Read this article in Hindi to learn about:- 1. स्वतंत्र नियामिकीय आयोग का अर्थ (Meaning of Independent Regulatory Commission) 2. स्वतंत्र नियामिकीय आयोगों की स्वायत्ता की सीमा (Autonomy for Independent Regulatory Commissions) 3. नियुक्ति और पदमुक्ति (Employment and Unemployment).

स्वतंत्र नियामिकीय आयोग का अर्थ (Meaning of Independent Regulatory Commission):

सरकारी कार्यों को प्रकृति के आधार पर विकास और नियामिकीय दो भागों में बाँट सकते हैं । नियामिकीय कार्यों से आशय है व्यक्तिगत और सामूहिक प्रकार की सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक गतिविधियों के लिए नियम बनाना उन्हें लागू करना तथा उनका निषेध होने पर कार्यवाहियाँ करना । यह कार्य प्रायः अलग-अलग सरकारी एजेन्सियां करती है ।

लगभग सभी देशों में प्रशासन कार्यों की मुख्य ज़िम्मेदारी विभाग उठाते हैं । विशेषकर नियमिकीय प्रकृति कार्य तो विभागों को ही सौंपे जाते हैं । यह विभाग मुख्य कार्यपालिका के तुरंत अधिन होते हैं और उसके उत्तरदायी भी । इन विभागों की संख्या कार्यों और शक्ति में वृद्धि एक प्रकार से कार्यपालिका का शक्ति में ही वृद्धि होती है ।

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लोक कल्याणकारी स्वरूप ने राज्य के कार्यों में जितनी वृद्धि की है, उससे कार्यपालिका काफी शक्तिशाली हो गयी है । अध्यक्षीय शासन प्रणाली वाले देशों जैसे अमेरिका में शक्ति पृथक्करण और संतुलन का सिद्धान्त पाया जाता है । व्यवस्थापिका (कांग्रेस) सदैव एक सीमा में ही कैसे रखा जाए?

जब औद्यगिक क्रांति जनित विभिन्न दोष अमेरिकी का समक्ष उनके नियमन-नियंत्रण का प्रश्न उठा । कांग्रेस यह शक्ति कार्यपालिका को सौंपकर उसकी शक्ति को और बढ़ना नहीं चाहती थी, उसने कार्यपालिका की एकीकृत संरचना से मुक्त ऐसी स्वतंत्र नियामक एजेन्सियों की स्थापना की जो अपनी मातृ संस्था (कांग्रेस) के उद्देश्यों की पूर्ति कर सके ।

इन्हें स्वतंत्र नियामिकीय आयोग अवश्य कहा गया लेकिन इनकी संरचनात्मक और कार्यात्मक विशेषताओं ने अमेरिका में इन्हें विभिन्न अन्य नामों से मशहूर कर दिया है । ये स्वतंत्र कहलाते हैं क्योंकि कार्यपालिका (राष्ट्रपति) के नियंत्रण से मुक्त है, अपने कार्यों, नीतियों का स्वतंत्र रूप से निर्धारण करते हैं और (डिमॉक के अनुसार) ”निष्पादकीय विभागों की परिधि” से बाहर है ।

यह मुख्य कार्यपालिका के अधीन नहीं होते है, अतएव अमेरिका में इन्हें उचित ही ”शीर्षहीन” शाखा कहा जाता है । इनकी कार्यपालिका और काफी हद तक व्यवस्थापिका से भी स्वतंत्रता से भी स्वतंत्रता के कारण इन्हें ”स्वायत्ता के द्वीप” की संज्ञा भी दी जाती है ।

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इन्हें नियामक इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये अपने कार्यक्षेत्र में नियमों-कानूनों द्वारा नियंत्रण स्थापित करते हैं । डिमॉक के अनुसार इनका नियामिकीय कार्य होता है- अस्वस्थ प्रतियोगिता के दोषों को दूर करने हेतु नागरिक-क्रियाओं का नियमन ।

