आलू के बीज का उत्पादन | Read this article in Hindi to learn about the production of potato seeds.

आलू की फसल में बीज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि कुल उत्पादन लागत का लगभग आधा बजट इसी पर खर्च करना पड़ता है । बीज अगर अच्छा व स्वस्थ नहीं होता है तो उत्पादन के अन्य कारकों का कितना भी प्रबंधन कर लिया जाये, परन्तु अच्छी पैदावार प्राप्त नहीं होती ।

अत: हमेशा उच्च गुणवत्ता वाले बीज का ही प्रयोग किया जाना चाहिए । बीज की गुणवत्ता में और आगे सुधार लाने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रारम्भिक बीज स्टॉक का गुणन बिना खेत में ले जाये कम समय में ज्यादा से ज्यादा संख्या में किया जाये ।

अगर प्रारम्भिक बीज स्टॉक का सीधे खेत में गुणन किया जाता है तो उसके गुणवत्ता को हम एक सीमा तक ही सुरक्षित रख पाते हैं क्योंकि बहुत सारे कारकों को हम ऐसे संरक्षित वातावरण में नियंत्रित करना पड़ता है और अगर इन कारका की कारगर ढंग से नियंत्रित नहीं किया गया तो बीज की गुणवत्ता प्रभावित होने का खतरा बढ़ जाता है ।

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ऐसे में आधुनिक तकनीक का प्रयोग अहम किरदार अदा करता है । इस विधि में आलू बीज भी गुणवत्ता को अधिक कारगर एवं अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है । इस तकनीक से खेत में एक या दो चक्र ही उगाना पड़ता है । प्रारम्भिक चरण प्रयोगशाला में तथा उसके बाद का गुणन चक्र नेट हाउस में सम्पन्न होता है, जिसके कारण फसल सुरक्षित रहती है ।

बीमारी फैलाने वाले वाहक कीट (वैक्टर) भी फसल के सम्पर्क में नहीं आ पाते हैं, जिससे आगे बीमारी का प्रसार नहीं हो पाता है । इन्हीं सब बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान ने पारंपरिक बीज गुणन पर निर्भरता कम करते हुए आधुनिक विधि से आलू बीज उत्पादन को बढ़ावा दिया है और परिणामस्वरूप आज इन विधियों को अपनाकर सफलतापूर्वक स्वस्थ एवं उच्च गुणवत्ता वाले बीज पैदा किये जा रहे हैं ।

आधुनिक विधि से बीज तीन प्रणालियों द्वारा पैदा किया जाता है:

 

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1. सूक्ष्म पौध आधारित बीज उत्पादन प्रणाली

2. सूक्ष्म कंद आधारित बीज उत्पादन प्रणाली

3. ऐरोपॉनिक आधारित बीज उत्पादन प्रणाली

इन तीनों प्रणालियों के लिए सबसे पहले स्वस्थ मातृ पौध तैयार करना होता है । इसके लिए फिर इनका अलग-अलग ढंग से बीज कन्द पैदा करने में इस्तेमाल किया जाता है ।

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स्वस्थ मातृ पौध तैयार करना:

इसके लिए शीर्ष मेरिस्टेम प्रवर्धन विधि को ताप उपचार के साथ-साथ अपनाया जाता है । इस विधि को अपनाकर सफलतापूर्वक विषाणु मुक्त स्वस्थ मातृ पौध तैयार किया जाता है ।

इसके विभिन्न चरण निम्न प्रकार हैं:

विषाणु मुक्त बनाना:

i. सबसे पहले इन पौधों को विभिन्न विषाणुओं जैसे पोटेटों वाइरस एक्स, पोटेटो वाइरस एस, पोटेटो वाइरस वाई, पोटेटो वाइरस एम, पोटेटो वाइरस ए, पोटेटो लीफ रोल वाइरस, पोटेटो एपीकल लीफ कर्ल वाइरस एवं पोटेटो स्पिन्डल टयूबर वाइरॉयड के लिए परीक्षण किया जाता है । इसके लिए एलाइजा न्यूक्लिक एसिड स्पॉट हाइब्रिडाइजेशन पॉलीमरेज चेन रिएक्शन एवं इक्यूनो सॉरबेन्ट इलेक्ट्रान माइक्रोस्कापी विधि का प्रयोग करते हैं ।

