Read this article in Hindi to learn about the development of public administration in India.

1. 1930 दशक में सर्वप्रथम लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. राजनीति विज्ञान के अतर्गत लोक प्रशासन को एक अनिवार्य प्रश्न पत्र के रूप में पढ़ाए जाने की शुरूवात हुई ।

2. 1937 में मद्रास विश्वविद्यालय में ”विश्व लोक प्रशासन” नाम से एक डिप्लोमा पाठ्‌यक्रम शुरू किया गया । इस प्रकार एक विषय के रूप में लोक प्रशासन की शुरूवात भारत में 1937 से ही मानी जाती है ।

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3. बेनी प्रसादजी की पहल पर स्थानीय सरकार विषय पर स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरूवात इलाहबाद विश्वविद्यालय में 1941 से हुई वस्तुत: यह पाठक्रम उच्च नौकरशाहों के लिये एक प्रशिक्षक कार्यक्रम था जिसकी विषय वस्तु का निर्माण और कार्यक्रम का संचालन प्रो. एम पी. शर्मा ने किया । अत: प्रो. महादेव प्रसाद शर्मा को ही भारत में लोक प्रशासन का प्रथम प्राध्यापक कहा जाता है ।

4. 1943 में लखनऊ विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन में डिप्लोमा नामक पाठयक्रम शुरू हुआ ।

5. 1950 में नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा लोक प्रशासन और स्थानीय स्वशासन नामक एक विभाग की स्थापना प्रो. एम.पी शर्मा के मार्गदर्शन में की गई यहीं से भारत में लोक प्रशासन को पहली बार पूर्ण अकादमिक स्वायत्तता प्राप्त हुई । लोक प्रशासन में सर्वप्रथम स्नात्कोत्तर डिग्री देने का तथा स्वतंत्र विभाग की स्थापना का श्रेय नागपुर विश्वविद्यालय को ही है ।

6. लोक प्रशासन पर पाल एपीलबी की रिपोर्ट (1953) पर नई दिल्ली में 1954 में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (इंडियन इंस्टीटूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन-IIPA) की स्थापना हुई यह भारत में लोक सेवकों के प्रशिक्षण के साथ लोक प्रशासन में अनुसंधान और विकास के कार्य संपादित करता है । यह इंडियन जनरल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन नामक एक पत्रिका भी निकालता है ।

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7. 1987 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेस परीक्षा में लोक प्रशासन को पूर्णत: स्वतंत्र विषय के रूप में शामिल कर लिया गया। इससे इस विषय को पर्याप्त समर्थन मिला ।

8. भारत के विभिन्न राज्यों ने भी लोक प्रशासन की दिशा में विभिन्न अकादमिक और संस्थागत प्रयास किये । जैसे राजस्थान के जयपुर में रीपा (हरिशचंद्र माथुर राजस्थान राज्य लोक प्रशासन संस्थान) की 1957 में स्थापना । इसी प्रकार म. प्र. में नरोन्हा प्रशासन अकादमी की भोपाल में स्थापना की गई ।

9. राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में सर्वप्रथम एम.बी. माथुर के नेतृत्व में 1957 में लोक प्रशासन में एम.ए. पाठ्यक्रम शुरू हुआ । और 1965 में लोक प्रशासन का स्वतंत्र विभाग भी यहां स्थापित किया गया ।

10. म.प्र. में सागर विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन पढाने की सर्वप्रथम शुरूवात हुई ।

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11. आज भारत के 60 अधिक विश्वविद्यालयों में लोक प्रशासन एक स्वतंत्र विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। जिसमें इंदिरा गाधी मुक्त विश्वविद्यालय भी शामिल है ।

लोक प्रशासन के नूतन क्षीतिज:

अपने जन्म से लेकर इस नयी शताब्दी तक लोक प्रशासन ने अनेक उतार-चढ़ाव झेलते हुए अपने को काफी परिपक्व कर लिया है । अनेक रूढ़ियों को इस दौरान बाहर का रास्ता दिखाया गया है, और कई नूतन प्रासंगिक प्रवृतियां अपनाई गयी है । द्वितीय महायुद्ध के बाद लोक प्रशासन का वास्तविक स्वरूप तय हुआ है, तथा उन सभी देशों में इसकी विषय वस्तु को लेकर सम्यक दृष्टिकोण का विकास हुआ, जहां एक शास्त्र के रूप में अपने पैर जमा चुका है ।

