साईं बाबा की जीवनी | Biography of Sai Baba in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन ।

3. बाबा की यौगिक क्रियाएं ।

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4. बाबा के विचार ।

5. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भारतभूमि सनातन काल से महान आध्यात्मिक विभूतियों की भूमि रही है । इस भूमि में बींसवी शताब्दी में एक ऐसे सन्त-महात्मा ने ही नहीं, देवों के साक्षात् अवतार ने भी जन्म लिया । वस्तुत: शिरडी के साई बाबा ऐसे ही अवतारी पुरुष थे ।

बाबा ने अपने आदर्श जीवन चरित्र से सभी धर्मो के भक्तों को सच्ची भक्ति का ऐसा उच्चादर्श दिया, जिसके द्वारा उनके अशान्तिमय तथा दु:खमय जीवन में सुख एवं शान्ति का संचार हुआ । ”सबका मालिक एक है” का मूलमन्त्र देने वाले इस भगवान को युगों-युगों तक उनके भक्त असीम व अपार श्रद्धा से स्मरण करते रहेंगे ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन:

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साई बाबा के माता-पिता, उनके जन्म व जन्मस्थान का किसी को कोई ज्ञान नहीं है । इस सन्दर्भ में बहुत छानबीन तथा पूछताछ की गयी, किन्तु कोई भी सूत्र हाथ नहीं आया । वे सन् 1838 में शिरडी {महाराष्ट्र} में नीम के वृक्ष तले 16 वर्ष की किशोरावस्था में भक्तों के कल्याणार्थ प्रगट हुए थे ।

उनके प्रगटीकरण के साथ ही उनके चेहरे पर ब्रह्मज्ञानी-सा तेज तथा लौकिक पदार्थो के प्रति वैराग्य का भाव चमक रहा था । शिरडी ग्राम की वृद्धा नाना चोपदार की माता ने जब उन्हें नीम के वृक्ष के नीचे पहली बार देखा था, तो वे समाधि में लीन, स्वस्थ, फुर्तीले, रूपवान, महान् तपस्वी दिखाई पडते थे ।

रात्रि में निर्भय होकर एकान्त में घूमते थे । दिन में सदा नीम के वृक्ष के तले बैठे रहते थे । त्याग और वैराग्य की साक्षात् प्रतिमा साई बाबा से पहली बार किसी ने उनके जन्म के बारे में पूछा, तो उन्होंने एक कुदाल मगवाकर पत्थर के नीचे स्थान खुदवाया, जहां एक द्वार दिखा । जहा चार बड़े दीप जल रहे थे ।

गुफामय उस द्वार पर लकड़ी के तख्ते, मालाएं पड़ी थीं । म्हालसापति तथा शिरडी के अन्य भक्तों ने उसे बाबा का तपस्या   स्थल  एवं गुरु की समाधि कहकर सदैव नमन किया । 1857 में अचानक प्रकट हुए साई बाबा तीन वर्षो के लिए अन्तर्ध्यान हो गये थे ।

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1860 को जब वे पुन: प्रकट हुए, तो उन्हें एक आम्र वृक्ष के नीचे देखा गया था । चांद पाटील नामक औरंगाबाद के धनवान मुस्लिम की घोड़ी रास्ते में कहीं गुम हो गयी थी । निराश होकर 14 मील की थकानभरी यात्रा को तय करके जीन को पीठ पर लटकाये वे लौट रहे थे ।

आम्र वृक्ष के नीचे बैठे फकीरों-से वेश में साई बाबा ने उन्हें आवाज देकर उनकी परेशानी का सबब पूछा । बाबा ने चांद पाटील को नाले की समीप घोड़ी को चरते पाये जाने की भविष्यवाणी की, जो कि सच साबित हुई । साई बाबा म्हालसापति के यहां बारात में गये थे । म्हालसापति ने उन्हें ”आइये साई” कहकर उनका स्वागत किया, तब से लोग उन्हें ”साई” कहकर सम्बोधित करने लगे ।

शिरडी आने पर वे देवीदास नाम के सन्त के यहां अनेक वर्षो तक निवास करते रहे । कभी हनुमान मन्दिर में, कभी चावड़ी में रहते थे । बाबा ने कभी अपने केश नहीं काटे । वे शिरडी से तीन मील दूर राहता जाते और वहां से जाही और जूही के पौधे लाया करते थे । उसे उत्तम भूमि में लगाकर स्वयं सींचते थे ।