ii. इसके बाद अगर उपरोक्त परीक्षण में विषाणु मुक्त पौधा मिलता है तो उसको आगे उपयोग में लाते हैं अथवा सबसे कम विषाणुग्रसित पौधे की छाँट लेते हैं, जिसका शीर्ष मेरिस्टेम प्रवर्धन में उपयोग किया जाता है ।

iii. इसके बाद पौधे के नोडल कटिंग अथवा अंकुर कटिंग से पात्रे तकनीक विधि द्वारा सूक्ष्म पौधे तैयार किया जाता है ।

iv. स्टीरियो माइक्रोस्कोप की मदद से इन पौधे की शीर्षस्थ भाग से 0.2 से 0.3 मिलीमीटर हिस्सा काटकर उसे एम.एस. मीडिया पर परखनली के अन्दर उगाते हैं । इन पौधों की 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर 16 घंटे के प्रकाश अवधि में रखते हैं ।

परीक्षण एवं समूह गुणन:

(I) जब उपरोक्त पौधे 4 से 5 से.मी. बड़े हो जाते हैं तब उनका पुन: नोडल कटिंग करके नये मीडिया पर जीवाणुरहित दशा में उगाया जाता है ।

(II) इन पौधों का पुन: बीमारी के लिए परीक्षण किया जाता है । स्वस्थ पौधों की पुन: प्रवर्धन के लिए रख लिया जाता है. जबकि बीमार एवं विषाणुग्रसित पौधों की अलग करके नष्ट कर दिया जाता ।

(III) इन विषाणयुक्त पौधों की ठीक 3 से 4 सप्ताह बाद पुन: प्रवर्धन करते रहते हैं ताकि स्वस्थ पौधों की संख्या बढ़ाई जा सके ।

(IV) इसके बाद इन पौधों की पीटमास से भरे गमले में लगाकर पीली हाउस अथवा नेट हाउस में उगाते हैं । आवश्यकतानुसार स्टेरिलाइज्ड पानी का सिंचाई जल के लिए उपयोग किया जाता है ।

जब पौधे उपयुक्त आकार के हो जाते हैं तब पुन: इनका परीक्षण विभिन्न विषाणु के लिए एलाइजा, न्यूक्लिक एसिड, स्पॉट हाईब्रिडाइजेशन पॉलीमरेज चेन रिएक्टान एवं इम्युनो सॉरबेन्ट इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कॉपी विधि द्वारा किया जाता है ।

(V) इन परीक्षणों के बाद बीमार पौधों को अलग करके नष्ट कर दिया जाता है और स्वस्थ पौधों को आगे गुणन के लिए मातृ पौधे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ।

1. सूक्ष्म पौध आधारित बीज उत्पादन प्रणाली:

इस पद्धति में विषाणुयुक्त पौधों का उचित संख्या में पास तकनीक विधि से परखनली में जीवाणुरहित/विषाणुरहित दशा में गुणन कर दिया जाता है । जब पौधे बड़े हो जाते हैं, तब उनको आगे गुणन के लिए पुन: प्रयोग किया जाता है ।

पौधों का सख्तीकरण:

(a) तीन से चार सप्ताह पुराने सूक्ष्म पौधों की प्रोट्रे में स्थानांतरित करते हैं, जिसमें पहले से ही जीवाणुरहित किया हुआ पीट-मास भरा रहता है ।

(b) रोपण के बाद 0.2 प्रतिशत (2 मिली-लीटर पानी) मैन्कोजेब के घोल से प्रोट्रे के पौधों के मीडिया को तर कर देते हैं ।

(c) इसके बाद प्रोट्रे की अंधेरे में 48 घंटे के लिए रखते हैं तथा उसके बाद आगे के 2-3 दिन तक 16 घंटे के प्रकाश अवधि में रखते हैं । इसके बाद प्रोट्रे को सख्तीकरण गृह में लाते हैं जहाँ तापमान 27 डिग्री सेल्सियस रहता है ।

लघु कन्द उत्पादन:

(i) इन सख्त पौधों को पीट-माँस सहित पहले से तैयार नर्सरी क्यारियों में 10 से 15 से.मी. पौधे से पौधे तथा 30 से.मी. कतार से कतार की दूरी पर लगाते हैं । नर्सरी की क्यारियों में मिट्‌टी, बालू तथा सड़ी गोबर की खाद की मात्रा 2:1:1 के अनुपात में रखते हैं ।

(ii) प्रतिरोपण के तुरन्त बाद पौधों की सिंचाई कर देते हैं । इसके बाद दिन में दो बार आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई करनी चाहिए ।

