Read this article in Hindi to learn about:- 1. साइमन ने प्रत्येक निर्णयन प्रक्रिया के चरण (Stages of Simon’s Decision Making Process) 2. निर्णयन के मार्ग में बधाएं (Difficulties of Decision Making Process) 3. बधाएं (Difficulties).

साइमन ने प्रत्येक निर्णयन प्रक्रिया के चरण (Stages of Simon’s Decision Making Process):

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साइमन ने प्रत्येक निर्णयन प्रक्रिया के तीन चरण बताए है जिनसे गुजरकर कोई “निर्णय” सामने आता है ।

1. बौद्धिक चयन या अन्वेषण चयन:

इसे आवश्यक मूल्यांकन भी कहा जाता है । इस चरण में निर्णय लेने के अवसरों की तलाश की जाती है अर्थात् उन समस्या का खोजा जाता है जिन्हें समाधान (निर्णय) की जरूरत है । निर्णयकर्ता संगठनात्मक माहौल को समझने की कोशिश करता है और उन समस्याओं की पहचान करता है जिन पर कार्यवाही की जरूरत है । समस्याओं को पहचानने और समझने के लिए आवश्यक है कि उन्हें अनुसंधात्मक दृष्टि (विश्लेषण, व्याख्या, निरिक्षण) से परखा जाए ।

इस चरण के निम्नलिखित उपचरण हो सकते है:

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(a) समस्या की स्पष्ट पहचान:

सर्वप्रथम यह ज्ञात किया जाता है कि समस्या है या नहीं । यदि समस्या है तो उसका क्षेत्र, स्तर, प्रकृति क्या है ? चूंकि संगठन में समस्याएं परस्पर अंतर्भूत और उलझी हुई होती है, अतः एक तो प्रत्येक समस्या की स्पष्टता के साथ पहचान की कठिनाई होती है, दूसरे यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक समस्या को सम्पूर्णता के सन्दर्भ में देखा जाए ।

(b) समस्या का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

अनेक समस्याएं अपने पूर्व के निर्णयों का परिणाम होती है । अतः उनका इतिहास पूर्व के अनुभव तथा स्थिति में आए बदलाव को समझने में सहायता करता है ।

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(c) समस्या के प्रभावों का ज्ञान:

जो समस्या विचाराधीन है, उससे कौन-कौन सी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही है- उनका अवलोकन और सर्वेक्षण निर्णयकर्ता को संगठन के मूल्यों, उद्देश्यों, नीतियों आदि को स्पष्ट कर देता है । इस प्रकार अन्वेषण की क्रिया समस्या की ऐतिहासिक सन्दर्भो में समग्र व्याख्या की क्रिया है जो निर्णयकर्ता को भावी कार्यवाहियों के आधार प्रदान करती है ।

2. प्रारूप-चयन या स्वरूप निर्धारण-चयन:

निर्णयन प्रक्रिया का यह दूसरा चरण है, जिसे साइमन डिजाइनिंग क्रिया (अभिकल्पना निर्धारण) कहता है । यह समस्या के समाधान के लिए विकल्पों की खोज से संबंधित है । यह विकल्प की खोज वस्तुतः तथ्यों की ही खोज है, जो कसौटी पर कसे जा सके ।

इस चरण के भी दो उपचरण है:

(a) तथ्यों को युक्तियुक्त और संगतिपूर्ण ढंग से एकत्रित करना ।

(b) एकत्रित तथ्यों का वैज्ञानिक ढंग से मूल्यांकन करना ।

यह चरण सर्वाधिक समय साध्य और श्रम साध्य होता है । तथ्यों का मूल्याँकन विकल्पों को जन्म देता है । प्रत्येक विकल्प के साथ कुछ तथ्य जुड़े होते है । कुछ विकल्प ऐसे होते है जो तर्कपूर्ण और अवश्यभावी किस्म के होते है, जबकि कुछ विकल्प काफी तर्क-विर्तक से युक्त होते है ।

ऐसे विकल्प संभावनाओं के रूप में जन्म लेते है । कुछ ऐसे भी विकल्प हो सकते है । जिनकी संभावना कुछ आशंकाओं से जुड़ी होती है । वस्तुतः यह चरण तथ्यों को पहचानने, उन्हें विकल्पों के रूप में तैयार करने से संबंधित है । इस चरण के समापन तक निर्णयकर्ता का विवेक क्षेत्र सीमित, निश्चित और तुलनात्मक बन जाता है ।

3. चयन क्रिया या विकल्प का चयन:

निर्णयन प्रक्रिया का यह चरण यद्यपि कम समय लेता है, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अब तक किये गये प्रयासों को अंतिम रूप इसी चरण में दिया जाता है । दूसरे चरण में जिन विकल्पों को तैयार किया जाता है, उन्हीं में से एक श्रेष्ठतम या अनुकूलन विकल्प का चुनाव किया जाता है ।