वामन तात्या ने उन्हें जो दो घड़े दिये थे, एक को तो वे नीम के वृक्ष के नीचे रखते तथा दूसरे से कुएं से पानी भरते थे । जब भी घड़ा फूट जाता था, तो तात्या उन्हें दूसरे घड़े दे दिया करते थे । इस तरह से वहां पर फूलों की अति सुन्दर फुलवारी बन गयी, जहां पर बाबा के समाधि मन्दिर की भव्य इमारत है ।

शिरडी का एक पहलवान मोहद्दीन तंबोली था, जिसने बाबा को कुश्ती की चुनौती दी । साई बाबा कुश्ती हार गये । इसके पश्चात् बाबा ने वेशभूषा ही बदल डाली । वे कफनी पहनते थे । एक कपड़े के टुकड़े से सिर ढकते थे । आसन तथा शयन के लिए टाट का टुकड़ा काम में लाते थे । इस तरह सन्तुष्टि में अपना जीवन व्यतीत करते थे ।

गंगागिर नाम के एक पहलवान ने तो बाबा के जीवन से प्रभावित होकर एक मठ स्थापित कर लिया था और वह बाबा के साथ रहने लगा था । नीम के वृक्ष के नीचे बैठे साई बाबा ने अपने एक भक्त नानासाहेब को पुत्ररत्न पाने का आशीर्वाद दिया था; क्योंकि द्वितीय विवाहोपरान्त भी वे नि:सन्तान थे ।

उनके यहां पुत्ररत्न के जन्म लेते ही बाबा की कीर्ति इतनी अधिक फैली कि लोग उन्हें देवता मानकर भक्त बन गये । बाबा अहमदनगर की एक जीर्ण-शीर्ण मस्जिद में रहा करते थे । वे एक कौपीन धारण करते, सर्दी से बचने के लिए दक्षिण मुख हो धुनी में तपते थे । धुनी में लकड़ी डालकर अपना अहंकार, समस्त इच्छाए आदि की आहुति दिया करते थे । ”अल्लाह मालिक है ।”

वे यही कहा करते थे । बाबा को प्रकाश से बडा अनुराग था । वे दुकानदार से भिक्षास्वरूप तेल मागकर दीपमाला सजाकर दीपक जलाया करते थे । कुछ दिन के बाद बनिये ने का आकर तेल देना बन्द कर दिया था । तब बाबा ने सूखी बत्ती में पानी डालकर सारे दीयों को जला दिया था ।

रात्रिभर जलते हुए दीयों को देखकर बनिये ने अपने गलत व्यवहार के लिए बाबा से क्षमा मांगी । जौहर अली नामक एक फकीर का भी साई बाबा ने हृदय परिवर्तन कर उन्हें अपना शिष्य बनने पर मजबूर कर दिया था । कोपरगांव के गोपालराव गुंडे नामक इंस्पेक्टर तो बाबा के परमभक्त थे ।

उनकी तीन स्त्रियां थीं, किन्तु उनसे एक भी सन्तान नहीं हुई थी । बाबा की कृपा से उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । सन् 1897 में उन्होंने शिरडी में उर्स भरवाकर रामनवमी का त्योहार भी मनाया था । बाबा ने उसके साथ-साथ मुस्लिम भक्त अमर सक्कर दलाल द्वारा मनाया जाने वाला चन्दन समारोह भी एक साथ मनवाकर हिन्दू और मुसलमानों को एक कर दिया ।

बाबा जिस मस्जिद में रहते थे, गोपाल गुंडे ने मस्जिद का जीर्णोद्धार करने का विचार किया । नानासाहेब चांदोरकर ने भी उनके साथ मिलकर मस्जिद का पूरा फर्श रातो-रात बाबा के आशीर्वाद से बनवा दिया । टाट की जगह उन्हें छोटी-सी गादी दे दी । सन् 1910 में बाबा दीपावली के शुभ अवसर पर धुनी के समीप बैठे हुए उसमें लकड़ियां डालकर अग्नि प्रज्वलित कर रहे थे ।