(iii) बीज फसल के लिए संस्तुत उर्वरक (नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश का अनुपात क्रमश: 100:60:100 है) दर की केवल आधी मात्रा ही इनमें देनी चाहिए ।

(iv) सम्पूर्ण फास्फोरस एवं पोटाश एवं आधा नेप्रणन की मात्रा पौध रोपण के पूर्व क्यारियों की तैयारी के समय देना चाहिए । शेष नेप्रणन की 45 दिन बाद मिट्‌टी भराई के समय देना चाहिए ।

(v) पाँच प्रतिशत पौधों का एलाइजा परीक्षण अवश्य करना चाहिए ताकि बीमार

(vi) सभी बीमार विषाणुग्रसित व अलग प्रकार के दिखने वाले पौधों की रोगिंग करके निकाल देना चाहिए ।

(vii) संस्तुत पादप संरक्षण सिड्‌यूल ही अपनाना चाहिए ।

(viii) पौधों के परिपक्व होने के बाद ही खुदाई करनी चाहिए । बीज फसल को लता काटने के 10 से 15 दिन के उपरान्त खुदाई करना चाहिए ताकि कन्द का छिलका सख्त हो जाये । क्योरिंग के लिए लघु कन्दों को छाये तथा हवादार स्थान पर ढेर लगाकर 10 से 15 दिन तक रखना चाहिए ।

(ix) कन्दों को या ग्रेड-3 ग्राम से ज्यादा और 3 ग्राम से कम में छँटाई कर लेते हैं और इसके बाद इसे व्यापारिक ग्रेड के बोरिक अम्ल के 3 प्रतिशत घोल से 30 मिनट तक उपचारित कर लेते हैं । इससे बीज जनित बीमारियों से निजात मिल जाता है ।

(x) इसके बाद छाया एवं हवादार स्थान में सूखाकर इन कंदों की शीतगृह में भंडारित कर दिया जाता ।

(xi) तीन ग्राम से बड़े कन्दों की सीधे जेनेरेशन-1 के रोपाई में उपयोग कर लिया जाता है जबकि 3 ग्राम से छोटे कन्दों की पुन: गुणन के लिए नेट हाउस के अंदर लगाया है तथा अगले वर्ष जेनेरेशन-1 के रोपाई में काम उगता है ।

2. सूक्ष्म कन्द आधारित बीज उत्पादन प्रणाली:

इन पद्धति में नियंत्रित कक्ष में ही सूक्ष्म कन्द पैदा किया जाता है तथा इन कन्दों को नेट हाउस में लगाकर इनका गुणन किया जाता है ।

सूक्ष्म कन्द उत्पादन:

(i) इसमें विषाणु मुक्त स्टॉक के नोडल कटिंग को एम.एस. मीडिया पर कल्चर ट्‌यूब के अन्दर जीवाणुमुक्त दशा में गुणन करते हैं ।

(ii) इसके बाद 3 से 4 सप्ताह के सूक्ष्म पौधों का 3 से 4 नोड वाले कटिंग बनाते हैं जिन्हें 200 मिलीलीटर वाले फलास्क में 25 से 35 मि.ली. लीटर द्रव मीडिया में डाल देते हैं तथा इन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर 16 घंटे के प्रकाश अवधि में रखते हैं ।

(iii) तीन से चार सप्ताह बाद जब पौधे की लम्बाई बढ़ जाती है तब शेष बचे हुए द्रव मीडिया की निकाल देते हैं और इनमें नया सूक्ष्म कन्द बनने में मदद करने वाले मीडिया को 40 मिलीलीटर प्रति फ्लास्क की दर से डाल देते हैं ।

(iv) इसके बाद फ्लास्क को पूर्ण अंधेरे में 15 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर 60 से 90 दिन तक के लिए रखते हैं ।

(v) इन पौधों पर सूक्ष्म कन्द बन जाते हैं जिनकी संख्यसा 15 से 20 प्रति फ्लास्क होती है तथा इनका भार 50 से 300 मिली ग्राम तक प्रति सूक्ष्म कन्द होता है ।

(vi) कन्द तुड़ाई के पहले इन फलास्क का वृद्धि कक्ष में 22 से 24 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 16 घंटे के प्रकाश अवधि में 10 से 15 दिन तक रखते हैं ताकि कन्दर हरे रंग के हो जायें । इससे इनकी भंडारण क्षमता बढ़ जाती है ।