यही “निर्णय” होता है । अनुकूलन विकल्प वह होगा जो न्यूनतम दोष-अधिकतम लाभ से युक्त हो, जो दुरगामी दृष्टि से भी लाभप्रद और प्रभावी हो तथा जिसे संगठन में लागू करवाया जा सके । साइमन के अनुसार देखने में तो उपर्युक्त तीनों चरण एक दूसरे के क्रमागत लगते है लेकिन व्यवहार में इनका क्रम विन्यान बेहद जटिल होता है ।

प्रत्येक चरण का अपना भी एक क्रम विनयास होता है तथा वह उपरोक्त अन्य चरणों को भी अपने में शामिल कर सकता है । उदाहरण के लिए बौद्धिक चरण में भी चयन क्रिया या डिजाइन किया शामिल हो सकती है ।

निर्णयन के मार्ग में बधाएं (Difficulties of Decision Making Process):

साइमन ने निर्णयन की तीन प्रमुख बाधाओं का जिक्र किया है- मानव तर्क दीनता, जीखिम और स्वीकृति की समस्या । (पी-पी) पेज नोटस से !

संगठनात्मक- विश्लेषण:

साइमन ने संगठन के स्वरूप निर्धारण के परम्परागत “विभागीकरण” सिद्धान्त को खारिज कर दिया तथा कहा कि संगठन की ईकाइयों का आधार “निर्णयों के प्रकार” को बनाया जाना चाहिए । निश्चित रूप से इनका श्रेणीकरण मनुष्य के व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर किया जाना चाहिये ।

उसने संगठन की कार्यकुशलता बढ़ाने के पीछे आर्थिक अभिप्रेरणा के सिद्धान्त को भी खारिज कर दिया । उसके स्थान पर समूह को छोटा करके कार्यकुशलता और उत्पादकता दोनों बढ़ायी जा सकती है । साइमन संगठन की कार्यकुशलता के मशीनी दृष्टिकोण का विरोध करता है और सिफारिश करता है कि संगठन की कार्यकुशलता इस तथ्य में देखी जानी चाहिए कि वह व्यक्ति के मूल्यमानों को कितना प्रभावित करता है तथा व्यक्ति संगठन के प्रति कितने निष्ठावान है ।

इस दिशा में प्रशिक्षण का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है । प्रशिक्षण के द्वारा निर्णयन प्रक्रिया के कारकों, तत्वों एवं स्वयं प्रक्रिया का बोध सदस्यों को होता है और वे अधिक सहयोगात्मक व्यवहार के लिए प्रेरित होते है । प्रशिक्षित व्यक्ति अपने निर्णयों में विवेक का अधिक उपयोग कर पाते है ।

साइमन युक्तिपूर्ण निर्णयन के लिए समन्वय को भी आवश्यक मानते है । इससे व्यक्तिगत लक्ष्यों का संगठन के सामूहिक लक्ष्यों के साथ एकीकरण हो जाता है और सभी एक दूसरे की गतिविधियों को बेहतर तरीके से जान पाते है ।

साइमन ने सांगठनिक कुशलता को निर्णय से संबंधित करते हुए कहा कि यह ऐसे विकल्प को चुनने पर जोर देती है जो अनुकूलतम और अधिकतम उपयोगीयता वाले परिणाम दे सके । यहां साइमन का उद्देश्य प्रशासनिक साधनों और संगठन के हितों के संरक्षण से संबंधित है ।

यद्यपि वे स्वीकारते है कि निजी उधमों में यह जितनी सहजता से लागू होता है, उतना प्रशासनिक संगठन में नहीं । साइमन ने बाद में कुशलता की कसौटी को निम्नस्तरीय निर्णयों तक सीमित कर दिया क्योंकि उच्च स्तरों पर निर्णयों को ऐसी कसौटी पर कसना अव्यवहारिक है ।

निर्णयन के मार्ग की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Decision Making Process):

साइमन के व्यवहारवादी निर्णयन मॉडल ने संगठन-विश्लेषण का एक नया अध्याय ही खोल दिया। वह पहले अध्येता थे जिन्होनें सम्पूर्ण संगठन को एक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया के आधार पर व्याख्यानित किया तथा बताया कि निर्णयों से ही संगठन का कार्मिक-व्यवहार तय होता है । इतने पर भी उन्होनें सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के इस व्यवहार पर आने वाले दबावों की चर्चा नहीं की ।

यह एक बहुत बड़ी कमी साइमन के निर्णय-मॉडल की रही है कि वे मात्र संगठन के भीतर ही देखते है और उसके बाहरी वातावरण से सम्बन्धों की चर्चा तक नहीं करते । साइमन ने मूल्य निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाकर सांगठनिक व्यवहार को तथ्यों पर अवलम्बित करने का जो दुष्कर प्रयास किया है उसके पीछे प्रशासनिक विज्ञान की आवश्यकता को महसूस किया जा सकता है ।