इनके नियामिकीय कार्य के अंतर्गत- प्रशासनिक, अर्द्ध विधीय, अर्द्ध न्यायिक कार्य शामिल है । कांग्रेस द्वारा पारित अधिनियम के अंतर्गत ये नीतियां, नियम आदि बनाये जाते है (अर्द्ध विधायी कार्य), उन्हें लागू करते हैं (प्रशासनिक कार्य) और ये निर्णय करते हैं कि उनका उल्लंघन किसी व्यक्ति, संस्था या पक्ष ने किया है या नहीं (अर्द्ध न्यायिक कार्य) ।

इनके नियामिकीय कार्य मिश्रित प्रकृति के होने से, उन्हें सरकार के किसी भी एक अंग में नहीं रखा जा सकता, अतएव अमेरिका में इन्हें शासन के चतुर्थ अंग की संज्ञा भी दी गयी । ये आयोग इसलिए कहलाते हैं क्योंकि इनका प्रबन्धन एक के स्थान पर अधिक व्यक्तियों के समूह द्वारा सामूहिक उत्तरदायित्व के आधार पर किया जाता है ।

अमेरिका में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत (Theory of Power Dissociation in America):

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व्यवस्थापिका इन कार्यों के लिए नये विभाग भी बना सकती थी परंतु इससे राष्ट्रपति की शक्ति में वृद्धि हो जाती क्योंकि वे राष्ट्रपति के अधीन पूर्ण नियंत्रण में रहते है । अतएव उसने स्वतंत्र नियामिकीय आयोगों को जन्म दिया जो उक्त नियामिकी कार्यों को संपादित कर सके ।

अर्थ:

यह राष्ट्रपति या कार्यपालिका से स्वतंत्र है, ये अस्वस्थ प्रतियोगिता और क्रियाकलापों को नियंत्रित करते हैं, अतः नियामक है । इनका प्रबंध एक व्यक्ति के हाथों में न होकर समूह के हाथों में होता है । अतः इन्हें आयोग कहा जाता है । चूंकि इनके शीर्ष पर राष्ट्रपति रूपी नियंत्रक नहीं है अतः यह शीर्षहीन शाखा कहलाती है ।

यह कांग्रेस द्वारा अपनी सहायता हेतु स्थापित की गई है, अतः कांग्रेस की भुजायें कहलाती है । यह स्वतंत्र है अतः स्वायत्ता के द्वीप कहलाते है । मिश्रित प्रकृति के अनेक कार्य करते है अतः सरकार का चतुर्थ अंग कहलाते है । डिमॉक के अनुसार यह आयोग प्रशासकीय, अर्द्धन्यायिक और अर्द्धविधायिकी कार्य करते है । इसलिए राबर्ट कुशमैन ने इन्हें प्रशासन में सुनीति पूर्ण समस्या का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था कहा ।

विशेषताएं:

1. व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित, न कि राष्ट्रपति द्वारा ।

2. व्यवस्थापिका कमे प्रति उत्तरदायी, न कि राष्ट्रपति के प्रति ।

3. प्रतिवेदन व्यवस्थापिका को सौंपती है, न कि राष्ट्रपति को ।

4. मिश्रित प्रकृति के कार्य करती है- यह एकमात्र संस्था है जो अपने कार्यकारी क्षेत्र का संपूर्ण प्रशासन करती है, उनके लिए कानून बनाती है और उनका उल्लंघन होने पर सुनवाई करके दंड भी देती है ।

5. कार्यपालिका से अधिक कार्यकाल- राष्ट्रपति का कार्यकाल 4 वर्ष है जबकि इनका 6 वर्ष या अधिक ।

6. आयोग प्रणाली ।

7. राष्ट्रपति या कार्यपालिका की निष्पादन रेखा से बाहर स्थित (डिमॉक) ।

इतिहास:

1. पहला स्वतंत्र नियामिकीय आयोग अमेरिका में ही गठित हुआ था, 1887 में ”अंतर्राज्यीय वाणिज्यिक आयोग” जिसका उद्देश्य परिवहन से संबंधित सभी समस्याओं को निपटाना था, विशेष कर यात्री भाड़ा नियंत्रण ।

2. इसमें 11 सदस्य थे और कार्यकाल 7 वर्ष था ।

3. अब तक 10 से अधिक आयोग वहां स्थापित हो चुके हैं जो कि पहले आयोग की सफलता के परिणाम थे ।