(vii) सावधानीपूर्वक पौधों की फ्लास्क से निकालकर सूक्ष्म कन्दों को तोड़कर अलग कर लेते हैं तथा ध्यान रखते हैं कि कन्दों के ऊपरी सतह पर किसी प्रकार का नुकसान न होने पाये ।

(viii) इसके बाद कन्दों को धोकर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाइजीम (1 ग्राम/मी. पानी) के घोल में 10 मिनट तक उपचारित कर लेते हैं तथा अंधेरे में 20 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर सूखने के लिए छोड़ देते हैं ।

(ix) बाद में छिद्रयुक्त पॉलीथीन की थैलियों में इन्हें भरकर शीतगृह में 5 से 6 महीने के लिए भंडारित कर लिया जाता है ।

लघु कन्द उत्पादन:

(a) बुआई के 15 से 20 दिन पहले सूक्ष्म कन्दों को निकालकर हवादार जगह पर डिफ्यूज्ड प्रकाश (छाया) में फैलाकर रख देते हैं ताकि भली प्रकार से अंकुरण हो सके ।

(b) इसके बाद इन्हें नेट हाउस में बनाये गये क्यारियों में 30 सेमी. कतार से कतार तथा 10 सेमी. कंद से कंद की दूरी पर बुआई कर देते हैं । इसके बाद छाया एवं स्थानों में सूखाकर इन कन्दों की शीतगृह में भंडारित कर दिया जाता है ।

(c) तीन ग्राम से बड़े कंदों को सीधे जेनेरेशन-1 के रोपाई में उपयोग कर लिया जाता है, जबकि 3 ग्राम से छोटे कन्दों को पुन: गुणन के लिए नेट हाउस के अंदर लगाया जाता है तथा अगले वर्ष जेनेरशन-1 के रोपाई के काम में आता है ।

3. ऐरोपॉनिक आधारित बीज उत्पादन प्रणाली:

इस प्रणाली में पौधे को बिना मिट्‌टी या किसी अन्य माध्यम से उगाते हैं तथा पौषक तत्व के घोल को धुंध के रूप में लगातार निश्चित अंतराल पर जड़ों पर छिड़कते रहते हैं । पौधे के ऊपरी भाग हवा तथा रोशनी में बढते रहते हैं । जबकि जड एवं कन्द एक बन्द बॉक्स में बढता रहता है ।

लघु कन्द उत्पादन:

(i) तीन से चार सप्ताह पुराने सूक्ष्म पौधों के कटिंग की पोट्रे में लगते हैं ।

(ii) इन्हें लगाने के तुरन्त बाद कार्बेन्डाजीम तथा मेंकोजेब के घोल से सींचते हैं ।

(iii) पहले 48 घट तक अंधेरे में रखते हैं तथा फिर 3 से 4 दिन तक 16 घन्ट के प्रकाश अवधि में रखते हैं । इसके बाद 27 डिग्री सैल्सियस के तापमान पर 15 दिन के लिए रखते हैं ताकि पौधे सख्त हो जाये ।

(iv) सभी आवश्यक पोषक तत्वों का घोल बनाकर पोषक चेम्बर में डाल देते हैं तथा इसका पी.एच. मान 6.8 स्थिर कर लेते हैं ।

(v) नर्सरी की क्यारियों में मिट्‌टी, बालू तथा सड़ी गोबर की खाद की मात्रा 2:1:1 के अनुपात में रखते हैं ।

(vi) बुआई के तुरन्त बाद सिंचाई कर देते हैं । इसके बाद आवश्यकता के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए ।

(vii) बीज फसल के लिए संस्तुत उर्वरक दर की केवल आधी मात्रा ही इनमें देनी चाहिए ।

(viii) सम्पूर्ण फॉस्फोरस एवं पोटाश तथा आधा नत्रजन की मात्रा बुआई के पूर्व क्यारियों की तैयारी के समय देना चाहिए । शेष नत्रजन की मात्रा की 45 दिन बाद मिट्‌टी भराई के समय देना चाहिए ।

(ix) पाँच प्रतिशत पौधों का एलाइजा परीक्षण अवश्य करना चाहिए ताकि बीमार पौधों की निकाला जा सके ।

(x) सभी बीमार, विषाणुग्रसित तथा अलग प्रकार के दिखने वाले पौधों को रोगिंग करके निकाल देना चाहिए ।