लकड़ियां डालते-डालते उन्होंने अपना हाथ धुनी में डाल दिया । हाथ झुलस गया था । माधवराव देशपाण्डे ने बाबा को ऐसे देखा, तो उन्हें बलपूर्वक पीछे खींचा और कहा: ”बाबा । आपने ऐसा क्यों किया ?” बाबा ने बताया कि यहा से कुछ दूरी पर एक लुहारिन भट्टी धौंक रही थी ।

पति के बुलाने पर वह शिशु को अकेला छोड़कर पति के पास चली गयी । उसका छोटा शिशु भट्टी में फिसलकर गिर पड़ा था । बाबा ने उसे बाहर निकाला था । अत: उन्हें अपने हाथ जलने का कोई दु:ख न था । उनकी इस दयालुता की बात सत्य थी ।

बाबा के भक्तों ने उन्हें दवा लगाने के लिए मजबूर किया, किन्तु बाबा ने अल्लाह मेरा डॉक्टर है, कहकर दवा लगाना स्वीकार नहीं किया, किन्तु भागोजी नाम के एक भक्त की प्रार्थना पर उन्होंने प्रेमवश चिकित्सा भी स्वीकार कर ली । कुछ दिन बाद उनका घाव अपने आप ही भर गया ।

जिस धुनी के पास बाबा विराजा करते थे, भागोजी वहां जाकर साफ-सफाई इत्यादि का काम किया करते थे । वे कुष्ठ रोगी थे, पर बाबा की कृपा से यह रोग भी जाता रहा । एक बार एक बालक को प्लेग की गिलटियां निकल आयी थीं । बालक की माता श्रीमती खापर्डे अपने प्लेगग्रस्स बच्चे को बाबा के पास लेकर आयी थी ।

बाबा ने उस बच्चे की सारी गिलटियां अपने शरीर पर ले लीं । भक्त इस वमत्कार को देखते ही रह गये । बाबा के भक्तों में तात्याकोते की माता बायजाबाई का नाम विशेष है; क्योंकि वह प्रतिदिन बाबा को ढूंढती हुई रोटी और भाजी लेकर कोसों दूर जंगल जाती थीं और बाबा को  ढूंढकर भोजन कराती थीं ।

उनके इस प्रेमभाव को देखकर बाबा गांव की मस्जिद में ही रहने लगे थे. ताकि बायजाबाई को अधिक दूर तक भोजन लेकर न जाना पड़े । एक बार तात्याकोते को बाबा ने कोपरगांव के बाजार में तथा अन्य अवसर पर कोल्हापुर जाने के लिए दुर्घटना की आशंका से रोका था । उन्होंने बाबा की बात नहीं मानी ।

परिणामस्वरूप दोनों बार दुर्घटनाएं हुईं और वे बाबा की कृपा से ही बचे । ऐसे ही बाबा ने एक बार दिसम्बर सन् 1915 में श्रीमती तर्खड द्वारा बाबा को अर्पित की हुई बैंगन भरता, दही और पेठा चमत्कारिक रूप से भक्ति के साथ स्वीकार किया । एक बार दोपहर के भोजन का समय था । श्रीमती तर्खड भोजन परोस रही थीं ।

इतने में एक भूखा कुत्ता आया और वह जोर-जोर-से भौंकने लगा । इतने में श्रीमती तर्खड उठीं और उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा उस भूखे कुत्ते को दे दिया । कुत्ता बड़ी रुचि के साथ उस रोटी को खाकर चला गया ।

सन्ध्या  के समय जब वे मस्जिद में जाकर बैठी, तो बाबा ने उनसे कहा: “मां ! तुमने मुझे बड़े प्रेम से भोजन कराया । मैं उसे खाकर तृप्त हो गया । तुमने उस भूखे कुत्ते के सामने रोटी का टुकड़ा फेंका था । दरअसल वह तो मेरा ही रूप था ।” इसी प्रकार ईश्वर सभी प्राणियों में निवास करता है ।

बाबा की अलौकिक शक्ति कुछ ऐसी थी कि वे चारों तरफ चिन्दियों से बंधे हुए एक झूलेनुमा तख्ते पर सोया करते थे । पतली चिन्दियों के धागे पर रखे तख्ते का भार और बाबा का भार कैसे सन्तुलित रहता है ? यह लोगों ने बहुत बार जानने का प्रयास किया ।