4. फेडरल रिजर्व बोर्ड (1913) का कार्यकाल सर्वाधिक 14 वर्ष था ।

स्वतंत्र नियामिकीय आयोगों की स्वायत्ता की सीमा (Autonomy for Independent Regulatory Commissions):

यह प्रश्न विद्वनों में गंभीर चर्चा का रहा है कि आयोग क्या यथार्थ में स्वतंत्र है । उनके ऊपर राष्ट्रपति, कांग्रेस या न्यायालय का नियंत्रण किस सीमा तक है जो उनकी स्वतंत्रता को बाधित करता है । कहा जाता है कि इन आयोगों का पहला लक्षण ही उनकी स्वतंत्रता है ।

वे राष्ट्रपति के नियंत्रण से मुक्त होते हैं, उसके अधीन निष्पादकीय विभागों की परिधि से बाहर होते हैं तथा राष्ट्रपति के प्रति न तो उत्तरदायित्व होते हैं और न ही उसे कोई प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हैं । इनके सदस्यों का कार्यकाल भी राष्ट्रपति से अधिक होता है तथा राष्ट्रपति इनके सदस्यों को हटाने में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है । उन पर ”वीटों” का प्रयोग कर सकता है ।

दूसरी ओर कुछ ऐसे प्रावधान भी है जो आयोगों पर राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करते है । सबसे प्रभावशाल प्रावधान आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति का है । राष्ट्रपति ही सीनेट के अनुमोदनार्थ इनके नाम प्रस्तावित करता है । दूसरा शक्तिशाली अस्त्र इन्हें हटाने का है, राष्ट्रपति अक्षमता या कार्यों की उपेक्षा या भ्रष्टाचार के आधार पर किसी भी सदस्य को समय से पूर्व भी हटा सकता है ।

यद्यपि नीति मतभेद के आधार पर वह ऐसा नहीं कर सकता । संघीय सुप्रीम कोर्ट ने हम्प्री विवाद, (1935) में स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति का सदस्यों का पदच्युत करने का अधिकार सीमित है । हम्प्री को राष्ट्रपति कुलिज ने फेडरल ट्रेड कमीशन का सदस्य नियुक्त (1925) किया था, लेकिन राष्ट्रपति से मेल नहीं खाती थी ।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वस्तुतः कांग्रेस ने आयोगों की स्थापना इसीलिए की है कि वे स्वतंत्र नीति अपना सके । इस संबंध सुप्रीम कोर्ट ने मायर्स केस (1926), वीनर केस (1958) में भी विचार किया था । आयोगों की स्वतंत्रता को लेकर उस युग के विचारक एल.डी.व्हाइट ने अपना अलग मत दिया था ।

वे आयोगों को राष्ट्रपति, कांग्रेस और न्यायालय तीनों से पूर्णतः स्वतंत्र नहीं मानते । लेकिन वे मानते हैं कि इन आयोगों पर सर्वाधिक नियंत्रण कांग्रेस का है । कांग्रेस इनकी रचना करती है इन्हें समाप्त भी कर सकती है (हालांकि अब तब उसने ऐसा नहीं किया है ।)

वह उसके कार्यों, संरचना आदि निर्धारित करती है तथा शक्तियों भी वह प्रदत्त करती है । इनके सदस्यों की नियुक्ति का अंतिम अनुमोदन वही करती है । आयोगों को आवश्यक धन राशि भी कांग्रेस स्वीकृत करती है । वह इनकी जाँच भी करवा सकती है ।

व्हाइट के अनुसार न्यायापालिका आयोगों के कार्यों, निर्णयों के विरूद्ध अपील सुन सकती है और उनके निर्णयों को उलट या संशोधित कर सकती है । इसी प्रकार ये राष्ट्रपति से भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है क्योंकि वह आयोगों के सदस्यों तथा कुछ आयोगों के अध्यक्षों को भी नियुक्त करता है तथा कतिपय आधारों पर उन्हें हटा भी सकता है ।