यहां आलोचक अपनी आवाज मुखर करते है कि क्या प्रशासन में मूल्यों को पृथक् रखा जा सकता है । निजी संगठनों में तो मूल्य-तथ्य पृथक्करण सिद्धान्त काफी हद तक लागू किया जा सकता है, लेकिन राजनीतिक मूल्यों के परिवेश से लोक प्रशासन के संगठन का “अछूत” संज्ञान नहीं लिया जा सकता । यह तो प्रशासन-राजनीति द्विभाजन के अस्वीकृत हो चुके रूढ़िवाद की तरफ ही लौटने का भार्त्सना योग्य प्रयास कहा जाएगा ।

साइमन की ”कुशलता की कसौटी” तथा ”निर्णयन में तार्किकता” दोनों ही मानववादी विचारकों को चुभती है । कुशलता लोक संगठन का एक मात्र लक्ष्य कभी नहीं हो सकती । लोक प्रशासन के संगठन में विभिन्न हितों की संतुष्टी, सेवा प्रदाय आदि अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य होते है और ऐसे अनेक लक्ष्यों की पूरी शृंखला मौजूद रहती है ।

साइमन ने अपनी इस कमी को बाद में पूरा करने का प्रयास किया जब कुशलता को मात्र उन निम्न स्तरीय कार्यवाहियों पर लागू किया, जहां उक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वास्तविक सम्पादन होता है । क्रिस आर्गराइरिस जैसे विद्वानों ने निर्णयन में तार्किकता पर अधिक बल देना तथा सामाजिक कारकों की उपेक्षा करने के कारण भी साइमन की आलोचना की । आगराइरिस के अनुसार निर्णयन में अन्तर्ज्ञान, परम्परा, विश्वास जैसे कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका में होते है ।

साइमन ने निर्णयन प्रक्रिया का जिन तीन चरणों में वर्णन किया है, वे भी कोई तयशुदा सत्य नहीं है । विभिन्न ने अनेक चरणों का उल्लेख किया है । उदाहरण के लिए राबिन्स एवं मणाक ने पाँच स्तर सुझाए है । साइमन ने इसमें निर्णय प्रक्रिया तथा निर्णय-निर्माण दोनों की उपेक्षा की है ।

इसी प्रकार सांगठनिक जटिलता को सुलझाने हेतु वे एक जटिल निर्णयन प्रक्रिया सुझाते है । इसलिए आलौचक कहते है साइमन पहले उलझाता है फिर सुलझाने का उपक्रम करता है। एक अन्य आलोचना मूल्य के उपर तथ्य की वरीयता को देता है ।

एक तरफ तो वे कहते है कि उच्च स्तरीय प्रशासन सामाजिक मानव होते है जो मूल्य प्रधान निर्णय लेते है । दूसरी तरफ निम्न स्तरीय कार्यकर्ता आर्थिक मानव होते है । जो तथ्य प्रधान निर्णय लेते है, मध्य स्तरीय प्रशासनिक मानव मूल्य-तथ्य दोनों का बराबर महत्व देते है । इस प्रकार से वे स्वयं ही इस बात को स्वीकार कर लेता है कि निर्णय में मूल्य और तथ्य स्थिर नहीं हो सकते ।

वस्तुत: बाद के निर्णयन मॉडलों ने साइमन को बहुत कम महत्व दिया है, यद्यपि साइमन की दृष्टि संगठन विश्लेषण की दृष्टि से आज भी प्रांसगिक है, बस जरूरत उसके आधार पर नव-साइमन सिद्धान्त के विकास की है जिससे निर्णयन प्रक्रिया को अधिकाधिक कारगर बनाया जा सके ।

उपर्युक्त विवेचना व्यवहारवाद की दिशा में साइमनी निर्णयन प्रक्रिया के यौगदान का रेखांकित करती है । वस्तुत: साइमन पहले व्यक्ति थे जिसने प्रशासनिक संगठन को अवैज्ञानिक और काल्पनिक आदर्शों से मुक्त किया । उन्होंने ही प्रशासनिक विज्ञान की प्राप्ति के लिए तार्किक और व्यवहारिक प्रयास किए ।

यद्यपि उनके दृष्टिकोण की अपनी सीमाएं है लेकिन जिसका कारण उसका निर्णय निर्माण मॉडल नहीं अपितु सामाजिक व्यवहार की गतिशीलता, जटिलता और वह तत्कालिकता जिसके कारण ऐसे वैज्ञानिक मॉडल अन्य सामाजिक विज्ञानों में अपनी सीमाएं रखते है ।