इस रहस्य को बाबा के सिवा और कौन जान सका था ? बाबा ने हाज  सिद्दकी नाम के एक अभिमानी फकीर का गर्व भी चूर किया था और उसे अपना  भक्त बनाया था । एक बार शिरडी में भयानक झंझावात, वर्षा, तूफान आ पहुंचा था । पशु-पक्षी, मानव सभी त्राहि-त्राहि कर रहे थे ।

बाबा ने बादलों की ओर मुंह करके कहा: ”शान्त हो जाओ ।” बस वर्षा और तूफान टल गया । ऐसे ही बाबा जिस धुनी के पास बैठा करते थे, वह अचानक ही भभक उठी और उसकी लपटें छत तक भी जा पहुंची      थीं । ऐसे में लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें ।

बाबा ने जोर का सटका उठाकर खम्बे पर बलपूर्वक प्रहार किया और कहा: ”नीचे उतर जाओ ।” ऐसा कहते ही लपटें धीरे-धीरे नीचे की ओर आ गयीं । नासिक के एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण मुले थे, जो ज्योतिष शास्त्र में पारंगत थे । वे एक बार नागपुर के प्रसिद्ध करोड़पति बाबा साहेब बुटी से भेंट करने के उपरान्त बाबा के पास मस्जिद गये ।

वहां उन्होंने बाबा का हाथ देखना चाहा । बाबा ने हाथ न दिखाकर उसे चार केले दे दिये और वे लेंडी बाग की ओर रवाना हो गये । जाते-जाते बाबा ने कहा: “गेरू जाओ, आज हम भगवा वस्त्र रंगेंगे ।” बाबा की इस बात का मर्म किसी को समझ में नहीं आया । बाबा ने नये ब्राह्मण मुले से दक्षिणा लेकर आने को कहा । यह सुनकर मुले ने सोचा कि मैं अग्निहोत्री ब्राह्मण हूं ।

क्या मुझे बाबा को दक्षिणा देना शोभा देगा ? यह सोचकर वे स्वयं को पवित्र और मस्जिद को अपवित्र मानकर एक किनारे खड़े हो गये । दूर से हाथ जोड़कर बाबा पर पुष्प फेंके, तो देखा वहां तो उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी बैठे थे । बाबा की इस अद्‌भुत लीला में गेरू लाओ आज भगवा रंगेंगे का अर्थ समझ में आया ।

मुले शास्त्री को अपने गुरु के दर्शन हुए । वे द्रवित होकर बाबा के चरणों पर गिर पड़े । इसी प्रकार एक रामभक्त डॉक्टर, जो बाबा को यवन समझता था, वह बाबा के दर्शनों के लिए मस्जिद नहीं जाना चाहता था, किन्तु पता नहीं कैसे वह मस्जिद पहुंचकर बाबा के चरणों पर भक्तिपूर्वक सिर रखकर नमन कर रहा था ।

साई बाबा में साक्षात् श्रीराम का दर्शन होने पर उसने ऐसा किया, क्योंकि वह भगवान् श्रीराम का परमभक्त था । पूना के नारायण गांव में भीमाजी पाटिल नामक व्यक्ति को सन् 1909 में क्षयरोग के कारण भयंकर दर्द हुआ । वह प्रतिदिन खून की उलटियां करता था । परेशान होकर घरवाले उसे बाबा के पास ले आये ।

उसे देखकर बाबा ने कहा: ”मैं इसकी बीमारी ठीक नहीं कर सकता; क्योंकि यह तो इसके पूर्वजन्म के पापों का फल है ।” किन्तु रोगग्रस्त भक्त की करुण याचना को भला बाबा कैसे अस्वीकार कर सकते थे । बाबा ने उसके सिर पर हाथ रखा । वह क्षयरोग से पूरी तरह मुक्त हो गया ।

गणपत दर्जी की भी जीर्ण ज्वर की पीड़ा को दूर करने के लिए बाबा ने उसे काले कुत्ते को चावल और दही खिलाने को कहकर उसके ज्वर की पीड़ा को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था । इसी तरह बाबा ने बापूसाहेब की  अम्ल पीड़ा को, आलंदी के एक स्वामी के कान के दर्द की असहनीय पीड़ा को दूर किया ।