(xi) संस्तुत पादप संरक्षण सिड्यूल को अपनाना चाहिए ।

(xii) पौधों के परिपक्व होने के बाद ही खुदाई करनी चाहिए । बीज फसल का लतर काटने के 10 से 15 दिन बाद ही खुदाई करना चाहिए ताकि कन्द का छिलका सख्त हो जाये । क्योरिंग के लिए लघु कन्दों की छाये तथा हवादार स्थान पर ढेर लगाकर 10 से 15 दिन तक रखना चाहिए ।

(xiii) कन्दों की दी ग्रेड-3 ग्राम से ज्यादा और 3 ग्राम से कम में छाँट लेते हैं और इसके बाद इस व्यापारिक ग्रेड के बोरिक एसिड के 3 प्रतिशत (3 मि.ली./ली. पानी) घोल से 30 मिनट तक उपचारित कर लेह हैं । इससे बीज जनित बीमारियों से निजात मिल जाता है ।

(xiv) पहले दो सप्ताह तक जड़ बनने में सहायता करने वाले तत्वों को घोल में मिलाकर देते रहते हैं ।

(xv) सख्त पौधों की प्रोट्रे से निकालकर उनके जड़ वाले भाग को काटकर बॉक्स के छत पर 20 मिलीमीटर व्यास के छिद्र में लगा देते हैं । पौधे-से-पौध की दूरी दोनों तरफ से 15 सेमी. रखते हैं ।

(xvi) आलू की शाखाएँ वृद्धि कक्ष के ऊपर हवा एवं रोशनी में बढ़ेगी जबकि जड़ एवं कन्द कक्ष के अधर में बढेंगे ।

(xvii) इसके बाद वृद्धि कक्ष में पोषक तत्व के घोल का धुंध के रूप में छिड़काव 30 सेकेण्ड के लिए एक निश्चित अंतराल पर स्वत: मशीन द्वारा किया जाने लगता है ।

(xviii) नीचे के भाग में 100 प्रतिशत सापेक्षिक आद्रता बना रहता हैं, जबकि ऊपर में पानी छिड़क कर तापमान बनाये रखते हैं ताकि पौधा सूखने न पाये ।

(xix) एक माह में जड़े विकसित हो जाती हो जाती है तथा इसके बाद कन्द बनने में सहायक पोषक घोल का प्रयोग प्रारम्भ किया जाता है ।

(xx) प्रत्येक 15 दिन पर पोषक घोल की बदलते रहते हैं ।

(xxi) फसल के बढ्‌कर पर पैनी नजर रखते हैं तथा पादप संरक्षण सिड्‌यूल को अपनाते हैं ।

(xxii) कन्द की पहली तुड़ाई 45 दिन पर कर सकते हैं । इसके लिए साइड पैनल अथवा ऊपरी पैनल को हटाकर हाथ से कन्द को तोड़कर अलग कर लेते हैं ।

(xxiii) भंडारण से पहले इन्हें 24 से 48 घंटों तक सूखाते हैं, फिर उपचारित कर शीत भंडारगृह में भंडारित कर देते हैं ।

(xxiv) लघु कंद जी 3 ग्राम से ज्यादा होते हैं, उन्हें जैनेशन-1 की बुआई में इस्तेमाल किया जाता है, जबकि छोटे कन्दों की गेट हाउस में लगाकर एक बार पुन: गुणन किया जाता है और फिर जेनेरेशन-1 की बुआई में प्रयुक्त होते हैं ।

जेनेरेशन-1 का उत्पाद जेनेरेशन-2 के बुआई के लिए प्रयुक्त होता है तथा जेनेरेशन-2 का उत्पाद आलू का प्रजनक बीज कहलाता है । इस प्रजनक बीज का उगाकर आधारीय बीज और फिर आगे प्रमाणित बीज बनाया जाता है । इस प्रमाणित बीज का प्रयोग आलू की व्यवसायिक खेती करने के लिए किया जाता है ।

इस तकनीक से लाभ:

(I) इस विधि में उत्पादकता ज्यादा है तथा गुणन की दर सामान्य विधि से 3-4 गुणा ज्यादा होता है ।

(II) इसमें पौधे मिट्टी अथवा अन्य किसी मीडिया पदार्थ के सम्पर्क में नहीं आते, जिससे संक्रमण का खतरा कम रहता है ।

(III) इच्छानुसार आकार के कन्दों की तुड़ाई कर इच्छित आकार के कन्द प्राप्त किये जा सकते हैं ।

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