स्पष्ट है कि आयोगों को अपने कार्यों में पर्याप्त स्वतंत्रताएं हासिल है यद्यपि उन पर व्यवस्थापिका, न्यायालय और अत्यंत सीमित राष्ट्रपति का कुछ नियंत्रण होता है । कांग्रेस ने इन्हें जो कार्यों की मिश्रित प्रकृति सौंपी है उससे ऐसा आभास होता है कि कांग्रेस ने न्यायपालिका और कार्यपालिका तक अपना कार्यकारी विस्तार इन आयोगों के माध्यम से कर लिया है ।

जबकि वास्तविकता यह है कि जो कार्य आयोगों को सौंपे गये हैं उनके उचित संपादन के लिए इनकी आवश्यकता विकल्पहीन है । वस्तुतः कांग्रेस को सामाजिक-आर्थिक हितों को पूर्ति भी करना था और कार्यपालिका की संभावित निरंकुशता से नागरिकों को बचाना भी था- इस दोहरी आवश्यकता ने उसकी ”सहायक भुजा” के रूप में आयोगों को जन्म दिया । निष्कर्षतः ये आयोग अपनी कार्यप्रणाली में कॉफी स्वायत्त है ।

स्वतंत्र नियामिकीय आयोगों में नियुक्ति और पदमुक्ति (Employment and Unemployment in Independent Regulatory Committees):

1. व्यवस्थापिका (कांग्रेस) की सहमति से राष्ट्रपति इनके सदस्यों को नियुक्त करता है, जबकि इनका निर्माण, इनके कार्यों, उद्देश्यों की व्याख्या स्वयं कांग्रेस करती है ।

2. सदस्यों को राष्ट्रपति उन्हीं आधारों पर हटा सकता है जिनका उल्लेख कांग्रेस ने अधिनियम में किया हो ।

3. हम्फ्री विवाद (1935) में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय था कि नीतिगत मतभेदों के आधार पर श्री हम्फ्री (फेडरल ट्रेड कमीशन) को हटाना गलत था तथापि किसी सदस्य को अकार्यकुशलता या अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है । 1925 में राष्ट्रपति कोलिंज ने हम्फ्री को आयोग में नियुक्त किया था जबकि 1935 में रूजवेल्ट ने नीतिगत मतभेद के कारण उन्हें हटा दिया था ।

4. मायर्स विवाद (1926), वीनर केस (1958) में भी यही निर्णय दिया गया ।

लाभ:

1. विभिन्न हितों के बीच समन्वय ।

2. दलगत राजनीति से दूर ।

3. कार्यपालिका शक्ति पर अवरोध ।

4. तकनीकि विशेषताओं और समान्यज्ञों का सुन्दर समन्वय ।

5. क्षेत्र विशेष के विकास हेतु ।

6. स्थानीय समस्या समाधान हेतु ।

7. ऐसी तकनीकी समस्या से निपटने हेतु जिसमें विशेषज्ञों की मदद आवश्यक हो ये आयोग महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं । इनमें दलगत राजनीति का आभाव होता है ।

8. आयोग प्रणाली के कारण नीति निर्माण में श्रेष्ठतम ।

दोष:

1. अनुत्तरदायी संरचना ।

2. संकीर्ण दृष्टिकोण ।

3. प्रशासनिक संरचना में विश्रृंखलता को जन्म देते हैं ।

4. मिश्रित कार्यों की व से नागरिकों की स्वतंत्रता के हनन की संभावना ।

5. अपव्ययी प्रणाली ।

6. विभागों से टकराव की स्थिति ।

7. आयजो प्रणाली की दुर्बलता ।

8. समन्वय की समस्या ।

9. विभागों से क्षेत्र का टकराव ।

ब्राऊनलो समिति (1937), महान्यायवादी समिति (1941) और हुबर आयोग (1949) ने स्व.नि.आ. में सुधार के सुझाव दिये थे ।

भारत में स्वतंत्र नियामिकीय आयोग:

भारत के विभिन्न श्रेणी सकते जैसे, निर्वाचन आयोगों में से कुछ इस रखे जा सकते है, जैसे- निर्वाचन आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आदि । परंतु स्वतंत्र नियामिकीय आयोग जैसी कोई समरूप संस्था भारत में नहीं है ।