुत हानि होती है । कभी-कभी यह रोग दूसरी बीमारियों जैसे लाल सडन, उकठा या मोजेक के साथ आता है तो फसल को अधिक हानि होती है ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

(i) बुआई के लिए रोग-रोधी प्रजातियों को अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए ।

(ii) ऊष्मोपचार इस रोग के नियंत्रण में काफी कारगर पाया गया है । नम-गर्म हवा में 54 से. पर 2.5 घंटे तक उपचारित करने से शाकाणु लगभग नष्ट हो जाते है । गर्म पानी द्वारा भी 50 से. पर 2 घंटे उपचारित करने के बाद भी रोग के शाकाणु नष्ट हो जाते हैं । इसलिए ऊष्मोपचारित गन्ने के टुकडों का बुआई के लिए अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए ।

(iii) बीज गन्ना काटने वाले यंत्रों को बीच-बीच में आग में तपा लेना चाहिए या 0.1 प्रतिशत लाइसोल के घोल में डुबो लेना चाहिए । ऐसा करने से रोग के फैलाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है ।

6. पर्णदाह (लीफ स्केल्ड) (Leaf Scald):

सर्वप्रथम यह बीमारी इन्डोनेशिया और आस्ट्रेलिया देशों में देखी गयी थी । तदुपरांत अन्य 30 देशों में इस बीमारी को देखा गया । आर्थिक दृष्टिकोण से फिजी, इन्डोनेशिया, ताईवान, ब्राजील, क्यूबा और संयुक्त राज्य अमेरिका में यह बीमारी अधिक महत्वपूर्ण है ।

भारत में इस बीमारी को सर्वप्रथम वर्ष 1962 में देखा गया था तथा श्रीनिवासन और राव ने वर्ष 1968 में इस बीमारी का निदान ताप-उपचार से दर्शाया था । प्रजाति को. 419 में यह बीमारी भीषण प्रकोप के रूप में पाई जाती है । कई अन्य प्रजातियां जैसे बी.ओ. 3, बी.ओ. 17, बी.ओ. 24, बी.ओ. 70, को. 975, को. 1148, को. 1158, को. 62399, को.शा. 659, को.लक. 8001 में भी इस बीमारी के उग्र लक्षण प्रगट होते हैं । रोग – सुग्राहिता के अनुसार अनेक प्रजातियों में इस बीमारी के लक्षण कम या अधिक देखे गए हैं ।

नियंत्रण एवं प्रबंधन (Control and Management):

(i) यह रोग, बीमार गन्ने के बोने से बढ़ता और फैलता है इसीलिए प्रतिरिधि प्रजातियों का प्रमाणित स्वस्थ बीज ही बोना चाहिए ।

(ii) ऊष्मोपचार जैसे नम-गर्म वायु भाप (54 से. पर 2.5 घंटे) या गर्म जल भाप (54 से पर 2.5 घंटे) द्वारा उपचारित करने पर बहुत हद तक रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है ।

(iii) पानी निकासी का समुचित प्रबंध होना चाहिए तथा उर्वरकों और खादों का पूरा प्रयोग करना चाहिए ।

(iv) रोगी बीज गन्ने को एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं ले जाना चाहिए और इसके लिए संगरोध लागू कर देना चाहिए ।

7. मोजैक (Mosaic Disease):

विषाणु जनित इस रोग की पहचान में सर्व इयरले नामक वैज्ञानिक ने वर्ष, 1918 में की थी यद्यपि इन्डोनेशिया में इस बीमारी के लक्षण वर्ष 1893 में ही देख लिए गए थे । मोजैक गन्ने की पत्तियों पर लगने वाला रोग है । प्रकोप के दृष्टिकोण से यह रोग प्रथम स्थान पर है जोकि समस्त गन्ना उत्पादक देशों में पाया जाता है । कई देशों (क्यूबा, ब्राजील, पोर्टोरिको व ल्युसियाना) में वर्ष 1916 से 1925 के बीच मोजैक महामारी के रूप में उभरा था ।

यद्यपि वर्तमान समय में मोजैक अवरोधी प्रजातियों के उपलब्ध होने के कारण इस रोग को कम महत्व दिया जाता है । भारत वर्ष में सन 1921 में इस बीमारी को दक्षिणी भारत में डा. बारबर ने देखा था । वहाँ पर जून-अगस्त तक इस रोग की व्यापकता अधिक होती है । अब यह रोग भारत गन्ना उगाने वाले सभी प्रदेशों में पाया जाता है ।

नियंत्रण एवं प्रबन्धन (Control and Management):

(i) रोग-अवरोधी प्रजातियां को बोना चाहिए । ‘सैकरम स्पान्टेनियम’ और ‘से. बारबरी’ के कई क्लोन विषाणु अवरोधी पाए गए हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनेशिया (जावा), क्यूबा, ब्राजील और आस्ट्रेलिया देशों में मोजैक प्रतिरोधी किस्मों के प्रजनन पर महत्वपूर्ण शोधकार्य हुए हैं तथा रोग अवरोधी किस्मों का प्रचलन बढा है ।

(ii) बीज गन्ना का चयन स्वस्थ एवं प्रमाणित फसल से करना चाहिए तथा शुरूआत में रोगी पौधों को खेत से उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए । रोगी पौधों को नष्ट करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में खरतपतवारनाशी रसायनों का भी उपयोग किया जाता है ।

(iii) रोगवाहक एफिड कीट मारने के लिए कीटनाशक दवाइयाँ जेसे डाइमेक्रोन, 0.02 प्रतिशत घोल अथवा मेटासिस्टाक्स, 0.01 प्रतिशत घोल का छिडकाव रोग का फैलाव कम किया जा सकता है । कीटनाशक को 15-20 दिन के अंतराल पर छिडकते रहने से विषाणु फैलते हैं ।

(iv) बीज गन्ने के पेडों को गर्म पानी (52 से. 57.3 से.) में 20 मिनट तक क्रमशः तीन दिन तक उपचारित करने के बाद बोने से इस रोग की भीषणता को काफी कम किया जा सकता है । इस तरह के क्रमिक उपचार से लगभग 80 प्रतिशत पौधों में बीमारी उत्पन्न नहीं होती है ।

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