काका महाजनी की अतिसार की बीमारी को ठीक किया । बाबा ने हर्दा के दत्तोपंत की 14 वर्ष पुरानी पेट दर्द की बीमारी, गंगाधर पंत और नानासाहेब चांदोरकर की पेट दर्द की बीमारी तथा माधवराव देशपाण्डे को भी बवासीर से मुक्ति दिलायी ।

ऐसी ही एक आश्चर्यजनक घटना में दो छिपकलियों की कथा उल्लेखनीय है: ”एक बार बाबा मस्जिद में बैठे हुए थे । उसी समय एक छिपकली चिक-चिक कर रही थी । ऐसे में शिष्य ने पूछा: ”बाबा ! छिपकली इस तरह चिक-चिक क्यों कर रही है ?” उत्तर में बाबा ने उसे बताया कि औरंगाबाद से इसकी बहिन इससे मिलने हेतु आने वाली है ।

इसी खुशी को यह चिक-चिक की आवाज कर दर्शा रही है । बाबा का भक्त सोच में पड़ गया था कि ठीक उसी समय घोड़ी पर सवार होकर औरंगाबाद से एक भक्त आ पहुंचा । उसका घोड़ा भूखा था । वह आगे न बढ़ता था । घोड़े की भूख शान्त करने के लिए उसने चने निकाले । उसी समय उसके झोले से एक छिपकली गिरी और वह दीवार पर चिक-चिक की आवाज करने वाली छिपकली से जा मिली ।

बाबा का भक्त इसे देखकर चमत्कृत-सा हो गया था । यह तो छिपकली की बात है । शेर जैसा हिंसक पशु भी बाबा की शरण में आकर गाय की तरह अहिंसक बन गया था । इस तरह बाबा के अनेक चमत्कार हैं, जो बाबा की मृत्यु के बाद भी होते रहे ।

3. बाबा की यौगिक क्रियाएं:

बाबा को समस्त यौगिक क्रियाएं ज्ञात थीं, किन्तु दो विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं:

1. धौती क्रिया, अर्थात् स्वच्छ करने की क्रिया । बाबा प्रतिदिन मस्जिद से दूर लेंडी बाग में जाकर अपने उदर की सारी आंतड़ियों को बाहर निकालकर धोया करते थे । साथ ही उसे सुखाया भी करते थे ।

2. खण्डयोग: इस योग में बाबा अपने शरीर के अंगों को अलग- अलग निकालकर बिखेर देते थे । एक व्यक्ति ने अचानक मस्जिद के पास से गुजरते हुए यही सोचा कि किसी ने बाबा का खून कर दिया है । बाद में बाबा को जीवन्त दखकर वह दंग रह गया था ।

4. बाबा के विचार:

बाबा मन की पवित्रता, आचरण की शुद्धि और सच्ची भक्ति को महत्त्व देते थे । व्यक्ति के दु:खों का कारण पूर्व जन्म के कार्यो को मानते थे । वे यह भी मानते थे कि ईश्वर समस्त जीव-जन्तुओं में निवास करता है । वे धर्म के नाम पर निरीह पशुओं की बलि के प्रबल विरोधी थे ।

जो समस्त प्रकार के अहंकारों का परित्याग करके ईश्वर की शरण में आता है, उसे समस्त पापकर्मों से मुक्ति मिल जाती है । जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, वह मुझे कष्ट पहुंचाता है । जो दूसरों के कष्टों को सहता है, वह मुझे प्रिय है । आत्मा अमर और शाश्वत है । बाबा अपनी धुनि में से जो उदी {भस्म} बांटा करते थे, उसके द्वारा ही उन्होंने लोगों को शान्ति देने का कार्य किया ।

5. उपसंहार:

शिरडी के साई बाबा महाराष्ट्र के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत के सन्त व ईश्वर के साक्षात् स्वरूप थे । “सर्वधर्मसमभाव” की शिक्षा देने वाले इस सन्त का जीवन चरित्र सचमुच में ही पूजा के योग्य है । अपने सच्चे भक्तों की पुकार सुनकर वे उनकी सहायता हेतु दौड़े चले आते हैं ।

कहा जाता है कि उनके प्राण उनकी सिरहाने रखी एक ईट में बसते थे । एक दिन उनके भक्त के हाथ से गिरते ही ईट के टूट जाने पर बाबा बीमार हो गये और 5 अक्टूबर सन् 918 को 2 बजकर 30 मिनट पर बाबा ब्रह्मासमाधि में लीन हो गये ।

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