गुरु घासीदास की जीवनी | Biography of Guru Ghasidas in Hindi Language! 

1. प्रस्तावना ।

2. जन्म परिचय ।

3. उनका चमत्कारिक जीवन व उपदेश ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

महान् सन्त एवं समाजसुधारक बाबा गुरुघासीदास का जीवन छत्तीसगढ़ की धरती के लिए ही नहीं, अपितु समूची मानव-जाति के लिए कल्याण का प्रेरक सन्देश देता है । सतनामी धर्म के प्रवर्तक छत्तीसगढ़ के यह महान् पुरुष एक सिद्धपुरुष होने के साथ-साथ अपनी अलौकिक शक्तियों एवं महामानवीय गुणों के कारण श्रद्धा से पूजे जाते है ।

2. जन्म परिचय:

बाबा गुरुघासीदास का जन्म बिलाईगढ़ के गोद में बसे ग्राम गिरौदपुरी जिला रायपुर, तहसील बलौदाबाजार में 18 दिसम्बर की पूर्णिमा की रात्रि में चार बजे की पवित्र बेला में सन् 1756 को हुआ था । उनके पिता का नाम महंगूदास और माता का नाम अमरीतिन था । उनकी पली सफूरादेवी थीं, जो सिरपुर अंजोरी गांव की निवासी थीं ।

बचपन से ही गुराघासीदासजी कुशाग्र एवं जिज्ञासु बुद्धि के थे । तत्कालीन समय में छत्तीसगढ़ के दलित, शोषित, पीड़ित समझे जाने वाले लोगों का जीवन बड़ा ही दु:खमय था । मानव-मानव में छुआछूत, अवर्ण-सवर्ण, ऊँच-नीच का भेदभाव व्याप्त था ।

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मन्दिरों में धर्म-कर्म के नाम पर नरबलि और पशुबलि की परम्परा प्रचलित थी । मन्दिर और मठ अनाचार का केन्द्र बने हुए थे । नारी जाति के प्रति शोषण का भाव मन्दिरों में भी देखने को मिलता था । तन्त्र-मन्त्र, टोनही, बैगा, पंगहा आदि अन्धविश्वास के नाम पर लोगों को ठगा जा रहा था ।

धार्मिक साधना का रूप काफी विकृत था । धार्मिकता की आड़ में लोग मांस और मदिरा का सेवन कर रहे थे । जनता छोटे राजाओं, पिंडारियों, सूबेदारों के लूट और आतंक से त्राहि-त्राहि कर रही थी । लगान और राजस्व वसूली ने उनकी कमर तोड़कर रख दी थी ।

अत: ऐसे ही लोगों को समस्त प्रकार के शोषण से मुक्ति दिलाने व उनकी अज्ञानता को दूर करने के लिए गुराघासीदासजी का अवतरण हुआ था । अपने द्वारा मानव धर्म का प्रचार कर शोषण से मुक्ति दिलाना उनका ध्येय था ।

अपनी पत्नी और चार बच्चों को छोड़कर वे वैराग्य धारण करने के संकल्प को लेकर जगन्नाथपुरी की ओर चल पड़े । वहां से सारंगढ़ होते हुए गिरौदपुरी के औरा-धौरा पेड़ के नीचे धुनी रमाने लगे । यहां उन्हें  आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई । इस आत्मइण्न से उन्होंने सतनाम को प्राप्त किया ।

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उनके ज्ञान से प्रभावित विभिन्न जाति और समुदाय के लोग उनके अनुयायी होने लगे । तत्कालीन शासकों व उच्च वर्ग को उनका यह प्रभाव रास नहीं उतया । उन्हें परेशान करने का कोई मौका उन्होंने नहीं

छोड़ा । अपने परिवारसहित वे  भण्डारपुरी आ गये । भण्डारपुरी में एक धर्मनिष्ठ लुहारिन विधवा ने तो अपनी साधनास्थली उसी गांव को बना लिया ।

3. उनका चमत्कारिक जीवन व उपदेश:

घासीदासजी के अलौकिक चमत्कारों  में प्रमुख हैं-पांच एकड़ में पांच काठा धान का बोना और भारी फसल उगाना, बैंगन के पौधे  में मिर्च फलाकर दिखाना, गरियार (कमजोर) बैलों से हल चलवाना, खेत की सम्पूर्ण जली हुई फसल को रातो-रात पुन: लहलहाते हुए दिखाना आदि ।

सत्य का आवरण, आडम्बरों का त्याग. जीवमात्र पर दया, मांस-मदिरा, जीव-हत्या, चोरी, जुआ, व्यभिचार, पररत्रींगगन से दूर रहना, मूर्तिपूजा व आडम्बरों का विरोध, कर्म में शुद्धि, रहन-साहन गे सादगी, ब्रह्माचर्य पालन, सभी जीवों वे प्रति समानता का भाव अतिथि सत्कार का अदिर्श, मानव-मानव गे भेद को न रखना आदि उनके उपदेश है । सभी मानव का धर्म एक है । प्रत्येक शरीर एक देवालय है । इन उपदेशों और संदेशों के माध्यम से गुरुघासीदासजी ने समाजसुधार के साथ-साथ धर्म का सही मार्ग दिखलाया ।

4. उपसंहार:

छत्तीसगढ़ की जनता को नया जीवन-दर्शन, आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश देने वाले बाबा गुरुघासीदास धार्मिक सन्त और समाजसुधारक थे । उन्होंने सत्य को ही आत्मा माना है । सत्य ही  आदिपुराण है, प्रकृति का तत्त्व है । अत: सतनाम (सत्यनाम) को ही पूजने पर ईश्वर की प्राप्ति सम्भाव है ।

सत्य से धरणी खड़ी, सत्य से खडा आकाश है ।

सत्य से उपजी पृथ्वी, कह गये घासीदास ।।

ऐसे सिद्ध पुरुष ने अपनी समाधि ले ली । सतनाम धर्म के अनुयायी अपने  गांव तथा निवास स्थल में जैतखाम (21 लम्बाई माप का खम्भा ) लगाकर इस पर श्वेत ध्वजा प्रतिवर्ष 18 दिसम्बर को फहराते हैं । इसका चबूतरा भी चौकोर होता है । यह सभी उपदेशों एवं वाणियों के संचय एवं भण्डार स्वरूप का प्रतीक है ।

यह गांव की गली में गड़ाया जाता है । यह छूने से अपवित्र नहीं होता, बल्कि निकट आने वाले उसे पढ़कर पवित्र हो जाते हैं । इसकी पूजा-अर्चना की आवश्यकता नहीं है, किन्तु वर्तमान में इसकी पूजा-अर्चना की जाती है । बाबा गुरुघासीदासजी सच्चे अर्थो में प्राणीमात्र के सेवक थे ।

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