संत तुकाराम की जीवनी | Biography of Sant Tukaram Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जन्म परिचय ।

3. उनका चमत्कारिक जीवन ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

सन्त तुकाराम महाराष्ट्र के उन सन्तों   में  से एक थे, जिन्होने दुष्टों के अत्याचार को भी हंसकर सहन किया । ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, वैर-भाव से दूर इस भोले-भाले सन्त ने जनसाधारण को याक्ति तथा अपनी अभंगपाणी से सीधा-सरल मार्ग सुझाया ।

भक्तिमार्ग को कठिन बताने वाले उच्चवर्गीय लोगों ने इनके अस्तित्व को मिटाने हेतु यथासम्भव प्रयास किये । पर जिस पर ईश्वर की कृपादृष्टि हो, उसका संसार भला क्या बिगाड़ पायेगा ?

2. जन्म परिचय:

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सन्त तुकाराम का जन्म पूना में इन्द्रायणी नदी के तट पर बसे देहु नामक ग्राम में सन् 1608 को एक शूद्र परिवार में हुआ था । जैसे कि वे स्वयं को “शूद्रवंशी जन्मलों ।” अर्थात् मेंने शूद्र वेश में जन्म लिया है ऐसा कहते थे । कहा जाता है वे एक वैश्य, अर्थात् बनिये के परिवार में पैदा हुए थे । उनके पिता बोल्होबा और माता का नाम कनकाई था । उनकी दो पत्नियां थीं ।

एक का नाम रखुबाई था । दमे की बीमारी से उसका निधन हो गया और दूसरी का नाम जीजाई था, जिससे उन्हें तीन लड़के और तीन लड़कियां हुईं । उनमें से बड़े पुत्र नारायण बाबा आजीवन ब्रह्माचारी रहे । तुकारामजी ने यद्यपि बनिये का धन्धा अपनाया था, किन्तु इस धन्धे में लोग उन्हें सीधा-सरल जानकर ठग लिया करते थे ।

उनकी पत्नी जीजाई को अपने पति सन्त तुकाराम की साधु प्रवृत्ति के कारण काफी कुछ सहना पड़ा । एक बार की घटना है । खेतों में गन्ने की फसल अच्छी हुई थी । तुकाराम गन्ना से लदी हुई बैलगाड़ी लेकर घर घुम रहे थे । रास्ते में बच्चे-बूढ़े जो भी मांगते, तुकाराम उन्हें देते चलते ।

घर तक पहुंचते-पहुंचते जब एक ही गन्ना बचा, तो जीजाई वह देखकर यह सोचकर दुखी हुई कि ऐसे में वह संसार कैसे चला पायेगी । क्रोध में आकर जीजाई ने गन्ना तुकारामजी की पीठ पर दे मारा । गन्ने के दो टुकड़े देखकर तुकाराम ने हंसते हुए जीजाई से कहा: ”ये लो, ईश्वर ने तुम्हारे और मेरे लिए गन्ने के दो बराबर टुकड़े कर दिये हैं ।”

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जीजाई क्या कहती ! ऐसी ही सहनशीलता का एक दूसरा उदाहरण यह मिलता है कि एक व्यक्ति, जो तुकाराम का कीर्तन सुनने उनकी सभा में प्रतिदिन आया करता था, एक दिन तुकाराम की भैंस ने उसके खेत को चर दिया ।

इस पर क्रोधित होकर उसने तुकाराम को न केवल गालियां दीं, वरन् कांटों वाली छड़ी लेकर बहुत पीटा । संध्या के समय जब वह कीर्तन में नहीं पहुंचा, तो तुकाराम उसे स्नेहपूर्वक लिवाने चले गये । वह उनके पैरों पर गिर पड़ा और क्षमायाचना करने लगा ।

 

 

3. उनका चमत्कारिक जीवन:

शूद्र तुकाराम ने जब ईश्वर के भजन-कीर्तन के साथ-साथ मराठी  में अभंगों की रचना की, तो उनके अभंगों की पोथी को देखकर सवर्ण ब्राह्मणों ने उनकी यह कहकर निन्दा की कि तुम्हें निम्न जाति का होने के कारण यह सब अधिकार नहीं है ।

यहां तक कि रामेश्वर भट्ट नामक एक ब्राहाण ने उनकी सभी पोथियों को इन्द्रायणी नदी में बहा आने के लिए कहा । साधु प्रवृत्ति के तुकाराम ने सभी पोथियां नदी में प्रवाहित कर दीं । कुछ देर बाद जब उन्हें ऐस करने पर पश्चाताप हुआ, तो वे वहीं विट्ठल मन्दिर के सामने बैठकर रोने लगे ।

तेरह दिनों तक शूखे-प्यासे वहीं पड़े रहे । चौदहवें दिन स्वयं विट्ठल भगवान ने प्रकट होकर उनसे कहा: ”तुम्हारी पोथियां नदी के बाहर पड़ी थी, संभालो अपनी पोथियां ।” सचमुच ऐसा ही हुआ था । इतना ही नहीं, कुछ दुष्ट, ईर्ष्यालु ब्रहमणों ने एक दुश्चरित्र महिला को उन्हें बदनाम करने हेतु अकेले पाकर भेजा ।

तुकाराम के हृदय की पवित्रता देखकर वह स्त्री अपने कर्म पर लज्जित होकर पछतायी । एक बार महाराज शिवाजी तुकाराम के दर्शन करने के लिए उनकी कीर्तन सभा में आये हुए थे । कुछ मुसलमान सैनिक बादशाह की आज्ञा से शिवाजी को धर-पकड़ने वहां पहुंचे ।

तुकारामजी ने अपनी चमत्कारिक शक्ति से वहां बैठे सभी लोगों को शिवाजी का रूप दे दिया । मुसलमान सैनिक अपना सिर पीटते हुए वहा से खाली हाथ ही लौट गये । 1630-31 में पड़े भयंकर अकाल व महामारी से गांव की रक्षा भी की थी ।

 

4. उपसंहार:

सन्त तुकाराम का सम्पूर्ण जीवन यह दर्शाता है कि सन्तों के साथ दुष्ट भी बसते हैं, किन्तु उनकी दुष्टता संतो के सोमने एक नहीं चलती । पश्चाताप ही उनके जीवन का उद्देश्य रह जाता है । ईश्वर-साधना में लीन रहकर सन्त सांसारिक लोगों का कल्याण करने के लिए ही इस धरती पर जन्म लेते है ।

तुकारामजी सन् 1649 में विट्ठल भगवान् का कीर्तन करते-करते मन्दिर से अदृश्य हो गये । ऐसा लोगों का विश्वास है । चार हजार अभंगों के माध्यम से हरिभक्ति की प्रेरणा देने वाले उस सन्त की स्मृति में जनस्थान देहु में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है ।

आषाढ़ी एकादशी को देहु से पंढरपुर तक तुकारामजी की पालकी ले जायी जाती है । श्रद्धालुओं में पंढरपुर की पैदल यात्रा करने का रिवाज सैकड़ों बरसों से आज भी कायम है । पंढरपुर में विठोबा, पाण्डुरंग (विष्णु के अवतार) की मूर्ति है ।

यहां के दर्शनार्थियों को वारकरी कहा जाता है । इस पंथ के लोग मांस, मदिरा, चोरी, झूठ जैसी बुराइयों से दूर रहकर तुलसी की माला गले में धारण करते हैं और सन्त तुकाराम के प्रति अपना श्रद्धाभाव व्यक्त करते हैं ।

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