परम्परागत के स्थान पर जो आधुनिक दृष्टिकोण इस दिशा में उभरे हैं, उन्होंनें इसे सर्वोच्च अन्तरवैषयिक और सामाजिक विज्ञानों में सर्वाधिक प्रगतिशील बना दिया है । उन्होंने सिद्धान्तों के प्रति अपना दृष्टिकोण इस तरह परिमार्जित कर लिया है, कि अब उन पर विवाद की जरूरत नहीं जान पड़ती । वस्तुतः प्रगतिशील दृष्टिकोण ने ”लोक प्रशासन” को ही एक ”सर्वाजिक सिद्धान्त” बना दिया है ।

एस. एल. वर्मा के अनुसार- ”लोक प्रशासन की नवीन दुनिया परिवर्तन की दिशा में इतनी आगे चली गयी है, कि पुराने प्रशासनवेत्ता काफी पीछे छूट गये है, जिस पुरानी सामग्री के आधार पर वे सिद्धान्तों का निर्माण कर रहे थे, वह सामग्री ही बदल चुकी है । लोक प्रशासन अपने कतिपय विषयों और और विवादों जैसे स्टाफ-सूत्र, राजनीति-प्रशासन, सामान्यज्ञ-विशेषज्ञ आदि द्विभाजकों को छोड चुका है ।”

आधुनिक लोक प्रशासन की एक और सार्वभौमिक विशेषता- उसका विस्तृत होता क्षेत्र और व्यापक होता क्षितिज है । साम्यवादी, समाजवादी देश तो ठीक पूंजिवादी देशों में भी लोक प्रशासन सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में अंदर तक धंस गया है ।

आर्थिक उदारीकरण या नीजिकरण के नये दौर ने लोक प्रशासन की व्यापारिक, व्यवसायिक गतिविधियों को जरूर हड़पना शुरू कर दिया है, लेकिन प्रस्तावना जा नियमन हेतु विशेषकर तीव्र होती देशी-विदेशी प्रतिस्पर्धा में लोक प्रशासन के ऊपर नये दायित्व आ गये हैं ।

1950 के पूर्व प्राय: अनजान, तुलनात्मक और विकास प्रशासन ने प्रशासन का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करना शुरू किया था । वर्तमान भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने विभिन्न देशों के प्रशासनों में इतनी निकटता ला दी है, कि वह जल्द ही ”विश्व प्रशासन” में बदलेगा ।

लोक प्रशासन में नये अभिगमों के आगमन ने उसके अध्ययन की वर्णनात्मक, कानूनी, संरचनात्मक प्रशासनिक प्रक्रिया व्यवहार और कार्यात्मक सम्बन्धों की ओर उन्मुख कर दिया है । संगठन का अध्ययन औपचारिक के बजाय अनौपाचारिक समूह के रूप में अधिक किया जाने लगा है । उनके अध्ययन में मुख्य केन्द्र मानव और उसका व्यवहार हो गया है । इस कारण से सामाजिक मनोवैज्ञानिक और व्यवहारवादी उपागमों का बोलबाला हो गया है ।

इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए लोक प्रशासन ने अपना ”वैज्ञानिकता” से भी पल्ला झाड लिया है । वस्तुत: सिद्धान्तों की अस्वीकृति ही उसकी अप्रत्यक्ष रूप से ”विज्ञान प्रस्थिति” की अस्वीकृति है । इसका मतलब यह नहीं हैं, कि लोक प्रशासन की एक विषय के रूप में मान्यता या स्वायतता खतरे में पड़ गयी है । वास्तविकता यह है, कि उसने सिद्धान्त के स्थान पर व्यवहार पर अधिक बल देना शुरू किया है । उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती भी यही है, कि वह अपने पेशे और गतिविधियों को सभी परिवर्तनों के अनुकूल रखे अर्थात सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप दे ।

वाल्डो के अनुसार लोक प्रशासन में प्राचीन विशेषताओं की इतनी ही स्मृति शेष रही है, जितनी बचपन की युवावस्था में । यही कारण है, कि उसकी विध्या को चुनौती अब कहीं से नहीं है । लोक प्रशासन का अब नीजि प्रशासन से भी अंतर सिमट गया है ।

दोनों ने एक दूसरे से इतना ग्रहण कर लिया है, कि उनमें असमानताएं ढूंढना पड़ती हैं, दिखायी नहीं देती । यहां फेयोल महोदय को दोहराना समाचित लगता है कि, “हमारे सामने कई तरह के प्रशासनिक विज्ञान नहीं है, अपितु एक ही प्रशासनिक विज्ञान है ।”

लोक प्रशासन में एक और महत्वपूर्ण प्रवृति जो प्रकट हुई है, वह सामाजिक मूल्यों के प्रति अति गम्भीरता है । सामाजिक परिवर्तन और समानता के सिद्धान्तों ने लोक प्रशासन को नये लोक प्रशासन में बदल दिया है, और पुराने सिद्धान्तों यथा कार्यकुशलता और मितव्ययिता को दूसरी प्राथमिकताओं पर धकेल दिया गया है ।

यह परिवर्तन अनेक अन्य परिवर्तनों का वाहक बना है, यथा राजनीतिक मूल्यों से प्रशासन को निकटता, जिसने अन्तत: राजनीति-प्रशासन द्विभाजन को अप्रासंगिक करार दिया । इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि लोक प्रशासन के अध्ययन का दृष्टिकोण ही बदल गया ।

कानूनी संरचनात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर ऐसे दृष्टिकोण सामने आने लगे जिनकी एप्रोच सामाजिक वैज्ञानिक है, और जिन्होंने प्रशासन को सामाजिक व्यवस्था का एक ही भाग माना है । लोक प्रशासन के बढते आकार और उस पर होने वाले अंधाधुंध खर्च ने सरकारों की चिंता में डाल रखा है । विशेषकर विगत दो दशकों से इस दिशा में सरकारों को अनेक सुधारात्मक कदम उठाने के लिए विवश होना पडा है ।

1979 में इंग्लैण्ड की थैचर सरकार ने संवैधानिक व्यय में कमी करने हेतु कुछ कदम उठाये थे, उनमें से एक लोक सेवा की भूमिका को सीमित करना भी था । कनाडा सरकार का “एजेन्डा-2000” इस दिशा में काफी चर्चित रहा, जिसमें लोक सेवा की कुशलता में सुधारों पर विस्तृत प्रावधान किये गये ।

अब अनुमन हर देश में सरकार के कार्यों की समीक्षा शुरू हो गयी है, और उसे ऐसे कार्यों से पृथक करने की प्रक्रिया भी अपनायी जा रही है, जो नीजि क्षेत्र अधिक अच्छी तरह कर सकते है । भारत में सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण इस प्रक्रिया का एक हिस्सा है, और तत्कालिन विनिवेश मंत्री अरूण शौरी के शब्दों में सरकार व्यापारी नही है, अत: उसका काम शासन करना है, दुकानदारी चलाना नहीं । सरकारें मात्र आर्थिक गतिविधियों से ही नहीं, अपितु अनेक सामाजिक सेवाओं जैसे शिक्षा आदि से भी अपने को बाहर निकाल रही हैं ।

महिलाओं, बच्चों, पिछड़ों, वंचितों के कल्याण और उत्थान में अब स्वंय सेवी संस्थाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है । विशेषकर विकासशील देशों में यह प्रवृति नूतन ही है । संक्षेप में कहें तो लोक प्रशासन ने आधुनिक प्रौद्योगिक में परिवर्तन की तेज रफ्‌तार के साथ अपने को भी नई आवश्यकताओं के लिए तैयार करना, प्रासगिक प्रतिमानों के प्रति ग्रहण शील बनाना और नवीन चुनौतियों के लिए उपयुक्त चरित्र में ढालना शुरू किया है ।